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आचार्य अजितसेनकृत- अलङ्कार चिन्तामणि का आलोचनात्मक अध्ययन
इलाहाबाद विश्वविद्यालय की डी० फिल० उपाधि हेतु प्रस्तुत शोधप्रबन्ध
प्रस्तुतकर्त्री
कु० अर्चना पाण्डेय
एम० ए० (संस्कृत-साहित्य )
निर्देशक
डॉ० चन्द्र भूषण मिश्र
प्रोफेसर ( संस्कृत - विभाग ) इलाहाबाद विश्वविद्यालय
RAMI
CHABAD SERO
TOT
ARBORE
संस्कृत विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
१९९८
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अध्याय
अध्याय
अध्याय
अध्याय
अध्याय
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अध्याय
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अध्याय 4
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2
उपसहार
3
5
6
7
अनुक्रमणिका
कवि का ऐतिहासिक परिचय, ग्रन्थकार का समय,
स्थान, वश व्यक्तित्व एव कृतित्व
कवि शिक्षा निरूपण
चित्रालहकार निरूपण
शब्दालङ्कारों का विवेचन
अलङ्कारों का वर्गीकरण तथा अर्याल कारों का
समीक्षात्मक विवेचन
काव्य रस, दोष तथा गुणादि निरूपण
नायक नायिकादि विमर्श
पृष्ठ संख्या
|
25
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-
85 - 100
24
101 -117
221
84
118 220
253
264
-
1
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252
263
265
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भूमिका
अलकार शास्त्र का प्रारम्भ कब से हुआ यह निश्चित रूप से नही कहा जा
सकता, तथापि जूनगढ (150 ईस्वी) मे उपलब्ध रुद्रदामन नामक शिलालेख से यह स्पष्ट है कि द्वितीय शताब्दी अथवा इसके पूर्व गद्य और पद्य रूप मे सस्कृत वाड् मय का उदय हो
चुका था
और उस समय मे काव्य रचनाएँ अलकृत और गुणों से युक्त होती थी क्योंकि
रुद्रदामन के शिलालेख मे स्फुट, मधुर कान्त, उदार गुणों का उल्लेख है जो काव्यादर्श के प्रसाद, माधुर्य कान्ति एव उदारता गुणो से तुलनीय है । इसके अतिरिक्त राजशेखर की काव्य मीमासा के एक उद्धरण से यह अवगत होता है कि सर्वप्रथम बृह्मा ने शिव को अलकार शास्त्र का ज्ञान कराया था, तत्पश्चात् शिव ने दूसरों को इसकी शिक्षा दी । पुन किस प्रकार से 18 (अठारह) अधिकरणों में इसे विभाजित किया गया तथा प्रत्येक अधिकरण की
शिक्षा किन-किन आचार्यों ने दी इसका उल्लेख काव्य मीमासा मे अविकल रूप से किया
गया है ।2 इन आचार्यों मे कतिपय आचार्य वात्स्यायन के कामशास्त्र मे भी वर्णित है ।
सुवर्णनाम और कुचुमार कामशास्त्र मे उपजीव्य आचार्यों के रूप मे उल्लिखित किए गये है।
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सर्वक्षत्राविस्कृतवीरशब्द जातोत्सेकाविधेयाना यौधेयाना प्रसह्योत्सा दकेन
शब्दार्थगान्धर्वन्यायाद्याना विद्याना
महतीना
महाक्षत्रपेण
रूद्रदाम्ना (। पृ0 44) ।
काव्यशास्त्र का इतिहास. पी0वी0 काणे, पृ0 416
का0मी0 , प्रथम अध्याय, पृ० ।
का0 सू०, I/I/13-16
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इसके अतिरिक्त वेद मे भी ऐसे अनेक स्थल प्राप्त होते है जहाँ अलकार के लिए 'अलकृत' या 'अलकृति' पदो पदो का उल्लेख प्राप्त होता है । '
शतपथ ब्राह्मण मे स्पष्ट रूप से 'अलकार' पद का उल्लेख प्राप्त होता है | 2 वेदो मे अलकार तत्व :
आलकारिक तत्वों की उपलब्धि वैदिक ऋचाओं मे दर्शनीय है । उषा विषयक
3
ऋचा मे चार उपमाएँ एक साथ दी गयी है ।
निरुक्त मे उपमा निरुक्तकार यास्क ने पाच प्रकार की उपमाओ का उल्लेख किया है । उपमा द्योतक निपात् इव, यथा, चित्, न, उ और आ है । इन वाचक पदों के प्रयोग मे यास्क के अनुसार कर्मोपमा होती है 14
3
4
-
(क) वायवायाहि दर्शतेमेसोमा अरकृता । ऋग्वेद 1,2,1
(ख) अस्यरकृति सूक्ते । वही, 7, 29, 3
(ग) तवमग्ने द्रविणोदा अरकृते । वही, 2, 1, 7
आ जनाम्य जनेप्रयच्छन्त्येषा हमानुषो लकारस्तेनैव त मृत्युमन्तर्दधते शतपथब्रा०
DIO, 13/8/7, पृ० 1792
ऋग्वेद, 1/124/6
(क) निरुक्त 3/15
(ख) वही 3 / 13
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गार्ग्य निरुक्त कार यास्क से भी प्राचीन माने जाते है । इनके अनुसार उपमा
वहाँ होती है जहाँ एक वस्तु दूसरी वस्तु से भिन्न होते हुए भी उसी के सदृश हो ।'
साख्यसूत्र मे तो उपमाओं का प्रयोग आख्यायिकों के सन्दर्भ मे बहुलता से
हुआ है 12
पाणिनि और उपमा - पाणिन की अष्टाध्यायी मे उपमा, उपमान, उपमिति तथा समान्य
शब्दों का प्रयोग भी है जो अलकारशास्त्र के पारिभाषिक शब्द है ।
उपर्युक्त उद्धरणों से विदित होता है कि अलकार, रस, गुण आदि सम्पूर्ण
काव्य तत्वों की उपलब्धि वाड्.मय मे होती रही किन्तु इस प्रकार का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ
उपलब्ध नही होता था जिसमे इन तत्वों का निरूपण हुआ हो, अत इस परिस्थिति मे भरत
मुनि का नाट्यशास्त्र ही आदि उपलब्ध प्रथम ग्रन्थ है और उन्हे ही काव्य शास्त्र के आद्य
आचार्य के रूप मे स्वीकार करना समीचीन प्रतीत होता है । आचार्य भरत के पश्चात्
भामह, दण्डी, उद्र्भट, वामन, रुद्रट, आनन्द वर्धन कुन्तक, क्षेमेन्द्र, भोज , मम्मट, रूय्यक शोभाकर मिश्र, वाग्भट ,जयदेव, विद्यानाथ , विश्वनाथ , अप्पयदीक्षित, पण्डित राज जगन्नाथ तथा
विश्वेश्वर पर्वतीय तक अर्थात् ईसा पूर्व 200 से 18 वी शती तक अविकल रूप से काव्य
शास्त्रीय लक्षण ग्रन्थों का निर्माण होता रहा । ऐसे ही आचार्यो मे आचार्य अजितसेन अनन्यतम
आचार्य थे जिन्होंने अलकार चिन्तामणि में काव्यशास्त्रीय सम्पूर्ण तत्वो का सोदाहरण निरूपण
किया साड् गीण काव्यशास्त्रीय विषयों का प्रतिपादन होने के कारण इस पर अनुसन्धान करने की की अभिरूचि उत्पन्न हुई । अत मैने शोध प्रबन्ध को 8 अध्यायो मे विभक्त कर अनुसन्धान कार्य को प्रारम्भ किया । प्रथम अध्याय मे कवि का ऐतिहासिक परिचय, द्वितीय मे कवि शिक्षा निरूपण, तृतीय मे चित्रालकार, चतुर्थ मे शब्दालकार, पचम मे अलकारों का वर्गीकरण तथा उनकी समीक्षा की गयी है ।
निरू0 3/13
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अध्याय छ मे रस, दोष तथा गुण का निरूपण किया गया है । सातवे अध्याय मे नायकादि के स्वरूप का विवेचन किया गया है आठवा अध्याय उपसहार के रूप
ग्रन्थ के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि इनके ग्रन्थ पर आचार्य भामह,
दण्डी, भोज, मम्मट तथा वाग्भट का प्रभाव है । कतिपय दोषों पर भामह का स्पष्ट प्रभाव है । उपमा निरूपण के सन्दर्भ मे दण्डी द्वारा निरूपित उपमा भेदों का अजितसेन
ने क्रम से निरूपण किया है । दोष निरूपण के प्रसंग मे मम्मट का स्पष्ट प्रभाव है । परवर्ती काल मे आचार्य विद्यानाथ अजितसेन से अधिक प्रभावित दिखाई देते है ।
अनुसन्धान करते समय अनुसन्धात्री की मौलिक प्रवृत्ति का प्राधान्य रहे - ऐसा ध्यान
दिया गया है ।
अनुसन्धान क्षेत्र मे जिन गुरुजनों ने अपना योगदान दिया । उनके प्रति आभार प्रकट करना मै अपना कर्तव्य समझती हूँ । सर्वप्रथम मै अपने पिता श्री शिवश्याम पाण्डेय (प्रधानाचार्य, ऋषिकल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय इलाहाबाद) एव माता श्रीमती रन्नो देवी पाण्डेय (अध्यापिका, विद्यावती दरबारी बालिका इण्टर कालेज) के प्रति आजीवन ऋणी हूँ, जिनके अपार स्नेहिल प्रेम के फलस्वरूप ही यह अनुसन्धान कार्य
सम्पन्न हो सका ।
शोधकार्य मे प्रवृत्त होने पर मै अपने श्रद्धय गुरू डा0 चन्द्रभूषण मिश्र (प्रोफेसर इलाहाबाद विश्वविद्यालय) के प्रति श्रद्धावनत हूँ, जिनसे मुझे समय-समय पर अपेक्षित सहायता एव प्रेरणा मिली ।
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इसके अतिरिक्त अपने गुरुजन डा0 राजेन्द्र मिश्र (प्रो0 एव अध्यक्ष-शिमला विश्वविद्यालय) डा0 हरिशंकर त्रिपाठी, डॉ0 रामकिशोर शास्त्री, डॉ0 कौशल किशोर श्रीवास्तव, डा0 शकरदयाल द्विवेदी, डा0 राजलक्ष्मी वर्मा, डॉ0 मृदुला त्रिपाठी, डॉ0 ज्ञानदेवी श्रीवास्तव (प्रो0 एव अध्यक्ष) डॉ0 सुरेशचन्द्र पाण्डेय (भू0पू0 प्रो0 एव अध्यक्ष) डॉo सुरेशचन्द्र श्रीवास्तव (भू0पृ0 प्रो0 एव अध्यक्ष) डा0 नसरीन, डाठे मजुला वर्मा, डॉ0 हरिदत्त शर्मा, डॉ0 वीरेन्द्र कुमार सिह (सभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय) के सुझाव, निर्दशन ओर सहायता के लिए उनके प्रति मै श्रद्धावनत तथा कृतज्ञ हूँ ।
डॉ बलभद्र त्रिपाठी (निदेशक-सस्कृत शोध सस्थान फैजाबाद) के प्रति आभार प्रकट करना मै अपना कर्तव्य समझती हूँ जो अनुसन्धात्री को सदा प्रोत्साहन एव सत्प्रेरणाएँ देते रहे । कविराज डॉ० जनार्दन प्रसाद पाण्डेय (साहित्य-विभागाध्यक्ष-बी0एन0 मेहता सस्कृत महाविद्यालय प्रतापगढ) से विषय की क्लिष्टता को दूर करने एव शोधप्रबन्ध की सम्पन्नता मे जो सहायता मिली वह अविस्मरणीय
डॉ० सोम प्रकाश पाण्डेय
- मुनीश्वरदत्त स्नातकोत्तर महाविद्यालय
प्रतापगढ) के प्रति भी मै अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ जिनसे मुझे प्रोत्साहन एव
अपेक्षित सहयोग मिलता रहा ।
प्रत्यक्ष एव परोक्ष रूप से शोध प्रबन्ध प्रस्तुत करने में जिन विद्वानों एव
सहृदय काव्यमर्मज्ञों का सहयोग रहा उनके प्रति भी मै अपना आभार प्रदर्शित करती हूँ ।
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अध्याय - ।
कवि का ऐतिहासिक परिचय ग्रन्थकार का समय, स्थान, वंश व्यक्तित्व एव कृतित्व
भारतीय संस्कृत वाङमय के अनेक लेखक जिसमे विशेष रूप से प्रारम्भिक
काल के लेखक इतने नि स्पृह एव गर्व शून्य रहे है कि उच्चकोटि के ग्रन्थ निर्माण करने पर भी अपने जीवन वृत्त के विषय में कहीं भी कुछ नहीं लिखा । अपनी प्रसिद्धि के विषय मे तो उन्होंने कभी सोचा ही नहीं । इसी कारण अनेक संस्कृत लेखकों का साहित्य मे स्थान निर्धारण करने के लिए इतिहासकारों को निश्चित प्रमाणों के अभाव मे विविध उपायों का आश्रय लेना पडता है । इन उपायों को स्थूल रूप
से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है ।
।
किसी एक कवि के समग्र ग्रन्थों मे उपलब्ध परिस्थितियों एव लेखों का
आधार । जिसे अन्तर्साक्ष्यों का भी आधार कहा जा सकता है ।
121
दूसरे अनेक ग्रन्थों के उल्लेखों, शिलालेखों एव उद्धरणों का आधार जिसे
वाह्य साक्ष्यों का आधार कहा जा सकता है ।
किसी कवि या ग्रन्थकार के जीवन-काल को निर्धारित करने के लिए दोनों ही प्रकार के उपायों का आश्रय लिया जा सकता है । कोई भी कवि या ग्रन्थकार अपने समय की सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, साहित्यिक तथा अन्य परिस्थितियों से पृथक नही रह सकता । यदि कोई कवि न चाहे तो समाज, राजनीति, धर्म, साहित्य
आदि तत्व उसके ग्रन्थों मे अदृश्य रूप से समाहित हो जाते है ।
और जो कवि
अपने चारों ओर के वातावरण पर अपनी दृष्टि अच्छी तरह डालकर ही अपने ग्रन्थों
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की रचना करे उसके विषय मे कहना कि क्या । इसीलिए किसी विशेष लेखक या कवि के ग्रन्थों मे तत्कालीन परिस्थितियों एव उल्लेखों का अनुसन्धान उस लेखक के समय निर्धारण करने में विशेष सहायक होता है ।
संस्कृत के महान साहित्यकार आचार्य अजित सेन का
समय निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है तथापि इतिहासकारों तथा अन्य तर्को के माध्यम से इस सन्दर्भ मे विचार किया जा रहा है ।
आचार्य अजित सेन ने काव्य स्वरूप के निर्धारण में आचार्य वामन द्वारा स्वीकृत रीति तथा आनन्द वर्धन द्वारा निरूपित व्यग्यार्थ का भी उल्लेख किया है ।
आचार्य वामन जयापीड के सचिव थे । इनका समय 750 ई0 से 850 स्वीकार किया गया है। 2
आचार्य आनन्द वर्धन कशमीर नरेश अवन्तिवर्मा के सम-सामयिक थे 13 अवन्ति वर्मा का समय 855 ई0 से 884 ई0 तक माना जाता है अत का समय नवम् शताब्दी का मध्य अथवा उत्तरार्द्ध स्वीकार किया जाता है 14
आनन्दवर्धन
1
2
3 (क)
4
शब्दार्थालकृतीद्ध नवरसकलित रीतिभावाभिरामम् ।
व्यग्याद्यर्थं विदोष गुणगणकलित नेतृसवर्णनाढयम् ।।
अलकारशास्त्र परम्परा पृ०
मुक्ताकण शिवस्वामी कविरानन्दवर्धन ।
प्रथमरत्नाकरश्चागात् साम्राज्येऽवन्तिवर्मण • ।।
अलकारशास्त्र परम्परा पृ०
-
-
41
65
अ०चि0 1/7 पूर्वाद्ध
राजतरगिणी 2/4
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इसके अतिरिक्त आचार्य अजित सेन ने वाग्भट प्रणीत वाग्भटालकार से
कतिपय श्लोकों को उद्धृत किया है जो अक्षरश अनुकृत है जिसका विवरण इस
प्रकार है -
वाग्भटालकार परि0 2/1
सस्कृत प्राकृत तस्यापभ्रशो भूतभाषितम् । इति भाषाश्चतस्रोऽपि यान्ति काव्यस्य कायताम् ।। सस्कृत स्वर्गिणा भाषा शब्दशास्त्रेषु निश्चिता । प्राकृत तज्जतत्तुल्यदेश्यादिकमनेकधा ।। अपभ्रशस्तु यच्छुद्ध तत्तद्देशेषु भाषितम् । यद्भूतैरुच्यतेकिञ्चित्तदभौतिकमितिस्मृतम् ।।
वाग्भटालकार परि02/2
वही परि0 2/3
'श्रीवेकटेश्वर' स्टीम्-यन्त्रालयमै उक्त श्लोक अलकार चिन्तामणि के द्वितीय परिच्छेद मे भी क्रमश उद्धृत है ।'
श्री प्रभा चन्द्रमुनि रचित 'प्रभावक चरित' मे वाग्भट के सम्बन्ध मे उल्लेख
मिलता है जहाँ यह बताया गया है कि 'वाहड वाग्भट्ट एक धनवान तथा धार्मिक व्यक्ति थे । उन्हेने अपने गुरु से जेन मन्दिर के निर्माणार्थ निवेदन किया ओर कहा कि आप मुझे जिनालय के निर्माण की अनुमति प्रदान करे जिससे द्रव्य-व्यय सार्थक
हो सके । इस प्रकार इन्होंने 1178 वि० सम्वत मे जिनालय का निर्माण कराया
जिसका उल्लेख इस प्रकार है -
अ०चि0 2/119, 120, 121 तुलनीय वाग्भटालकार 2/1, 2, 3
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अथास्ति वाहडोनामधनवान् धार्मिकाग्रणी । गुरपादान् प्रणम्याथ चक्रे विज्ञापना मसौ ।। आदिश्यतामतिश्लाध्य कृत्ययत्रधनव्यये । प्रभुराहालये जैने द्रव्यस्य सफलो व्यय 11 आदेशानन्तर तेनाकार्यत श्रीजिनालय । हेमाद्रिधवलस्तुड गोदीप्यत्कुम्भ महामणि ।। श्रीमता वर्धमानस्यवीभर - द्विम्वमुत्तमम् । यत्तेजसा जिताश्चन्द्र कान्तमणिप्रभा ।। शतैकादशके साष्टसप्ततौ विक्रमार्कत । वत्सराणा व्यतिकान्ते श्रीमुनि चन्द्र सूरय ।। आराधनाविधिश्रीष्ठ कृत्वा प्रायोपवेशनम् । शमपीयूष कल्लोलप्तुतास्ते त्रिदिवययु ।। वत्सरेतत्र चेकेन पूर्णेश्रीदेव सूरिभि । श्रीवीरस्य प्रतिष्ठा स वाह डोकार यन्मुदा ।।
इस प्रकार वाग्भट का समय 12वीं शती का पूर्वाद्ध सिद्ध होता है ।
'प्रभावक चरित' की ये पक्तियाँ भी वाग्भट के उपर्युक्त कार्यकाल की
पुष्टि करती है
1
2
-
अणहिल्लपुर प्रापक्ष्माप प्राप्तजयोदय ।
महोत्सव प्रवेशस्य गजारूढ सुरेन्द्रवत् ।।
वाग्भटस्य विहार स ददृशे दृग्रसायनम् ।
अन्यद्युर्वाग्भटामात्य धर्मान्यन्ति कवासन 11
अपृच्छताáताचारोपदेष्टार गुरू नृप ।
श्रीमद्वाग्भटदेवाऽपि जीर्णोद्धारमकारयत्
शिखीन्दुरविवर्षे 12130 च ध्वजारोपं व्यधापयत् ।। 2
वाग्भटालकार, भूमिका, पृष्ठ 4, डॉ० सत्यव्रत सिह वाग्भटालकार, भूमिका, पृष्ठ 5, डॉ0 सत्यव्रत सिह ।
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इस प्रकार उक्त उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है कि अमात्य प्रवर वाग्भट ने विक्रम संवत् 1213 0 1157 ई0 | मे जैन विहार का जीर्णोद्धार किया और एक ध्वजस्तम्भ की स्थापना की । इससे यह सिद्ध होता है कि 1157 ई० मे विद्यमान थे ।
वाग्भट
उक्त उद्धरण से यह सुनिश्चित हो जाता है कि आचार्य अजित सेन आचार्य वाग्भट के पश्चात् बारहवीं शताब्दी मे रहे होंगे ।
इसके अतिरिक्त आचार्य विद्यानाथ के 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' मे निरूपित उपमा तथा रूपक अलकार पर अजित सेन का सर्वाधिक प्रभाव परिलक्षित हो रहा है । आचार्य अजित सेन द्वारा निरूपित उपमा इस प्रकार है
'वर्णस्य साम्यमन्येन स्वत सिद्धेन धर्मत ।
भिन्नेन सूर्यभीष्टेन वाच्य यत्रोपमैकदा ।।'
स्वतो भिन्नेन स्वत सिद्धेन विद्वत्समतेन अप्रकृतेन सह प्रकृतस्य यत्र धर्मत सादृश्य
सोपमा 1 स्वत
अप्रसिद्धस्याप्युत्प्रेक्षायामनुमानत्वघटनात्।।
स्वतो भिन्नेनेत्यनेनानन्वयनिरास
1 वस्तुन एकस्यैवानन्वये उपमानोपमेयत्वघटनात् ।
सिद्धेनेत्यनेनोत्प्रेक्षानिरास
सूर्यभीष्टेनेत्यनेन हीनोपमादिनिरास ।
11
विद्यानाथ द्वारा निरूपित उपमा इस प्रकार है
स्वत सिद्धेन भिन्नेनसमतेन च धर्मत ।
साम्यमन्येन वर्ण्यस्य वाच्य चेदेकदोपमा ।।
अ०चि0 4 / 18 तथावृत्ति
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यत्र स्वत सिद्धन स्वतो भिन्नेन सहृदयसमतेनाप्रकृतेन स प्रकूतस्य धर्मत - सादृश्यमेकदा वाच्य चेद् भवति तत्रोपमा । स्वत सिद्धेनेत्यनेनोत्प्रेक्षाव्यावृत्ति । उत्प्रेक्षायामप्रसिद्धस्याप्युपमानत्वसभवात् ।
प्रतापरुद्रीयम् - पृ0 414
अजित सेन द्वारा निरूपित रूपक का लक्षण
अतिरोहितरूपस्य व्यारोपविषयस्य यत् ।
उपरञ्जकमारोप्य रूपक तदिहोच्यते ।।
मुख चन्द्र इत्यादौ मुखमारोपस्य विषय आरोप्पश्चन्द्र अतिरोहितरूपस्येत्यनेन विषयस्य संदिह्यमानत्वेन तिरोहित रूपस्य, सदेहस्य, भ्रान्त्याविषयतिरोधानरूपस्य भ्रान्तिमत अपह्नवनारोपविषयतिरोधान रूपस्यापह्नवस्यापि च निराश । व्यारोपविषयस्येत्यनेनोत्प्रेक्षादेरध्यवसायगर्भस्योपमादीनामनारोपहेतुकाना व्यावृत्ति ।। उपरञ्जकमित्यतेन परिणामालकारनिरास । तत्र प्रकृतोपयोगित्वेनारोप्यमाणस्यान्वयो न प्रकृतोपरजकतया । विलक्षणमिदमित सर्वेभ्य सादृश्यमूलेभ्य । तत्तु सावयव निरवयव परम्परितमिति त्रिधा । सावयव पुनर्द्विधा समस्तवस्तुविषयमेकदेशविवर्ति चेति । निरवयव च केवल मालारूप चेति द्विधा । परम्परितमपि श्लिष्टाश्लिष्टहेतुत्वेन द्विधा । तवयमपि केवलमालारूपत्वेन चतुर्विधमित्यष्टविध रूपकम् । यत्र सामस्त्येनावयवानामवयविनश्च निरूपण
तत्समस्तवस्तुविषयम् ।
अचि0 4/104 तथावृत्ति
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विद्याधर द्वारा निरूपित रूपक
आरोपविषयस्य स्यादतिरोहितरूपिण ।
उपरञ्जकमारोप्यमाण तद्रूपक मतम् ।।
अत्रारोपविषयस्येत्यनेन अध्यवसायगर्भस्य उत्प्रेक्षादे अनारोप मूलाना चोपमादीना व्यावृत्ति । अतिरोहितरूपण इत्यनेन संदेह भ्रान्तिमदपह्नुति प्रमुखाणा व्यावृत्ति I संदेहालका विषयस्य संदिह्यमानतया तिरोधानम् 1 भ्रान्तिमदलकारे भ्रान्त्या विषयतिरोधानम् । अपह्नुत्यालकारेऽपह्न वेनारोपविषयतिरोधानम् । उपरञ्जकमित्यनेन परिणामालडकारव्यावृत्ति । परिणामे आरोप्यमाणस्य प्रकृतोपर्योगत्वेनान्वयो न प्रकृतोपरञ्जकत्वेन । अत सादृश्यमूलेभ्य सर्वेभ्यो विलक्षण रूपकम् । तस्य प्रथम त्रैविध्यम् -
- सावयव
निवयव परम्परितचेति 1 सावयव द्विविधम्
समस्तवस्तुविषयमेकदेशविवर्ति चेति
निरवयव द्विविघ् केवल मालारूप चेति । परम्परितस्यापि श्लिष्ट निबन्धनत्वेनाश्लिष्टनिबन्धनत्वेन च द्वैविध्यम् । तयोरपि प्रत्येक केवल मालारूपतया चातुर्विध्यम् । एवमष्टध
रूपकालकार 1
-
प्रतापरूद्रीयम् पृ०
-
1
443-444
आचार्य विद्यानाथ ने प्रताप रूद्रदेव की प्रशस्ति मे 'प्रतापरुद्रयशो भूषण' नामक काव्यशास्त्रीय लक्षणग्रन्थ का निर्माण किया । जिससे लक्ष्य के रूप मे प्रतापरुद्रदेव के यश तथा प्रताप का वर्ण है । प्रताप रूद्रदेव ने यादव वश (देवगिरि के रामदेव1271 से 13090 के सेवण को पराजित किया इस घटना से और अन्य शिलालेखों से यह पता चलता है कि प्रताप रूद्रदेव तेरहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण मे और
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चौदहवीं शताब्दी के प्रथम चरण मे राज्य करते थे । मोहम्मद तुगलक की सेना
1323 ई0 मे उन्हे बन्दी बना लिया इसलिए 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' की रचना 14वीं शताब्दी के प्रथम चरण मे हुई होगी ।। इससे सुनिश्चित हो जाता है कि आचार्य अजितसेन तेरहवीं शताब्दी के पूर्व विद्यमान थे। क्योंकि 13वीं शताब्दी के पश्चात् उनके समय का कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता । जैसा कि पूर्व पृष्ठ पर यह उल्लेख किया गया है कि आचार्य विद्यानाथ ने अजितसेन कृत अलकार चिन्तामणि से सर्वाधिक प्रभावित रहे है ।
उक्त समग्र उद्धरणों के परिशीलन से यह सुनिश्चित हो जाता है कि आचार्य अजितसेन 1157 ई0 मे विद्यमान वाग्भट द्वारा प्रणीत "वाग्भटालकार' से श्लोकों को उद्धृत किया है अत इनकी पूर्व सीमा 1157 ई० सुनिश्चित की जा सकती है क्योंकि इसके पूर्व इनके अस्तित्व का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता ? और तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध मे तथा चौदहवीं शताब्दी के आदि मे विद्यानाथ ने अलकार चिन्तामणि से प्रभावित प्रतीत होते है । किसी ग्रन्थ की प्रसिद्धि मे 50 वर्षों का समय तो लग ही सकता है ऐसी स्थिति मे आचार्य अजितसेन का समय बारहवीं शताब्दी के प्रथम चरण से तेरहवी शताब्दी तक स्वीकार करना समीचीन प्रतीत
होता है ।
डॉ0 नेमिचन्द्र शास्त्री ने अजितसेन के सम्बन्ध मे निम्नलिखित तथ्यों
को प्रस्तुत किया है
1
-
संस्कृतकाव्यशास्त्र का इतिहास
पी0वी0 का
yo-366
Page #16
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"न0 40, सन् 1077 मानस्तम्भ पर - चट्टलदेवी ने कमलभद्र पण्डितदेव
के चरण धोकर भूमि दी । पचकूट जिन मन्दिर के लिए विक्रमसान्तरदेव ने अजितसेन पण्डितदेव के चरण धोकर भूमि दी ।"।
"न0 3, सन् 1090 के लगभग पोप्पग्राम - इस स्मारक को अपने गुरू मुनि वादीभसिह अजितसेन की स्मृति मे महाराज मारसान्तरवशी ने स्थापित
किया । यह जैन आगमरूप समुद्र की वृद्धि मे चन्द्रमासमान था ।"2
"न0 192, सन् ।।03 - चालुक्य त्रिभुवनमल्ल के राज्य मे उग्रवशी अजबलिसान्तर ने पीम्बुच्च मे पचवस्ति बनवायी । उसी के सामने अनन्दूर मे चट्टल देवी और त्रिभुवनमल्ल - सान्तरदेव ने एक पाषाण की वस्ति द्रविलसघ अरूगलान्वय
के अजितसेन पण्डितदेव - वादिघरटटके नाम से बनवायी ।"
"न0 83, सन् ।।17 - चामराज नगर मे पार्श्वनाथ वस्ति मे एक पाषाण पर जब द्वारावती ,हलेबीडु मे वीरगग विष्णुवर्धन विट्टिग होयसलदेव राज्य करते थे तब उनके युद्ध और शान्ति के महामत्री चाव और अरसिकव्वेपुत्र पुनीश राजदण्डाधीश था । यह श्री अजितमुनियति का शिष्य जैन श्रावक था तथा यह इतना वीर था कि इसने टोड को भयवान किया, कोंगों को भगाया, पल्लवों का वध किया,
मद्रास व मैसूर प्रान्त के प्राचीन जैन स्मारक - पृ0-320 - उद्धृत अलकारचिन्तामणि - प्रस्तावना पृ0 - 29 वही - पृ0 स0 291 - उद्धृत अचि0 प्रस्तावना पृ0 29 । वही - पृ0 स0 325 - उद्धृत अचि0 प्रस्तावना पृ0 29 ।
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मलयालों का नाश किया, कालराज को कम्पायमान किया तथा नीलगिरि के ऊपर जाकर विजय की पताका फहरायी ।"
"न0 103, सन् ।।20 सुकदरे ग्राम मे लक्कम्म मन्दिर के सामने पाषाण पर । माता एचले के पुत्र अत्रेयगोत्री जक्किसेट्टि ने अपने सुकदरे ग्राम मे एक जिनालय बनवाया व उसके लिए एक सरोवर भी बनवाया तथा दयापालदेव के चरण धोकर भूमिदान की । इसके गुरु अजितमुनि यति थे जो द्रविल सघ मे हुए, जिसमे समन्तभद्र, भट्टाकलक, हेमसेन, वादिराज व मल्लिसेण मलधारी हुए ।"
"न0 37, सन् ।।47, तोरणवागिल के उत्तर खम्भे पर । - जगदेवमल्लके राज्य में राजा तैलसान्तर जगदेकदानी हुए । भार्या चट्टलदेवी इनके पुत्र श्री वल्लभराज या विक्रमसान्तर त्रिभुवनदानी पुत्री पम्पादेवी थी । पम्पादेवी महापुराण मे विदुषी थी .... । पम्पादेवी ने अष्टाविधार्चन महाभिषेक व चतुर्भक्ति रची । यह द्रविलसघ नन्दिगण अरूगलान्वय, अजितसेन, पण्डितदेव या वादीभसिह की शिष्या श्राविका थी । पम्पादेवी के भाई श्री वल्लभराज ने वासुपूज्य सी0 देव के चरण धोकर दान किया ।"3
"न0 130, लगभग सन् ।।47 ई0 इस बस्ति के द्वार पर । श्री अजितसेन भट्टारक का शिष्य बडा सरदार पर्मादि था । उसका ज्येष्ठ पुत्र भीमप्य, भार्या। देवल
मद्रास व मैसूर प्रान्त के जैन स्मारक, पृ0 - 186, उद्धृत अलकार चिन्तामणि, पृष्ठ सख्या 29
वही - पृ0स0 - 202, उद्धृत - अ०चि0 पृ0 - 29 ।
वही - पृ0स0 - 319, उद्धृत - अचि0 पृ0 - 30 ।
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थे । उनके दो पुत्र थे - मसन सेट्टि और मारिसेट्टि । मारिसेट्टि ने दोरसमुद्र मे
एक उच्च जैन मन्दिर बनवाया ।"
न0 1, सन् ।।69 ई0, ग्राम वन्दियर । ? । म-+ जैन बस्ती के पाषाण पर । इस समय होयसल बल्लादेव दोरसमुद्र में राज्य कर रहे थे । यहाँ मुनि वशावली दी है । श्री गौतम भद्रबादु, भूतबलि, पुष्पदन्त, एकसन्धि सुमतिभ, समन्तभद्र, भट्टाकलकदेव, वक्रग्रीवाचार्य, वज्रनन्दि भट्टारक, सिहनन्द्याचार्य, परिवादिमल्ल, श्रीपालदेव, कनकसेन, श्री वादिराज, श्री विजयदेव, श्रीवादिराजदेव, अजितसेन, पण्डितदेव ---- ।"2
उपर्युक्त अभिलेखों में उल्लिखित अजितसेन का समय ई0 सन् 107 से ई0 सन् 1170 तक है । इस प्रकार तिरानबे वर्षों का काल, उनका कार्यकाल आता है । यदि इस कार्यकाल के पूर्व बीस - पच्चीस वर्ष की आयु के भी रहे हों तो उनका आयुकाल एक सौ अठारह वर्ष के करीब पहुंच जाता है । अभिलेखों मे स्पष्ट लिखा हुआ है कि विक्रम सान्तरदेव ने अजितसेन को मान्यता प्रदान की। इस प्रकार अजितसेन का समय ईसवी सन् की ग्यारहवी - बारहवी शती सिद्ध होता है । पर अलकार चिन्तामणि के रचयिता ने जिनसेन, हरिचन्द्र, वाग्भट, अर्हद्दास और पीयूष वर्ष आदि आचार्यों के श्लोक उद्धृत किये है । इन उल्लिखित आचार्यों
मद्रास व मैसूर प्रान्त के जैन स्मारक, पृ0स0 - 273, उद्धृत अचि० पृ0 - 30 । मद्रास व मैसूर प्रान्त के प्राचीन जैन स्मारक, पृ० - 279 - उद्धृत अलकार चिन्तामणि प्रस्तावना - पृ0 - 301
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मे अहदास का समय विक्रम की तेरहवी शती का अन्तिम चरण है । अत अजित सेन का समय इसके पश्चात् होना चाहिए । पोम्बुच्च से प्राप्त पूर्वोक्त अभिलेखों मे निर्दिष्ट अजित सेन का समय ईसवी सन् की बारहवी शती है । अत उक्त अजितसेन
अलकार चिन्तामणि के रचयिता नहीं हो सकते ।
"श्रवणबेलगोला के तीन अभिलेखों मे अजितसेन का उल्लेख आया है।
अभिलेख सख्या अडतीस मे बताया गया है कि गगराज मारसिह ने कृष्णराज तृतीय के लिए गुर्जर देश को जीता था । उसने कृष्णराज के विपक्षी अल्लंका मद चूर किया, विन्ध्य पर्वत की तलहटी मे रहने वाले किरातों के समूह को जीता और मान्यखेट मे कृष्णराज की सेना की रक्षा की । इन्द्रराज चतुर्थ का अभिषेक कराया, पाताल मल्लके कनिष्ठ भ्राता वज्जल को पराजित किया, वनवासी नरेश की धनसम्पत्ति का अपहरण किया, माटूरवश का मस्तक झुकाया और नोलम्ब कुल के नरेशों का सर्वनाश किया । इतना ही नहीं उसने उच्चगि दुर्ग को स्वाधीन कर रावराधिपति नरग का सहार किया, चौड नरेश राजादित्य को जीता एव चेर, चोड, पाण्ड्य और पल्लव नरेश को पराजित किया । इसने अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराया । अन्त मे राज्य का परित्याग कर अजितसेन भट्टारक के समीप तीन दिवस तक सल्लेरवना
व्रत का पालन कर बकापुर मे देहोत्सर्ग किया ।
धर्म मागल नमस्य नडयिसिबलियमोन्दुवर्ष राज्यम पत्तुविटु बकापुरदोल् अजितसेनभट्टारकर श्रीपादसन्निधियोल् आराधनाविधियिमूरूदे सनोनतु समाधिय साधिसिद ।।।
।
जेनशिलालेख सग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख स0-38 पृ0-20-उधृत अलकार चिन्तामणि - प्रस्तावना - पृ0 - 31
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यह अभिलेख शक सम्वत् 896 ई0 का है । अत अजितसेन का समय ईसवी सन् की दशम शती सिद्ध होता है । इस प्रकार यह अजितसेन भी अलकारचिन्तामणि के रचयिता नहीं हो सकते है ।
अजितसेन का नामोल्लेख है 1 अत
है ।
इसके अतिरिक्त शक् सम्वत् 1050 मे अकित मल्ल श्रेणप्रशस्ति में भी अजितसेन का समय 12वीं शती सिद्ध होता
डॉ0 ज्योति प्रसाद जी ने अजितसेन का परिचय देते हुए लिखा है कि अलकार चिन्तामणि के रचयिता अजितसेन यतीश्वर दक्षिणदेशान्तर्गत तुलुव प्रदेश के निवासी सेनगण पोगरिगच्छ के मुनि सम्भवतया पार्श्वसेन के प्रशिष्य और पद्मसेन के गुरू महासेन के सधर्मा या गुरू थे 12
अजितसेन के नाम से श्रृगारमञ्जरी नामक एक लघुकाय अलकार ग्रन्थ भी प्राप्त है । इस ग्रन्थ मे तीन परिच्छेद है । कुछ भण्डारों की सूचियों मे यह ग्रन्थ 'रायभूप' की कृति के रूप मे उल्लिखित है । किन्तु स्वयं ग्रन्थ की प्रशस्ति से स्पष्ट है कि शृगारमजरी की रचना आचार्य अजितसेन ने शीलविभूषणा रानी विट्ठल
I
2
सकल- भुवनपालानम्र - मूर्द्धावबद्धस्फुरित - मुकुट - चूडालीढ - पादारविन्द
मदवदलिख- वादीभेन्द्र-कुम्भप्रभेदी
गणभृदजितसेनों भाति वादीभसिह ।।
जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख स0 40, पद्य 57, पृ०स० 111, उद्घृत चि प्रस्तावना
जैनसन्देश शोधाक 22 नवम्बर 20, सन् 1958, पृ0स0 691
-
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देवी के पुत्र और 'राय' नाम से विख्यात सोमवशी जैन नरेश कामिराय के पढने के
लिए सक्षेप मे की है । प्रशस्तिपद्य निम्न प्रकार है
-
राज्ञी विट्ठलदेवीति ख्याता शीलविभूषणा ।
तत्पुत्र कामिरायाख्यो 'राय' इत्येव विश्रुत ।।
तद्भूमिपालपाठार्थमुदितेयमलंकिया ।
सक्षेपेण बुधैर्येषा यद्भात्रास्ति (20 विशोध्यताम् ।।
ה
श्रृगारमञ्जरी की दो प्रतियाँ उपलब्ध है 1
'श्रीमदजितसेनाचार्य - विरचिते शृगारमजरीनामालकारे तृतीय
एक प्रति के अन्त मे
परिच्छेद ' तथा दूसरी प्रति
शृगारमञ्जरीनामालकारोडयम्"
मे "श्रीसेनगणाग्रगण्यतपोलक्ष्मीविराजिताजितसेनदेवयतीश्वरविरचित लिखा है । विजयवर्णी ने राजा कमिराय के निमित्त श्रृगारार्णवचन्द्रिका ग्रन्थ लिखा है । सोमवशी कदम्बों की एक शाखा वग वश के नाम से प्रसिद्ध हुई । दक्षिण कन्नड जिले तुलु प्रदेश के अन्तर्गत वगवाडपर इस वश का राज्य था । बारहवींतेरहवीं शती के तुलुदेशीय जैन राजवशों मे यह वश सर्वमान्य सम्मान प्राप्त किये हुए था । इस वश के एक प्रसिद्ध नरेश वीर नरसिह वगराज (1157-1208 ई० 0 के पश्चात् चन्द्रशेखरवश और पाण्ड्यवग ने क्रमश राज्य किया । तदनन्तर पाण्ड्यवग की बहन रानी विट्ठलदेवी 11239-440 राज्य की सचालिका रही और सन् 1245
जैनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, वीर सेवा मन्दिर, ई0 सन् 1954, पृ0 90, पद्य 46-47 | उद्धृत - अ०चि० प्रस्तावना पृ०स० 320
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मे इस रानी विट्ठलम्बाका पुत्र उक्त कामिराय प्रथमवगनरेन्द्र राजा हुआ । विजयवर्णी
ने उसे गुणार्णव और राजेन्द्रपूजिम लिखा है ।
प्रशस्ति मे बताया है -
स्याद्वादधर्मपरमामृतदत्तचित्त
सर्वोपकारिजिननाथपदाब्जभृग । कादम्बवश जलराशिसुधामयूख
श्रीरायबग नृपतिर्जगतीह जीयात् ।।
गर्वारूढविपक्षदक्षबलसघाताद्भुताडम्बरा
मन्दोद्गर्जनघोरनीरदमहासदोहझञ्झानिल ।
प्रोद्यद्भानुमयूखजालविपिनवातानलज्वालसा
दृश्योद्भासुरवीरविक्रमगुणस्ते रायवगोद्भव ।। कीर्तिस्ते विमला सदा वरगुणा वाणी जयश्रीपरा
लक्ष्मी सर्वहिता सुख सुरसुख दान निधान महत् ।
ज्ञान पीनमिद पराक्रमगुणस्तुगोनय कोमलो - रूप कान्ततर जयन्तनिभमो श्रीरायभूमीश्वर ।।'
कामिराय को विजयवर्णी पाण्ड्यवग का भागिनेय बताया है -
शृगारार्णवचन्द्रिका, ज्ञानपीठ सस्करण, 10/195/197, पृ0 120 ।
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कामिराय को विजयवर्णी पाण्ड्यवग का भागिनेय बताया है
तस्य श्री पाण्ड्यवगस्यभागिनेयो गुणार्णव ।
विट्ठलाम्बामहादेवीपुत्रो राजेन्द्रपूजित ।।
इसमे सन्देह नहीं कि अजितसेन सेनगण के विद्वान थे ।
डॉ० ज्योति प्रसाद जैन ने ऐतिहासिक दृष्टि से अजितसेन के समय पर विचार किया है । उन्होंने अजितसेन को अलकारशास्त्र का वेत्ता कवि और चिन्तक विद्वान बतलाया है ।
अजितसेन ने अलकारचिन्तामणि मे समन्तभद्र, जिनसेन, हरिचन्द्र वाग्भट और अर्हदास आदि आचार्यों के ग्रन्थों के उद्धरण प्रस्तुत किये है । हरिचन्द्र का समय दशमशती, वाग्भट का ग्यारहवीं शती और अर्हदास का तेरहवीं शती का अन्तिम चरण है । अतएव अजितसेन का समय तेरहवीं शती होना चाहिए । डॉ0 ज्योति प्रसाद जी का अभिमत है कि अजितसेन ने ईसवी सन् 1245 के लगभग श्रृगारमञ्जरी की रचना की है, जिसका अध्ययन युवक नरेश कामिराय प्रथम बग नरेन्द्र ने किया और उसे अलकारशास्त्र के अध्ययन मे इतना रस आया कि ईसवी सन् 1250 के लगभग विजयकीर्ति के शिष्य विजयवण से श्रृंगारार्णवचन्द्रिका की रचना करायी । आश्चर्य नहीं कि उसने अपने आदि विद्यागुरू अजितसेन को भी इसी विषय पर एक अन्य विशद ग्रन्थ लिखने की प्रेरणा की हो, और उन्होंने अलकारचिन्तामणि के द्वारा शिष्य की इच्छा पूरी की हो ।
श्रृगारार्णवचन्द्रिका, ज्ञानपीठ सस्करण, 1/16 उद्धृत अ०चि० प्रस्तावना
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अर्हदास के मुनिसुव्रत काव्य का समय लगभग 1240 ई0 है । और इस काव्य ग्रन्थ की रचना महाकवि प० आशाधर के सागारधर्मामृत के पश्चात् हुई है । आशाधर ने सागारधर्मामृत को ई० सन् 1228 मे पूर्ण किया है । अलकारचिन्तामणि
मे आदि पुराण के उद्धरण आये है
और आदि पुराण के रचयिता जिनसेन के समय
की उत्तरावधि आठ सौ पचास ईसवी के लगभग है । धर्मशर्माभ्युदय की रचना नेमिनिर्वाण काव्य से पूर्व हो चुकी है । और नेमिनिर्वाण काव्य वाग्भटालकार का पूर्ववर्ती है। वाग्भटालकार के रचयिता वाग्भट गुजरात के सोलकी नरेश जयसिह, सिद्धराज ई० सन् 1094 -1142 ई०) के समय हुए है । मुनिसुव्रत काव्य के रचयिता अर्हदास प० आशाधर के समकालीन है । ये आशाधरजी की सूक्तियों और सद्ग्रन्थों के भक्त अध्येता थे और उन्हे, गुरुवत् समझते थे । प० आशाधर जी का निश्चित समय 1210-43 ई० है । अत अर्हदास का समय भी ई० सन् 1240-50 ई0 के आस-पास निश्चित है ।
आशाधर जी ने सागारधर्मामृत की रचना 1228 ई० मे पूर्ण की है । अत मुनिसुव्रत काव्य के रचयिता अर्हदास के काव्यक्रन्थों के उद्धरण अलकारचिन्तामणि मे विद्यमान रहने से अलकारचिन्तामणि का रचनाकाल ईसवी सन् 1250-60 के मध्य है और इस ग्रन्थ के रचयिता 'अजितसेन' पाण्ड्यबग की बहन रानी विट्ठलदेवी के पुत्र कामिराय प्रथम बगनरेन्द्र के गुरू है । इस प्रकार इतिहास के वाह्य साक्ष्यों तथा अलकार चिन्तामणि मे विद्यमान वामन, आनन्दवर्धन, वाग्भट आदि के अन्त साक्ष्य के रूप मे प्रस्तुत किए गये उद्धरणों से आचार्य अजितसेन का समय 13 वीं शताब्दी सिद्ध होता है ।
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स्थान :- आचार्य अजितसेन दक्षिण भारतीय विद्वान् रहे है I क्योंकि विजयवर्णी ने राजा कामिराय के निमित्त 'श्रृंगारर्णवचन्द्रिका' ग्रन्थ लिखा है I सोमवशी कदम्बों की एक शाखा वगवश के नाम से प्रसिद्ध हुई । दक्षिण कन्नड जिले तुलु प्रदेश के अन्तर्गत वगवाडपर इस वंश का राज्य था । बारहवीं - तेरहवीं शती के तुलुदेशीय जैन राजवशों यह सर्वमान्य सम्मान प्राप्त किए हुए था । इस वश के एक प्रसिद्ध नरेश वीर नरसिह वगराज 01156 - 1208 ई० के पश्चात् चन्द्रशेखरवग और पाण्ड्यवग ने क्रमश राज्य किया । तदनन्तर पाण्ड्यवग की बहन रानी विट्ठलदेवी 1239-44 ई0 राज्य की सचालिका रही । सन् 1245 मे इस रानी विट्ठलम्बाका पुत्र उक्त कामिराय प्रथमवगनरेन्द्र राजा हुआ । विजयवर्णी उसे गुणार्णव और राजेन्द्रपूजित लिखा है । प्रशस्ति में बतया है -
स्थाद्वादधर्मपरमामृतदत्तचित्त
सर्वोपकारिजिननाथपदाब्जभृग ।
कादम्बवशजलराशिसुधामयूख
श्रीरायबगनृपतिर्जगतीह जीयात् ।।
गर्वारूढ विपक्षदक्षबलसघाताद्भुताडम्बरा
मन्दोद्गर्जनघोरनीरदम हासदो ह झञ्झानिल ।
प्रोद्यद्भानुमयूखजालविपिनव्रातानलज्वालसा -
दृश्योद्भासुरवीर विक्रमगुणस्ते रायवगोद्भव ।।
कीर्तिस्ते विमला सदा वरगुणा वाणी जयश्रीपरा लक्ष्मी सर्वहिता सुख सुरसुख दान निधान महत् ।
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ज्ञान पीनमिद पराक्रमगुणस्तुगोनय कोमलो - रूप कान्ततर जयन्तनिभयो श्रीरायभूमीश्वर ।'
कमिराय को विजयवर्णी ने पाण्ड्यवग का भागिनेय बताया है ।
लिखा -
तस्य श्रीपाण्ड्यवगस्य भागिनेयो गुणार्णव । विट्ठलाम्बामहादेवीपुत्रो राजेन्द्रपूजित 2 ।।
"डॉ0 ज्योति प्रसादजी का अभिमत है कि अजितसेन ने ईसवी सन् 1245 के लगभग 'शृगारमञ्जरी' की रचना की है जिसका अध्ययन युवक नरेश कामिराय प्रथम बगनरेन्द्र ने किया और उसे अलकारशास्त्र के अध्ययन मे इतना रस आया कि उसने ईसवी सन् 1250 के लगभग विजयकीर्ति के शिष्य विजयवर्णी से शृगारार्णवचन्द्रिका की रचना करायी । आश्चर्य नहीं कि उसने अपने आदि विद्यागुरू अजितसेन को भी इसी विषय पर एक अन्य विशद ग्रन्थ लिखने की प्रेरणा की हो, और उन्होंने 'अलकारचिन्तामणि' के द्वारा शिष्य की इच्छा पूरी की हो ।"3
उपर्युक्त पक्तियों में यह चर्चा की गयी है कि युवकनरेश कामिराय प्रथम बग नरेन्द्र थे और उन्होंने अजितसेन कृत 'शृगारमञ्जरी' का अध्ययन किया था और
शृगारार्णवचन्द्रिका, ज्ञानपीठ सस्करण, 10/195, पृ0स0-120 शृगारार्णवचन्द्रिका, ज्ञानपीठ सस्करण, 1/16 ।
'अलकारचिन्तामणि' प्रस्तावना, पृ0 - 33
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विजयवर्गी के अनुसार विट्ठलाम्बा का पुत्र कामिराय प्रथम दक्षिण कन्नड प्रदेश का शासक था । इससे विदित होता है कि अजितसेन भी दक्षिण प्रदेश के ही निवासी थे । इनका स्थान दक्षिण कन्नड जिले के तुलु प्रदेश के अन्तर्गत स्वीकार करना
समीचीन प्रतीत होता है ।
वश -
महाकवि अजितसेन काश्यप गोत्री विद्वान थे । इन्होंने ग्रन्थ की समाप्ति मे अपने गोत्र-सूत्र तथा शाखा- प्रवर का परिचय भी दिया है जिसके अनुसार इनका
सूत्र 'चाह्वान' था । ये 'प्रथमा-नियोग' शाखा के अध्येता थे । वश- परम्परा के अनुसार
इनका प्रवर 'वृषभ' था । जिसका उल्लेख इस प्रकार से किया गया है -
काश्यपे नाम्नि गोत्रे च सूत्रे चाह्वाननाम्नि च ।
प्रथमानुयोगशाखाया वृषभप्रवरेऽपि च ।
एतद्वशेषु जातोऽहम् -
अ०चि0 पृ0-335
इसके अतिरिक्त इन्होंने ग्रन्थान्त मे इक्ष्वाकु - वशोत्पन्न ससार मे पूज्यनीय 'बाहुबली' को नमस्कार किया है । तथा ग्रन्थ की समाप्ति 'प्लव' नामक संवत्सर,
जगत्पूज्य विन्ध्याग्रे इक्ष्वाकुवरवशजम् ।
सुरासुरादिवन्द्याडध्रि दोर्बलीश नमाम्यहम् ।।
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शरदऋतु अश्विन शुक्ला
को पूर्णता प्रदान की । '
व्यक्तित्व:
I
-
किसी कवि या ग्रन्थकार के काव्य या ग्रन्थ के अनुशीलन से उसके व्यक्तित्व के विषय मे किञ्चित परिचय प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि काव्य कवि के हृदय निश्रित भाव धाराओं से अनुप्राणित रहता है । कवि की कृति उसके स्वभावानुकूल ही होती है । कवि ही वस्तुत काव्य जगत का स्रष्टा होता है । वह स्वेच्छा से काव्य जगत का निर्माण करता है । यदि कवि हृदय सरस हो तो निश्चित ही उसके द्वारा सरस काव्य का निर्माण होगा और यदि नीरस हो तो सरसता उससे कोशों दूर रहेगी । कवि का काव्य ही उसके सरस एव नीरस व्यक्तित्व का परिचायक होता है
2
चतुर्दशी गुरूवार के दिन 'अलकारचिन्तामणि' नामक ग्रन्थ
अपारे काव्यससारे कविरेक प्रजापति ।
यथास्मै रोचते विश्वतथेद परिवर्तते ।।
सरसश्चेद् कवि सर्वं जात रसमय जगत् । स एव वीतरागश्चेन्नीरस प्रतिपद्यते ।।2
प्लवसवत्सरे मासे शुक्ले च सुशरऋतौ । आश्विने च चतुर्दश्या युक्ताया गुरुवासरे ।।
एतद्दिनेष्वलकारचिन्तामणिसमाह्वयम् ।
सम्यक् पठित्वा श्रुत्वाहं सपूर्णं शुभमस्तुन ।।
ध्वन्यालोक
अ०चि० पृ०-3350
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महाकवि अजितसेन ससकृत काव्य शास्त्र के उद्भट विद्वान रहे । इन्होंने ग्रन्थ के आदि मे भगवान 'शान्तिनाथ' को नमन किया है। और ग्रन्थ के अन्त मे इक्ष्वाकु वंश प्रसूत अत्यन्त बलशाली भुजा वाले बाहुबली को भी नमस्कार किया है 2 इससे विदित होता है कि जैन धर्म के प्रति इनकी अपार श्रद्धा तथा भक्ति थी । ग्रन्थारम्भ मे इन्होंने समन्तभद्रादि कवियों को भी नमस्कार किया है जिससे पूर्व कवियों के प्रति आदर भाव की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है । उच्चकोटि के विद्वान होते हुए भी इनमे संग्रहात्मक प्रवृत्ति भी थी क्योंकि अलकार चिन्तामणि मे प्रदत्त उदाहरण प्राचीन पुराण-ग्रन्थ तथा सुभाषित ग्रन्थ और स्तोत्रों से लिए गये है ।
4
आचार्य अजितसेन मे अहकार का सर्वथा अभाव था । इनके ग्रन्थ मे कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं प्राप्त होता जो इनके अहकार व गर्वोक्ति का सूचक हो । इन्होंने ग्रन्थ के अन्त मे अल्पज्ञता या प्रमाद से होने वाली त्रुटियों के सशोधनार्थ सुधी - जनों से आग्रह भी प्रकट किया है।
-
2
3
4
श्रीमते सर्वविज्ञानसाम्राज्यपदशालिने । धर्मचक्रेशिने सिद्धशान्तयेऽस्तु नमो नम 11 जगत्प्रपूज्य विन्ध्याग्रे इक्ष्वाकुवरवशजम् । सुरासुरादिवन्याऽघ्रि दोर्बलीश नमाम्यहम् ।। श्रीमत्समन्तभद्रादिकविकुञ्जरसचयम् । मुनिवन्द्य जनानन्द नमामि वचनश्रियै ।।
अत्रोदाहरण पूर्वपुराणादिसुभाषितम् ।
पुण्यपूरुषसस्तोत्रपर स्तोत्रमिद तत 11
अ०चि०- 1/10
अ०च० पृ०-335
अ०चि०
2/3
अ०चि० - 1/5
Page #30
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अल्पज्ञत्वात् प्रमादाद् वा स्रवलित तत्र तत्र यत् ।
सशोध्य गृह्यता सद्भि श्लिष्टावकरदृष्टिवत् ।।
अ०चि0 5/406
इन्होंने प्राय संस्कृत काव्यशास्त्र के सभी विषयों का उल्लेख किया है जिनमे रस, अलकार गुण, वृत्ति नेतृ- गुणांदि की भी चर्चा की गयी है । इन विषयों के परिशीलन से
यह विदित होता है कि महाकवि अजितसेन का अलकारशास्त्र पर पूर्ण अधिकार
था ।
कृतित्व -
महाकवि अजितसेन द्वारा रचित अलकारशास्त्रीय दो कृतियों का उल्लेख प्राप्त होता है । प्रथम कृति - 'शृङगारमञ्जरी' है जो तीन अध्यायों और 128 परिच्छेदों मे विभक्त है । इसमे दोषगुण तथा अर्थालकारों का विवेचन किया गया है ।।
मूलग्रन्थ के अभाव मे इस ग्रन्थ के प्रणेता के विषय मे स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि कुछ भण्डारों की सूचियों मे यह ग्रन्थ रायभूप की कृति के रूप मे उल्लिखित है 12
सस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास पृ0 - 545 राज्ञी विट्ठलदेवीति ख्याता शीलविभूषणा । तत्पुत्र कामिराख्यो 'राय' इत्येव विश्रुत ।। तद्भूमिपालपाठार्थमुदितेयमलकिया । सक्षेपेण बुधैर्येषा यद्भात्रशस्ति ? विशोध्यताम् ।।
अचि0 प्रस्तावना पृ0 - 320
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कवि की द्वितीय कृति- 'अलकारचिन्तामणि' है जो वस्तुत अजितसेन की कीर्ति पताका है । यह ग्रन्थ महाकवि के वैदुष्य का परिचायक है । सम्पूर्ण ग्रन्थ पाँच परिच्छेदों में विभक्त है इस ग्रन्थ की कारिकाएँ तथा उदाहरण प्राय अनुष्टुप छन्द मे निबद्ध है, 406 कारिकाओं मे ग्रन्थ की समाप्ति हो जाती है । इस ग्रन्थ मे प्रतिपादित समस्तविषयों का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में किया गया है अत उन विषयों का प्रस्तुत स्थल पर उल्लेख करना समीचीन नहीं है ।
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अध्याय -2
कवि शिक्षा निरूपण
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इसके पूर्व कि कवि-शिक्षा पर विचार किया जाय । 'काव्य' और 'कवि' शब्द के विषय मे ज्ञान प्राप्त करना नितान्त आवश्यक है ।
काव्य शब्द का अर्थ 'कवि की कृति' है - कवि द्वारा जो कार्य किया जाय उसे काव्य कहते है - 'कवेरिद कार्य भावो वा' व्यञ् प्रत्यय ।' 'कवनीय काव्यम्' 12 कवयतीति कवि तस्य कर्म काव्यम् । काव्य प्रकाश के टीकाकार वामन झलकीकर के अनुसार काव्य प्रणेता कवि की भारती ही वस्तुत काव्य की कोटि मे स्वीकार की गयी है । इन्होंने कवि भारती को काव्य की अभिधा प्रदान की है 14
सम्प्रति 'कवि' शब्द के अर्थ के विषय मे भी विचार कर लेना उपयुक्त होगा । 'अमरकोष' के अनुसार कवि शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है
'कवते सर्व जानाति सर्व वर्णयतीति कवि ।
यद् वांकु' शब्दे + अच् = इ शब्द कल्पद्रुम तथैव कवते श्लोकान् ग्रथते वर्णयति वा अमरकोष वेदों मे भी 'कवि' शब्द का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है । वेदों के प्रकाशक श्री ब्रह्मा जी के लिए श्रीमद्भागवत् मे कवि शब्द
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०
०
गुणवचन ब्राह्मणादिभ्यःकर्मणि च अष्टध्यायी। अभिनवगुप्ताचार्य ध्वन्ध्यालोक लोचन उद्धृत - ससा0इ0 -
कन्हैया लाल पोद्दार भाग-2 पृ0 20f विद्याधर एकावली - उद्धृत - ससाइति० - कन्हैया लाल पोद्दार पृष्ठ - 10, भाग - 2 कवे काव्यकर्तु भारती काव्यम् । बालबोधिनी पृष्ठ चार स0सा0इ0 - कन्हैया लाल पोद्दार, पृष्ठ - 20 कविर्मनीषीपरिभू स्वयभू शुक्ल यजुर्वेद 40/8f उद्धृत - ससा0इ0 -
कन्हैया लाल पोद्दार पृष्ठ - 200
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०
०
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का प्रयोग किया गया है ।' श्री वाल्मीकीय रामायण के प्रत्येक सर्ग के अन्त मे 'इत्यार्षे आदिकाव्ये' का उल्लेख है2 और महाभारत के विषय मे 'कृतमयेद भगवन् काव्य परम पूजितम्' । महाभारत ।/611 अग्निपुराण मे भी कवि को काव्य जगत् का स्रष्टा कहा गया है ।
"अपारे काव्य ससार कविरेव प्रजापति । यथास्मै रोचते विश्व तथेद परिवर्तते ।।" अग्नि पु0 329/100
उक्त पद्य मे कवि को काव्य ससार के प्रजापति के रूप में वर्णित किया गया है । इससे विदित होता है कि कवि शब्द प्रतिभा सम्पन्न एक विशेष प्रकार की असाधारप शैली की रचना करने वाले विद्वान के अर्थ मे योगरूढ कर दिया गया है ।
कालान्तर मे कवि की कृति को काव्य और काव्य निर्माता को कवि के रूप मे प्रसिद्धि प्राप्त हो गयी ।4।
काव्य - स्वरूप
प्राय सभी आलड कारिक आचार्यों ने काव्य के स्वरूप के सम्बन्ध मे कुछ न कुछ नवीन विचार व्यक्त किये है । सर्वप्रथम आचार्य भरत के अनुसार काव्यों मे उदार एव मधुर शब्दों की योजना का सड केत प्राप्त होता है । जिसकी
तेने ब्रह्म हृदा य आदि कवये श्रीमद्भावत् ।/111 बाल्मीकि रामायण गीता प्रेस गोरखपुर स0सा0इ0 - कला०पो0 पृष्ठ 20-211 प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता तदनुप्राणनाज्जीवेद् वर्णनानिपुण कवि । तस्य कर्मस्मृत काव्यम् ।
स0सा0इ0 - पृष्ठ 211
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सरचना से काव्य प्रबन्धों की शोभा मे वृद्धि होती है ।' अत काव्य मे कोमलकान्त, पदावलियों का प्रयोग होना नितान्त आवश्यक है । उचित सन्धि-सन्धान आदि से व्यवस्थित काव्य रस-स्रोतों को पूर्णरूप से प्रवाहित करने में समर्थ हो पाता
मृदुललितपदाढय गूढशब्दार्थहीन,
___ जनपदसुखबोध्य युक्तिमन्नृत्ययोग्यम् । बहुकृतरसमार्ग सन्धिसन्धानयुक्त,
स भवति शुभकाव्य नाटकप्रेक्षकाणाम् ।।
नाट्यशास्त्र (16/1181
भरतकृत काव्य लक्षण मे निम्नलिखित तत्वों का आधान हुआ है
काव्य मे उदार तथा मधुर तत्वों की योजना । भाषा का सुबोध तथा नृत्य मे प्रयोग के योग्य होना । सन्धि सन्धान से युक्त तथा गूढार्थ से रहित होना ।
भरत के अनन्तर आचार्य भामह ने काव्य के स्वरूप का निर्धारण करते समय शब्द व अर्थ पर विशेष बल दिया है । वस्तुत शब्द तथा अर्थ ही काव्य निर्माण के प्रमुख साधन है । अत भामह ने शब्दार्थ साहित्य को ही काव्य के रूप मे स्वीकार किया है 12 उनके अनुसार साहित्य पद का तात्पर्य 'उक्ति वैचित्र्य' से है । जिसके अभाव मे काव्य शोभित नहीं होता ।
उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि भरतमुनि को उदार तथा माधुर्यादि गुण सम्पन्न शब्द ही काव्य के रूप मे अभीष्ट थे किन्तु भामह केवल शब्द को काव्यत्व के रूप में प्रतिष्ठापित करने के पक्ष में नहीं है, उन्हे शब्दार्थ युगल
शब्दानुदारमधुरान्प्रमदाभिनेयान् । नाट्यश्रयान्कृतिसु प्रयतेत कर्तुम् तैर्भूषिता बहुविभान्तिहि काव्यबन्धा । पद्माकरविकसिता इव राजहसे ।।
नाशा0 16-122-24
शब्दार्थी सहि तो काव्य गद्यं पद्य च तद्विधा । काव्यालड् कार 1/16 सैषा सर्वव वक्रोक्तिरनयार्थो विभाष्यते । यत्नोऽस्या कविना कार्य कोऽलड् कारोऽनयाऽविना ।। वही 2/85
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मे ही काव्यत्व अभीष्ट है । इन्होंने शब्दार्थ के समुचित सहभाव मे काव्य स्वीकार कर नवीन विचार व्यक्त किया ।
परवर्ती काल मे आचार्य रुद्रट तथा मम्मट ने भी शब्दार्थ युगल को ही काव्य की कोटि मे स्वीकार किया है ।
पृथक् है 1 ये
। इनके अनुस
काव्य को शरीर
आचार्य दण्डी की परिभाषा भरत व भामह दोनों से काव्य को दो भागों में विभाजित करते हुए प्रतीत हो रहे है ईष्टार्थ से सम्मिलित पदावली ही वस्तुत काव्य है । इन्होंने स्थानीय बताया है। किन्तु काव्य की आत्मा कौन सा तत्त्व है नहीं की है तथापि इनके द्वारा किए गये अलकारों के जाता है कि इन्होंने काव्यात्मा के रूप मे अलकारों को ही एक स्थान पर इन्होंने अलकारों के द्वारा ही रस निषेक विषयक उल्लेख किया है । 2 इसके अतिरिक्त इन्होंने दुष्ट काव्य की निन्दा भी की है । 3 इससे विदित होता है कि आचार्य दण्डी को दोष हीन अभीष्टार्थ प्रतिपादक अलकार- युक्त शब्दावली ही काव्य के रूप मे अभीष्ट है ।
आचार्य दण्डी के पश्चात् आचार्य वामन ने काव्य लक्षण को अधिक परिष्कृत किया है । इनके अनुसार दोष रहित, गुणालकार से युक्त शब्दार्थ काव्यरूप मे स्वीकार किये जाते है 14 इन्होंने काव्य की आत्मा के विषय मे भी चर्चा की है । जिसका उल्लेख भरत, भामह, दण्डी आदि ने नामत नहीं किया । इनके अनुसार 'रीति' ही काव्यात्मा के रूप मे स्वीकार की गयी है । 5
I
वामन के अनन्तर आचार्य रुद्रट ने भी भामह की भाँति शब्दार्थ युगल को काव्य के रूप मे स्वीकार किया है 16 यद्यपि इन्होंने काव्य के अनिवार्य
2
3
4
5
19
इसकी कोई चर्चा
विवेचन से स्पष्ट हो स्वीकार किया है क्योंकि
6
-
शरीर तावदिष्टार्थ व्यवच्छिन्ना पदावली ।
काम सर्वोप्यलकारों रसमर्थे निषिञ्चतु । तदल्पमपि नोपेक्ष काव्ये दुष्ट कथञ्चन् । स्यादवपु सुन्दरमपि श्वित्रेणैकेन दुर्मगम् ।।
काव्यशब्दोऽय गुणालकारसस्कृतयो शब्दार्थयोर्वर्तते ।
'रीतिरात्मा काव्यस्य' ।
शब्दार्थी काव्यम् ।
00- 1/10
वही 1/62
का0द01/7
काल०सू० 1/1/1
वही 1/2/6 रुद्रट का०ल02/1
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तत्वों के रूप मे किसी भी प्रकार का उल्लेख नहीं किया है तथापि इन्होंने काव्य के विभिन्न उपादान तत्वों की योजना की है । जिनसे रीति, वृत्ति अलकार व रसों का भी निबन्धन किया गया है । अत ऐसी परिस्थिति में यह स्वीकार कर लेना अनुपयुक्त न होगा कि इन्होंने दोषों से रहित एव रीति, वृत्ति, अलकार तथा रसादि से युक्त शब्दार्थ युगल को काव्य माना है ।
रुद्रट के अन्तर अलकार का युग प्राय समाप्त हो जाता है और एक नवीन युग का प्रारम्भ होता है । इसी युग मे आचार्य आनन्दवर्धन जैसे युगप्रवर्तक पुरुष का आविर्भाव हुआ । इन्होंने ध्वनि सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना की तथा सहृदय हृदयालादक शब्दार्थ युगल को काव्य के रूप में स्वीकार किया ।' आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का महनीय तत्व स्वीकार किया है । जिसमे शब्दार्थ के साहित्य को आवश्यक बताया है । लोकोत्तर चमत्कारकारी वैचित्र्य की प्रतीति कराना ही वक्रोक्ति है । इन्होंने इसे विचित्र अभिधा' भी कहा है .
शब्दार्थो सहि तो वक्रकविव्यापारशालिनी । बन्धे व्यवस्थितौ काव्य तद्विदाल्हादकारिणी ।।
विक्रोक्तिजी0 1/6 व 1/100
आचार्य महिम भट्ट अनुभाव विभाव की वर्णना से युक्त वाक्य को काव्य के रूप मे स्वीकार किया है ।2 इनकी रस- वर्णनात्मक परम्परा का अवलोकन करने से विदित होता है कि ये आनन्दवर्धन की परम्परा से भिन्न है । यद्यपि ये स्पष्ट रूप से ध्वनि सिद्धान्त को अस्वीकार करते हुए प्रतीत होते है तथापि आनन्द वर्धन ने जिस तत्व की मीमासा ध्वनि के रूप में की है महिम भट्ट ने उसी तत्व को ध्वनि न मानकर 'अनुमेय' कहा है ।
-
-
-
सहृदयहृदयालदि-शब्दार्थमयत्वमेव काव्यलक्षणम् ।
ध्वन्यालोक ।।। वृत्तिा अनुभावविभावाना वर्णनाकाव्यमुच्यते, व्यक्तिविवेक पृष्ठ-102 अर्थोऽपिद्विविधो वाच्योऽनुमेयश्च । तत्र शब्दव्यापार विषयो वाच्य स एव मुख्य उच्यते ।
वही पृष्ठ 47 काव्यारम्भस्यसाफल्यमिच्छिता तत्र प्रवृत्ति निबन्धनभावे नास्य रसात्मकत्व भावस्यमुपमन्तव्य तन्मात्रप्रयुक्तश्चध्वनिव्यपदेश ।
वहीं पृष्ठ-102 रसात्मकता भावे मुख्यवृत्या काव्यव्यपदेश एव न स्यात् । वही पृष्ठ-103
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आचार्य भोज ने यद्यपि काव्य के किसी स्वतन्त्र का विवेचना नहीं किया तथापि प्रासगिक उद्धरणों के अवलोकन से यह परिज्ञात होता है कि दोष-रहित गुण सहित अलकारों से अलकृत तथा रसान्वित काव्य ही कवि को कीर्ति व प्रीति प्रदान करने में समर्थ हो सकता है । कीर्ति तो काव्य प्रणेता को ही प्राप्त होगी।
उक्त विचारों का अवलोकन करने से यह विदित होता है कि ये शब्दार्थ युगल मे काव्यत्व स्वीकार करते है । अन्यथा 'अलकारै' मे बहुवचन के प्रयोग की आवश्यकता नहीं थी ।' 'सरस्वती कण्ठाभरप' मे इन्होंने शब्दालकार, अर्थालकार तथा उभयालकार का निरूपण भी किया है ।
आचार्य मम्मट दोष-रहित, गुण सहित और कहीं - कहीं अलकारों के अभाव मे भी शब्दार्थ समष्टि को काव्य के रूप मे स्वीकार किया है ।2 मम्मट कृत परिभाषा मे निम्नलिखित तत्वों का आधान हुआ है -
काव्य मे दोषों का अभाव गुणों की योजना अलकारों का सन्निवेश
मम्मट कृत काव्य लक्षण मे यह शका उठाई जा सकती है कि इन्होंने काव्य लक्षण मे रसों की कोई चर्चा नहीं की है तो क्या मम्मट के अनुसार रस से संकलित काव्य अकाव्य है ? इसके समाधान मे यह स्वीकार करना पडेगा कि वह अकाव्य नहीं अपितु काव्य ही है । क्योंकि जब गुण को रस के धर्म के रूप मे स्वीकार करेगे तो इस शंका का समाधान स्वत हो जाएगा, क्योंकि रसों के धर्म के रूप मे गुणों का उल्लेख मम्मट ने स्पष्ट रूप से कर दिया है । अत
निर्दोष गुणवत्काव्यम्मलड् कारैरलड् कृतम् रसान्वित कवि कुर्वन् कीर्ति प्रीति च विदति ।
सरस्वतीकण्ठाभरप - 1/2 पृ0 24 तददोषौ शब्दार्थो सगुणावनलड् कृती पुन क्वापि ।
का0प्र0 1/4
2
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धर्मी रस का ज्ञान अनुमानत या आक्षेप से करना अनुपयुक्त न होगा ।'
आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा भरतमुनि भामह, दण्डी, वामन, रुद्रट, भोज तथा मम्मट से भिन्न है । इन्होंने स्वकृत काव्य परिभाषा मे पूर्ववर्ती आचार्यो की परिभाषाओं का समन्वित रूप प्रस्तुत किया है । इनके अनुसार शब्दालकार तथा अर्थालकार से युक्त, श्रृगारादि नौ रसों से समन्वित, समुचित वाक्य विन्यास से युक्त, रीतियों के प्रयोग से सुन्दर, व्यग्यादि अर्थो से समन्वित, दोषों से रहित गुणों से युक्त, उत्तम नायक के चरित्र वर्णन से सम्पृक्त, उभय लोक, हितकारी, सद्रचना ही काव्य की कोटि मे स्वीकार की गयी है । उक्त विशेषताओं से संवलित काव्य ही उत्तम काव्य की कोटि मे स्वीकार किया जाता है -
शब्दार्थालड् कृतीद्ध नवरसकलित रीतिभावाभिरामम् व्यग्याद्यर्थं विदोष गुणगणकलित नेतृसद्वर्णनाढ्यम् । लोको द्वन्द्वोपकारि स्फुटमिह तनुतात् काव्यमय सुखार्थी नानाशास्त्रप्रवीण कविरतुलमति पुण्यधर्मोरुहेतुम् ।।
अलकार चिन्तामणि - 1/71
अजित सेन कृत परिभाषा मे निम्नलिखित तत्वों का आधान हुआ
AD
- Nल +-00-- ।.
शब्दालकार का सन्निवेश अर्थालकार का सन्निवेश नौ रसों की योजना रीति योजना भावों को अभिरामता व्यग्यार्थ का सद्भाव दोष-राहित्य गुणों का सद्भाव उत्तम कोटि के नायक का चरित्र-चित्रण उभयलोक हितकारित्व का होना पूण्य तथा धर्म का साधक होना
ये रसस्यागिनोधर्मा शौर्यादयइवात्मन । उत्कर्षहतक्स्ते स्पुरचल स्थितयो गुणा ।।
का0प्र0 8/66
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अजितसेन कृत उक्त काव्य लक्षण मे भामह,
तथा आनन्दवर्धन के
दण्डी, रुद्रट आदि अलकारवादी आचार्यो के अलकार तत्व का व्यगयार्थ व महिम भट्ट के द्वारा प्रतिष्ठापित रस तत्व तथा वामन द्वारा विवेचित रीति व गुण तत्व का समावेश हुआ है । इसके अतिरिक्त इन्होंने भोज तथा मम्मट की भाँति काव्य मे दोष राहित्य का भी उल्लेख किया है । 'नेतृसवर्णनाढ्यम्' तथा 'लोकोद्वन्द्वोपकारि' का उल्लेख कर एक नवीन विचार व्यक्त किया है । किसी कवि ने काव्य - लक्ष्ण मे उत्तम नायक के चरित्र की है और न ही उसे लोक हितकारी बताया है ।
अजित सेन के पूर्ववर्ती
वर्णन की चर्चा नहीं
परवर्ती काल मे जयदेव कृत परिभाषा पर अजित सेन का सर्वाधिक प्रभाव लक्षित होता है । जयदेव कृत काव्य लक्षण मे दोष राहित्य, गुण, अलकार, रीति, वृत्ति आदि उन सभी तत्वों की चर्चा की गयी है ।। जिसका उल्लेख आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा मे नहीं था ।
जयदेव के पश्चात् आचार्य विश्वनाथ रसात्मक वाक्य को काव्य के रूप मे स्वीकार किया है 12 पण्डितराज जगन्नाथ ने रमणीयार्थ प्रतिपादक शब्द को इनके अनुसार अलौकिक आनन्द की अनुभूति कराने वाली रचना ही वस्तुत काव्य है ।
1
उपर्युक्त काव्य स्वरूप के विवेचन से यह ज्ञात होता है कि श्रेष्ठ काव्य के लिए दोषाभाव, अलकार, रस, रीति, व्यग्यार्थ और गुणों का सद्भाव नितान्त अपेक्षित है ।
2
·
3
निर्दोषा लक्षणवती सरीति गुणभूषिता
सालड् कार रसानेक वृतिर्वाक्काव्यनाम भाक् ।
-
वाक्य रसात्मक काव्यम् ।
रमणीयार्थप्रतिपादक शब्द काव्यम् ।
चन्द्रलोक 1 /70
(सा0द0 1 / 3 पृ0-200
(रसगगाधर । / । पृ0 - 90
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आचार्य भामह ने काव्य हेतु का उल्लेख मात्र किया है । काव्य हेतु का लक्षण नही दिया किन्तु काव्य रचना के लिए उपादेय तत्त्वों की चर्चा अवश्य की है । जिसके विश्लेषण व विवेचन के आधार पर उत्तरवर्ती आलकारिक आचार्यो ने 'काव्य हेतु' का निरूपण किया है ।
1
आचार्य दण्डी के अनुसार 'पूर्वजन्मसस्कारासादित प्रतिभा', 'नानाशास्त्र परिशीलन' और 'काव्यसरचना का सतत अभ्यास' ये तीनों मिलकर साधु काव्य के निर्माण के हेतु कहे गए है । 2 इनके पूर्ववर्ती आचार्य भामह ने प्रतिभा को सर्वाधिक महत्त्व दिया और काव्यों की शिक्षा तथा अभ्यास को सहायक के रूप मे स्वीकार किया था परन्तु दण्डी ने तीनों को समान भाव से कारण रूप मे मान्यता प्रदान की । किन्तु भामह की भाँति इन्होंने भी अभ्यास के महत्त्व को स्वीकार किया तथा केवल अभ्यास व शास्त्रज्ञान से ही काव्य निर्माण की चर्चा की । दण्डी के पश्चात्
। दण्डी के पश्चात् आचार्य वामन ने लोकविद्या
और प्रकीर्ण
इन तीनों को काव्याग के रूप मे स्वीकार किया है । जिसमे लोक व्यवहार को 'लोकवृत्त' शब्द से अभिहित किया है तथा शब्द स्मृति अभिधान कोश छन्दोविचिति कला मे स्वीकार किया ।
कामशास्त्र
दण्डनीति आदि का विद्या के रूप
2
-
काव्य हेतु
-
-
-
-
-
-
गुरूपदेशादध्येतु शास्त्र जडधियोऽप्यलम् ।
काव्य तु जायते जातु कस्यचित् प्रतिभावत 11 1 / 5 शब्दश्छन्दोऽभिधानार्था इतिहासाश्रया कथा
लोको युक्ति कलाश्चेति मन्तव्या काव्यगैर्ह्यमी 111/9 शब्दभिधेये विज्ञाय कृत्वा तद्विदुपासनम् । विलोक्यान्यनिबन्धाश्च कार्य काव्यक्रियाहर || 1/10
( भामह - काव्या 0 0
नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतच बहु निर्मलम् ।
अमन्दश्चाभियोगोऽस्या कारण काव्यसम्पद ।।
न विद्यते यद्यपि पूर्ववासनागुणानुबन्धि प्रतिमानमद्भुतम् ( काव्यादर्श - 1 / 103 0 श्रुतेन यत्नेन च वागुपासिताध्रुव करोत्येव कमप्यनुग्रहम् ।।
( वही - 1040
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लक्ष्यज्ञत्व, अभियोग, वृद्धसेवा - अवेक्षण - प्रतिभान तथा अवधान को प्रकीर्ण के रूप में मान्यता दी है ।'
काव्यानुशीलन से ही कवियों को काव्य निर्माण की व्युत्पत्ति होती है । अत कवियों के लिए वामन के अनुसार उक्त सभी तत्वों का होना आवश्यक बताया गया है ।
आचार्य रुद्रट ने शक्ति के सम्बन्ध मे बताया कि जिसके द्वारा सुस्थिर चित्त मे अनेक प्रकार के वाक्यार्थ का स्फुरण हो तथा काव्य - रचना के समय तत्काल अनेक शब्द व अर्थ हृदयस्थ हो जाए उसे शक्ति कहते है ।2 शक्ति ही काव्य - रचना का बीजभूत सस्कार सस्कार है । शक्ति के पर्याय के रूप मे कतिपय विद्वानों ने प्रतिभा का भी उल्लेख किया है । यह प्रतिभा कवि को जन्म के साथ ही प्राप्त होती है अथवा पूर्व पूण्य के प्रभाव से किसी देवता के प्रसाद द्वारा जन्म के बाद भी प्राप्त होती है । आचार्य रुद्रट ने इसे 'सहजा' व 'उत्पाद्या' दो रूपों मे स्वीकार किया है । जिसमे 'सहजा' को अधिक महत्त्व दिया है ।
आचार्य राजशेखर प्रतिभा को ही मुख्य रूप से काव्य का हेतु स्वीकार करते है समाधि और अभ्यास शक्ति को उद्भासित करते है ।
लोको विद्या प्रकीर्णश्च काव्यागनि । काव्यालकारसूत्रवृत्ति - 1/3/1 लोकवृत्त लोक । वहीं - 1/3/2 शब्दस्मृत्यभिधानकोशाच्छन्दोविचितिकलाकामशास्त्रदण्डनीतिपूर्वा विद्या ।
वही - 1/3/3 लक्ष्यज्ञत्वमभियोगो वृद्धसेवाऽवेक्षण प्रतिभानमवधान च प्रकीर्णम् ।
वही - 1/3/11 मनसि सदा सुसुमानिधि विस्फुरणमनेकधा विधे यस्य । अक्लिष्टानि पदानि च विभान्ति यस्यामसौ शक्ति । काव्यालकार-1/156 शक्ति कवित्वबीजरूप सस्कारविशेष । का0प्र0 - 1/3 वृत्ति काव्यालकार - रुद्रट - 1/16 अविच्छेदेन शीलनमभ्यास । स हि सर्वगामी सर्वत्र निरतिशय कौशलमाछत्ते । समाधिरान्तर प्रयत्नो बाह्यस्त्वभ्यास । तावुभावापि शक्तिमुद्भासयत । 'सा केवल हेतु ' इति यायावरीय ।
काव्यमीमासा - अध्याय - 4, पृ0-270
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इसके अतिरिक्त 'कारयित्री' तथा 'भावयित्री' रूप से प्रतिभा के दो भेदों का उल्लेख भी किया है । कारयित्री प्रतिभा कवि के लिए उपकारक होती है और भावयित्री भावक या काव्यालोचक के लिए हितकारिणी है । कारयित्री प्रतिभा को भी इन्होंने 'सहजा' आहार्या और औपदेशिकी . तीन रूपों में विभाजित किया है । पूर्वजन्म के सस्कारों से प्राप्त जन्मजात प्रतिभा-सहजा, जन्म और शास्त्रों एव काव्यों के अभ्यास से उत्पन्न प्रतिभा आहार्या तथा मन्त्र, तन्त्र, देवता, गुरू आदि के वरदान या उपदेश से प्राप्त प्रतिभा औपदेशिक कही जाती है ।'
उक्त विवेचन से विदित होता है कि आचार्य राजशेखर केवल प्रतिभा को काव्य कारण के रूप मे स्वीकार करते है । 'कवि' कविऔरभावक' - दोनों को कवि ही मानते है ।2
पण्डितराज जगन्नाथ भी आचार्य राजशेखर की भाँति केवल प्रतिभा को ही काव्य का हेतु स्वीकार किया है ।
आचार्य मम्मट दण्डी की भाँति शक्ति प्रतिभा निपुणता तथा अभ्यासइन तीनों को सम्मिलित रूप से काव्य - कारण के रूप मे स्वीकार किया है ।4
आचार्य अजित सेन कृत परिभाषा भामह-दण्डी- वामन, मम्मट तथा राजशेखर कृत परभाषा से भिन्न है । इन्होंने काव्य हेतु के निरूपण मे एक नया विचार व्यक्त किया है । इनके अनुसार व्युत्पत्ति, प्रज्ञा तथा प्रतिभा - ये
स च द्विधा कारयित्री भावयित्री च । कवरूपकुर्वाणा कारयित्री । साऽपि त्रिविधा सहजाऽऽहायोपदेशिकी च ।
एकाव्यमीमासा - अध्याय-4 भावकश्चकवि इत्याचार्या
वही अध्याय-4, पृ0-32 तस्य कारण केवला कविगता प्रतिभा । रसगगाधर - अनान - प्रथम,
पृ0 - 9 शक्तिर्निपुणता लोकशास्त्रकाव्याद्यवेक्षणात् । काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे ।।
का0प्र0 - 1/30
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तीनों ही काव्य उत्पत्ति के प्रति कारण है वस्तुत पर्यायात्मक है । आचार्य मम्मट ने जिस मे की है वही वस्तुत व्युत्पत्ति है ।
अत ग्रन्थों के अध्ययन से सुसस्कृत व्युत्पत्ति, शब्द और अर्थ युक्त रचना के गुम्फन की क्षमता रूपी प्रज्ञा एव प्रतिक्षण नये नये विषयों को प्रसूत करने वाली शक्ति रूपी बुद्धि जिसे प्रतिभा के रूप मे स्वीकार किया गया है ये तीनों ही काव्य के प्रति कारण है किन्तु इतना अवश्य है कि इन्होंने भामह व दण्डी की भाँति प्रतिभा को व्युत्पत्ति व अभ्यास से सस्कारित होने की चर्चा की है 12
होता है । 4
1
अजित सेन के अनुसार छन्दशास्त्र, अलकार शास्त्र, गणित, कामशास्त्र, व्याकरण शास्त्र, शिल्पशास्त्र, तर्कशास्त्र, न्यायशास्त्र एव अध्यात्मशास्त्रों मे गुरु परम्परा से प्राप्त उपदेश द्वारा अर्जित निपुणता को ही व्युत्पत्ति के रूप मे स्वीकार किया है । 3
2
3
। व्युत्पत्ति, प्रज्ञा तथा निपुणता तत्त्व की चर्चा निपुणता के रूप
-
4
व्युत्पत्ति का स्वरूप
अजितसेन कृत व्युत्पत्ति विषयक विवेचन पर मम्मट का प्रभाव परिलक्षित
लौकिक व्यवहारेषु निपुणता व्युत्पत्ति । व्युत्पत्यभ्याससस्कार्या शब्दार्थघटनाघटा । प्रज्ञा नवनवोल्लेखशालिनी प्रतिभास्यधी ।। छन्दोऽलड् कारशास्त्रेषु गणिते कामतन्त्रके । शब्दशास्त्रे कलाशास्त्रे तर्काध्यात्मादितन्त्रके ।। पारम्पर्योपदेशेन नैपुण्यपरशालिनी । प्रतिपत्तिर्विशेषेण व्युत्पत्तिरभिधीयते ।।
अ०चि० पाठभेद टिप्पणी, पृ0 - 3
(अचि० 1 / 98
वही - 1 / 10, 1/110 खड्गादि
लक्षण
शास्त्राणा
छन्दोव्याकरणाभिधानकोशकलाचतुवर्गगजतुरग
ग्रन्थाना 1 काव्याना च महाकविसम्बन्धिनाम् आदिग्रह णादितिहासादीना च विमर्शनाद्व्युत्पत्ति
(का०प्र० 1 / 3 वृत्ति
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प्रज्ञा का स्वरूप
अलकार चिन्तामणि के टीकाकार डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार त्रैकालिकी बुद्धि को 'प्रज्ञा' के रूप मे अभिहित किया गया है ।' प्रज्ञाविशिष्ट व्यक्ति को अतीत अन्तर्गत, व्यवहित अव्यवहित दूरस्थ - निकटस्थ, स्थूल तथा सूक्ष्म सभी विषयों का ज्ञान रहता है पातञ्जलयोग दर्शन मे ऋतम्भरा प्रज्ञा का उल्लेख प्राप्त होता है ।2 भोजवृत्ति के अनुसार सत्य को धारण करने वाली बुद्धि को ही ऋतम्भरा के रूप मे स्वीकार किया गया है ।
रुद्रकोश मे नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा को ही 'प्रतिभा' के पयार्य के रूप मे स्वीकार किया गया है ।
डॉ० रेखा प्रसाद द्विवेदी ने काव्य घटनानुकूल शब्दार्थोपस्थिति को प्रसूत करने वाली बुद्धि को प्रतिभा कहा है । इनके अनुसार अर्थ का प्रतिभासन अर्थ से ही सम्भव है और भाव वस्तु सामयिक वस्तु तथा कल्पित विषयवस्तु का ज्ञान प्रतिभा से ही सम्भव है । इस दृष्टि से शक्ति तथा प्रतिभा मे ऐक्य की प्रगति है।
उक्त उद्धरणों के विवेचन से विदित होता है कि प्रज्ञा, प्रतिभा एव शक्ति तीनों मे अत्यन्त सूक्ष्म अन्तर है प्रज्ञा मे "प्रज्ञा विशष्ट बुद्धि' त्रैकालिक विषय दर्शन की क्षमता रखती है । प्रतिभा मे नवनवोन्मेष भाववस्तु, सामयिक
कालिकीबुद्धि प्रज्ञा । अचि० प्रथम परिच्छेद, पृ0 तीन की पाद टिप्पणी ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा । पातञ्जल योगदर्शन ।
1/48 ऋत सत्य बिभर्ति कदाचिदपिन विपर्ययेणाच्छाद्यते सा ऋतम्भरा प्रज्ञा तस्मिन् भवतीत्यर्थ । तस्माच्च प्रज्ञालोकात् सर्व यथावत् पश्यन् योगी प्रकृष्ट योग प्राप्नोति ।
वही - पृ0 - 81 प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभोच्यते । बालबोधिनी पाद टिप्पणी । प०-12 कारण प्रतिभा काव्ये सा चार्थ- प्रतिभासनम् । प्रज्ञाकादम्बिनी- गर्भ विद्युदुद्योत - सोदरम् ।। तथा वृत्ति ।
डॉ० रेखा प्रसाद द्विवेदी, काव्यालकार कारिका-2
Page #45
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वस्तु को नये-नये रूप से निरूपित करने का सामर्थ्य निहित रहता है तथा शक्ति मे संस्कारवश कवित्वबीजरूप सस्कारविशेष का आधान रहता है ।
अजित सेन के अनुसार प्रतिदिन काव्यज्ञ गुरूओं के समीप मे रहकर काव्य रचना करने की साधना करना अभ्यास कहलाता है । कार्य विशेष मे रहना ही अभ्यास के अन्तर्गत आता है ।
काव्य रचना सम्बन्धी
आचार्य मम्मट ने भी काव्य सरचना मे बार-बार होने वाली प्रवृत्ति को अभ्यास के रूप मे स्वीकार किया है । 2
इसके अतिरिक्त अजितसेन ने काव्य रचना मे जिज्ञासु व्यक्ति के लिए यह बताया है कि उसे नित्य ही मनुष्यों द्वारा देखे गए कार्य कलाप से छन्द का अभ्यास बिना किसी अर्थ विशेष के ही करना चाहिए । जैसे
1
2
अभ्यास का स्वरूप
3
अम्भोभि सभृत कुम्भ शोभते पश्य भी सखे । शुभ्र शुभ्रपटो भाति सितिमान प्रपश्य भो ।।
3
इसी सन्दर्भ मे इन्होंने च अव्यय की व्यवस्था, '
गुरूणामन्तिके नित्य काव्ये यो रचनापर । अभ्यासो भव्यते सोऽय तत्काम कश्चिदुच्यते ।।
-
-
-
अ०चि० -1 /120
पौन पुन्येन प्रवृत्ति ( अभ्यास I (का०प्र० 1 / 3 वृत्ति तथा
बालबोधन
पृष्ठ 13
चादयो न प्रयोक्तव्या विच्छेदात्परतो यथा । नमोजिनाय शास्त्राय कुकर्मपरिहारिणे ।।
अ०चि० 1/13
यतिच्युति और श्लथ
31040 1/17
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उच्चारण व्यवस्था,' तथा उत्सर्ग विच्छेद की व्यवस्था का प्रतिपादन करने के पश्चात् यति माधुर्य की व्यवस्था तथा यति माधुर्य को प्रतिपादित किया है । 4
अजितसेन के पूर्ववर्ती भामह, दण्डी, रुद्रट तथा मम्मट आदि किसी भी आचार्य ने अभ्यास स्वरूप का निरूपण इतने विस्तार से नहीं किया जितना कि अजित सेन ने किया है ।
इन्होंने योग्य कवि मे प्रतिभा, वर्णन, क्षमता तथा अभ्यास - तीनों का होना आवश्यक बतलाया है ।
आचार्य अजितसेन तक काव्य हेतु के सम्बन्ध मे विद्वानों की मान्यताए दृष्टिगोचर होती है -
रुद्रट तथा मम्मट ने प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास तीनों को सम्मिलित रूप से काव्य के हेतु के रूप मे स्वीकार किया ।
वही - 1/18, 19
वही - 1/21
का धातूनामविभक्तीना क्वचिद्भेदे यतिच्युति ।
मुक्ताक्षरपरत्वेऽपि श्लथोच्चार्या क्वचिद्यथा ।। ख) जिनेशपदयुग वन्दे भक्तिभरसन्नत ।
समस्ताधविनाश स्वामिन धर्मोपदेशिनम् ।। विकस्वरोपसर्गेण विच्छेद श्रुतिसौरव्यकृत् । यथाऽहत्पदयुग्म प्रणमामि सुरपूजितम् ।। पद यथा यथा तोष सुधियामुपजायते । तथा तथा सुमाधुर्यनिमित्त यतिरुच्यते ।। भारती मधुराऽल्पार्थसहिताऽपि मनोहरा । तमस्समूहसकाशा पिकीव मधुरध्वनि ।। प्रतिभोज्जीवनो नानावर्णनानिपुण कृती । नानाभ्यास कुशाग्रीयमतियुत्पत्तिमानकवि ।।
वही - 1/22
वही - 1/12
अचि0 - 1/8
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2
3
आचार्य दण्डी पहले तो प्रतिभा, व्युत्पत्ति व अभ्यास के समुदाय को काव्य हेतु मानते है किन्तु उसके समानान्तर ही कि प्रतिभा न रहने पर भी व्युत्पत्ति (श्रुत) और अभ्यास ( यत्न ) से काव्य निर्माण मे सफलता मिलती है ।
काव्य का हेतु मुख्यत प्रतिभा है । व्युत्पत्ति व सस्कारक है ।
1
इस मत के पोषक राजशेखर तथा आचार्य अजितसेन है ।
आचार्य भामह, दण्डी तथा रुद्रट ने महाकाव्य के वर्ण्य विषय की चर्चा नहीं की है केवल गद्यकाव्य के स्वरूप का निर्धारण ही किया है । जिसमे प्रसगत महाकाव्य के वर्ण्य विषयों का भी उल्लेख किया गया है । भामह के अनुसार महाकाव्य मे सर्गबन्धता अपेक्षित है, मन्त्रणा, दूतप्रेषण, अभियान, युद्ध, नायक के अभ्युदय एव पञ्चसन्धियो से समन्वित अनति व्याख्येय तथा ऋद्धि - पूर्णता की चर्चा की हैं । चतुर्वर्ग की प्रधानता होने पर भी उसमे अर्थ निरूपण का प्राधान्य तथा सभी रसों को के वर्णन का भी उल्लेख किया है । आचार्य दण्डी भी भामह की भाँति महाकाव्य को सर्गात्मक होना स्वीकार किया है तथा इसमे नगर, समुद्र, पर्वत, ऋतुओं के वर्णन, सूर्योदय, चन्द्रोदय, चन्द्रास्त, सूर्यास्त, उद्यान विहार, जलक्रीडा मधु सेवन तथा सयोगादि के वर्णन की भी चर्चा की है । भामह की भाँति इन्होंने रससन्निवेश का उललेख किया है । इन्होंने विप्रलम्भ श्रृंगार, विवाह तथा कुमारोदय के वर्णन की चर्चा भी की है । शेष विषयों का वर्णन भामह के ही समान है ।
महाकाव्य के वर्ण्य विषय
महाकाव्य के
वर्ण्य विषय के निरूपण का श्रेय आचार्य अजितसेन को है । इनके अनुसार महाकाव्य मे निम्नलिखित विषयों के वर्णन का उल्लेख किया गया है। राजा, राजपत्नी - महिषी, पुरोहित, कुल, श्रेष्ठ पुत्र या ज्येष्ठपुत्र,
-
(क) भामह - काव्यालकार (ख) दण्डी काव्यादर्श
ग
-
-
अभ्यास उसके
-
1/19-23
1/14-22
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अमात्य, सेनापति, देश ग्राम सौन्दर्य, नगर, कमल सरोवर, धनुष, नद, वाटिका, वनोद्दीप्त, पर्वत, मन्त्र - शासन सम्बन्धी परामर्श, दूत, यात्रा, मृगया आखेट, अश्व, गज, ऋतु, सूर्य, चन्द्र, आश्रम, युद्ध, कल्याण जन्मोत्सव, वाहन, वियोग, सुरतरीतिक्रीडा, सुरापान, नाना प्रकार के क्रीडा विनोद आदि महाकाव्य के वर्ण्य विषय है । इन्होंने महाकाव्य के वर्ण्य विषय के सन्दर्भ मे नायक एव रस - सन्निवेश का उललेख नहीं किया इसका कारण यही हो सकता है कि इन्होंने काव्य स्वरूप के वर्णन मे ही 'नेतृसवर्णनाढ्यम्' के द्वारा सद्गुणों से युक्त नायक वर्णन का उल्लेख कर दिया था तथा रस का उल्लेख भी इन्होंने काव्य के स्वरूप विवेचन के सन्दर्भ मे ही 'नवरसकलितम्' पद के द्वारा कर दिया था 1 साथ ही साथ आचार्य दण्डी ने जहाँ 'चतुवर्ग फलायत्त चतुरोदात्तनायकम्' (का०० 1 / 150 का उल्लेख करके चतुर्वग फल प्राप्ति की चर्चा की है वहीं अजितसेन ने 'लोकद्वन्द्वोपकारि तथा 'पुण्यधर्मोरू हे तुम' का उललेख कर चतुर्वर्ग फलप्राप्ति के प्रति सकेत किया है क्योंकि इन्होंने काव्य को उभयलोक हितकारी बताया है ।
अत
महाकाव्य के वर्ण्य - वियष के सन्दर्भ मे भले ही नायक के सद्वृत्त तथा रस आदि का उल्लेख न किया गया हो तथापि अजितसेन को भी महाकाव्य के सन्दर्भ मे वर्णित उक्त विषय सादर स्वीकार है ।
1
अजितसेन के उक्त वर्णन का स्रोत दण्डीकृत काव्यादर्श के महाकाव्य के लक्षण मे निहित है 12 परवर्ती काल मे केशव मिश्र ने कवि सम्प्रदाय रत्न मे काव्य मे वर्णनीय जिन विषयों का उल्लेख किया है वे प्राय महाकाव्य विषयक वर्णन से प्रभावित है । 3
अजितसेन कृत
2
3
भूभुक्पत्नी पुरोधा कुलवरतनुजामात्यसेनेशदेश ग्रामश्रीपत्तनाब्जाकरशरधिनदोद्यानशैलाटवीद्धा । मन्त्रो दूत प्रयाण समृगतुरगेभर्वित्वनेन्द्वाश्रमाजि श्रीवीवाहा वियोगास्सुरतवरसुरापुष्कला नर्मभेदा ।।
दण्डी काव्यादर्श
-
-
अलकारशेखर आफिस वाराणसी
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-
-
-
1 / 14-22 चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी 1972
6/1 पृष्ठ 61 प्रकाशन
1927
-
(अ०चि० 1 / 25
काशी संस्कृत सीरीज
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आचार्य अजितसेन के दुष्टों को दण्ड, शिष्ट पालन युद्ध, यान आक्रमण, शस्त्र इत्यादि का पूर्ण अभ्यास, नीति, क्षमा, काम-क्रोधादि षड्रिपुओं पर विजय, धर्मप्रेम, दयालुता, प्रजाप्रीति, शत्रुओं को जीतने का उत्साह, धीरता, उदारता, गम्भीरता, धर्म-अर्थ- काम प्राप्ति के अनुकूल उपाय, साम-दाम-दण्डविभेद इत्यादि उपायों का प्रयोग, त्याग, सत्य सदा पवित्रता, शूरता, ऐश्वर्य और उद्योग आदि का वर्णन राजा के विषय मे करना चाहिए । आशय यह है कि महाकाव्य मे राजा का वर्णन आवश्यक है । कवि राजा के वर्णन मे उपर्युक्त बातों का समावेश करता 1
1
-
देवी महिषी के वर्णनीय गुण. -
-
राजा के वर्णनीय गुण
1.
परवर्ती काल मे अजितसेन से प्रभावित होकर केशव मिश्र ने भी किञ्चित् शाब्दिक परिवर्तन के साथ उक्त राजगुणों का वर्णन किया है । 2
2
अनुसार कीर्ति, प्रताप, आज्ञापालन, दृष्टनिग्रह -
सज्जनों की रक्षा, सन्धि, मेल-मिलाप, विग्रह -
-
राजा के गुण वर्णन के पश्चात् अजित सेन ने राजपत्नी या देवी के गुणों की चर्चा की है । उनके अनुसार लज्जा, नम्रता, व्रताचरण, सुशीलता, प्रेम, चतुराई, व्यवहारनिपुणता, लावण्य, मधुरालाप, दयालुता, श्रृंगार, सौभाग्य, मान, काम सम्बन्धी विविध चेष्टाएँ, पैर, तलवा, गुल्फ (एडी) नख, जघा, सुन्दर घुटना, ऊरू,
-
11 1/26
नृपे यश प्रतापाज्ञेऽसत्सन्निग्रह पालने । संधि विग्रह यानादि शस्त्राभ्यासनयक्षमा अरिषड्वर्गजेतृत्व धर्मरागो दयालुता । प्रजारागो जिगीषुत्व धैर्यौदार्यगभीरता ।। 1/27 अविरूद्धत्रिवर्गत्व सामादिविनियोजनम् ।
त्यागसत्य सदाशौचशौर्येश्वर्योद्यमादय ।। 1/28
अलकारशेखर 6 / 1 तथा 6 / 2, पृष्ठ
-
61-62
अ०चि० पृष्ठ
7
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कटि, सुन्दर रोम पक्ति, त्रिवलि, नाभि, मध्यभाग, वक्षस्थल, स्तन, गर्दन, बाहु, अगुलि, हॉथ, दाँत, ओष्ठ, कपोल, आँख, भौंह, ललाट, कान, मस्तक, वेणी इत्यादि अग प्रत्यगों तथा गमनरीति एव जाति आदि का वर्णन देवी - महिषी के सम्बन्ध मे करना चाहिए ।' उक्त देवी विषय गुण वर्णन भरतकृत नाट्यशास्त्र से प्रभावित है किन्तु नाट्यशास्त्र में इसका उल्लेख अत्यल्प है जबकि अजितसेन ने इसका सविस्तार वर्णन किया है ।।
आचार्य अजितसेन से प्रभावित होकर कालान्तर मे केशवमिश्र ने भी 'अलकार शेखर' मे देवी के गुणों का वर्णन कुछ परिवर्तन के साथ किया है ।
राजपुरोहित के वर्षनीय गुण -
आचार्य अजितसेन के मतानुसार . शकुन और निमित्तशास्त्र का ज्ञाता, सरलता, आपत्तियों को दूर करने की शक्ति सत्यवाणी, पवित्रता प्रभृति गुणों का
देव्या त्रपा विनीतत्वव्रताचार सुशीलता । प्रेम चातुर्यदाक्षिण्यलावण्यकलनिस्वना ।। 1/29 दयाश्रृगारसौभाग्यमानमन्मथविभ्रमा ।। पत्तलोपरितद्गुल्फनखजड् धासुजानुभि ।। 1/30 ऊरुश्रीणीसुरोमालीवलत्रितयनाभय ।। मध्यवक्ष स्तनग्रीवाबाहुसाड् गुलिपाणय ।। ।/31 रदनाधरगण्डाक्षिभूभालश्रवणानि च । शिरोवेणीकबर्यादिगतिजात्यादिरेव च ।। ।/32 अचि0 पृ0 - 7 एभिरेव गुणैर्युक्ता सत्सस्कारेस्तुवर्जिता । गर्वितास्त्वपि सौभाग्यात् प्रीतिसम्भोगतत्पराः।। शुचिनित्योज्वलाकारा प्रतिपक्ष्याभ्यसूपिका । वयोरूपगुणाढयास्तु यास्ता देव्य प्रकीर्तिता ।।
ना०शा0 34/35, 36 देव्या सौभाग्यलावण्यशीलशृगारमन्मथा । त्रपाचातुर्यदाक्षिण्यप्रेममानव्रतादयः।।
अलकारशेखर 6/2 पृष्ठ - 62
3
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वर्णन पुरोहित के विषय मे करना अपेक्षित है । आचार्य विश्वनाथ ने पुरोहित के गुणों का अतिसूक्ष्म निर्देश किया है । 2
भरत, भामह, दण्डी, उद्भट्, रुद्रट, कुन्तक भोजादि आचार्यों ने उक्त विषयों की चर्चा नहीं की है । परवर्ती आचार्य मम्मट तथा जगन्नाथादि भी इस विषय मे मौन है । डॉ० राजदेव मिश्र ने 'पुरोहित को कुलीन, बुद्धिमान, नानाशास्त्रों के ज्ञाता, स्नेहशील, अप्रभत्र, लोभरहित, पवित्र, विनीत और धार्मिक प्रवृत्ति वाला बताया है' 13
राजकुमार के वर्णनीय गुण. -
1
उल्लेख नहीं किया है को है । उनके अनुसार का ज्ञान, बल, नम्रता, आदि अग एव क्रीडा चाहिए 14
राजमन्त्री के वर्णनीय गुण
अजित सेन के अनुसार राजमन्त्री पवित्र विचार वाला, क्षमाशील, वीर, नम्र, बुद्धिमान, राजभक्त, आन्वीक्षिकी आदि विद्याओं का ज्ञाता, व्यवहारनिपुण एव
2
3
4
भारत, भामह, दण्डी आदि पूर्ववर्ती आचार्यों ने राजकुमार के गुणों का । इसके निरूपण का सर्वप्रथम श्रेय आचार्य प्रवर अजितसेन
-
-
राजा की भक्ति, सौन्दर्ययुक्त, अनेक प्रकार की कलाओं शस्त्र प्रयोग का ज्ञान, शास्त्र का अभ्यास, सुडौल हाथ, पैर विनोद प्रभृति का राजकुमार के सम्बन्ध मे वर्णन करना
पुरोहिते निमित्तादिशास्त्रवेदित्वमार्जवम् । विपदा प्रतिकर्तृत्व सत्यवाक्शुचितादय ।।
ऋत्विक्पुरोधस स्युर्ब्रह्माविदस्तापसास्तथा धर्मे ।
'संस्कृत रूपको के नायक'
पृष्ठ
कुमारे राजभक्ति श्रीकलाबल विनीतता । शस्त्रशास्त्रविवेकित्वबाह्यागविहृतादय ।।
-
-
96
अलकार चिन्तामणि 1 / 33, पृ0-8
3/45
सा० द०
-
अ०च० 1 / 340
8
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स्वदेश मे उत्पन्न वस्तुओं के उद्योग मे प्रयत्नशील अथवा स्वदेश मे उत्पन्न और उद्योगशील के रूप मे वर्णित किया गया है । अजितसेन के पूर्ववर्ती आचार्यध निक ने मन्त्री को अर्थ चिन्तन मे सलग्न तथा नायक का सहायक बताया है । मन्त्री अपने राज्य मे किए गए कार्यों के प्रति उत्तरदायी होता है तथा अन्य राज्य मे गुप्तचरों को भेजकर वहाँ के क्रिया कलाप का निरीक्षण करता रहता है 12 धीरललित नायक की सिद्धि पूर्णरूपेण मन्त्री द्वारा ही होती है । 3 लक्ष्य ग्रन्थों मे मन्त्री को उक्त गुणों से विशिष्ट बताया गया है । 4 परवर्ती काल मे आचार्य विश्वनाथ अनुसार मन्त्री स्वराष्ट्र सम्बन्धी व्यवहार के सम्पादन मे सहायता करता है । वह राजा का राजनीतिक सलाहकार भी होता है 15 विश्वनाथ कृत उक्त विवेचन धनञ्जय कृत उक्त लक्षणकेसमान है ।
सेनापति के वर्णनीय गुण
आचार्य अजितसेन के अनुसार निर्भय, अस्त्र-शस्त्र का अभ्यास, शस्त्र - प्रयोग, अश्वादि की सवारी मे पटु, राजभक्त महान परिश्रमी, विद्वान एव युद्ध मे विजय प्राप्त करने वाला इत्यादि विषयों का सेनापति के विषय में वर्णन करना चाहिये 16
1
2
3
4
5
-
6
मन्त्री शुचि क्षमी शूरोऽनुद्धतो बुद्धिभक्तिमान् । आन्वीक्षिक्यादिविद्दक्षस्स्वदेशजहि तोद्यमी ।।
(क) तस्य च महामहीपते
कृतज्ञ ब्राह्मण सालकायनस्य सूनु (ख) कादम्बरी शुकनास वर्णन,
मन्त्री स्व वोभयवापि सरवा तस्पार्थचिन्तने ।
-
स्वभावानुरक्त शुचि श्रुतशीलो नाम महामन्त्री ।
मन्त्रिणा ललित शेषा मन्त्रिस्वायत्तसिद्धय । मन्त्री स्यादर्थाना चिन्तयाम् ।
सेनापतिरभीरस्त्रशस्त्राभ्यासे च वाहने । राजभक्तो जितायास सुधीरपि जयी रणे ।।
अ०चि० 1 / 35
सत्यपूतवाक्
2
नलचप्पू प्रथम उ० पृ0-44
दशरूपक
2/42
वही - 2 /43
सा0द0 3/43 पूर्वार्द्ध
पृ० 104, लक्ष्मी टीका
अ०च० 1 / 36
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नाट्यशास्त्र के प्रणेता महामुनि भरत न सेनापति व अमात्य दोनों को धीरोदात्त प्रकृति का नायक बताया है ।। अत भरत के अनुसार धीरोदात्त मे प्रतिपादित गुण का होना सेनापति मे आवश्यक है । डॉ० राजदेव मिश्र ने सेनापति को शीलवान, प्रियभाषी, आलस्य हीन, वीर, देशकालज्ञाता, अनुरक्त और कुलीन बताया है | 3
देश के वर्णनीय विषय
आचार्य अजितसेन ने देश मे पद्मरागादि मणियाँ, नदी, स्वर्ण, अन्न भण्डार, विशाल भूमि, गाँव, किला, जनबाहुल्य, नहर इत्यादि का वर्णन करना आवश्यक बताया है इससे देश की समृद्धशालिता का परिचय प्राप्त होता है परवर्ती काल मे विविध प्रकार के खनिज द्रव्यों, विक्रेताओं आदि से सुशोभित दुर्ग, ग्राम, जनादि के आधिक्य से परिवर्धित नदी मातृक आदि के रूप मे वर्णित करने की चर्चा की है । जिसपर अधिकाशत अजितसेन का प्रभाव परिलक्षित
15
ग्राम के वर्णनीय विषयः -
लता - वृक्ष,
गाय बैल इत्यादि
अजित सेन के अनुसार अन्न, सरोवर, पशुओं की आधिक्य व उनकी चेष्टाओं का रमणीय की सरलता, अज्ञानता, घटी यन्त्र आदि की शोभा का रोचक वर्णन काव्य के सौन्दर्य
वर्णन करना चाहिए । ग्रामीणों
1
2
-
3
4
5
सेनापतिरमात्यश्च धीरोदात्तो प्रकीर्तितो ।
अविकत्थनः क्षमावानतिगम्भीरोम हासत्व । स्थेयान निगूढमानो धीरोदात्तो दृढव्रत ।
'संस्कृत रूपको के नायक' पृष्ठ- 96 ( उद्धृत - नाट्यशास्त्र - 24/36-370
देशे मणिनदीस्वर्णधान्याकरमहाभुव । ग्राम दुर्गजनाधिक्यनदीमातृकतादयः । । देशे बहुरवनिद्रव्यपव्य धान्यकरोद्भवा । दुर्गग्राम जनाधिक्यनदीमातृकतादय ।।
-
ना०शा० 34 / 18
सा0द0 परि0-6
अ०चि० 1 / 37 पृ0-8
अलकारशेखर 6/2
Page #54
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का अभिवर्धक होता है ।।
ग्राम के वर्ण्य विषय की चर्चा परवर्ती आचार्यो मे केशवमिश्र ने भी की है । जिसे अजित सेन से भिन्न नहीं कहा जा सकता क्योंकि अजित सेन ने जिन विषयों का प्रतिपादन किया है उन्हीं समस्त विषयों का केशवमिश्र ने भी प्रकारान्तर से उल्लेख किया है 12
अजितसेन के पूर्ववर्ती भामह, दण्डी, रुद्रट आदि आचार्यों ने इसका उल्लेख नहीं किया परवर्ती आचार्यों ने भी प्राय इसका उल्लेख नहीं किया है ।
नगर के वर्णनीय विषय -
अजितसेन के अनुसार - चहारदीवारी उसका उपरिभाग, दुर्ग, प्राचीर, अट्टालिका खाई तोरण ध्वजा चूने से पुते बडे- बड़े भवन, राजपथ बावडी, बगीचा जिनालय इत्यादि नगर के वर्ण्य विषय होते है । आचार्य अजितसेन कृत उक्त वर्णन पर न्यूनाधिक रूप से अग्निपुराण का प्रभाव परिलक्षित होता है । इस विषय पर केशव मिश्र ने भी अपना विचार व्यक्त किया है । जो प्राय अजित द्वारा प्रतिपादित नगर वर्ण्य विषय के समान है । लक्ष्य ग्रन्थों मे उक्त विषयों का रोचक वर्णन प्राप्त होता है ।
ग्रामे धान्यसरोवल्लीतरुगो पुष्टि - चेष्टितम् । ग्राम्यमौग्ध्यघटीयन्त्रे केदार परिशोभनम् ।।
अ०चि0 1/38 ग्रामे धान्यलतावृक्षसरसीपशुपुष्टय । क्षेत्रादिह टट्केदारग्रामस्त्रीमुग्धविभ्रमा ।।
अलकारशेखर 6/2 पृ०-62 पुरे प्राकारतच्छीर्षवप्राट्टालकखातिका । तोरणध्वजसौधाध्वकन्यारामजिनालया ।।
अचि0 1/39 पृ0-9 __ अग्निपुराप अ0 339/24-27
का नलचम्पू - आर्यावर्तवर्णन - निषिधानगरी वर्णन-प्रथम उच्छवास। ख कादम्बरी - उज्जयिनी वर्णन ।
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सरोवर के वर्णनीय विषय
आचार्य अजितसेन ने सरोवर मे कमल, तरग, कमल पुष्प तोडना, गज
-
क्रीडा, हस हसी, चक्रवाक - भ्रमर तथा वीर प्रदेश मे स्थित उद्यान लता, पुष्पादि के वर्णन की चर्चा की है ।
अजितसेन के पूर्ववर्ती आचार्य राजशेखर ने भी जलाशय मात्र मे हसादिपक्षियों के वर्णन की चर्चा की थी । अत अजितसेन के सरोवर विषयक वर्णन पर राजशेखर का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है । 2
परवर्ती काल मे विश्वनाथ ने भी राजशेखर के विचार को सादर स्वीकार कर लिया । 3
समुद्र के वर्णनीय विषय
अजितसेन समुद्र मे विद्रुम, मणि, मुक्ता, तरग, जलपोत, जल हस्ति, मगर, नदियों का प्रवेश और सक्षोभ चन्द्रोदय जन्म हर्ष, कृष्ण कमल, गर्जन इत्यादि का वर्णन करना आवश्यक बतलाया है 14 परवर्ती आचार्य केशवमिश्र ने भी उक्त वर्णनीय विषय का उल्लेख किया है । जिसपर आचार्य अजितसेन कृत समुद्र के वर्ण्य विषय का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है 15
1
2
3
4
5
-
सरोवरेऽब्जभगाम्बुल हरीगजकेलय । हसचक्रद्विरेफाद्यास्तीरोद्यानलतादय ।।
जलाशयमात्रेऽपि हसादय । काव्यमीमासा तोयाधारेरिवलेऽपि प्रसरति मरालादिक पक्षिसम्भो । अब्धौ विद्रुममुक्तोर्मिपोतेभमकरादय । सरित्प्रवेशसक्षोभकृष्णाब्जाध्मायितादय ।।
-
अ०च० 1/40
अध्याय 14, पृ0-198
अब्धौ द्वीपाद्रिरत्नोर्मिपोतयादोजलप्लवा । विष्णु कुल्यागमश्चन्द्राद्धद्धिर्वोऽब्द पूरणम् ।
सा0द07/32
अ०चि०- 1/4 1
अ० शे०
6/2
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नदी के वर्णनीय विषय
आचार्य
कमल पक्षियों का विषयों को वर्णित मिश्र ने स्त्रियों और अधिक की है । लिया 12
उद्यान के वर्णनीय विषय
I
आचार्य अजितसेन के
अनुसार उद्यान मे कलिका, कुसुम, फल, लताओं से युक्त कृत्रिम पर्वतादि तथा कोयल, भ्रमर, मयूर चक्रवाक एव पथिक क्रीडा का वर्णन प्रशस्य बताया गया है । 3 परवर्ती काल मे केशव मिश्र ने पुष्प, लतादि के पक्तिबद्ध होने की चर्चा की है । पीक, भ्रमर, हस आदिको की क्रीडा तथा पथिको की विश्राम स्थली भी बताया है ।
4
अत केशव मिश्र का निरूपण अजितसेन से प्रभावित है ।
2
-
3
अजितसेन ने नदी के वर्णन से समुद्र गमन, हसमिथुन, मछलीकलरव तट पर उत्पन्न हुई लताएँ कमलिनी कुमुदनी इत्यादि करने का उल्लेख किया है । परवर्ती काल मे आचार्य केशव पथिको के केलि वर्णन तथा तट पर वन वर्णन की चर्चा शेष अशों को शाब्दिक परिवर्तन के साथ स्वीकार कर
4
नद्यामम्बुधियायित्व हसमीनाम्बुजादय । विरूत तटवल्लर्यो नलिन्युत्पलिनीस्थिति ।।
सरित्यम्बुधियायित्व वीच्यो वनगजाद 1 पद्मानि षट्पदा हसनक्राद्या कूलशारिवन ।।
उद्याने कलिकापुष्पफलवल्लीकृताद्रय । पिकालिकेकिचक्राद्या पथिकक्रीडनस्थिति ।।
उद्याने सरणि सर्वफलपुष्पलतादय । पिकालिके कि हसाद्या क्रीडावाप्यध्वगस्थिति ।
अ०चि०
1/42
अ०शे0 6/2, पृ0-62
अचिo
1/43
अ०शे0 -6/2, पृष्ठ-63
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पर्वत के वर्णनीय विषय -
__ पर्वत के वर्णन प्रसग मे अजित ने बताया कि पर्वत के शिखर उसकी गुफाओं तथा उस पर उत्पन्न होने वाले बहुमूल्य रत्नों का वर्णन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त इन्होंने वनवासी किन्नर, झरना, सानु, गैरिक आदि धातु तथा उच्च शिखर पर निवास करने वाले मुनियों तथा कुसुमों के आधिक्य का वर्णन किया है ।' इनके पूर्ववर्ती आचार्य राजशेखर ने भी पर्वतों पर समस्त प्रकार के रत्नों के उत्पत्ति के वर्णन का उल्लेख किया है ।
बाँस
परवर्ती काल मे आचार्य केशवमिश्र ने मेघ, औषधि, धातु, वश आदि का अधिक प्रतिपादन किया है शेष अजित सेन से प्रभावित है ।
वन के वर्णनीय विषय -
_अजितसेन के अनुसार वन-वर्णन, प्रसग मे सर्प, सिह, व्याघ्र, सूअर, हरिण तथा विविध तरूओं के साथ भालू, उल्लू इत्यादि का और कुञ्ज, वाल्मीकि एव पर्वत इत्यादि का वर्णन करना आवश्यक है ।
आचार्य केशव मिश्र कृत परिभाषा अजित सेन के समान है ।
अद्रोशृगगुहारत्नवनकिन्नरनिर्झरा । सानुधातुसुकूटस्थमुनिवंशसुमोच्चया ।।
अचि0 - 1/44 यत्र तत्र पर्वतेषु सुवर्णरत्नादिक च । काव्यमीमासा - अध्याय - 14,
पृ0 - 198 शैले मेघौषधी धातुवशकिन्नरनिर्झरा । श्रृगपादगुहारत्नवनजीवाद्युपत्यका ।।
अ00 - 6/2 पृ0-63 अरण्येऽहि हरिव्याघ्रवराह हरिणादय । द्रुमा भल्लूकधूकाद्या गुल्मवल्मीकपर्वता ।।
अचि0 - 1/45 अरण्येहि वराहेभयूथसिहादयो द्रुमा । काकोलूककपोताद्या भिल्लभल्लूदवादय ।।
अ00 - 6/2, पृ0 - 62
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मन्त्र के अन्तर्गत वर्षनीय विषय -
मन्त्र मे कार्यारम्भ करने का उपाय, देश-काल का विभाग, पुरुष व द्रव्य सम्पत्ति, विघ्न प्रतीकार, कार्यसिद्धि - इन पाँचों अगों, साम, भेद, दान ओर दण्ड - इन चार उपायों का, प्रभाव - उत्साह ओर मन्त्र इन तीन शक्तियों का वर्णन करना चाहिए ।'
दूत के वर्णनीय विषय -
दूत का वर्णन करते समय उसकी स्वपक्ष तथा परपक्ष के वैभव तथा दोषादि का ज्ञान तथा वाक्चातुर्य का होना आवश्यक बताया गया है । भामह, दण्डी तथा उद्भट आदि आचार्यो ने इसका उल्लेख नहीं किया है ।
मनुस्मृति मे राजदूत को सब शास्त्रों मे कुशल इगित आकार और चेष्टा से मन का भाव समझने वाला, पवित्र, चतुर और कुलीन कहा गया है । वह अनुरक्त, चतुर, मेधावी, देशकालवित्, रूपवान, निर्भीक और वाग्मी होता है । राजदूत ही बिछडे हुओं को मिलाता है और मिले हुओं को छोडता है । वह ऐसा काम करता है जिससे शत्रुपक्ष का जन-बल छिन्न - भिन्न हो जाय ।
मन्त्रे पञ्चागतोपायशक्तिनैपुण्यनीतय ।
अचि0 - 1/46
दूते स्वपरीक्षश्रीदोषवाक्कोशलादय ।
अचि0, पृ0 10
मनुस्मृति 7/63
मनुस्मृति 7/63, 64, 66 पृ0 - 241 भाषाप्रकाशतीकाएँ दूत चैव प्रकुर्वीत सर्वशास्त्रविशारदम् । इगिताकारचेष्टज्ञ शुचि दक्ष कुलोद्गतम् ।। अनुरक्त शुचिर्दक्ष स्मृतिमान्देशकालवित् । वपुष्मान्नीतमावाग्मी दूतो राज्ञ प्रशस्यते ।। दूत एव हि सधत्ते भिनच्येव च सहतान् । दूतस्तत्कुरुते कर्म भिद्यन्ते येन मानवा ।।
वही 7/64
वही 7/66
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विजय यात्रा के वर्णनीय विषय.
अजित सेन के अनुसार शत्रु विजय के लिए की जाने वाली यात्रा के लिए घोडों के खुरों से उठी हुई धूलि, रणभेरी, कोलाहल, ध्वज कम्पन या ध्वजाओं का लहराना, पृथ्वी-कम्पन, रथ, हाथी, उष्ट्र आदि के समूह - सघर्ष एव सेना की गमन ति का वर्णन करना अपेक्षित है ।'
परवर्ती काल मे आचार्य केशव मिश्र ने प्रयाण के अक्सर पर भेरिध्वनि, भूकम्प, धूलि तथा हाथिओं के चिग्घार, वणिक - मण्डल, भयकर नाद, शर-मण्डप तथा नदियों की आरक्तता के वर्णन की चर्चा की है तथा रथ, चक्र, चामर, केतु, ध्वजा, हाथी, योद्धा आदि के छिन्न होने और देवताओं के द्वारा की गयी पुष्प वृष्टि के वर्णन की चर्चा की है 12 इनके प्रतिपादन मे प्रभाव के साथ - साथ नव्यता भी है । क्योंकि छत्र चामरदि के भग होने की चर्चा अजितसेन ने नहीं की है ।
मृगया के वर्णनीय विषय -
अजित सेन के अनुसार - हरिणों का भय, पलायन तथा बुरी दृष्टि से चितवन आदि का मृगया के वर्णन प्रसग मे वर्णन करना आवश्यक है । आचार्य
प्रयाणेऽश्वखुरोद्भूतरजोवाद्यरवध्वजा । भूकम्पो रथहस्त्यादिसघट्ट पृतनागति ।।
अ०चि0 - 1/47 प्रयाणे भेरिनिस्वानभूकम्पबलधूलय । करभोक्षध्व जच्छत्रवणिक्शकटवेसरा ।।
अलकारशेखर - षष्ठरत्न - द्वितीयमरीचि
पृष्ठ स0 - 63, काशी सस्कृत सीरीज 1927 मृगयाया मृगत्राससञ्चारदि - कुदृष्टिभि । कृत ससारभीरुत्वजननाय वदेत् क्वचित् ।।
अचि0 - 1/48
3
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केशव मिश्र ने भी मृगया वर्णन पर अपने विचार व्यक्त किए है मृगया मे वन्य प्राणियों के सचरण जुगाली तथा आखेटकों के नील परिधान का वर्णन करना चाहिए मृगों की अधिकता एव मृग त्रास का भी आखेट मे महत्वपूर्ण स्थान है । हिसक प्राणियों के प्रतिदोह तथा उनकी तीव्र गति का प्रतिपादन करना भी मृगया के वर्णन मे औचित्यपूर्ण बताया गया है । इन्होंने आखेटकों के नील वेष की चर्चा करके, अजित सेन की अपेक्षा एक नवीन विचार प्रस्तुत किया है । ।
अश्व के वर्णनीय विषय -
गज के वर्णनीय विषय -
-
वर्णन मे तीव्र वेग, देवमणि, अश्व शुभ वाह्लीक आदि जातियों तथा उच्चता आदि पूर्ववर्ती आचार्यों ने प्राय नहीं की है ।
अजितसेन के अनुसार अश्व के लक्षण, रेचकादि पाँच प्रकार की गतियाँ, का वर्णन अपेक्षित है । 2 इसकी चर्चा परवर्ती आचार्यों मे केशव मिश्र के अनुसार अश्व का वेग, औनत्य, तेज एव उसके उत्तम लक्षण का निरूपण करना चाहिए । इसके अतिरिक्त उसकी जाति, वैचित्र्य, खुरोत्पारित धूलि समूह का भी वर्णन करना चाहिए | 3
गज
चाहिए 14
I
2
3
4
-
-
गज वर्णन के प्रसग मे
मुक्ता, गण्डस्थल तथा
-
-
शत्रु
-
गज - मद तथा उन पर भ्रमरों का आकर्षण, निर्मित व्यूह को तोडने का वर्णन करना
मृगयाया च संचारो वागुरा नीलवेषता । मृगाधिक्य मृगासो हिस्रद्रोहो गतित्वरा ।।
अश्वे वेगित्वसल्लक्षगतिजात्युच्चतादय ।
अश्वे वेगित्वमोन्नत्य तेज सल्लक्षणस्थिति खुरोत्खातरज प्रौढिर्जातिर्गतिविचित्रता ।।
गजेऽरिव्यूह भेदित्वकुम्भमुक्तामदाल ।
-
roo
-
6/2 go
अचिo
- 65
1/49
अ० शे० - 6/2
अ०चि० 1/49
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आचार्य केशव मिश्र के अनुसार गज के कर्ण चापल तथा सहस्र योद्धाओं से युद्ध के प्रतिपादन करने की चर्चा इन्होंने अजितसेन से अधिक की है । शेष वर्णन मे समानता है ।
बसन्त ऋतु
बसन्त ऋतु मे दोला मलयानिल, भ्रमर वैभव की झकार, कुड्मल की उत्पत्ति, आम, मधूक आदि वृक्ष, पुष्प, मञ्जरी एव लता आदि का वर्णन करना चाहिए 12
2
-
3
वसन्त ऋतु के वर्ण्य विषयों की चर्चा नाट्यशास्त्र, काव्यमीमासा एव अलकारशेखर मे भी की गयी है । 3 अजितसेन कृत वर्णन एव भरतमुनि कृत वर्णन में पर्याप्त साम्य है । राजशेखर एव विश्वनाथ ने क्रमश मालती तथा 'जाती' पुष्प के अभाव का ही वर्णन किया है । 4
4
ऋतुओं के वर्णनीय विषय
गजे सहस्रयोधित्वमुच्चता कर्णचापलम् । अरिव्यूहविभेदित्व कुम्भमुक्तामदालय ।।
म दोलानिलालि
सहकारविटप्यादि
-
-
झकार-कलिकोद्गमा । सुमनोमञ्जरीलता ।।
-
(क) प्रमोदजननारम्भैरूप - भोगैस्तथोत्सवे । वसन्तस्त्वभिनेतव्यो नानापुष्पप्रदर्शनात् ।।
ना०शा०
(ख) तद्यथा न मालती वसन्ते ।
(ग) सुरभी दोलाकोकिलदक्षिणवातद्रुपल्लवोद्भेदा । जातीतरपुष्पचयाऽऽप्रमञ्जरीभ्रमर झकारा ।।
न स्यात्जाती वसन्ते ।
अ० शे० - 6/2
अ०चि०
26/32 go काव्यमीमासा
-
-
1/50
- 301
अ०शे० - 6 /2, पृ०
सा०द०
पृ० - 200
- 64
7/25 पूर्वाद्ध
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ग्रीष्म ऋतु
भरतमुनि के अनुसार स्वेद, अपमार्जन, भू-ताप, व्यजन, वायु की उष्णता आदि को ग्रीष्म ऋतु के वर्णनीय विषय बताए गए है । भरतमुनि के पश्चात् अजित सेन ने इस विषय पर विचार किया । उन्होंने ग्रीष्म ऋतु मे उष्मा, सरोवर, शुष्कता, पथिक, मृग-तृष्णा, मृग मरीचिका, प्रपा (प्याउ) कूप व सरोवर से जल भरने वाली नारियों का वर्णन तथा मल्लिका पुष्प के वर्णन करने की चर्चा की। 2 भरत मुनि की अपेक्षा अजितसेन ने ग्रीष्म ऋतु के वर्णनीय विषयों को अधिक सख्या मे परिगणित किया है । परवर्ती काल मे अजितसेन के आधार पर ही केशव मिश्र ने इन विषयों का निरूपण किया है । जिस पर अजितसेन का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है । 3
वर्षा ऋतु -
भरतमुनि ने वर्षा ऋतु के वर्ण्य विषय के सन्दर्भ मे कदम्ब, निम्ब, कुटज आदि की हरीतिमा का इन्द्रगोप, नामक कीट विशेष तथा मयूरों के समूह के वर्णन की चर्चा की है । इसके अतिरिक्त मेघ समूह, मेघों का गम्भीर नाद, धारा प्रपात, विद्युत निर्धात धोव, इष्ट व अनिष्ट के की चर्चा की है । 4 भरतमुनि के पश्चात् अजित सेन ने
दर्शन आदि के वर्णन भी वर्षा ऋतु के वर्ण्य
1
2
3
4
-
स्वेदापमार्जनाञ्चापि भूमितापै सुवीजनै । उष्णाच्य वायो स्पर्शाच्च ग्रीष्म त्वभिनयेद् बुध ।।
निदाघे मल्लिकातापसर पथिकशोषिता । मरीचिका मृगभ्रान्ति प्रपा तत्रत्ययोषित ।
ग्रीष्मे पाटलमल्लीतापसर पथिक शोषबातोल्का । सक्तुप्रपाप्रयास्त्री मृगतृष्णामादिफलपाका ।।
कदम्बनिम्बकुटजै शाद्वलै सेन्द्रगोपकै । कदम्बकैर्मयूराणा प्रावृष संनिरूपयेत् ।। मेघौघनादगम्भीरधाराप्रपतनैरपि । विद्युनिन्नर्घातघोषैश्च वर्षरात्र विनिर्दिशेत् ।। यद्यञ्च चिह्न वेषो वा कर्म वा रूपमेव वा । ऋतु स तेन निर्देश्य इष्टानिष्टार्थदर्शनात् ।।
ना०शाo
अचि०
ना०शा०
26/33
1/51
अ० शे० 6/2
-
26/34-37
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विषयों का उल्लेख किया है । इन्होंने वर्षा ऋतु मे मेघ, मयूर, वर्षा कालीन सौन्दर्य झझावात वृष्टि के जलकण फुहार व जलपात, हसों का निर्गमन, केतकी कदरबादि की कलिकाए और उसके विकास का चित्रण करने की चर्चा की है ।' इन्होंने कदम्ब, निम्ब तथा कुटज का वर्णन नहीं किया है । जो भरत कृत नाट्यशास्त्र मे अधिक है । आचार्य केशव मिश्र द्वारा निरूपित विषय वस्तुओं पर अजितसेन का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है 12
शरद ऋतु -
नाट्यशास्त्र के अनुसार शरद् ऋतु मे सभी इन्द्रियों की स्वस्थता, दिशाओं की स्वच्छता तथा विचित्र कुसुमों के सौन्दर्य के वर्णन करने का निर्देश दिया गया है । अजितसेन कृत शरद् ऋतु के वर्ण्य विषयों का निरूपण भरतमुनि की अपेक्षा नवीन है । इनके अनुसार शरद् ऋतु मे चन्द्रमा व सूर्य की किरणों की स्वच्छता के वर्णन करने की बात कही गयी है । हसो के आगमन, वृषभादि पशुओं की प्रसन्नता, धन, कमल, सप्तपर्णादि पुष्पों का एव जलाशय आदि की स्वच्छता के प्रतिपादन की भी चर्चा की है । केशव मिश्र कृत निरूपण भरत व अजित सेन कृत वर्णन से प्रभावित है ।
अचि0 - 1/52
वर्षासु उनकेकिश्रीझञ्झानिलसुवा कणा । हसनिर्गतिकेतक्य कदम्बमुकुलादय ।। वर्षासु घनशिखिस्मयहसगमा पककन्दलोद्भेदौ । जातीकदम्बकेतकझञ्झानिलनिम्बगाहलिप्रीति ।। सर्वेन्द्रयस्वस्थतया दिक्प्रसन्नतया तथा । विचित्रकुसुमालोकै शरद तु विनिर्दिशेत् ।।
अ00 - 6/2
ना०शा0 - 26/27
शरदन्द्विनसुव्यक्तिहसपुगवहृष्टय । शुभ्राभ्रस्वच्छवा पद्मसप्तच्छदजलाशया ।
अ०चि०- 1/53
शरदीन्दुरविपटुत्व जलाच्छताऽगस्त्यहसवृषदया । सप्तच्छदा सिताभ्राब्जरूचि शिखिपक्षमदपाता ।।
अ00 - 6/2
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हेमन्त ऋतुः
___ आचार्य अजितसेन ने हेमन्त ऋतु मे हिमयुक्त लताओं, मुनियों की तपस्या एव कान्ति अदि के वर्णन का उल्लेख किया है ।' पूर्ववर्ती आचार्य भरतमुनि के अनुसार सिर, दाँत, ओष्ठ का कम्पन, गात्र सकोचन, सीत्कार आदि का वर्णन करना चाहिए ।2 अजितसेन कृत वर्णन मे भरतमुनि की अपेक्षा नवीनता दृष्टिगोचर होती है । आचार्य केशव मिश्र के अनुसार हेमन्त ऋतु मे दिन की लघुता, शीताधिक्य, यव की वृद्धि आदि का वर्णन करना प्रशस्य बताया गया है ।
शिशिर ऋतु के वर्णनीय विषय -
भरत के अनुसार शिशिर ऋतु मे पुष्पों मे पराग और सुगन्ध का वर्णन अपेक्षित बताया गया है । इसी सन्दर्भ मे इन्होंने वायु की रूक्षता का प्रतिपादन करने का सकेत किया है । आचार्य अजितसेन ने भरत की अपेक्षा एक नये विषय के वर्णन की चर्चा की है जिसमे शिरीष व कमल के पुष्प का विनाश बताया गया है । परवी आचार्य केशव मिश्र ने शिशिर ऋतु के वर्ण्य विषय के सन्दर्भ मे कुन्दसमृद्धि तथा गुड की सुगन्धि की चर्चा की है जिसका उल्लेख भरतमुनि तथा अजितसेन ने भी नहीं किया है ।
हेमन्ते हिमसलग्नलतामुनितप प्रभा ।
अचि0 - 1/54 का पूर्वाद्ध
गात्र सकोचनेनापि सूर्याग्निपटवेशनात् । हेमन्तस्त्वभिनेय स्यात् पुरुषैर्मध्यमोत्तम ।। शिरोदन्तोष्ठकम्पेन गात्रसकोचनेन च । कूजितैश्च स्सीत्कारेरेधम शीतमादिशेत् ।।
नाOशा0 26/28, 29
हेमन्ते दिनलघुता मरुवकयववृद्धि शीतसम्पत्ति ।
अ000 - 6/2
मधुदानात्तुपुष्पाणा गन्धध्राणेस्तथैव च । रूक्षाश्च वायो स्पर्शाश्च शिशिर रूपयेद् बुध ।।
ना०शा0 - 26/31
शिशिरे च शिरीषाब्जदाहशैत्यप्रकृष्टय ।
अ०चि0 - 1/54 अ00-6/2, पृ0-64
शिशिरे कुन्दसमृद्धि कमलहतिर्वा गुडामोदा ।
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सूर्य के वर्णनीय विषय -
सूर्य के वर्ण्य विषय के प्रसग मे आचार्य अजितसेन ने उसकी अरूणिमा, कमल का विकास, चक्रवाको की आँखों की प्रसन्नता, अन्धकार का नाश कुमुदिनी का सकोचन, तारा - चन्द्रमा - दीपक की प्रभावहीनता एव कुटलाओं की पीडा आदि के चित्रण का उल्लेख किया है ।' परवर्ती आचार्य केशव मिश्र के अनुसार सूर्य मे अरुणता चक्रवाक पक्षियों की प्रीति, कमल, पथिकों की प्रसन्नता आदि का वर्णन आवश्यक बताया है 12
चन्द्रमा के वर्ण्य विषय -
अजित सेन के अनुसार चन्द्रमा के वर्णन मे मेष, कुलटा चकवा चकवी चोर अधकार व वियोगिनियों की मर्मव्यथा तथा उज्ज्वलता, समुद्र कैरव और चन्द्रकान्तमणि की प्रसन्नता का वर्णन अपेक्षित है । जबकि केशव मिश्र ने कुलटा, चक्रवाक पक्षी, कमल चोर तथा विरह के वर्णन मे चन्द्रमा को कष्टवर्धक बताया है तथा चकोर, चन्द्रकान्तमणि तथा दम्पत्ति के लिये इसे प्रीति वर्धक बताया है । केशव मिश्र कृत विवेचन अजितसेन कृत विवेचन की अपेक्ष किञ्चिद् अधिक
धुमपावरूपत्वाब्जचक्रवाकाक्षिहृष्टय । तम कुमुदतारेन्दुप्रदीपकुलटार्तय ।।
अचि० 1/55
सूर्येऽरुणतरविमणिचक्राम्बुजपथिकलोचनप्रीति । तारेन्दुदीपकौषधि धूकतमश्चोरकुमुदकुलटार्ति ।।
अ00 - 6/2
चन्द्रेऽभ्रकुलटाचक्रचोरध्वान्तवियोगिनाम् । आर्तिरूज्ज्वलता - वार्धिकैरवेन्दुश्महृष्टय ।।
अचि0 - 1/56
चन्द्रे कुलटाचक्राम्बुजचौरविरहितमोऽर्तिरोज्ज्वल्यम् । जलधिजननेत्रकैरवचकोरचन्द्राश्मदम्पत्तिप्रीति ।।
अ00 - 6/2 पृ0 - 63
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आश्रम के वर्णनीय विषय -
अजितसेन के अनुसार आश्रम के चित्रण मे मुनियों के समीप सिह हाथी और हिरण आदि की शान्तता, सभी ऋतुओं मे प्राप्त होने वाले फल-पुष्पादि की शोभा एव इष्टदेव के पूजन आदि का चित्रण करना अपेक्षित है ।' आचार्य केशव मिश्र ने आश्रम मे अतिथि पूजा, एण-मृग का विश्वास पूर्वक गमन करना, हिसक पशुओं की प्रशान्तता, यज्ञधूम का वर्णन, मुनि सुता का वर्णन, वृक्ष सेचन वल्कल धुमादि का वर्णन आवश्यक बताया है ।2 आचार्य केशव मिश्र कृत वर्णन अजितसेन कृत आश्रम वर्णन के समान ही है ।
युद्ध के वर्णनीय विषय -
__ अजित सेन के अनुसार युद्ध का वर्णन करते समय तूर्य आदि वाद्यों की ध्वनि, तलवार आदि की चमक, धनुष की प्रत्यचा पर बाण चढाना, छत्रभग, कवचभेदन गज, रथ एव सैनिकों का वर्णन करना आवश्यक है । केशव मिश्र के अनुसार युद्ध मे वर्म, तूर्य - निर्धात, शर - मण्डप, नदियों की आरक्तता छत्र, रथ, चामर, ध्वज गज आदि की छिन्नता - भिन्नता का प्रतिपादन तथा देवताओं के द्वारा की गयी विजय कालीन पुष्प वृष्टि का वर्णन करना चाहिए ।
आश्रमे मुनिपादान्ते सिहे भैणादिशान्तता । सर्वर्तुफलपुष्पादिश्रीरगीकृतपूजनम् ।।
अ०चि0 - 1/57
आश्रमेऽतिथिपूजेणविश्वासो हिस्रशान्तता । यज्ञधूमो मुनिसुता दुसेको वल्कल दुमा ।।
अ00 - 6/2
युद्ध तूर्यनिनादासिस्फुलिगशरसधय । छिन्नातपत्रवर्मभरथध्वजभटादय ।।
अ०चि0 - 1/58
युद्धे तु वर्मबलवीररजांसि तूर्य - निर्धातनादशरमण्डपरक्तनद्यः । छिन्नातपत्ररथचामरकेतुकुम्भि योधा सुरीवृतभटा सुरपुष्पवृष्टि ।।
अ00 - 6/2, पृ० - 63
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जन्म कल्याण के वर्णनीय विषय -
जन्म कल्याण का वर्णन करते समय गर्भावतरण आदि का वर्णन और जन्माभिषेक के समय एरावत हाथी, सुमेर, पर्वत, समुद्र देवों की जय ध्वनि तथा विद्याधरों का जन्मोत्सव में सम्मिलित होना आदि विषयों का वर्णन करना चाहिए।' इसका निरूपण पूर्ववर्ती आचार्यो ने नहीं किया । परवर्ती आचार्यो मे भी जयदेव दीक्षित विश्वनाथ विद्यानाथ जगन्नाथादि ने इस विषय पर कहीं भी किसी प्रकार की चर्चा नहीं की।
विवाह के वर्षनीय विषय -
अजित सेन के अनुसार विवाह का वर्णन करते समय स्नान शरीर की स्वच्छता, अलकार, सुमधुर गीत, विवाह मण्डप, वेदी, नाटक नृत्य एव वाद्यों की विविध ध्वनियों का निरूपण करना आवश्यक बताया गया है ।2 केशव मिश्र ने भी प्राय इन्हीं विषयों का वर्णन करने का निर्देश दिया है ।
विरह के वर्णनीय विषय.
विरह के वर्णन करते समय उष्ण नि श्वास, मानसिक चिन्ता शरीर की दुर्बलता, शिशिर ऋतु मे गर्मी की अधिकता रात्रि जागरण खुशी व प्रसन्नता
जनमे नामकल्याणगर्भावतरणादिकम् । तत्रेन्द्रदन्तिमर्वब्धिश्रेणीसुररवादय ।।
अ०चि0 - 1/59
विवाहे स्नानशुभ्रागभूषाशोभनगीतय । विवाह मण्डपो वेदी नाट्यवाद्यखादय ।।
अचि0 - 1/60
विवाहे स्नानशुद्धागभूषा तूर्यत्रयीरवा । वेदीसगीतहोमादिलाजमगलवर्णनम् ।।
अ00 - 6/2
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के अभाव का चित्रप अपेक्षित बताया गया है ।'
केशव मिश्र ने भी अजितसेन द्वारा प्रतिपादित विषयों में से कुछ विषयों को स्वीकार किया है व कुछ नवीन विषयों का उल्लेख भी किया है । इन्होंने विरह मे चिन्ता, मौनता, कृशागता, रात्रि की दीर्घता, जागरण तथा शिशिर ऋत की उष्णता आदि वर्णन करने का निर्देश दिया है ।2
सुरत के वर्णनीय विषय -
अजितसेन के अनुसार शीतकाल, कण्ठालिगन, नख-क्षत, दन्त-क्षत, करधनी, ककण, मञ्जीर की ध्वनि और स्त्री पुरुष की विपरीत रति का वर्णन करने का निर्देश दिया है 13 केशव मिश्र के विचार अजितसेन से अभिन्न
स्वयंवर के वर्ण्य विषय.
अजितसेन के अनुसार स्वयवर वर्णन के अवसर पर सुन्दर नगाडा, मञ्च-मण्डप, कन्या तथा स्वयवर मे पधारे हुए राजाओं के वश, प्रसिद्धि, यश,
विरहे तापनि श्वासमनश्चिन्ताकृशागता । शिशिरीष्ण्यनिशादर्थ्य जागराहासहानय ।।
अचि0 - 1/61
विरहे तापनिश्वासचिन्तामोनकृशागता । अब्दसख्या निशादर्थ्य जागर शिशिरोष्णता ।
अ00 - 6/2
सुरते सीत्कृतिग्रीवानरवदन्तक्षतादय । काञ्चीककपमञ्जीरश्वमायितादय ।।
अ०चि0 - 1/62
सुरते सात्विका भावा सीत्कारा कुड्मलाक्षता । काञ्चीककपमञ्जीरवोरदनखक्षते ।।
अ00 -12
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सम्पत्ति, रूप - लावण्य, आकृति, प्रभृति का चित्रण करना अपेक्षित बताया है ।' आचार्य केशव मिश्र ने इस विषय मे अजितसेन का अनुकरण किया
है 12
मदिरापान के वर्ण्य विषय -
मदिरापान के अवसर पर भमर को लक्ष्य कर भ्रान्ति और प्रेमादि का स्पष्ट वर्णन करना चाहिए । महापुरुष मदिरा को रागादि दोष के उत्पादक होने के कारण उसे नहीं पीते है । मदिरापान के वर्णन प्रसग मे व्यग्य और सूच्य द्वारा प्रेम, रति एव अन्य क्रिया व्यापारों का उललेख करना आवश्यक है। केशव मिश्र के अनुसार सुरापान मे विकलता, वचन तथा गति मे स्खलन, नेत्रों की आरक्तता, लज्जा व मान का अभाव तथा प्रेमाधिक्य के प्रतिपादित करने को आवश्यक बताया है 14 अजितसेन ने व्यग्य व प्रीति को सूच्य बतलाया है जबकि केशव मिश्र ने इसका उल्लेख नहीं किया है ।
पुष्पावचय के वर्ण्य विषय -
___ अजित के अनुसार पुष्पावचय के अवसर पर परस्पर वक्रोक्ति, गोत्रस्खलन, कहना कुछ चाहते है पर मुख से कुछ और ही निकलता है, परस्पर
स्वयवरे सुसन्नाहो मञ्चमण्डपकन्यका । तस्या भूपान्वयख्याति - सम्पदाकारवेदनम् ।।
अचि0 - 1/63
स्वयवरे शचीरक्षा मञ्चमण्डपसज्जता । राजपुत्रीनृपाकारान्वयचेष्टाप्रकाशनम् ।।
अ00 - 6/2
मधुपानेऽलिमाश्रित्य भ्रमप्रेमादिरुच्यताम् । महान्तो न सुरा दृष्या पिबन्ति पुरुदोषत ।।
अ०चि0 - 1/64
सुरापाने विकलता स्खलन वचने गतौ । लज्जामानच्युति प्रेमाधिक्य रक्ताक्षता भ्रम ।।
अ00 - 6/2
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________________
आलिगन एव रागभावपूर्वक अवलोकन इत्यादि का वर्णन करना अपेक्षित है ।' केशव मिश्र के अनुसार पुष्पावचय के समय गोत्र - स्खलन, वक्रोक्ति सभ्रम तथा आश्लेष आदि वर्णन करना चाहिए 12 अजितसेन तथा केशव मिश्र दोनों के वर्ण्य विषय प्राय समान है ।
जल क्रीडा के वर्ण्य विषय -
जल - क्रीडा के अवसर पर जल सक्षोभ जलमथन हस व चक्रवाक का वहाँ से हटना, धारण किए हुए हार आदि अलकार का गिर पडना, जल कण-जल सीकर युक्त मुख एव श्रम इत्यादि का वर्णन करना चाहिए । केशव मिश्र ने पद्म-भ्लानि तथा नेत्रों की आरक्तता को भी प्रतिपादित करने की बात कही है जिसका उल्लेख अजित सेन ने नहीं की है शेष अशों मे दोनों के उक्त वर्ण्य विषय समान है । अन्य आचार्यों के अनुसार काव्य के वर्ण्य -विषम
इसके अतिरिक्त इन्होंने अन्य आचार्यानुमोदित अठारह प्रकार के विषयों का उल्लेख किया है जो निम्न लिखित है -
चन्द्रोदय सूर्योदय
2
अचि0 - 1/65
अ00 - 6/2
अ०चि0 - 1/66
पुष्पोचयने पुष्पावचयो वक्रसूक्तय । गोत्रस्खलनमाश्लेष परस्परविलोकनम् ।। पुष्पावचये पुष्पावचय पुष्पार्पणार्थने दयिते । मालागोत्रस्खलने क्रोधो वक्रोक्तिसभ्रमाश्लेषा ।। अम्भ केलौ जलक्षोभो हसचक्रापसर्पणम् । भूषाच्युतिपयोबिन्दुलग्नास्य जलजश्रमा ।। जलकेलो सर क्षोभश्चकहसाफ्सर्पणम् । पद्मम्लानि पय क्षेपोऽक्षिरागो भूषपच्युति ।। चन्द्रार्कोदयमन्त्रद्तसलिलक्रीडाकुमारोदयो । द्यानाम्भोधिपुरर्तुशैलसुरताजीनाप्रयाणस्य च ।। वर्णयत्व मधुपाननायकपदव्योर्विप्रलम्भस्य च । काव्येऽष्टादशसखयक युतविवाहस्यापि केचिद्विदु ।।
अ000-6/2, पृ0-65
अचि0-1/68
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मन्त्र
जल क्रीडा राजकुमार का अभ्युदय उद्यान समुद्र
नगर
वसन्तादि ऋतुएँ पर्वत
सुरत
यात्रा मदिरापान नायक नायिका की पदवी वियोग
विवाह
उक्त अठारह विषयों का उल्लेख किन आचार्यों ने किया - इसका अजितसेन ने स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है ।
शिलामेफ्सेन कृत 'स्वभाषालकार' तथा दण्डी कृत काव्यादर्श मे नायकनायिका की पदवी को छोडकर प्राय सभी विषयों का उल्लेख किया गया है । इसके अतिरिक्त इन्होंने यह भी बताया है कि वर्णन करने में निपुण कवि स्वय
का नगराणवशैलन्र्तुचन्द्रार्कोदयवर्णने । उद्यानसलिलक्रीडामधुपानरतोत्सवै ।।
विप्रलम्भे विवाहै श्च कुमारोदयवर्णनै । मन्त्रदूतप्रयाणाजिनायकाम्युदयैरपि।। अलकृतमसंक्षिप्त रसभावनिरन्तरम् । सर्गरनतिविस्तीर्णे सुसन्धिश्रव्यवृत्तकै ।। लोकस्य रजक काव्य जायते कविभूषणम् । चिरस्थायि मनोहारि जयदायि निरन्तम् ।।
बौद्धालकारशास्त्रम् भाग दो
स्वभाषालकार - 1/23-260 ख) काव्यादर्श - 1/15-19
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विचार करके विषय वस्तु का यहाँ वर्णन की दिशा मात्र का चरम सीमा न समझनी चाहिए ।
है
कवि समय की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है । महाकवि कालिदास ने अपनी रचनाओं मे इसका अधिक उपयोग किया है । भामह, उद्भट, दण्डी आदि आलकारिक आचार्यो। ने इस विषय पर विवेचन नहीं किया है, प्रत्यतु लोक और शास्त्रविरुद्ध विषयों के वर्णन को काव्यदोष माना है । राजशेखर ने इस विषय पर सर्वप्रथम और विस्तृत विमर्श किया है तथा इसे एक व्यवस्थित रूप दे दिया है । इसका कारण यह प्रतीत होता है कि कुछ लोगों ने कवि समय के नाम पर मनमानी प्रारम्भ कर दी थी । अत उसकी विवेचना भी आवश्यक हो गयी थी । वामन ने 'कविशिक्षा2 नामक प्रकरण में इस विषय की चर्चा की है ।
आचार्य राजशेखर ने कवि समय को तीन भागों में विभाजित किया
चित्रण करे । तो विषय समर्चनीय होगा क्योंकि ही प्रदर्शन किया गया है इसे वर्ण्य विषयों की
2
कवि समय के भेद
1 स्वर्ग, 2 भौम, 3 पातालीय । जिनमे 'भौम' कवि समय को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है । भौम कवि समय का क्षेत्र विस्तृत होने के कारण इसे चार भागों में विभाजित किया गया है
। जाति रूप, 2 द्रव्य रूप 3 गुणरूप तथा 4 क्रियारूप |
वर्ण्यदिड् मात्रता प्रोक्ता यथालड् कारतन्त्रकम् । वर्णनाकुशलैश्चिन्त्यमनेकविधमस्ति तत् ।।
-
'काव्यालकारसूत्र' पञ्चम अधिकरण, अध्याय -
अचि० 1/67
-
पाच, सूत्र 1-17
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इन चार प्रकार के अर्थों में प्रत्येक के तीन - तीन भेदों का उल्लेख किया है । 1 असत् का उल्लेख, 2) सत् का भी अनुल्लेख, 13 नियम ।'
जो पदार्थ शास्त्र व लोक मे देखा या सुना न गया हो - काव्य-रचना मे उसका उल्लेख करना असत् का निबन्धन है ।
शास्त्र या लोक दोनों में वर्णित पदार्थ का उल्लेख न करना - सत् का अनिबन्धन है।
शास्त्र व लोक के नियमों से नियन्त्रित एव बहुधा व्यवहृत पदार्थ का उल्लेख करना नियम है ।
आचार्य राजशेखर ने इनका उल्लेख इस प्रकार किया है -
असत् का निबन्धन
जातिगत अर्थ मे असत् का निबन्धन-जैसे नदियों मे कमल - कुमुदादि का वर्णन, जलाशय में हस - सारसादि का वर्णन सभी पर्वतों मे सुवर्ण रत्नादि का वर्णन करना 12
द्रव्यगत असत् का निबन्धन - जैसे अन्धकार का मुष्टि-ग्राह्यत्व, सूची भेदत्व, चादनी का घडों मे भरा जाना आदि ।
काव्यमीमासा अध्याय - 14, पृष्ठ - 197
वही - पृष्ठ - 198 वही - पृष्ठ - 202, अ0 - 14
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असत क्रियागत निवन्धन- जैसे रात्रि मे चकवा - चकवी का जलाशय के भिन्न तटों पर पृथक रहना और चकोरों का चन्द्रिकापान करना ।
असत् गुणों का निबन्धन . यथा यश और हास्य की शुक्लता का प्रतिपादन, अयश, पापादि का कृष्णरूप वर्णन, क्रोध, अनुरागादि की रक्तता का वर्णन करना आदि के वर्णन करने की चर्चा की है ।2
सत् के अनिबन्धन
1.
जातिगत अर्थ में सत् का अनिबन्धनः
जैसे वसन्त मे मालती के होने पर भी उसका वर्णन न करना, चन्दन के वृक्षों मे पुष्प व फल का वर्णन न करना, अशोक के फलों का वर्णन न करना मकरादि का समुद्र के ही जल मे वर्णन करना, ताम्रपर्णी नदी मे ही मोतियों का वर्णन करना आदि ।
द्रव्यरत अर्थ में सत का अनिबन्धनः
कृष्णपक्ष मे चाँदनी के होने पर भी उसका वर्णन न करना और उसी प्रकार से शुक्ल पक्ष मे अन्धकार के रहने पर भी उसका वर्णन न करना ।
3.
क्रियागत अर्थ में सत् का निबन्ध एवं क्रियागत अर्थ में सत् का अनिबन्धन
जैसे दिन मे नील-कमलों का विकास न होना, रात्रि मे शेफालिका के कुसुमों का न गिरना कवि समयानुमोदित है ।
काव्यमीमासा - पृष्ठ - 205 वही - पृष्ठ 209 वही - पृष्ठ - 200 वही - पृष्ठ - 201 वही - पृष्ठ - 206 वही - अ0 14, पृष्ठ - 206
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4.
जैसे
कमल कलिकाओं का हरित
प्रसिद्ध है परन्तु काव्यों में मे वर्णन किया जाना चाहिए
1
2
गुणगत अर्थ में सत् का अनिबन्धन
3.
1
2
3
4
5
6
-
द्रव्यगत नियम का निबन्धन
जैसे
मलयाचल मे ही चन्दन की उत्पत्ति और हिमालय मे ही भूर्ज - पत्रों का होना द्रव्यगत नियम है 12 इसके अतिरिक्त इन्होंने कुछ प्रकीर्णक द्रव्यों मे भी कवि समय के सिद्धान्त को स्वीकार किया है जैसे क्षीर और क्षार समुद्र, सागर और महासागर की एकता ।
时时
कुन्दन की कलियों एवं कामिनियों के दाँतों का रक्त
वर्ण
वर्ण और प्रियगु पुष्पों का पीत
वर्ण, लोक
समय के अनुसार उनका श्वेत एव श्याम वर्ण
ग्रीष्म और वर्षा मे ही होने वाले मे ही वर्णन और प्राय सभी ऋतुओं मे होने केवल वर्षा मे ही वर्णन करने का नियम है ।
4
गुपगत नियम का निबन्धः -
काव्यमीमासा
वही - पृष्ठ
वही
वही
वही
क्रियागत नियम का निबन्धन
वही
सामान्यत काव्य तथा मेघों का कृष्ण किया जाता है का, कृष्ण और श्याम का, रूप से वर्णन करना चाहिए 16
-
-
-
-
-
कवि
-
पृष्ठ 2010
204
पृष्ठ 204
पृष्ठ
207
पृष्ठ
212, अध्याय
- पृष्ठ
213
-
-
-
नियम के निबन्धन
-
-
-
-
5
रचना मे माणिक्य का वर्ण ताल, पुष्पों का श्वेत कृष्ण और नील का कृष्ण और हरित का एव शुक्ल और गोर वर्ण का समान
।
पीत व रक्त
15
-
-
-
-
कोकिल
शब्द का केवल वसन्त वाले मयूर नृत्य व मयूर शब्द का
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इन्होंने जातिगत नियम का उल्लेख मात्र किया है इसके उदाहरण नहीं दिए ।
इसके अतिरिक्त स्वर्ग - पातालीय कवि - रहस्य की भी स्थापना की है । पार्थिव कवि - समय की भाँति स्वर्गीय कवि - समय भी है । जो इस प्रकार है -
चन्द्रमा मे खरगोश व हरिण की एकता ।'
कामदेव के ध्वज चिन्ह को कहीं मकर और कहीं मत्स्य के रूप मे वर्णत करना ।
3
चन्द्रमा की उत्पत्ति अत्रि ऋषि के नेत्र से तथा कहीं समुद्र से वर्णित
करना 13
अनग काम का मुक्तरूप से वर्णन करना 14
द्वादश आदितयों को एक ही समझना ।
नारायण व माधव की एकता 16 दामोदर, शेष व कूर्मादि मे तथा कमल व सम्पदा मे एकता ।। नाग व सर्प की एकता 18
दैत्य दानव व असुर तीनों भिन्न जाति के है जैसे - हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, प्रह्लाद, विरोचवति, बाप आदि दैत्य है । विप्रचित्ति, शबर, नमुचि ,
काव्यमीमासा - पृष्ठ - 218, अध्याय - 16 वही - पृष्ठ - 219 वही - पृष्ठ - 220 वही - पृष्ठ - 221 वही - पृष्ठ - 222 वही - पृष्ठ - 222 वही - पृष्ठ - 230 वही - पृष्ठ - 223
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पुलोम आदि दानव है और बल, वत्र, वृषपर्वा आदि असुर है । महाकवि बाणभट्ट ने कादम्बरी के मगलाचरण मे तीनों का एक ही रूप मे वर्णन किया है ।'
उपर्युक्त निरूपण से विदित होता है कि आचार्य राजशेखर ने पार्थिवकवि - समय का जाति, द्रव्य, क्रिया तथा गुण रूप में विभाजित कर इनके असत्, सत् तथा नियम के अनिबन्धन तथा निबन्धनादि का उल्लेख किया है परन्तु स्वर्ग पातालीय वर्ग मे वर्णित विषयों मे इस प्रकार का विभाजन नहीं किया गया । इस वर्ग मे केवल द्रव्यगत विषयों का ही प्राय उल्लेख है । इसका आशय यह है कि जाति, द्रव्य, क्रिया और गुण का निबन्धन पार्थिव पदार्थों के समान ही स्वर्गपातालीय पदार्थों में ही करना चाहिए ।
आचार्य राजशेखर के पश्चात् आचार्य अजितसेन ने कवि समय का वर्णन विस्तार से किया है । आचार्य राजशेखर ने जाति, द्रव्य, क्रिया एव गुण रूप पदार्थों को प्रथक करके उनके अनिबन्धन तथा निबन्धन की चर्चा की है । जबकि अजितसेन ने असत् के निबन्धन, सत के अनिबन्धन तथा नियम से होने वाले निबन्धन की चर्चा की है ।
असत् में सत् वर्णन सम्बन्धी कवि समय का उदाहरण.
सभी पर्वतों पर रत्नादि की उपलब्धि, छोटे-छोटे जलाशयों मे भी हसादि पक्षियों का वर्णन, जल मे तारकावली का प्रतिबिम्ब, आकाश गगा एव अन्य नदियों मे भी कमल आदि की उत्पत्ति का वर्णन लोक या शास्त्र मे देखा या सुना न जाने के कारण कवियों का असत निबन्ध - असत पदार्थों का वर्णन कहलाता
काव्यमीमासा पृष्ठ - 224, अध्याय - 16 कवीना समयस्त्रेधा निबन्धोऽप्यसतस्सत । अनिबन्धस्सजात्यादेनियमेन समासत ।।
अचि0 - 1/69
गिरी रत्नादि - हसादि - स्तोकपद्माकरादिषु । नीरेभाद्यखगंगाया जलजाद्य नदीष्वपि ।।
अ०चि0 - 1/70
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अन्धकार को सुई से भेदन करने योग्य, उसका मुष्टि ग्राह्यत्व, ज्योत्स्ना - चन्द्रकिरणों को अञ्जलि मे पकडने योग्य अथवा घडों में भरने योग्य इत्यादि तथ्यों का वर्णन करना असत् वस्तुओं का वर्णन करना ही कहा जायेगा ।।
असद् वर्णन रूप कविसमय का अन्य उदाहरण
की शुक्लता, अयश मे कालिमा, करना असत् वर्णन कवि समय है
जैसे प्रताप के वर्णन मे उसे रक्त या उष्ण कहना, कीर्ति मे हसादि क्रोध और प्रेम की अवस्था मे रक्तिमा का वर्णन कवि समय के अनुसार प्रताप को रक्त कीर्ति प्रेम को अरूण माना जाता है 12
।
को शुक्ल, अपयश को कृष्ण एव क्रोध
2.
समुद्र की चार सख्या,
पक्षी और देवताओं का चन्द्रिका में कवि समयानुसार रात्रि मे का पान एव चन्द्रमा में राजा के वक्षस्थल पर निवास,
3.
1
2
3
चकवा
देवों
समुद्र
उत्पत्ति का वर्णन असद् वस्तु वर्णन कवि समय है । 4
4
-
-
-
-
चकवा चकवी का रात्रि मे वियोग, चकारे निवास का वर्णन, असद् वर्णन के अन्तर्गत है ।
सवस्तुओं की अनुपलब्धि सम्बन्धी कवि समय का उदाहरण -
जैसे
चन्दन वृक्ष मे फल और पुष्प के होने पर भी उसका वर्णन नहीं करना, वसन्त ऋतु में मालती कुसुम के होने पर भी उसका वर्णन नहीं करना,
चकवी का वियोग, चकोर पक्षी द्वारा ज्योत्स्ना का निवास माना गया है । 3 लक्ष्मी का कमल तथा मन्थन से चन्द्र की
-
-
मन्थन एवं समुद्र
तमस सूच्यभेदत्व मुष्टिग्राह्यत्वमुच्यते । अञ्जलिग्राह्यता चन्द्रत्विष कुम्भोपवाह्यता ।।
प्रताप रक्ततोष्णत्वे कीर्तौ हसादिशुभ्रता । कृष्णत्वमपकीर्त्यादौ रक्तत्वकोपरागयो ।। चतुष्टत्व समुद्रस्य वियोग कोकयोर्निशि । चकोराणा सुराणा च ज्योत्स्नावासों निगद्यते ।
रमाया पद्मवासित्व राज्ञो वक्षसि च स्थिति । समुद्रमथन तत्र सुरेन्द्र श्रीसमुद्भव ।।
अ०चि०
अचि०
अचि०
अचि०
-
-
1/71
1/72
1/73
1/74
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शुक्ल पक्ष मे अन्धकार के रहने पर भी उसका वर्णन नहीं करना, कृष्णपक्ष में चन्द्र ज्योत्स्ना के रहने पर भी उसका वर्णन न करना एव अशोक वृक्ष मे फल होने पर भी उसका वर्णन नहीं करना सद्वस्तु के अनुल्लेख सम्बन्धी कवि समय है ।
कामी नर - नारियों के दातों मे लाली, कुन्द - कुसुम मे हरीतिमा और रात्रि में विकसित होने वाले कमद इत्यादि के दिन में विकसित होने पर भी वर्णन न करना सद् वस्तु का अनुल्लेख होने से कवि समय है ।' अनेक स्थानों में प्रचलित व्यवहारों का किसी विशेष स्थान मे वर्णन करना और अन्यत्र रहने पर भी वर्णन नहीं करना - सद्वस्तु का अनुल्लेख होने से कवि समय
नियमेन उल्लेख रूप कवि समय का उदाहरण -
अन्य वस्तुओं के श्वेत होने पर भी सामान्यतया पत्र, पुष्प, जल ओर वस्त्र की शुक्लता, अन्य पर्वतों पर . पर चन्दन का वर्णन, अन्य ऋतुओं मे कोयल की ध्वनि होने पर भी वसन्त ऋतु मे ही उसका वर्णन करना नियमेन उल्लेख रूप कवि - समय है ।
मेध, समुद्र, काक, सर्प, केश, भ्रमर मे ही कृष्णता एवं बिम्बाफल, बन्धूक पुष्प, मदिरा और सूर्य के बिम्ब मे रक्तता का वर्णन सद्वस्तुओं का नियमेन उल्लेख रूप कवि समय है
वही-1/75-76
चन्दने फलपुष्पे च सुरभी मालतीसुमम् । शुक्ले पक्षे तमोऽशुक्ले ज्योत्स्नाफलमशोकके ।। रक्तिमा कामिदन्तेषु हरितत्व च कुन्दके । दिवानिशोत्पलाब्जाना विकासित्व न वर्ण्यताम् । सामान्येन तु धावल्य पापुष्पाम्बुवाससाम् । चन्दन मलयेष्वेव मधावेव पिकध्वनिम् ।। अम्बुदाम्बुधिकाकाहिकेशभृगेषु कृष्णताम् । बिम्बबन्धूकनीरेषु सूर्यबिम्बे च रक्तताम् ।।
अचि0-1/77-78
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यद्यपि अन्य ऋतुओं मे भी मयूर बोलते और नृत्य करते है, तो भी वर्षा ऋतु मे ही उनके बोलने और नृत्य करने का उल्लेख करना, अन्य ऋतुओं मे नहीं नियमेन उल्लेख की दूसरी विलक्षणता कही जायेगी । '
ऐरावत हाथी को श्वेत वर्णित करना, भुवन तीन, सात या चौदह मानना, दिशाएँ चार, आठ या दस मानना, सद्वस्तु का नियमेन उल्लेख रूप कवि समय है 12
आचार्य राजशेखर द्वारा निरूपित वर्ण्य विषयों और अजितसेन द्वारा निरूपित वर्ण्य विषयों में पर्याप्त साम्य होते हुए भी अजितसेन कृत वर्ण्य विषयों मे राजशेखर की अपेक्षा आधिक्य है ।
-
आचार्य केशव मिश्र ने गुणवर्णन रूप कवि समय का सर्वाधिक उल्लेख किया है । 3 इसके अतिरिक्त इन्होंने एक से लेकर सहस्र तक की सख्या वाली वस्तुओं का भी उल्लेख किया है । जिसकी चर्चा राजशेखर अजितसेन आदि ने नहीं की है । 4
साहित्य दर्पण के लक्ष्मी टीकाकार विषयों के निबन्धन को वैकल्पिक बताया है ।
1
2
3
श्री
रव नाट्य मयूराणा वर्षास्वेव विवर्णयत् । नियमस्य विशेषोऽन्य कश्चिदत्र प्रकाश्यते ।।
शुभ्रमिन्द्रद्विप ब्रूयात्त्रीणि सप्त चतुर्दश । भुवनानि चतस्रोऽष्टौ दश वा ककुभो मता 1
श्वेतानियथा
श्वेतानिचन्द्रशक्राश्वशम्भुनारदभार्गवा । हलीशेषाहि शक्रेमो सिहसौधशरद्धना ।। सूर्येन्दुकान्तनियर्मोकमन्दारगुहिमाद्रय हि महासमृणालानि स्वर्गर्गेभर दाभ्रकम ।।
।
जैसे
कृष्ण मोहन शास्त्री कतिपय
कमला और सम्पत् की
-
अ०च०
-
1/79
अ०चि0 - 1/80
क्रमश
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________________
की एकता, कृष्ण तथा हरित वर्णों, नाग तथा सर्प, पीत तथा लोहित, स्वर्ण पराग तथा अग्नि शिखा आदि मे, चन्द्रमा मे खरगोश तथा एडमृग की कामदेव के ध्वज वर्णन मे मकर तथा मत्स्य की, दानव, सुर तथा दैत्य के एकत्व का प्रतिपादन
यथा नीलानि - सिकताऽमृतलोध्राणि गुणकरैवशर्करा । नीलानिकृष्णचन्द्रकव्यासरामधनञ्जया ।। शनिद्रुपदजा काली राजपट्ट विदूरजम् । विषाकाश कुहूशास्त्राऽगु रुपापतमोनिशा ।। रसावद्भुतश्रृगारी मदतापिच्छराहव । सीरिचीर यमोरक्ष कण्ठ खञ्जनकेकिनो ।।
यथा शोणानि - कृत्या छाया गजागारखलान्त करणादय । शोणानि क्षात्रधर्मश्च त्रेता रौद्ररसस्तथा ।। चकोरकोकिलापारा वतनेत्र कपेर्मुखम् । तेज सारसमस्त च भौमकुकुमतक्षका ।।
यथापीतानि - जिवेन्द्रगोपखद्योतविद्युत्कुञ्जरबिन्दव । पीतानि दीपजीवेन्द्रगरुडेश्वरदृग्जटा ।। ब्रह्मा वीररसस्वर्णकपिद्वापररोचना । किञ्जल्कचक्रवाकाद्या हरिताल मन शिला ।।
यथा धूसरपि - धूसराणि रजो लूता करभो गृह गोधिका । कपोतभूषिको दुर्गा काककण्ठखरादय ।। यथा हरिताः - हरिता सूर्यतुरगाबुधो मरकातादय । इत्यापि बोद्धव्यम् । द्वरूप्ये चाऽप्रसिद्धौ च नियमोऽयमुदाहृत । अन्यद्वस्तु यथा यत्स्यात् तत्तधैवोपवर्ण्यते ।।
अलकारशेखर-षष्ठ रत्न-द्वितीय मरीचिका, पृ0 66-67 एक ऐन्द्र करी चाश्वो -... ।
अ000-6/3 पृष्ठ - 67
Page #82
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________________
वैकल्पिक अभीष्ट है । मीमासा के स्वर्ग - पातालीय है। 2
निबन्धन के निरूपण के पश्चात् यमक, व्यवस्थाओं का भी निरूपण किया है ।
यमक श्लेष व चित्रकाव्य सम्बन्धी व्यवस्था
आचार्य अजितसेन ने असत् के निबन्धन सत् के अनिबन्धन तथा सनियम श्लेष व चित्रकाव्य सम्बन्धी सामान्य
काव्य रचना के नियम
1
चित्रकाव्य मे व ब
यमक, श्लेषालकार और ड ल और र ल वर्णो की परस्पर एकता मानी जाती है । भिन्नता नहीं । चित्रकाव्य मे विसर्ग और अनुस्वार परिगणित नहीं होते है । अर्थात् अनुस्वार और विसर्ग की अधिकता होने पर भी चित्रालकार नष्ट नहीं होता । 3
2
कृष्ण मोहन का उक्त विवेचन राजशेखर की काव्यकवि रहस्य मे परिगणित कवि नियमों से प्रभावित
3
-
-
अजितसेन ने कवियों के लिए काव्य के आरम्भ मे शुभ वर्णो और गणों
विकल्पेन निबन्धन यथा
(क) कमलासम्पदो कृष्ण हरितोर्नागसर्पयो ।
पीतलोहितयो स्वर्णपरागान्निशिरवादिषु 2 चन्द्र शशैणयो कामध्वजे मकरमत्स्ययो ।
-
दानवासुरदैत्यानामैक्यमेवाभिसंहितम् ।।
-
सा०द० - लक्ष्मी टीका पृ0 - 560, पाद टिप्पणी, सप्तमपरिच्छेद
(ख) रलयोर्डलयोस्तद्वल्लवयोर्बवयोरपि । नमयोर्नणयोश्चान्ते सविसर्गाविसर्गयो ।। सबिन्दुकाबिन्दुकयो स्यादभेदेनकल्पनम् । यमकं तु विधातव्य कथञ्चिदपि न त्रिपात् ।।
काव्यमीमासा
अध्याय - 16
बौ डलौ रलौ चैते यमके श्लेषचित्रयो ।
न भिद्यन्ते विसर्गानुस्वारौ चित्राय न मतौ ।।
विद्याधर
एकावली 7/7
अ०चि० - 1/81
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के प्रयोग के विषय मे भी निर्देश दिया है । इस परम्परा का परिपालन करने से काव्यपाठ की सन्तुति व सम्पत्ति का विनाश नहीं होता । ने भी अजितसेन के उक्त विचार से सहमत है । 2
अमृतानन्दयोगी
वर्षों का शुभाशुभत्व विवेचन
झ, ज, च, छ, ट, ठ, ढ, ण, थ, प, फ, ब, भ, म, र, ल, व और द मे ये वर्ण अ और क्ष के बिना अन्य वर्णों के साथ सयुक्त रहने पर काव्यादि मे इनका प्रयोग अशुभ माना जाता है तथा उक्त वर्षो के अतिरिक्त अन्य वर्षो का सयोग काव्यारम्भ मे शुभकारक होता है । 3 इस विषय पर अमृतानन्दयोगी ने भी अपने विचार व्यक्त किए है 14 अजितसेन तथा अमृतानन्दयोगी दोनों ही आचार्यों ने बिन्दु, विसर्ग, जकार, अकार को पादादि मे व्याज्य बताया है । 5
1
2
3
4
5
वर्णभेदविजानीयात्कवि काव्यमुखेपुन । सवर्ण सद्गण कुर्यात्सपत्सतानसिद्धये ।। वर्ण्यवर्णक्कयोर्लक्ष्मी शीघ्रमेवोपजायते । अन्यथैतद्द्वयस्यापिदु खसततिरञ्जसा ।। अ०चि0-1/84-85
वर्ण गण च काव्यस्य मुखे कुर्यात्सुशोभनम् ।
कर्तृनायकयोस्तेन कल्याणमपि जायते ।। अलकारसग्रह 1/23 अन्यथानिष्टसपत्तिरनयोरेव सभवेत् ।
झाज्जाच्चाच्छाट्टट्ठाभ्या ढणथपबभमैराल्लवात्पाद्दलाभ्याम् । सयुक्तेऽक्ष विना स्यादशुभमितरतो वर्णतोभद्रमिद्धम् ।।
आभ्यां भवति सप्रीतिर्मुदीभ्याधनमूद्वयात् । ऋभ्या लृभ्यामपख्यातिरेच सुखकरा मता
11
(क) बिन्दु सर्गो पदादी न कदाचन जजोपुन । भषान्तावपि विद्यते काव्यादौ न कदाचन ।।
(ख) बिन्दुसर्ग आ. सन्ति पदादौ न कदाचन । चतुर्भ्य कादिवर्णेभ्यो लक्ष्मीरपयशस्तु चात् ।।
अचि
-
1/85 1/2
अ०स०
अ०चि०
-
-
अलकारसग्रह -
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गणों के देवता और उनका फल
मगण के देवता भूमि, नगण के स्वर्ग, भगण के जल, और मगण के देवता चन्द्रमा है । इन चारो गणों को मागलिक माना गया है । इनका काव्यारम्भ मे प्रयोग शुभकारक है । तगण के देवता आकाश, जगण के सूर्य, रगण के अग्नि
और सगण के देवता पवन है । ये चारों अशुभ है, अत काव्यारम्भ मे इनका प्रयोग वर्जित है । तगण को मध्यस्थ अर्थात् सामान्य माना गया है ।'
अमृतानन्दन योगी भी उक्त विचार से सहमत है ।2
काव्य के प्रारम्भ में स्वरवर्षों के प्रयोग का फल ----------------------------
काव्य के प्रारम्भ मे 'अ' या 'आ' के होने से अत्यन्त प्रसन्नता, इ या ई के होने से आनन्द, उ या ऊ के होने से धनलाभ, ऋ ऋ, ल ल के होने से अपयश एव ए, ऐ, ओ औ के रहने से कवि, नायक तथा पाठक को महान् सुख होता है ।
मोभूोंगौर्यभोवा शशधरयुगल मगलंतोऽशुभ ख- । जोरस्सोभासुरग्नि पवन इदमभद्र त्रय चादिकानाम् ।। मगणादीना भूरित्यादयोऽधिदेवता । बिन्दुसर्गा पदादौन कदाचन जो पुन ।। भषान्तावपि विद्येते काव्यादौ न कदाचन ।
अ०चि0-1/86-87 यो वारिरूपो धनकृद्रोऽग्निर्दाहभयकर । ऐश्वर्यदो नाभसस्तोभ सौम्य सुखदायक ।। ज सूर्यो, रोगद प्रोक्त सो वायण्य क्षयप्रद । शुभदो मो भूमिमयो नो गौधनकरो मत ।।
अलकारसग्रह - 1/33-34 आभ्या सप्रीतिरीभ्यामुद्भवेदूभ्या धन पुन । ऋल चतुष्टयतोऽकीतिरेच सौरठयकरा स्मृता ।।
अचि0 - 1/88
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आचार्य अमृतानन्दयोगी भी स्वर वर्णों के प्रयोग पर अपना विचार व्यक्त किया है जो प्राय अजितसेन के विचार से अभिन्न है ।'
काव्यादि मे व्यञ्जन वर्गों के प्रयोग का फल
काव्य के प्रारम्भ मे क, ख, ग, घ के रहने से लक्ष्मी, चकार के रहने से अयश, छकार रहने से प्रीति और सुख दोनों की प्राप्ति तथा जकार के रहने से मित्रलाभ होता है । काव्यादि मे झ के रहने से भय तथा त के रहने से कष्ट, ठ के रहने से दुख, ड के रहने से शुभ फल, ढ के रहने से शोभाहीनता, द के रहने से भ्रान्ति, ण के रहने से सुख, त और थ के रहने से युद्ध एव द और ध के रहने से सुख की प्राप्ति होती है ।
काव्य के प्रारम्भ मे 'न' के रहने से प्रताप की वृद्धि, पवर्ग के रहने से भय, सुख की समाप्ति, कष्ट और जलन, य के होने से लक्ष्मी की प्राप्ति, रेफ के रहने से जलन एव ल और व के रहने से अनेक प्रकार की आपत्तियों की उपलब्धि होती है ।
काव्यारम्भ मे श के रहने से सुख, ष से कष्ट, स के रहने से सुख, ह से जलन, ल से नाना प्रकार के क्लेश और क्ष के रहने से सभी प्रकार की वृद्धि होती है ।
इस प्रकार सत्य फल के प्रदान करने वाले सभी वर्षों का विवेचन किया गया है । तैल और कपूर के सम्मिश्रण के समान अशुभाक्षरों का सयोग काव्यादि मे सर्वथा त्याज्य है ।।
2
आभ्याभवति सप्रीतिर्मुदीभ्या धनमूद्वयात् । ऋभ्या लुभ्यामपख्यातिरेच सुखकरामता ।।
अलकारसग्रह -1/25 कादिवर्णचतुष्काच्छोरपकीर्तिश्चकारत । छकारात्प्रीतिसौरव्ये द्वे मित्रलाभो जकारत ।। झाभीमृत्यू तत खेदष्ठाद्दु ख शोभन तु डात्। ढोऽशोभादो भ्रमोणात्तु सुख तात्थाद्रणदधो।। सुखदौ नात्प्रतापो भी सुखान्तक्लेशदाहद । पवर्गो याद्रमा रेफाद्दाहो व्यसनदो लवो।। शषाभ्या सुखखेदो च सहो च सुखदाहदो। लस्तु व्यसनद क्षस्तु सर्ववृद्धिप्रदो भवेत् ।। एव प्रत्येकमुक्तास्ते वर्णास्सत्यफलप्रदा । त्याज्य स्याद्वर्णसयोगस्तैलकर्पूरयोगवत्।।
अचि0-1/89-93
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आचार्य अमृतानन्द योगी ने भी काव्य मे व्यञ्जन वर्णों के प्रयोग की चर्चा की है । इस विषय मे अमृतानन्दयोगी आचार्य अजित सेन का अनुगमन करते है ।।
गणों के प्रयोग और उनका फलादेश :
अभीष्ट और अनिष्ट फल देने वाले प्रत्येक गण के फल को अवगत कर लेना चाहिए । काव्यारम्भ मे यगण का प्रयोग होने से धन की प्राप्ति, रगण के रहने से भय और जलन तथा तगण के होने से शून्य फल की प्राप्ति होती है अर्थात् सुख और दु ख प्राप्त नहीं होते, सर्वथा फलाभाव रहता है ।
काव्यादि मे भगण के होने से सुख, जगण के प्रयोग से रोग, सगण से विनाश, नगण के प्रयोग से धनलाभ और मगण के प्रयोग से शुभ फल की प्राप्ति होती है ।
देवता, भद्र या मंगल प्रतिपादक शब्द कवियों द्वारा निन्द्य नहीं माने गये है । आशय यह है कि अशुभ और निन्द्य वर्ण या गण भी देवता, भद्र और मगलवाचक होने पर त्याज्य नहीं है ।
1
बिन्दुसर्गड़ आ सन्ति पदादौ न कदाचन । चतुर्भ्य कादिवर्णेभ्यो लक्ष्मीरपयशस्तु चात् ।। प्रीति सौरव्यं च छान्मित्रलाभौ जो भयमृत्युकृत् । झष्टठाभ्या खेददु खे शोभाशोभाकरौ डढौ ।। भ्रमण णात्सुख तात्रु थायुद्ध सुखदौ दधौ । न प्रतापी भयासौरव्यभरणक्लेशदाहकृत् । पवर्गो यस्तु लक्ष्मीदो रो दाही व्यसन लवौ । श सुख तनुते षस्तु खेद स सुखदायक 11 हो दाहकृद्वयसनदो ल क्ष सर्वसमृद्धिद । एव प्रत्येकत प्रोक्त वर्णाना वास्तव फलम् ।। सयोग सर्वथा त्याज्यो वर्णाना क्ष विनामुखे । शुद्धमप्यन्यसयुक्तमशुद्धमुपजायते ।।
अलकारसग्रह
1/26-31
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प्रवर कवियों द्वारा गण अथवा वर्ण से भी भद्र, मंगल आदि अर्थ के प्रतिपादन करने वाले शब्द अशुभ फलप्रद नहीं माने गये । अत वे काव्यादि मे निन्द्य नहीं है ।
योगी ने 'अलकारसग्रह' मे किया है । पर्याप्त समानता दृष्टिगोचर होती है 1 2
नाम
यगण
मगण
तगण
रगण
जगण
भगण
नगण
सगण
1
आचार्य अजितसेन द्वारा प्रतिपादित उक्त विषय का वर्णन आचार्य अमृतानन्द उक्त विषय के वर्णन मे दोनों आचार्यो मे
2
स्वरूप
ISS
555
ऽऽ।
SIS
ISI
ऽ।।
111
IIS
गणदेवता और फलबोधक चक्र
देवता
जल
पृथ्वी
आकाश
अग्नि
सूर्य
चन्द्रमा
स्वर्ग
वायु
फल
आयु
लक्ष्मी
शून्य
दाह
रोग
यश
सुख
विदेश
प्रत्येक तु गणा ज्ञेयास्सदसत्फलदा यथा । याद्धन राच्चभीदाहो त शून्यफलदोमत ।। भात्सुख जाद्गुजा सात्रु क्षयो रैशुभदौ नमौ । वदन्ति देवताशब्दा भद्रादीनि चयेतु गणाद्वा वर्णतोऽवाऽपि नैव निन्द्या कवीश्वरै । एतद्वर्वाभिविन्यास काव्य पद्मादितस्त्रिधा ।।
11
यो वारिरूपो धनकृद्रोऽग्निर्दाहभय कर । ऐश्वर्यदो नाभसस्तो भ सौम्य सुखदायक ॥। ज सूर्यो रोगद प्रोक्त सो वायव्य क्षयप्रद । शुभदो मो भूमिमयो नो गौर्धनकरो मत 11
शुभाशुभत्व
शुभ
शुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
शुभ
शुभ
अशुभ
अ०चि0-1/93-96
अलकार संग्रह - 1/33-34
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काव्य के भेद -
आचार्य भामह ने छन्द के अभाव और सदभाव के आधार पर काव्य के दो भेदों का उल्लेख किया था । उसके पश्चात् दण्डी ने गद्य-पद्य एव मिश्र रूप से काव्य के तीन भेदों का उल्लेख किया 12
परवर्ती काल मे आचार्य अजितसेन ने दण्डी के आधार पर काव्य भेद का उल्लेख किया । दण्डी ने जिसे पद्यकाव्य की अभिधा प्रदान की थी अजितसेन ने उसे इन्दोमय तथा दण्डी के गद्यात्मक काव्य को अछन्दोमय तथा दण्डी द्वारा स्वीकत मिश्रकाव्य को मिश्रकाव्य के रूप मे ही स्वीकार किया ।
यद्यपि अजितसेन के पूर्ववर्ती आचार्य भामह, दण्डी आदि छन्द के अभाव, सद्भाव के आधार पर, भाषा के आधार पर, विषय के आधार पर तथा स्वरूप विधान के आधार पर भेदों का उल्लेख किया है । आचार्य अजितसेन पूर्व आचार्यों द्वारा निरूपित रचना, तथा भाषा आदि आधार पर काव्य भेद स्वीकार करना उचित नहीं समझा । वस्तुत गम्भीरता से विचार करने पर अजितसेन ने रचना की दृष्टि से जो विभाग किया है वह मौलिक भी है तथा परम्परानुमोदित भी है ।
-
गद्य पाच तद्विधा - भामह - काव्यालकार ।
-
पद्य गद्य च मिश्र च तत्र त्रिधैव व्यवस्थितम् ।
काव्यादर्श-1/14
-
सच्छन्दोऽच्छन्दसी पद्यगद्ये मिश्र तु तद्युगम् । निबद्धमनिबद्धवा कुर्यात्काव्यमुख कवि ।।
अचि0 - 1/97
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भामह - काव्यालकार - दृ०परि-1 दण्डी - काव्यादर्श - दृ0 परि-।
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काव्यारम्भ का नियम
1
अजितसेन के अनुसार काव्य का आरम्भ मगलाचरण से करना चाहिए । यह मगलाचरण आशीर्वादात्मक, नमस्कारात्मक और वस्तु-निर्देशात्मक त्रिविध प्रकार का होना चाहिए । यदि त्रिविध प्रकार का मंगल सभव न हो तो ग्रन्थादि मे मंगलाचरण करना नितान्त आवश्यक है । महर्षि पतञ्जलि ने भी मगलाचरण की उपयोगिता के विषय मे यह निर्देश दिया था कि मगल से आरम्भ होने वाले शास्त्र प्रसिद्धि को प्राप्त करते है । उनसे सम्बद्ध पुरुष वीर तथा आयुष्यमान होते है एव अध्येताओं की अभिलाषा पूर्ण होती 12
यद्यपि आचार्य अजितसेन ने मगलाचरण की चर्चा करके कवि को मगलाचरण की शिक्षा दी है तथापि इनका यह विचार पूर्व आचार्यों द्वारा अनुमोदित रहा है क्योंकि भामह, दण्डी रुद्रट, मम्मट आदि आचार्यो ने अपने ग्रन्थों के आरम्भ मे मगलाचरण की परम्परा का पालन किया है । 3
मंगलाचरण की शिक्षा के पश्चात् आचार्य अजितसेन ने यह भी सुझाव दिया है कि काव्य का प्रारम्भ स्वरचित छन्द या गद्य से यदि किया जाये तो उसे निबन्ध और अन्य आचार्यों द्वारा रचित छन्द या गद्य से किया जाए तो अनिबद्ध कहा जायेगा । इसके अतिरिक्त इन्होंने यह भी बताया है कि कवि को कभी
I
-
2
3
(क) निबद्धमनिबद्ध वा कुर्यात्काव्यमुख कवि । आशीरूप नमोरूप वस्तुनिर्देशन च वा ।।
(ख) स्वकाव्यमुखे स्वकृत पद्य निबद्ध परकृतमनिबद्धम् ।
अ०चि०
मागलिक आचार्यों महताशास्त्रौघस्यमगलार्थसिद्धशब्दमादित प्रयुते । मगलादीनि हि शास्त्राणि प्रथन्तें वीरपुरुषाणि च भवन्ति
आयुष्मत्पुरुषाणि चाध्येतारश्च सिद्धार्था यथा स्युरिति ।
महाभाष्य प्रथमाह्निक
-
-
भामह - काव्यालकार - 1/1
दण्डी
काव्यादर्श
मम्मट - काव्यप्रकाश - 1/1
-
नमस्कारात्मक,
काव्यलकार 1/1, रुद्रट
-
-
1/1
-
1/97 उत्तरार्ध
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कभी भी अन्य कवि के काव्य से सन्दर शब्द या अर्थ की छाया को ग्रहण नही करना चाहिए क्योंकि शब्दग्राही कवि को पश्यतोहर चोर कह कर उसकी निन्दा की गयी है ।' इनके पूर्ववर्ती आचार्य राजशेखर ने भी अर्थ हारक कवि की निन्दा की थी ।2 यद्यपि आचार्य राजशेखर पद हरण- पादहरण आदि को कवि के लिए क्षम्य बताया है ।
आचार्य अजितसेन ने । मे कवियों के शब्द और अर्थ के हरण को दोष नहीं बताया । किन्तु इसका आशय यह नहीं है कि समस्या पूर्ति के लिए कहीं से भी श्लोक लेकर समस्या पूर्ति कर दी जाय । कवि को चाहिए कि स्वरचित वाक्यों मे वह समस्या पूर्ति ही करे । यदि समस्या पूर्ति के समय प्रवाह मे किसी अन्य कवियों के काव्यों के शब्द या अर्थ का हरण हो भी जाय तो वह समस्या पूर्ति मे दूषण न होकर कवि की बहुज्ञता का परिचायक होने से कवि के सम्मान मे अभिवृद्धि करता है ।
महाकवि का स्वरूप--
आचार्य अजितसेन के अनुसार सभी प्रकार के रस एव भाव के सन्निवेश मे विशारद शब्द अर्थ के समस्त अगों का ज्ञाता तथा कवि-शिक्षा से पूर्ण परिचित कवि ही महाकवि के पद को अलकृत करता है अन्य कवि मध्यम कोटिक
अन्यकाव्यसुशब्दार्थच्छाया नो रचयत्कवि । स्वकाव्ये सोऽन्यथालोके पश्यतोहरतामतेत् ।।
अचि0 - 1/98 सोऽय कवेरकवित्वदायी सर्वथा प्रतिबिम्बकल्प परिहरणीय ।
काव्यमीमासा - अ0 12 काव्यमीमासा - अ0 ।। समस्यापूरप कुर्यात्परशब्दार्थगोचरम् । परभिप्रायवेदित्वान्न कविर्दोषमृच्छति ।।
अचि0 - 1/99
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होते है।
मध्यम आदि कवि -
कतिपय कवि सौन्दर्य के लिए विशेष इच्छुक रहते है । कतिपय कवि अर्थ सौन्दर्य व समासयुक्त रचना की अभिलाषा करते है । किसी को कोमलकान्त पदावली, स्फुट प्रसाद गुण विशिष्ट रचना ही अभीष्ट होती है । अत महाकवित्व पद प्राप्ति के लिए कवि को सदा सावधान रहना चाहिए ।
शोध प्रबन्ध के कई प्रस्तुत अध्याय के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि आचार्य अजितसेन ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की अपेक्षा कतिपय नवीन तथ्यों की भी उद्भावनाएँ की है । जिनका निर्देश इस प्रकार है -
काव्य स्वरूप के सम्बन्ध मे इन्होंने उत्तम कोटि के नायक के चरित्र चित्रण की चर्चा की है तथा काव्य को उभयलोक हितकारी तथा धर्म हेतुक बताया है । जबकि किसी पूर्ववर्ती आचार्य ने काव्य स्वरूप के सम्बन्ध मे इन तत्वों का उल्लेख नहीं किया ।
महाकाव्य के वर्ण्य विषयों का सविस्तार वर्णन जितना अलकार चिन्तामणि मे किया गया है उतना भामह, दण्डी, रुद्रट, मम्मट आदि किसी भी पूववर्ती आचार्य क. कृतियों में नहीं है ।
13
कवि समय विषयक मान्यताऐ सर्वथा नवीन नहीं कही जा सकती है तथापि आचार्य राजशेखर कृत काव्यमीमासा मे प्रतिपादित कवि-समय विषयक पदार्थों का निर्देश अजितसेन ने अधिक किया है ।
Xkkakx
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अध्याय - 3 चित्रालंकार निरूपण
इसके पूर्व कि चित्रालंकार का निरूपण किया जाय, चित्रालकार के स्वरूप के विषय मे ज्ञान प्राप्त कर लेना नितान्त आवश्यक होगा । दण्डी आदि आचार्यों के अनुसार जहाँ श्लोक की इस प्रकार की संरचना की जाय कि उसमें पद्म, खग मुरजादि के चित्रों का निर्माण हो सके तो उस रचना को चित्रालकार की कोटि में परिगणित किया गया है ।' आचार्य अजितसेन के अनुसार जिस उक्ति से आश्चर्य की उत्पत्ति हो उसे चित्र कहते हैं 12
__इसके अतिरिक्त इन्होंने संस्कृत और प्राकृत भाषा के जिस रचना विशेष मे उक्ति की विचित्रत हो उसे भी चित्र कहा है । एक प्रकार का सादृश्य प्रतीति होने पर उसे शुद्ध चित्र के रूप मे स्वीकार किया है ।
सस्कृत प्राकृत, अपभ्रंश भूतभाषा या पैशाची - इन चारों में चित्रकाव्य की स्थिति सभव है ।
यहाँ शका उत्पन्न हो सकती है कि वर्ण अमूर्त हैं उनसे चित्र निर्माण कैसे सम्भव है ? इस शका के समाधान में यह कहा ज सकता है कि वर्णों को लिपिबद्ध करके उनसे खड़, पद्म, कन्धादि के रूप में रचना की जा सकती है अत चित्रालकार को शब्दालकार भी स्वीकार किया जा सकत है । अलकारसर्वस्व के टीकाकार विद्याचक्रवर्ती भी उक्तमत के ही पोषक हैं ।
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का काव्यादर्श - 3/78 ख का0प्र0 - 9/85 धीरोष्ठयबिन्दुमद् बिन्दुच्युस्कादित्वतोऽद्भूतम् । करोति यत्तदत्रोक्तं चित्र चित्रविदा यथा ।।
अचि0 - 2/2 क) संस्कृतप्राकृतयुक्तिवैचियं विद्यते ।
तच्चित्रमकवण्य तु शुद्ध तत्परिभाष्यते ।। अ०चि02/16 खि अचि0 2/119-122 का0प्र0 - कालबोधिनी टीका नवम उल्लास, पृ0 - 529 लिपिसन्निविष्टानं वर्णाना वाच कत्वाभावादित्यत आहयद्यपीत्यादि । खुगादिसन्निवेशो हि लिप्यक्षरापामेव न धोत्राकाशा समवापिनाम् । वाचकत्वं तु -------- शब्दालंकारत्वमुपचर्यत इतिभावः ।
अ0स0 - संजीवनी टीका पृ0 - 38
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चित्रालकार के निरूपण का सर्वप्रथम श्रेय आचार्य दण्डी को है । आचार्य दण्डी के अनुसार जिसमें ऊर्ध्व-अप क्रम से लिए गए वर्गों में एक वर्ण व्यवहित समानकारता पायी जाय, उसे चित्रकाव्य कहा गया है । चित्रकाव्य के विशेषज्ञ विद्वान इसे अर्ध गोमूत्रिका नाम से जानते हैं ।' इन्होंने चित्रकाव्य के निम्न भेदों का उल्लेख किया है -
गोभूत्रिका बन्ध, अर्षभ्रम, सर्वतोभद्रम्, स्वरनियम, स्थान नियम एव वर्णनयम किन्तु आचर्य दण्डी काव्य सरचना मे इन्हे दुष्कर स्वीकार करते है।
दण्डी के पश्चात आचार्य रूद्रट ने इसका निरूपण किया है उनके अनुसार - जहाँ क्रमिक वर्णयोजना के आधार पर वस्तुओं के चित्र रचे जायें वहाँ चित्रालकार होता है । इन्होंने इसमे विचित्रता का होना आवश्यक बताया है । इन्होंने चक्र, खड्ग, मुसल, शरशूल शक्ति, हल-तुरग, पद बन्ध, गजपद बन्ध आदि बन्ध चित्रों की भी चर्चा की है । इसके अतिरिक्त अनुलोम, प्रतिलोम तथा वर्ण्यविन्यास जन्य वैचित्र्य के रूप मे भी भेदों का उल्लेख किया है ।
भोज ने चित्रालंकार की स्थिति वर्ण, स्थान, स्वर, आकार, गति, बन्ध के आधार पर किया है तथा इसके अनेक भेदों का उल्लेख भी किया है जिसके अन्तर्गत प्रहेलिकाओं का भी उल्लेख किया है ।
आचार्य मम्मट खड्ग-बन्ध, मुरज-बन्ध, पद्म-बन्ध तथा सर्वतोभद्र रूप से चार भेदों का ही उल्लेख किया है ।
आचार्य अजित्सेन के अनुसार जहाँ धीरोष्ठ, विन्दुमद, बिन्दुच्युतकादि अलकारों को देख सुनकर आश्चर्य हो उसे चित्रालकार कहते है । मम्मट ने
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वर्णानामेकरूपत्व यत्वेकान्तरमईयो । गोमूत्रिकेति तत् प्राहुर्तुष्कर तद्विदोयथा ।। काव्यादर्श-3/78 रू0 काव्यालंकार - 5/1 वही, 5/2-4 स0क0म0 - 2/109 का0प्र0 - श्लोक संख्या 385-388 धीरोष्ठयबिन्दुमद् बिन्दुच्युत्कादित्वतोऽद्भुतम् । करोति यत्तदत्रोक्त चित्र चित्रविदा यथा ।। अ०चि0 - 2/2
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चित्रालकार के केवल चार ही भेदों का उल्लेख कर उसे उपेक्षित कर दिया था किन्तु अजितसेन ने पुन चित्रालकार के प्रति विशेष समादर भाव प्रस्तुत किया
और पूर्वाचार्यों की अपेक्षा इस्के भेदों का भी विस्तार किया । इनके अनुसार चित्रालकार के निम्नलिखित भेद किए गए हैं ।
in व्यस्त, 2) समस्त, 3 द्वि व्यस्त, 4 द्वि समस्त, 5 व्यस्तसमस्त, 6 द्वि व्यस्त-समस्त, 7 द्वि समस्तक-सुव्यस्त, 8 एकालापम्, 9 भिन्नक, 10 भेद्य-भेदक, 110 ओजस्वी, 12 सालकार, 130 कौतुक, 140 प्रश्नोत्तर, 15 पृष्टप्रश्न, 16 भग्नोत्तर, 118 आधुत्तर, 19 मध्योत्तर,
20f अपलुत, 21 विषम, [220 वृत्त, 23 नामाख्यातम, 24 तार्किक, 1250 सौत्र, 26 शाब्दिक, 27 शास्त्रार्थ 280 वर्गोत्तर, 290 वाक्योत्तर, 1300 श्लोकोत्तर, 318 खण्ड, 32 पदोत्तर, 330 सुचक्रक, 34, पद्म, 1350 काकपद, 36 गोमूत्र, 37 सर्वतोभद्र, 138 गत-प्रत्यागत, 390 वर्द्धमान, 1400 हीयमानाक्षर, 411 श्रृखल्य और 420 नागपाशक ये शुद्ध चित्रालंकार हैं।' आचार्य अजितसेन द्वारा निरूपित चित्रालकारों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है । प्रश्नोत्तरश्रित चित्र, 2 चक्रादि लिपि क्न्धाश्रित चित्रालंकार तथा 13 प्रहेलिकाश्रित चित्रालकार ।
उपर्युक्त चित्रालकारों के भेदों में स्ख्या एक व्यस्त से सख्या बत्तीस पदोत्तर तक के भेद प्रश्नोत्तराश्रित है क्यों कि इनमे कही व्यस्तरूप में, कहीं समस्त रूप मे, कहीं अन्य रूपों मे प्रश्न और उसके उत्तर की चर्चा की जाती है। सुचक्र से नागपाश तक दस भेदों को लिपिबन्धाश्रित स्वीकार किया गया है क्योंकिइसकी सरचना चक्र, पदम, काकपदापि चित्रों पर आश्रित है । प्रहेलिकाश्रित चित्र प्रहेलिकाओं पर आश्रित है ।
आचार्य अजित सेन ने चित्रालकार के 42 भेदों को शुद्ध चित्र के रूप में स्वीकार किया है और प्रहेलिकाओं को इससे भिन्न बताया है किन्तु प्रहेलिकाओं का निरूपण भी चित्रालकार निरूपण के परिच्छेद मे ही किया है तथा प्रहेलिकाओं के अन्तर्गत भी छत्र-बन्धादि की चर्चा की है जो वस्तुत चित्र से अभिन्न नहीं कहे जा सकते ।
अ०चि0 - 2/3 - 8 -
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व्यस्त एवं समस्त चित्रालंकार
पृथक-पृथक पर्दों से जो प्रश्न किया जाय उसे व्यस्त चित्रालकार कहते हैं तथा एक मे मिले हुए पदों से जो प्रश्न किया जाये उसे समस्त चित्रालकार कहते हैं ।।
द्विर्व्यस्त और द्वि समस्त चित्रालकार
जब समस्त पदों का विभाग कर दो बार पूछा जाय तो उसे द्विर्व्यस्त चित्रालकार कहा जाता है । इसी प्रकार जब समस्त पदों मे ही दो बार पूछा जाय तो उसे द्वि समस्त चित्रालकार कहते हैं 12
व्यस्तक और समस्तक चित्रालंकार. -
पद के विभाग से पूछा गया पद यदि दो अर्थों का प्रतिपादक हो अथवा समुदाय से भी पूछा गया पद दो अर्थों का प्रतिपादक हो तो उसे व्यस्तकसमस्तक चित्रालकार कहते हैं । 3
द्वियस्तक
-
समस्तक और द्विः समस्तक- व्यस्तक चित्रालंकार
दो व्यस्त पद ओर एक समस्तक तथा दो समस्त ओर एक व्यस्तक चित्रालकार कहते हैं 14
एकालापक चित्रालंकार:
I
2
3
4
5
एक सुनने के क्रिया- भेद से तथा दो बार समास के रूप में परिणत भेद से भिन्न-भिन्न अर्थ को कहने वाले वचन को एकालाप चित्रालकार कहा गया है ।
5
अ०चि0 - 2/921⁄2 अचि० 2/12/2
वही - 2 / 152
वही - 2/17-2
-
अ०चि० -
-
2/1일
समस्त पद से जिसे कहा जाय उसे द्विर्व्यस्तक व्यस्तपद से जिसे कहा जाय, उसे द्वि समस्तक -
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प्रभिन्नक चित्रालंकार -
कोई सुकोमल बुद्धि वाले कवि एक ही प्रकार के अर्थ भेद से प्रभिन्नक चित्रालकार की रचना करते है, पर आचार्यों ने इस पक्ष को मान्यता नहीं दी है।' शब्द और अर्थ के भेद से प्रभिन्नक की रचना अवश्य करनी चाहिए । वचन, लिग और विभक्तियों के भेद को भी यथाशक्ति कहना चाहिए ।
भेद्यभेदक चित्रालकार -
जिस प्रश्न मे विशेषण और विशेष्य का निबन्धन किया गया हो - विद्वानों ने उसे भेद्य-भेदक चित्रालकार कहा है ।
ओजस्वी जाति - चित्रालंकार का लक्षण -
जब लम्बे स्मास वाले पद से प्रश्न किया गया हो और अल्पावर पद से उत्तर दिया गया हो ते उसे दुख दूर करने वाले पण्डितों ने ओजस्वी अलकार
कहा है 14
'सालंकार' चित्रालंकारः
जिसमे उपमा, रूपक आदि अनेक अलकारों की स्पष्ट प्रतीति हो, उसे विद्वान कवियों ने सालकार चित्र कहा है ।
कौतुक चित्रालंकार -
लवृत्त द्वारा प्रश्न किये जाने पर अधिक अक्षरों द्वारा जो उत्तर दिया जाय, विषयज्ञ विद्वानों ने कुतूहल उत्पन्न करने वाले उस पद को कोतुक चित्र
कहा है।
वही - 2/27 वही - 2/29 वही - 2/30 अचि0 - 2/32 अचि0 - 2/34 वही - 2/37
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प्रश्नोत्तरसम चित्रालंकार -
जिस उत्तर में प्रश्नाक्षर के समान ही अक्षर हों - उसे श्रेष्ठ कवियों ने प्रश्नोत्तरसम चित्र कहा है ।।
पृष्ट प्रश्नजाति चित्रालकार -
आचार्य अजितसेन के अनुसार जिसमें उत्तर का अच्छी तरह से उच्चारण कर उसका प्रश्न भी पीछे से जोड़ा जाता है, उसे प्रश्नोत्तर विशारद पृष्ठ प्रश्न जाति चित्र कहते हैं 12
भग्नोत्तर चित्र का लक्षणः
जहाँ 'यह कहों - इस प्रकार पूछने पर पद-विच्छेदकर उत्तर दिया जाय और काकुध्वनि से जो गुप्त रखा जाय, उसे विद्वानों ने भग्नोत्तर चित्र कहा है । 4
आदि-मध्य-उत्तरजाति चित्र का लक्षण -
___ जिस प्रश्न वाक्य में पूछा हुआ प्रश्न आदि, मध्य और अन्त मे सुस्थिर हो और उसका उत्तर भी आदि, मध्य और अन्त रूप हो, ते उसे विद्वानों ने आदिमध्य-उत्तरजाति रूप चित्र कहा है ।
कथितापल्लुत चित्र का लक्षण.
अन्य पाद से रहित होने पर भी जिस प्रश्न वाक्य में अच्छी तरह से स्थित उत्तर वैकल्पिक न हो उसे कथितापह्नत चित्र कहा गया है ।
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अ०चि0 - 2/39 वही - 2/41 वही - 2/43 अचि0 - 2/45 वही - 2/49
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वृत्त एवं विषमवृत्त चित्र का लक्षण -
जिसमे रचना की विषमता प्रतीत हो उसे विषम और जिसमें प्रश्न वृत्त के नाम से ही उत्तर की प्रतीति हो जाय उसे वृत्त चित्रालकार कहते है ।
नामाख्यात चित्र का लक्षण -
जिसमे एक ही 'स' के सम्बन्ध के कारण सबन्त और तिङन्त के भेद से दो प्रकार का उत्तर प्रतीत हो, उसे नामाख्यात चित्र कहते है ।2
करो,
ताय॑ - सौत्र - शब्द - शास्ववाक्य चित्र के लक्षण -
यदि तर्क, सूत्र, शब्द और शास्त्रवाक्य से उद्भव- उत्पत्ति प्रतीत हो तो उन्हें क्रमश ताय, सौत्र, शाब्द और शास्त्रार्थ चित्र कहते हैं ।3।।
वर्णोत्तर और वाक्योत्तर चित्रों के लक्षणः
वर्ष मे ही जिसका उत्तर प्रतीत हो जाय, उसे वर्णोत्तर चित्र कहते हैं और वाक्य मे ही जिसका स्पष्ट उत्तर प्रतीत हो, उसे वाक्योत्तर चित्र कहते हैं । 4
श्लोकार्द्धपादपूर्व चित्र का लक्षण -
जिसमे केवल श्लोक का आधापाद ही उत्तर रूप प्रतीत हो उसे श्लोकार्द्धपादपूर्व चित्र कहते हैं ओर इस्के तीन भेद माने गये हैं ।
आचार्य अजितसेन ने खण्डचित्र, पदोत्तर चित्र एव सुचक्र चित्रालकारों के लक्षणों को न बताकर मात्र उदाहरण ही कलाएँ है ।
अचि0 - 2/52
वही - 2/55
अ०चि0 - 2/58
वही - 2/64 वही - 2/67 वही - 2/711, 721, 73-76
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पद्मबन्ध का लक्षण
जब अष्टदल कमल बनाकर उसकी कर्णिका में ऐसे वर्ण का विन्यास किया जाय, जिसका सम्बन्ध अन्य समस्त उत्तर वर्षों के साथ हो । तत्पश्चात् दो-दो वर्ष कमल पत्रों में लिखने से पद्मबन्ध की रचना होती है ।
काकपद चित्र का लक्षण. -
काव्यावर्त्तन
गोमूत्रिका चित्र का लक्षण -
जिस रचना में ऊपर और नीचे के क्रम में अक्षर एकान्तरित करके पढे जाये, विद्वानों ने निश्चय ही उस रचना विशेष को गोमूत्रिका चित्र कहा है।'
3
सर्वतोभद्र चित्र का लक्षण -
एक दो या सभी दिशाओं में स्थित उत्तर वाले अनेक अक्षरों से जो रचना विशेष की जाय, उसे विद्वानों ने सर्वतोभद्र चित्र कहा है । 4
गतप्रत्यागत चित्र का लक्षप
जिस रचना विशेष में कौवे के पैर के समान ऊपर और नीचे अक्षरों उलट पुलट कर हो, उसे विद्वानों ने काकपद कहा है
2
उलटा और पढ़ने
से अनेक प्रकार से सम्पन्न रचना
वर्धमानाक्षर चित्र का लक्षण
1
2 3 4 5 6
-
जिस रचना विशेष में आदि, मध्य अथवा अन्त में एक, दो या तीन अक्षरों की वृद्धि हो जाये उसे वर्धमानाक्षर कहते हैं ।
6
बही
वही
अ०चि०
बही
वही 2/83
यही
2/87
-
-
-
-
-
-
2/78 2/82
से तथा उसके बीच के अक्षर के लोप वले उत्तर विशेष को गतप्रत्यागत चित्र कहते हैं ।
5
2/92
2/98
-
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हीयमानावर चित्र का लक्षण -
जिस रचना विशेष के आदि, मध्य और अन्त से एक, दो या तीन वर्ण कम होते जाये, उसे हीयमानाक्षर चित्र कहते है ।'
श्रंखलाबन्ध चित्र का लक्षण -
जो रचना विशेष परस्पर अक्षरों में स्थित रेखा से स्पष्ट व्यवहित हो, उसे ससार श्रृखल से मुक्त आचार्यों ने श्रृखलाबन्ध कहा है ।
नागपाश चित्र का लक्षण -
सर्पाकृति धारण करने वाले क्न्छ - रचना - विशेष में व्यवधान किये हुए वर्गों को पढना चाहिए । इस रीति का निर्मित वाक्य का आश्रय लेकर जो बन्धरचित होता है, उसे विद्वज्जन नागपाश चित्र कहते हैं ।
नापाश रचना की विधि -
ऊपर मुख वाली सर्पाकृति चार रेखाओं द्वारा लिखकर मुख और पुच्छ के बीच मे तिरछी छ रेखाओं को लिखन चाहिए । इस प्रकार रचना करने से इक्कीस कोष्ठक होते हैं । तदनन्तर फण से प्रारम्भ कर प्रत्येक पक्ति के पुच्छ स्क पृथक् - पृथक् इन वर्गों की स्थापना करनी चाहिए । प्रथम पक्ति के प्रथम कोष्ठक के अक्षर से प्रारम्भ कर अन्तपर्यन्त चतुरर क्रीडा मे गजपदचार के क्रम से कम इस एक वाक्य को बाँचना चाहिए । पन तृतीय पक्त के प्रथम कोष्ठ से प्रारम्भ कर उसी प्रकार बाँचना चाहिए । तदनन्तर मध्यम पक्ति के प्रथम कोष्ठक से प्रारम्भ कर या द्वितीय पक्ति मे तीन आवृत्ति से क्रमश बाँचना चाहिए । तीन हिस्सों में विभक्त रहने पर भी एकठारूप यह नागपाश त्रिगुणित हो सकता है यह प्रश्नोत्तर सप्त वर्ण वाल है । अपनी बुद्धि के अनुसार अन्य भी कम या अधिक अक्षर का बनाना चाहिए ।
प्रहेलिका का स्वरूप -
प्रहेलिका अलकार का स्वप्रथम स्केत भामह कृत काव्यालकार में
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अचि0 - 2/105 वही - 2/111 वही - 2/114
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किया गया है । तत्पश्चात् आचार्य दण्डी ने इसका निरूपण चित्रकाव्य के अन्तर्गत किया है । आचार्य रुद्रट, भोज अग्निपुराण एव साहित्य दर्पण मे भी प्रहेलिका का उल्लेख है ।
आचार्य भामह ने नाना धात्वर्थ से गम्भीर तथा दुर्बोध शब्दों से निष्पादित यमक को प्रहेलिका के रूप में मान्यता दी है । यह वस्तुत राम शर्मा नामक किस विद्वान का मत था जिसका वर्णन उन्होंने 'अच्युतोत्तर' नामक काव्य में किया थ । बहुत सभव है कि यह प्रसर भामह को अत्यन्त प्रिय रहा हो इसीलिए उन्होंने 'हेय यमक' के सन्दर्भ में इसका निरूपण किया है । वस्तुत भामह इसे काव्य मे दुर्बोध ही स्वीकार करते है काव्य में इसका प्रयोग वाछनीय नहीं है क्योंकि इससे विद्वत् जन ही लाभान्वित हो सकते हैं ।
आचार्य दण्डी के अनुसार आमोदगोष्ठी मे विचित्र वाग् - व्यवहारों से मनो विनोद मे लोगों से भरी भीड में गुप्त - भाषण मे तथा दूसरों को अर्थानभिज्ञ बनाकर उपहास पात्र बना देने मे प्रहेलिका को उपयुक्त बताया गया है ।
आचार्य रुद्रट और भोज भी दण्डी के विचारों से सहमत हैं 14
आचार्य अजितसेन के अनुसार जिस रचना विशेष मे बाह्य एव आभ्यन्तरिक दो प्रकार के अर्थ होने पर उसमे जिस किसी अर्थ को कहकर विवक्षित अर्थ को अत्यन्त गुप्त रखा जाय, उसको प्रहेलिका कहा है तथा शब्द और अर्थ रूप से इस्के दो भेदों का उल्लेख भी किया है ।
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एक काव्यालकार - भामह - 2/18
ख) दण्डी - काव्यादर्श - 3/97 गि रुद्रट - काव्यालकार - 5/24 घ) सरस्वतीकण्ठाभरण - 2/33-34 ड) साहित्य दर्पप - 10/13 काव्यालकार - 2/18-20 क्रीडागोष्ठीविनोदेपु तज्ज्ञराकीर्पमन्त्रणे । परव्यामोहने चापि सोपयोगा प्रहेलिका ।। एक प्रश्नोत्तरादि चान्यत्क्रीडामात्रोपयोगमिदम् ।
ख स0क0म0-2/134 - दण्डी अनुकृत । अ०चि0 - 2/125
काव्यादर्श - 3/97 रूद्रट-काव्यालकार-5/24
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इनके पूर्ववर्ती आचार्य दण्डी ने सोलह प्रकार की प्रहेलिकाओं का उल्लेख किया था जो निम्नलिखित हैं 10 समागता, 20 वचिता, ( 3 ) व्युत्क्राता, (4) प्रमुषिता, ( 5 ) म्मानरूपा, 16 ) परुषा, ( 7 ) मख्याता, (8) परिकल्पिता (9) नामातरिता, [100 निभृतार्था । । समानशब्दा, 0120 सम्मूढा, 0 1 30 परिहारिका, (14) एकच्छन्ना, ( 15 ) उभयच्छन्ना तथा 0 16 0 संकीर्णा । इसके अतिरिक्त दण्डी ने चौदह दुष्ट प्रहेलिकाओं का भी निर्देश किया है ।
अजितसेन के पूर्ववर्ती आचार्य भोज अन्त प्रश्न और बहि प्रश्न तथा बहिरन्त प्रश्न के आधार पर प्रहेलिकाओं का विभाजन किया था 12 जबकि आचार्य सेन अन्त एव बहिप्रश्न के आधार पर ही प्रहेलिकाओं के भेद की व्यवस्था की है ।
अजितसेन के अनुसार जहाँ विवक्षित अर्थ को अत्यन्त गुप्त रखा जाय, वहाँ अर्थ प्रहेलिका होती है ।
उदाहरण नाभेरभिमतो राज्ञस्त्वयिरक्तो न कामुक ।
अ०चि० 2/126
उक्त श्लोक को प्रश्न प्रहेलिका के रूप में स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि आचार्य अजितसेन ने महाराजा नाभिराज को लक्ष्य करके उक्त श्लोक को उद्धृत किया है जिसमे यह प्रश्न भी किया है कि वह कौन पदार्थ है जो आप में रक्त आसक्त है और आसक्त होने पर भी महाराज नाभिराज को अत्यन्त प्रिय है, कामुक विषयी भी नहीं है, नीच भी नहीं है और कान्ति से सदा तेजस्वी रहता है । इसका उत्तर 'अधर' है जो 'उक्त श्लोक के सम्यक् अनुशीलन से किञ्चित् कठिनाई के साथ व्याप्त हो जाता है' क्योंकि अधर नीचे का ओष्ठ ही है वह रक्त वर्ण का होता भी है और महाराजनाभिराज को प्रिय भी है कामुक भी नहीं है शरीर के उच्च भाग पर रहने के कारण नीच भी नहीं है और कान्ति से सदा तेजस्वी भी रहता है 3
2
-
3
न कुतोऽप्यधर कान्त्यायः सदौजोधर. सक II
का0द0
3/98-124
०क०भ० - 2/137
अधर । मदौजोधर । तत तेजावर सामर्थ्याल्लभ्योऽधर
-
अर्थ प्रहेलिका ।
अचि0, 2 / 126 की वृत्ति ।
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अजित्सेन के अनुसार - जहाँ किसी विवपितार्थअर्थ के वाचक शब्द को इस प्रकार से व्यवहित रखा जाय कि उसे अभीष्ट अर्थ का प्रत्यायन विलम्ब से हो तो वहाँ शब्द प्रहेलिका होती है ।'
उदाहरण - भो केतकादिवर्णन सध्यादिस्जुषाऽमुना । शरीरमध्यवर्णेन त्वं सिहमुपलक्षय ।।
अ०चि0 - 2/127 "उक्त श्लोक मे कोई व्यक्ति किसी से कह रहा है केतकी आदि पुष्पों के वर्ण से सन्ध्यादि के ' वर्ण से एव शरीर के मध्यवर्ती वर्ष से अपने पुत्र को सिह समझो ।" उक्त श्लोक में केतकी का आदि वर्ण 'के' है तथा सन्ध्या का आदि वर्ण 'स' है और शरीर का मध्य वर्ण 'री' है - नीनों को मिला देने पर रिह वाचक 'केसरी' शब्द बन जाता है यहाँ शब्दजन्य चमत्कार होने के कारण शब्द प्रहेलिका है 12
इसके अतिरिक्त आचार्य अजितसेन ने निम्नलिखित प्रहेलिकाओं का भी निरूपण किया है जो इस प्रकार है - स्पष्टान्ध, 2% अन्तरालापक', 13बहिरालापक अन्तविषम', 4% मात्राच्युतक प्रश्नोत्तर, 5 व्यञ्जनच्युत', 160 अक्षरच्युत प्रश्नोत्तर, 17 निनुतेकालापक', 8 मुरजबन्धं, 19 अनन्तर पादमुरजवन्ध', Jio इष्टपादमुरजक्न्ध'2, गूढतृतीयचतुर्थानन्तराक्षरद्वयविरचित - यमकानन्तरपादमुरजबन्ध'3, 12 मुरज और गोमूत्रका षोडशदलपद्म'4, 130 गुप्तक्रियामुरज'5, 140 अर्द्धभ्रमपूढपश्चार्द्ध चित्र'6 1150 अर्द्धभ्रमगूढ - द्वितीयपद7, 016 एकाक्षरविरचित चित्रालकार', 17 एकाक्षरविरचितैक पाद चित्र'", द्वचक्षर चित्र29, 119 गतप्रत्यारतार्द्ध चित्र21, 20f रतप्रत्यारतेक चित्र21, 21 नतप्रत्यारतपादयमक22, 220 बहुक्रियापद --- स्वरगूढ -- - सर्वतोभद्र23, 23 गूढस्वेष्टपादचक्र24,
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विवक्षितार्थ सुविगोपितोऽसौ प्रहेलिका मा द्विविधाऽर्थशब्दात् ।
अचि0 - 2/125 उत्तरार्ध वही - 2/127 1/2 वृत्ति वही - 2/129 1/2, 4 2/130 1/2, 5 2/131 1/5, 6 2/137 1/2 7 2/138 1/2, 8 2/139 1/2, 9 2/147 1/2, 10 2/149 1/2, ।। 2/150 1/2, 12_2/151 1/2, 13 152 1/2, 14 2/153 1/2, 15 2/154 1/2, 16. 2/155 1/2 - 156 1/2, 17 2/157 1/2, 18 2/159 1/2, 19 2/160, 20 2/161 1/2, 21 2/162 1/2, 22. 2/163 1/2, 23 2/164 1/2, 24 2/165 1/2, 25 2/166 1/2
अचि0 द्वितीय परच्छेद ।
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251 दर्पणबन्ध', 251 पट्टकबन्ध, 26 तालवृन्त, 27 नि सालबन्धी, 1281 ब्रह्मदीपिका, 290 परशुक्न्ध, 300 यानबन्ध', 310 चक्रवृत्त, 320 भृगार बन्ध', 133 निगूढपादक'9, 340 छत्रबन्ध'', 35 हारबन्ध 2 ।।
आचार्य अजितसेन ने उपर्युक्त सभी प्रहेलिकाओं के लक्षणों का उल्लेख नहीं किया है तथा विविध प्रकार के चित्रबन्धों को भी इसी प्रहेलिका के अन्तर्गत ही निरूपित कर दिया है किन्तु वैज्ञानिक रीति से विचार करने पर बिन्दुच्युतक मात्राच्युतकादि को प्रहेलिकाओं के अन्तर्गत रखा जा सकता है जैसा कि इनके पूर्ववर्ती आचार्य भामह, दण्डी तथा भोज स्वीकार करते रहे ।'
आचार्य अजितसेन ने मुरजबन्ध दर्पणबन्ध, पट्टबन्ध, तालबन्ध, नि साल क्न्ध, ब्रह्मदीपिका, परशुक्न्ध, यानबन्ध, चक्रबन्ध तथा श्रृगार बन्ध और निगूढपाद के लेखनविधि के विषय में भी चर्चा की है जो इस प्रकार है -
मुरजवन्ध की प्रक्रिया.
आचार्य अजितसेन के अनुसार ऊपर की पंक्ति में पूर्वाद्ध पद्य को लिखकर नीचे उत्तरार्द्ध लिखे । एक-एक अक्षर से व्यवहित ऊपर और नीचे लिखने से मुरजवन्ध की रचना होती है ।14
पूर्वाद्ध के विषम संख्याक वर्णों को उत्तरार्द्ध के समसंख्यांक वर्णों के साथ मिलकर लिखने से श्लोक का पूर्वाद्ध और उत्तरार्द्ध के विषम संख्याक वर्णों को पूर्वाद्ध के समसख्याक वर्णों के साथ क्रमश मिलाकर लिखने से उत्तरार्द्ध बन जाता है । इसका स्पष्टीकरण यह है कि प्रथम पक्ति के प्रथमाक्षर को द्वितीय पक्ति के द्वितीयाधर के साथ द्वितीय पंक्ति के प्रथमाक्षर को प्रथम पंक्ति के प्रथमाक्षर के साथ दोनों पक्तियों के वर्गों की समाप्तिपर्यन्त लिखना चाहिए ।
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वही - 2/168 1/2, 2 2/169 1/2, 3 2/17। 1/2, 4 2/173 1/2 5 2/175 1/2, 6 2/177 1/2, 7 2/169 1/2, 8 2/182 1/2, 9 2/183 1/2, 10 2/185 1/2, ।। 2/188 1/2, 12. 2/189 1/2 सभी अ०चि० - द्वि0 परिच्छेद । का भा-काव्यालकार - 5/24 ख) दण्डी - काव्यादर्श - 3/106 ग स0क0म0 - 2/134 पूर्वार्धमूर्ध्व पड्क्तो तु लिखित्वाऽर्द्ध परं त्वत ।
13
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दर्पपवन्ध का स्वरूप -
और मध्य में
जिस रचना विशेष मे कवि छह कार पादमध्य, सन्धि एक वर्ण को घुमाता है, उसे दर्पपबन्ध कहते हैं ।'
पट्टकवन्य का स्वरूप -
जिस रचना विशेष में ऊपर और नीचे क्रमश तीन चरणों को लिखकर अन्तिम चरप को चारों कोणे मे लीन कर देते है, वह रचना पटकबन्ध कही गयी है 2
तालवृन्त का स्वरूप -
जिस रचना विशेष में आदि और अन्त के वृन्तों तथा चतुष्कोप सन्धि मे एव वृन्त के मध्य मे दो-दो बार एक-एक अक्षर का भ्रमण कराते हैं, उसे तालवृन्त प्रबन्धक के रूप मे स्वीकार किया गया है ।
नि सालबन्ध का स्वरूप -
चौकोर प्रत्येक चतुष्कोप में ऊपर, नीचे और अन्तर - व्यवहित में दो-दो और मध्य में एक-एक अक्षर को लिखने से नि साल नामक बन्ध की रचना होती है ।
ब्रह्मदीपिका का स्वरूप -
आठ दलों मे तीन-तीन अक्षरों को घुमाने से और कर्णिका को एक ही वर्प द्वारा आठ कार भरने से ब्रह्मदीपिका नामक चित्र बनता है ।
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- 00 -
अचि0 2/149 1/2 वही - 2/169 1/2 वही - 2/171 1/2 वही - 2/173 1/2 वही - 2/175 1/2
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परशुबन्ध का स्वरूपः
परशुवृत्त में सन्धि स्थान में जो एक अक्षर है, उसे छह बार दुहरावें । श्रम और शिर में विद्यमान एक अक्षर को दो बार दुहरावे । इसी प्रकार तीन अक्षरों से युक्त ग्रीवा को भी दो बार दुहराने पर व परशुबन्ध की रचना होती है ।।
यानबन्ध का स्वरूप -
प्रिया को धारण करने वाले यानबन्ध मे शिखराव के दोनों ओर के ऊर्ध्व भाग मे चार - चार अक्षरों को लिखने तथा प्रवेश और निर्गम दोनों ही समय इनकी आवृत्ति करने पर यानवन्ध की रचना होती है । 2
चक्रवृत्त का स्वरूप -
कवि चक्रवृत्त में छह ओर वाले चक्र मे तीन पादों को लिखकर और चतुर्थपाद को मि की रचना करता है । 3
भृंगार बन्ध का स्वरूप:
भृगारबन्ध में पाद कण्ठ में दो-दो अक्षरों को मध्य मे आठ अक्षरों को और दोनों ओर अन्तिम पाद का न्यास करने पर भृगारबन्ध की रचना होती है । 4
1
निगूढपाद का स्वरूपः -
चार भेद वाले निगूढ ब्रह्मदीपक बन्ध में प्रथम, द्वितीय, तृतीय अथवा चतुर्थपाद निगूढ किया जाता है । प्रथमदि पादों की निगूढता से ही इसके चार भेद होते हैं 15
2
3
4
अचि०
वही - 2 / 169 1/2
वही
2/182 1/2
वही - 2 / 183 1/2
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को लिखकर अरों के बीच चक्रधारा में लिखकर चक्रवृत्त
2/177 1/2
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चित्रकाव्य को प्रहेलिका के रूप मे निरूपित करने का श्रेय सर्वप्रथम अग्निपुराणकार को जाता है इन्होंने सात प्रकार की प्रहेलिकाओं का उल्लेक्ष किया है - 10 प्रश्न, 12 प्रहेलिका 3 गुप्त, 14 चुताक्षर, 5 दत्ताक्षर, 60 च्युतदत्ताक्षर तथा 17 समस्या।
समस्या प्रहेलिका के तीन भेद किए गये है - नियम, विदर्भ तथा बन्ध । नियम को स्थान, स्वर तथा व्यञ्जन रूप से तीन भागों में विभाजित किया गया है - प्रतिलोम्य तथा आनुलोम्य रचना को विदर्भ की कोटि मे स्वीकार किया है तथ गेमूका अर्धभ्रमण सर्वतोभद्र, मुरजबन्धदि प्रसिद्ध वस्तुओं के आधार पर की जाने वाली लोक रचना को क्न्ध के रूप निरूपित किया है ।' अग्निपुराण के अनन्तर आचर्य अजित्सेन ने भी विविध प्रकार के बन्धे को प्रहेलिका के रूप मे स्थान देकर उसके महत्व की अभिवृद्धि की । यद्यपि अजितसेन कृत परिभाषा पर यत्र-स्त्र अपने पूर्ववर्ती आचायाँ एव अग्निपराप का प्रभाव परिलक्षित होता है । तथापि इनके द्वारा निरूपित भेदों में नगण्यता तथा अधिक्य का आधान हुआ है । सम्पूर्ण द्वितीय परिच्छेद में इन्होंने केवल चित्र काव्यों का ही निरूपण किया है जो इनके वैद्ष्य का परिचायक है।
अग्निपुराप - अ0 343 पृ0 498
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अध्याय - 4
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शब्दालकारों का विवेचन
शब्दालकारों के विवेचन के पूर्व अलकार की शब्दार्थ निष्ठता पर विचार कर लेना अनुपयुक्त न होगा ।
किसी भी अलकार की शब्दार्थ निष्ठता को सुनिश्चित करने के लिए अन्वय-व्यतिरेक के सिद्धान्त को स्वीकार करना पडता है अत अन्वय व्यतिरेक सिद्धान्त के विषय मे भी परिचय प्राप्त कर लेना नितान्त आवश्यक है ।
जिसके रहने पर जिस वस्तु या पदार्थ की स्थिति रहे, उसे अन्वय सिद्धान्त कहते हैं और जिसके अभाव मे जिस वस्तु या पदार्थ की स्थिति सभव न हो उसे व्यतिरेक कहते है ।
जिस अलकार का जिसके साथ अन्वय-व्यतिरेक सभव हो सकेगा वह तदाश्रित अलकार ही कहा जा सकेगा । यदि कोई भी अलकार किसी पद के स्थान पर उसके पर्यायवाची शब्द के रख देने पर यदि नष्ट हो जाता है तो वहाँ उसे शब्दगत अलकार के रूप मे ही स्वीकार किया जायेगा और यदि शब्दपरिवर्तन करने पर भी अलकार की अलकारता विनष्ट नहीं होती तो वहाँ उसे अर्थालकार के रूप में स्वीकार किया जाता है ।
आचार्य रुय्यक तथा उनके टीकाकार विद्याचक्रवती 'आश्रयाश्रयी' भाव सम्बन्ध को ही शब्दालकार तथा अर्थालकार के निर्णायक तत्व के रूप मे स्वीकार करते है । उनका कथन है कि यदि अलकार शब्दाश्रित है तो उसे शब्दालकार तथा अर्थाश्रित होने पर अर्थालकार स्वीकार करना चाहिए ।3 "लोक मे भी कटक हाथ का अलकार कहलाता है क्योंकि वह हाथ पर आश्रित रहता है और कुण्डल
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यत्सत्त्वे यत्सत्त्वमन्य, यद्भावे यदभावो व्यतिरेक, यथा दण्डचक्रादिसत्त्वे घटोत्पत्तिसत्त्वमन्वय , दण्डचक्राद्यभावे घटोत्पत्त्यभावो व्यतिरेक . ताभ्यामेवेत्यर्थ ।
का0प्र0 - बालबोधिनी टीका, नवम
उल्लास, पृष्ठ - 518 का०प्र०, नवम उल्लास-बालबोधिनी टीका । क लोकवदाश्रयायिभावश्च तत्तदलकारत्वनिबन्धनम् ।
अ0स0-पृ0-378 ख/ सजीवनी टीका - पृष्ठ - 378
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कानों का तथा नूपुर परों का अलकार कहलाता है क्योंकि वह कानों एव पैरों मे धारण किया जाता है, उस पर आश्रित है विमर्शिनीकार ने 'लोक्वद' की व्याख्या करते हुए यही मन्तव्य प्रकट किया है कि - लोके हि याडेलकारों यदाश्रित स तदलकारतयोच्यते, यथा कुण्डलादि कर्णाद्याश्रितस्तदलकार ।
वि०पृ0 - 2510
हाथ के सयोग मात्र से नूपर हाथ का अलकार नहीं हो सकता और न पैर के सयोग से कटक या कुण्डल पैरों का। लौकिक आभूषणों तथा काव्यालकार का इस अश तक साम्य है । आश्रय का निश्चय शोभा, विच्छित्ति या वैचित्र्य के आधार पर होता है " ।
लोक मे जो अलकार जिस पर आश्रित होता है वह उसी का अलकार कहलाता है जैसे कुण्डलादि कर्ण पर आश्रित होने से कर्ण, का अलकार कहलाता है । इसी प्रकार अलकार शास्त्र मे भी शब्दादि पर आश्रित रहने वाला अलकार शब्दादि का अलकार कहलाता है 12 परवर्ती काल मे आचार्य विश्वनाथ तथा विद्यानाथ ने भी रुय्यक द्वारा निरूपित आश्रयाश्रयी भाव को सादर स्वीकार किया है । इसी के आधार पर इन्होंने सभग तथा अभग श्लेष को अर्थालकार के रूप में निरूपित किया है ।
रुय्यक द्वारा निखपत आश्रयाश्रयी - भाव सिद्धान्त की अपेक्षा मम्मट निरूपित अन्वय - व्यतिरेक सिद्धान्त वैज्ञानिक होने के कारण प्रामाणिक प्रतीत होता है । प्रदीप तथा उद्योतकार भी अन्वय-व्यतिरेक सिद्धान्त को ही अलकार का निर्णायक तत्व स्वीकार करते है ।
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अलकार मीमासा - डॉ० रामचन्द द्विवेदी, पृष्ठ - 169 अ0स0 पृ0 - 378 एक यो हि यदाश्रित स तदलकार एव । अलकार्यालकारणभावस्य लोकवदाश्रयाश्रायभावेनोपपत्ति ।
सा0द0, परि0-10, पृ0 - 632 एखए प्रताप - पृ0 406
- प्रकाशन - कृष्णदास अकादमी वाराणसी बालबोधिनी पृ0 - 676, पक्ति - 26
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आचार्य अजित सेन ने चित्र, वक्रोक्ति, अनुप्रास तथा यमक भेद से चार प्रकार के शब्दालकारों को ही स्वीकार किया है पूर्व अध्याय मे चित्र काव्य का निरूपण सविस्तार किया गया है ।
1
अपेक्षित है ।
वक्रोक्ति अलकार:
संस्कृत साहित्य मे वक्रोक्ति पद का उल्लेख दो अर्थो मे होता है । एक अर्थ तो केवल अलकार मात्र का सूचक है और दूसरा अलकार विशेष का ।
आचार्य भामह के अनुसार अतिशयोक्ति ही समग्र वक्रोक्ति अलकार प्रपच है । इससे अर्थ मे रमणीयता आती है । कवि को इसके लिए प्रयास करना चाहि इए क्योंकि उसके बिना कोई अलकार सभव नहीं है ? आशय यह है कि वक्रोक्ति अलकार के अभाव मे इन्हें अलकारत्व अभीष्ट नहीं है, सम्भवत इसीलिए इन्होंने हेतु, सूक्ष्म व लेश को अलकार नहीं माना है | 2
आचार्य दण्डी के अनुसार श्लेष प्राय सभी वक्रोक्तियों का शोभाधायक है । इनके अनुसार सम्पूर्ण वाड्मय स्वभावोक्ति एव वक्रोक्ति के रूप में विभक्त है । 3
प्रस्तुत अध्याय मे वक्रोक्ति, अनुप्रास तथा यमक का निरूपण करना
आचार्य वामन ने इसे अलकार के रूप मे स्वीकार करते हुए सादृश्य लक्षणा को ही वक्रोक्ति बताया है किन्तु इसे गौणी लक्षणा के रूप मे स्वीकार करना ही उचित प्रतीत होता है । 4
1
2
3
4
अलकार चिन्तामणि
2/1
भा0का0ल0 2/84, 85, 86
श्लेष सर्वासु पुष्णाति प्राय वक्रोक्ति श्रियम् । भिन्न द्विधा स्वभावोक्तिर्वक्रोक्तिश्चेतिवाङ्मयम् ।।
सादृश्यलक्षणा वक्रोक्ति ।
का००
काल०सू०
-
-
2/363
4/3/8
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रुद्रट के अनुसार जहाँ, वक्ता अन्य आभप्राय से किसी बात को कहता है और उत्तर देने वाला पदों को भग करके जहाँ अविवक्षित अर्थ, को कहता है वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलकार होता है। तथा जहाँ स्पष्ट रूप से उच्चारण किए गये स्वर- वैशिष्ट्य के कारण अर्थान्तर की प्रतीति होती है वहाँ काकुवक्रोक्ति अलकार होता है ।
मम्मट, रुय्यक, शोभाकर मित्र, जयदेव, वाग्भट, अप्पयदीक्षित, भट्टदेवशकर पुरोहित तथा विश्वेश्वर पर्वतीय की परिभाषाएँ रुद्रट से प्रभावित है ।
आचार्य अजित सेन कृत परिभाषा पूर्ववर्ती आचार्यो से भिन्न है । इनके अनुसार जहाँ शब्द और अर्थ की विशेषता के कारण प्राकरणिक अर्थ से भिन्न अर्थान्तर की प्रतीति हो वहाँ वक्रोक्ति अलकार होता है।
___ इन्होंने आचार्य रुद्रट तथा मम्मट की भाँति श्लेष तथा काकु मे होने वाली वक्रोक्ति का उल्लेख नहीं किया तथापि इनके द्वारा निरूपित वक्रोक्ति मे भी उक्त तत्वों का समावेश स्वीकार करना होगा, क्योंकि इन्होंने 'यत्रवक्राभिप्रायतो वाच्य प्रस्तुतादपरं वदेत्' - का उल्लेख कर यह स्पष्ट कर दिया है कि कुटिलाभिप्राय से युक्त वाग्विन्यास के द्वारा जहाँ अर्थान्तर की प्रतीति हो वहाँ वक्रोक्ति अलकार होता है । यहाँ अर्थान्तर की प्रतीति का कारण काकु अथवा श्लेष के अतिरिक्त दूसरा हो ही नहीं सकता । अत काकुगत वक्रोक्ति तथा श्लेषगत वक्रोक्ति - इन दो भेदों का समावेश अजित सेन कृत परिभाषा मे स्वीकार करना होगा । इनके द्वारा निरूपित उदाहरण मे काकवक्रोक्ति एव श्लेषवक्रोक्ति दोनों ही तत्त्व समाहित
--
-
-
-
-
-
-
-
-
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-
-
-
-
-
का०ल0 - 2/14
वही - 2/16 का0प्र0 - 9/78 अ0स0 - 78 अ0र0 - 105 चन्दा० - 5/1।। वाग्भटालकार - 4/14 कुव - 159 अ०म० - 123
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अजित सेन के अनुसार वक्रोक्ति में निहित तत्त्व -
010
दो व्यक्तियों का होना ।
(20
वक्ता के द्वारा अन्य अभिप्राय से कहे गए वचन को श्रोता के द्वारा काकु एव वक्रोक्ति के कारण अन्यार्थ समझ लेना ।
उदाहरण
कान्ते पश्य मुदालिमम्बुजदले नाथात्र सेतु कथम् । तिष्ठेत्तन्न च तन्वि वच्मि मधुपकि मद्यपायी वसेत् ।। मुग्धे मा कुरु तन्मति धनकुचे तत्र द्विरेफ ब्रुवे । किलोकोत्तर वृत्तितोऽधम इह प्राणेश्वरास्ते वद ।।
अनुप्रास अलंकार:
|
उक्त श्लोक मे 'अलिम्' के स्थान पर 'आलिम्' का प्रयोग कर वक्रोक्ति की योजना की गयी है । वक्ता कमल दल पर 'अलि' की बात कहता है पर श्रोता - उत्तर देने वाली पत्नी 'आलिम्' का अर्थ 'सेतु' अर्थ लगाकर उत्तर देती है । जब 'अलि' के पर्यायवाची मधुप का प्रयोग किया जाता है तो श्लेष द्वारा मद्यपायी अर्थ प्रस्तुत किया जाता है पुन मे दो रकार होने से वक्ता है, तो श्रोता पत्नी 'प्राणेश्वरा' मे द्विरेफ देती है कि यहाँ प्राणेश्वर कहाँ है । उत्तरार्द्ध मे श्लेष लिया गया है अत यहाँ वक्रोक्ति अलकार है ।
द्विरेफ की बात कही जाती है कमल दल पर द्विरेफ के विचरण दो रकार का अर्थ इस प्रकार प्रथमार्द्ध मे द्वारा प्रस्तावित अर्थ से भिन्न अर्थ के द्योतक
अर्थात् भ्रमर शब्द की चर्चा करता ग्रहण कर उत्तर काकु द्वारा तथा
वाक्य का आश्रय
अ०चि०
-
भा०क०ल० 2/4-5-7
-
3/2
आचार्य भामह ने यमक, रूपक, दीपक तथा उपमा अलकार के साथ अनुप्रास अलकार की भी चर्चा की है किन्तु यह इनका अपना मत नहीं है ।। इन्होंने स्वरूप वर्षों के विन्यास मे अनुप्रास अलकार की सत्ता स्वीकार की है ।
आचार्य दण्डी ने रसोत्कर्षता पर विचार करते हुए इसे 'रसावह' कहा
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दण्डी के पश्चात् आचार्य भोज ने अनुप्रास को काव्य श्री की वृद्धि मे नितान्त उपयोगी बताया है । इनका कथन है कि जिस प्रकार चन्द्रमा मे ज्योत्स्ना एव अगनाओं मे लावण्य सौन्दर्य वृद्धि मे सहायक होता है ठीक वैसे ही अलकार अनुप्रास अलकार कवि - वाणी मे स्तवकित होकर काव्य - श्री मे वृद्धि करता है । 2
करते है
1
। इनके अनुसार रस की व्यञ्जना मे अनुप्रास अधिक सहायक सिद्ध होता
"
2
3
4
-
आचार्य मम्मट वर्णों की साम्यता मे अनुप्रास अलकार की सत्ता स्वीकार
'वर्णसाम्यमनुप्रास '
उक्त सूत्र मे प्रयुक्त वर्ण- पद व्यञ्जन परक है जिससे स्पष्ट हो जाता है कि व्यवधान से विन्यस्त वर्णमात्र मे साम्य की प्रतीति हो, और वह रसादि प्रतीति कराने में सक्षम हो तो वहाँ अनुप्रास अलकार होता है । 3 केवल स्वर - मात्र मे सादृश्य होने पर रसानुगम न हो सकेगा और न ही सहृदय - हृदयावर्जक होगा 14 आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ समान अक्षरावृत्ति का श्रवण हो वहाँ अनुप्रास अलकार होता है । इन्होंने अक्षरावृत्ति मे अक्षरों के निकट सम्बन्ध को स्वीकार किया है क्योंकि अक्षरों मे निकट सम्बन्ध होने पर ही उसमे रसोभावित करने का सामर्थ्य सभव हो सकेगा । इनके अनुसार अक्षरों मे निकट का सम्बन्ध तथा समान आवृत्ति होने पर भी उसे अलकार की कोटि में तब तक स्वीकार नहीं किया जायेगा जब तक उसमे चारूत्व न होगा । इन्होंने अनुप्रास लक्षण मे भामह की भाँति 'जायते चारवो गिर का उल्लेख नहीं किया है और न ही दण्डी की भाँति 'सानुप्रासा रसावहा' का उल्लेख भी नहीं किया है तथापि इनके
यया कयाचिच्छ्रुत्वा सानुप्रासा रसावहा ।
2/76-77
का०प्र० सूत्र
०क०भ०
स्वरवैसादृश्येऽपि व्यञ्जनसदृशत्व वर्णसाम्यम् न्यासोऽनुप्रास ।
का0द0
-
1 रसाद्यनुगत
झलकीकर बालबोधिनी, पृष्ठ
-
1040
-
1/52
प्रकृष्टो
494
'न च स्वरमात्रसादृश्ये रसानुगम, न वा सहृदयहृदयावर्जकत्वलक्षण प्रकर्ष इति प्रदीप । झलकीकर बालबोधिनी, पृष्ठ 494
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लक्षण मे भामह, है । कोई भी
दण्डी तथा मम्मट आदि की परिभाषा का समन्वित रूप विद्यमान अलकार 'कोविदानन्दकृत्' तभी हो सकेगा जब उसमे चारुत्व की सृष्टि करने की क्षमता हो और रसाद्यनुगत प्रकृष्ट वर्ण विन्यास हो । अजितसेन कृत परिभाषा मे 'अतिदूरपरित्यागात्तुल्या वृत्याक्षर श्रुति से आशय यही है कि समान अक्षर वाले वर्णों की श्रुति यदि निकट होगी, उसमे दूर का वर्ण-व्यवधान न होगा तो उससे निश्चित ही सहृदयहृदयावर्जकता उत्पन्न करने का सामर्थ्य होगा और तभी वह अलकार की कोटि मे स्वीकार किया जा सकेगा ।।
अजितसेन कृत परिभाषा का वैशिष्ट्य.
010
120
(30
परवती आचार्य जयदेव विश्वनाथ आदि की परिभाषाओं मे किसी नव्यता का आधान नहीं हो सका I इनकी परिभाषाएँ किञ्चिद् शाब्दिक परिवर्तन के साथ अजितसेन से प्रभावित है 12
अप्पयदीक्षित, पण्डितराज, जगन्नाथ तथा विश्वेश्वर पण्डित ने इस अलकार का उल्लेख नहीं किया ।
लाटानुप्रास
समान अक्षरों की आवृत्ति का श्रवण होना । अक्षरों मे निकट का सम्बन्ध होना ।
समान अक्षरावृत्ति का सहृदयहृदयामादक होना ।
लाटानुप्रास का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य भामह ने किया । किन्तु इन्होंने लाटानुप्रास को परिभाषित नहीं किया है । इनके द्वारा प्रदत्त उदाहरण से ज्ञात होता है कि तात्पर्य भेद से शब्द और अर्थ की आवृत्ति ही लाटानुप्रास है । 3
1
2
3
अतिदूरपरित्यागात् तुल्यावृत्याश्रु ।
या, सोऽनुप्रास इत्युक्त कोविदानन्दकृद्यथा ।।
जयदेव चन्द्रालोक
5/8
-
लाटीयमप्यनुप्रासमिहेच्छन्त्यपरे यथा ।
दृष्टि दृष्टिसुखा धेहि चन्द्र चन्द्रमुखोदित ।।
अ०चि० - 313
सा०द० - 10/8
भा०, का०या० 2/8
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डॉ0 देवेन्द्रनाथ शर्मा ने उक्त भामह कृत लाटानुप्रास के उदाहरण की इस प्रकार विवेचना की है "किसी कारण नायिका से अपरक्त नायक के प्रति यह दूती की उक्ति है - चन्द्रमा के उदित हो जाने से नायिका की विरह-वेदना बढ गयी है, अत अब तुम्हारी उदासीनता चित नहीं है । अपनी आँखों मे उदासीनता के बदले अनुराग भर लो जिसे देखकर नायिका की आँखें आहलादित हो जाय, अर्थात् उस पर प्रसन्न हो जाओ ।
यहाँ 'दृष्टि- दृष्टि' और 'चन्द्र-चन्द्र' मे शब्द एव अर्थ की पुनरूक्ति होते हुए भी तात्पर्य भेद है, इसलिए लाटानुप्रास है ।'
आचार्य उद्भट के अनुसार जहाँ स्वरूप एव अर्थ की दृष्टि से भेद न होने पर भी प्रयोजनान्तर से शब्दों या पदों की पुनरुक्ति हो वहाँ लाटानुप्रास होता है, इन्होंने इसके निम्नलिखित भेदों का उल्लेख किया है2.11 एक पदाश्रय, 02 पादाश्रय, 13 स्वतत्र- परतत्र, 14 पदाश्रय, 55 भिन्न पदाश्रय ।
आचार्य उद्भट के पश्चात् आचार्य मम्मट ने इसका निरूपण किया है उनके अनुसार शब्द और अर्थ मे अभेद होने पर भी जहाँ तात्पर्य मात्र से भेद की प्रतीति हो वहाँ लाटानुप्रास होता है । इन्होंने इसके पाँच भेदों का उल्लेख किया है - एकपदा वृत्ति, 12 पदसमुदाया वृत्ति नाम प्रातिपदिक वृत्ति, 03 एक समासगत, 4 भिन्न समासगत, 5 समासासमासगत । आचार्य रूय्यक तथा शोभा कर मित्र कृत परिभाषा मम्मट से प्रभावित है । 4
__ आचार्य अजितसेन ने लाटानुप्रास तथा छेकानुप्रास को अनुप्रास के भेद के अन्तर्गत ही स्वीकार किया है । लाटानुप्रास का केवल उदाहरण ही प्रस्तुत किया है, परिभाषा का उल्लेख नहीं किया ।
___ काव्यालकार - डॉ0 देवेन्द्रनाथ शर्मा, पृ0 - 32
काव्यालकारसारसग्रह प्रथम वर्ग पृ0 - 261 शाब्दस्तु लाटानुप्रासो भेदे तात्पर्यमात्रत ।
का0प्र0 नवम् उल्लास सूत्र - 113-116 का तात्पर्यभेदवत्तु लाटानुप्रास ।
____ अ0स0 सूत्र - 8 ख) तुल्याभिधेयभिन्नतात्पर्यशब्दावृत्तिलीटानुप्रास ।
अलकार रत्नाकर, सूत्र - 5
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उदाहरण -
यदि नास्ति स्वत शोभा भूषणै कि प्रयोजनम् । यद्यस्त्यरता शोभाभूषणै कि प्रयोजनम् ।।
अ०चि0 - 3/6
उक्त श्लोक मे यह बताया गया है कि यदि स्वत शोभा नहीं है तो भूषण विन्यास सर्वथा व्यर्थ है, और यदि स्वत शोभा है तो भी भूषण विन्यास व्यर्थ ही है।
उपर्युक्त उदाहरण से ज्ञात होता है कि आचार्य अजितसेन को भी शब्द और अर्थ मे अभेद होने पर भी तात्पर्य मात्र से भेद प्रतीति मे लाटानुप्रास अभीष्ट है, क्योंकि श्लोक के पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध वाक्यों की योजना एक जैसी ही है तथापि तात्पर्य मात्र से भेद परिलक्षित हो रहा है । अत यहाँ लाटानुप्रास
लाटानुप्रास तथा यमक का अन्तरः
लाटानुप्रास मे शब्द तथा अर्थ मे अभेद होने पर तात्पर्य भेद के कारण अर्थ मे भिन्नता हो जाती है जबकि यमक मे सार्थक किन्तु भिन्नार्थक पदों की आवृत्ति के कारण अर्थ भेद की प्रतीति होती है ।
लाटानुप्रास तथा अनन्वय का अन्तर -
"लाटानुप्रास' के समान अनन्वय मे भी शब्द की पुनरावृत्ति होती है तथापि अनन्वय शाब्दिक पुनरूक्ति गौण होती है और लाटानुप्रास मे वह अलकारत्व की सृष्टि करती है ।"2
शोभाकर मित्र के अलकार रत्नाकर का आलोचनात्मक अध्ययन - डॉ० सोम प्रकाश पाण्डेय, पृ0 - 32
अ0र0, सू०-5 की वृत्ति
अ0स0, पृ० - 37
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कानुप्रा
आचार्य उद्भट ने केवल आठ अलकारों को स्वीकार करने वाले आलकारिकों का नाम निर्देश किये बिना ही उनके द्वारा स्वीकृत आठ अलकारों मे अन्यतम छेकानुप्रा की भी चर्चा की है ।' आचार्य उभट के अनुसार जहाँ दो-दो वर्णो का सुन्दर एव सदृश उच्चारण किया जाए वहाँ छेकानुप्रास होता है । इनके अनुसार जहाँ दो-दो समुदायों मे ही परस्पर उच्चारणगत साम्य हो वहाँ छेकानुप्रास होगा, तीनतीन समुदायों मे इन्हे छेकानुप्रास अभीष्ट नहीं है | 2
काव्यालकारसार संग्रह के टीकाकार प्रतीहारेन्दुराज के अनुसार 'छेक' का अर्थ नीड मे रहने वाले पक्षी बताए गए है जिस प्रकार से उनके उच्चारण मे माधुर्य होता है ठीक वैसे ही जिस अनुप्रास मे माधुर्य का समावेश हो वहाँ छेकानुप्रास होता है । इसके अतिरिक्त इन्होंने छेक का अर्थ 'विदग्ध' भी किया है जिससे विदित होता है कि जो अलकार विद्वज्जन को प्रिय हो वह छेकानुप्रास है ।
3
आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ अनेक व्यञ्जन का एक बार सादृश्य हो वहाँ छेकानुप्रास होता है । 4 काव्य प्रकाश के टीकाकार सार बोधिनीकार के अनुसार वर्णों का व्यवधान होने पर भी अनेक पर छेकानुप्रास होता है 15
व्यञ्जनों का सदृश साम्य होने
आचार्य अजित सेन छेकानुप्रास का उदाहरण देने के पश्चात् अन्याचार्याभिमत छेकानुप्रास का लक्षण प्रस्तुत किया है ।
उदाहरण -
1
2
3
4
5
रमणी रमणीयाऽसौ मरुदेवी मरुन्मता । नाभिराज महानाभिममुमुददनेकेश ।।
अलकारसारसग्रह प्रथम वर्ग, पृo
काव्यालकार
सारसग्रह
-
-
पृष्ठ 254
लघुवृत्ति - Yo - 254
सोऽनेकस्य सकृत्पूर्व ।
-
248
छेकानुप्रासस्तुद्वयोर्द्वयो
बा०बो०
अ०चि0 3/7
सुशोक्ति कृती,
का0पु09/106
सारबोधिनीकारस्तु व्यवहितस्यापि अनेकस्य व्यञ्जनस्य सकृत्साम्ये छेकानुप्रास
मन्यमाना ।
-
go - 496
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________________
उक्त श्लोक के प्रथम चरण मे रमणी रमणी, मरू मरू तथा द्वितीय चरण मे नाभि नाभि का साम्य है असंयुक्त व्यञ्जनों का साम्य होने से छेकानुप्रास है । इसके अतिरिक्त आचार्य अजितसेन ने अन्य आचार्यानुमोदित छेकानुप्रास की परिभाषा प्रस्तुत की है जिसके अनुसार यह बताया गया है कि जहाँ व्यवधान रहित दो व्यञ्जनों की दो बार आवृत्ति हो वहाँ छेकानुप्रास होता है ।। यद्यपि आचार्य अजितसने ने अपने पूर्ववर्ती किसी आचार्य के प्रति सकेत नहीं किया है तथापि इस विवेचन मे आचार्य उद्भट कृत परिभाषा का पर्याप्त साम्य परिलक्षित हो रहा है । बहुत संभव है कि आचार्य उद्भट के मत से अजितसेन सहमत रहे हो और उनकी परिभाषा को नाम निर्देश किए बिना सादर स्वीकार कर लिया हो ।
वृत्यनुप्रास -
वृत्तिओं मे होने वाले अनुप्रास को वृत्यनुप्रास के रूप मे स्वीकार किया गया है । आचार्य रुद्रट ने समास और असमास भेद से दो भागों में विभाजित किया है 1 समास को होने वाली वृत्तियों को पुन तीन भागों में विभाजित किया है पाचाली, लाटी तथा गौणी । जिसमे लघु, मध्यम तथा दीर्घ समास की व्यवस्था की गयी है | 2
-
रुद्रट के पश्चात् अग्निपुराण में भी वृत्तियों का उल्लेख किया गया है जहाँ यह बताया गया है कि वर्णों की आवृत्ति यदि पद अथवा वाक्य मे हो तो वहाँ अनुप्रास अलकार होता है । एक वर्णगत आवृत्ति के इन्होंने पाँच भेद किए है जिसमे मधुरा, ललिता, प्रोढा, भद्रा तथा परुषा वृत्ति का उल्लेख है । अग्निपुराण में इन वृत्तियों के भेद - प्रभेद का सविस्तार वर्णन है । 3
1
-
आचार्य उभट ने भी परुषा, उपनागरिका तथा ग्राम्या वृत्तियों का उल्लेख किया है। परुषा मे रेफ के साथ 'ट' वर्ग का सयोग रहता है तथा इसमे
2
3
व्यञ्जनद्वन्द्वयोर्यत्र द्वयोख्यवधानयो 1 पुनरावर्तनं सोऽय छेकानुप्रास उच्यते ।।
रु- काव्यालकार 2/3-4
स्यादावृत्तिरनुप्रासो वर्णानापदवाक्ययो । एकवर्णाऽनेकवर्णावृत्तेर्व्वर्णगुणों द्विधा ।। एकवर्णगतावृत्तेर्जायन्ते पञ्च वृत्तय । मधुरा ललिता प्रौढा भद्रा परूषया सह ।। (अध्याय - 343 अग्निपुराण
अ०चि०
3/8
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________________
श, ष, हल, ह्व, त्य से युक्त व्यञ्जनों का समावेश भी रहता है समानरूप वाले वर्ण, जहाँ सयुक्त हो तथा प्रत्येक वर्ग के अन्तिम वर्ण स्पर्श व्यञ्जन से युक्त हो वहाँ उपनागरिका वृत्ति को स्वीकार किया है । परुषा तथा उपनागरिका मे प्रतिपादित वर्णों से भिन्न जहाँ स्पर्श कोमल व्पज्जन की स्थिति हो वहाँ ग्राम्या वृत्ति होती है। 2
आचार्य मम्मट ने माधुर्य
व्यञ्जक वर्णों से उपलक्षित वृत्ति को उपनागरिका ओज गुणों के प्रकाशक वर्णों से युक्त वृत्ति को परुषा' कहा दे । ओज प्रकाशक वर्णों से युक्त वृत्ति को अन्य आचार्यों ने कोमला भी कहा है । किसी के मत मे यह पाञ्चाली वृत्ति भी है । इस कोमलावृत्ति को ही आचार्य उद्भट आदि
अतिशय कान्ति के अभाव के कारण ग्रम्य स्त्री से साम्यता प्रतिपादित करते हुए इसे ग्राम्या की अभिधा प्रदान की है किन्तु निष्णात बुद्धि वाले विद्वान इस ग्राम्या की भूरि भूरि प्रशंसा करते है । उक्त वृत्तियों से उपलक्षित अनुप्रास को वृत्यनुप्रास कहा गया है। 5 आचार्य मम्मट के अनुसार एक व्यञ्जन अथवा अनेक व्यञ्जन को दो बार अथवा अनेक बार सादृश्य होने पर वृत्यनुप्रास होता है 10 रुय्यक, शोभाकर मित्र तथा विश्वनाथ कृत परिभाषा मम्मट से प्रभावित है ।
7
I
2
3
4
5
6
7
-
-
अलकारसार संग्रह
go - 257
काव्यालकार सा०स० प्रथम वर्ग, पृष्ठ
-
का०प्र० सूत्र 108
वही सूत्र 109
बा०बो0 नवम् उल्लास, पृष्ठ
क) अन्यथा तु वृत्यनुप्रास
(ख) अलकार रत्नाकर
ग) सा0द010/4
-
-
497
-
एकस्याप्यसकृत्पर ।
एकस्य अपिशब्दादनेकस्य व्यञ्जनस्य वृत्यनुप्रास ।
257
द्विकृत्वो
का०प्र० सूत्र 107 एव वृत्ति
अ०स० सूत्र 5
सूत्र 4 सय्यक अनुकृत
3
वा सादृश्य
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आचार्य अजित सेन के अनुसार जहाँ एक-दो और तीन व्यञ्जन वर्णों की पुनरुक्ति हो वहाँ वृत्यनुप्रास अलकार होता है । इनकी परिभाषा पूर्ववर्ती आचार्यों की अपेक्षा भिन्न है । इन्होंने वृत्ति मे उद्भट, रुद्रट तथा व्यास प्रणीत अग्निपुराण की भाँति किसी भी प्रकार की वृत्तियों का उल्लेख नहीं किया तथा आचार्य मम्मट की भाँति नियतवर्णगत रसव्यापार की भी चर्चा नहीं की । केवल व्यञ्जनों की पुनरुक्ति मे ही इसकी सत्ता स्वीकार कर एक नवीन विचार व्यक्त किया । इनके अनुसार एक व्यञ्जन की पुनरुक्ति, दो व्यञ्जन की पुनरुक्ति तथा तीन व्यञ्जन की पुनरुक्ति या तीन से अधिक व्यञ्जनों की पुनरुक्ति मे भी वृत्यनुप्रास स्वीकार है ।± इसके अतिरिक्त इन्होंने वृत्यनुप्रास तथा यमक मे विद्यमान पुनरुक्त तत्व की मीमासा करने के लिए यमक से अनुप्रास का भेद भी प्रदर्शित किया है जो इस प्रकार है -
अनुप्रास और यमक अलंकार में भेद:
अनुप्रास मे व्यञ्जन वर्णों की आवृत्ति नियमत और स्वर वर्णों की आवृत्ति अनियमत होती है जबकि यमक अलंकार में स्वर और व्यञ्जनों की नियमत आवृत्ति होती है । यमक मे अर्थभेद का नियम भी निहित रहता है। जबकि अनुप्रास मे ऐसा कोई नियम नहीं है । 3
अजित सेन के पूर्ववर्ती उद्भट् रुद्रट मम्मट आदि किसी भी आचार्य ने अनुप्रास तथा यमक का अन्तर स्पष्ट नहीं किया । निश्चित ही अनुप्रास को पृथक् करने की उपर्युक्त दिशा सर्वथा नवीन है ।
यमक अलकारः -
I
2
3
यमक अलंकार के निरूपण का सर्वप्रथम श्रेय आचार्य भरत को है ।
उपमा रूपक चैव दीपक यमक तथा ।
अलकारास्तु विज्ञेयाश्चत्वारो नाटकाश्रया ||
Too सूत्र 105 की वृत्ति ।
व्यञ्जनानाभवेदेकद्वित्र्यादीना तु यत्र च । पुनरुक्तिरयं वृत्यनुप्रासो भणितो यथा ।।
अ०चि0 3 / 11 की वृत्ति ।
ना०शा० 17/43
अ०चि03/10
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उन्होंने उपमा रूपक तथा दीपक के साथ यमक का भी उल्लेख किया है तथा उसके निम्नलिखित दस भेदों का निरूपण भी किया है ।' पादान्त यमक, 2 काञ्ची यमक, 3५ समुद्गय मक 14विक्रान्त यमक, 5५ चक्रवाल यमक, ५6) सदष्ट यमक, 7 पादादे यमक, 8 आमेडित यमक, 9j चतुर्व्यवसित यमक तथा Jio माला यमक ।
_ विष्णुधर्मोत्तर पुराण ने समानुपूर्वक भिन्नार्थक शब्दों की आवृत्ति को यमक के रूप में स्वीकार किया है तथा पाद के आदि, मध्य एव अन्त मे पदों की आवृत्ति का उल्लेख करते हुए सदष्टक और समदग-दो भेद का उल्लेख किया है । समस्तपाद यमक को दुष्कर कहा है ।
अग्निपुराण मे भिन्नार्थ प्रतिपादक अनेक वर्णो. की आवृत्ति को यमक के रूप में मान्यता प्रदान की गयी है साथ ही साथ आवृत्ति के साव्यपेत व्यवधान से युक्त एव अव्यपेत व्यवधान से रहेता दो भेदों का उल्लेख भी किया है। अग्नि पुराण मे भी नाट्यशास्त्र की भाँति दस भेदों का उल्लेख किया गया है ।
आचार्य दण्डी के अनुसार जहाँ वर्ण, सघात का अव्यवधान से या व्यवधान से पुन -पुन उच्चारण हो वहाँ यमक अलकार होता है । दण्डी कृत लक्षण मे साव्यपेत एव अन्यपेत वर्णो, की आवृत्ति की चर्चा तो अग्नपुराण मे प्रतिपादित लक्षणों से तुलित है परन्तु जहाँ अग्निपुराण मे अनेक वर्षा की भिन्नार्थक आवृत्ति मे यमक अलकार को स्वीकार किया गया है वहाँ दण्डी इसकी कोई चर्चा ही नहीं करते है । किन्तु इसके भेद-प्रभेदाद का निरूपण नाट्यशास्त्र तथा आग्नपुराण से भी अधिक है । इन्होंने यमक के 315 भेदों का उल्लेख किया है ।
ना०शा0 17/63-65 शब्दा समानुपूर्व्यापाठ्यान्तरसमानाभिन्नार्थीयमक कीर्तेत पुन । सस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास - पी0वी0 काणे, पृ0 - 89 अग्नि पु0अ0 343 काव्यादर्श 3/1 काव्यादर्श 3/2-60
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प्रस्तुत स्थल पर ग्रन्थ गौरव के भय से उन भेदों का उल्लेख नहीं किया जा रहा है और भेदों मे कोई चमत्कार भी निहित नहीं रहता है । भेद तो तत्तद् अलकारों की स्थिति के ही सूचक होते है ।
आचार्य भामह ने अर्थों मे परस्पर भिन्न वर्षों की आवृत्ति को यमक कहा है। तथा यमक के केवल पाँच भेदों का उल्लेख किया है आदि यमक, मध्यान्त यमक, पादाभ्यास, एव समुद्ग आदि किया है 12
। इन्होंने पराभिमत संदष्टक पाँचों भेदों मे अन्तर्भावित
आचार्य रुद्रट ने
भिन्नार्थक क्रमिक तुल्यश्रुति मे मे यमक अलकार को स्वीकार किया है । उनके अनुसार यमक का विषय केवल छन्द अर्थात् पद्य है। गद्यात्मक प्रबन्ध मे प्राय इसका प्रयोग भी नहीं मिलता । इनकी परिभाषा पर भामह का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है किन्तु केवल छन्द मे यमक की स्थिति बताकर इन्होंने एक नया विचार व्यक्त किया है 13 इन्होने यमक । से वर्णन भी किया है 4
का विस्तार
आचार्य भोज कृत परिभाषा दण्डी कृत परिभाषा पर आधारित है ।
आचार्य मम्मट कृत परिभाषा भामह से प्रभावित होते हुए भी किञ्चिद् नवीन है। इनके अनुसार सार्थक तथा भिन्नार्थक वर्षों की पुन श्रुति मे यमक अलकार होता है । इनकी परिभाषा में निम्नलिखित तत्त्व निहित है -
6
(10
(2)
1
2
3
4
5
आवली तथा समस्त पाद यमक यमक के यमक के अन्य अन्य भेदों को पूर्वोक्त
19
6
पदों के सार्थक होने पर भिन्नार्थकता का होना । एक पद सार्थक तथा दूसरा निरर्थक होना ।
तुल्यश्रुतीना भिन्नानामभिधेयै परस्परम् । वर्णाना य पुनर्वादो यमक तन्निगद्यते ।।
काव्याकार भामह, 2/9-10
रुद्रट काव्यालकार 3/1
रुद्रट काव्यालकार 3 / 1-22
स०क०भ०
-
2/56 से 67 पूर्वाद्ध तक ।
का0प्र0, सूत्र 117
भा० काव्यालकार 2/96
Page #123
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इन्होंने यमक के 40 भेदों की भी चर्चा की है।'
परवर्ती आचार्यों की परिभाषाएँ प्राय मम्मट से प्रभावित है।८
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ श्लोक की आवृत्ति, श्लोक के पाद की आवृत्ति, पद की आवृत्ति, वर्ण की आवृत्ति, भिन्नार्थक और अभिन्नार्थक श्लोक की आदि - मध्य और अन्त की आवृत्ति से युक्त और अयुक्त भी यमकालकार होता है अर्थात् उक्त आवृत्तियाँ यमक का विषय है । आशय यह है कि जहाँ अर्थ की भिन्नता रहते हुए श्लोक - पाद - पद और वर्णों की पुनरावृत्ति होती है वहाँ यमक अलकार होता है । यह आवृत्ति पाद के आदि, मध्य तथा अन्त मे होती है तथा कहीं अन्य पाद व वर्गों से व्यवहित और कहीं अव्यवहित रूप से होती है ।
आचार्य अजित सेन कृत परिभाषा की विशेषताएँ -
श्लोक आवृत्ति मे यमक युक्त रूप मे । श्लोक की आवृत्ति मे यमक अयुक्त रूप मे । पाद की आवृत्ति मे यमक युक्त रूप मे । पाद की आवृत्ति मे यमक अयुक्त रूप मे । पद की आवृत्ति मे यमक युक्त रूप मे । पद की आवृत्ति मे यमक अयुक्त रूप मे । वर्ण की आवृत्ति मे यमक युक्त रूप मे । वर्ष की आवृत्ति मे यमक अयुक्त रूप मे ।
पुन प्रत्येक के आदि, मध्य तथा अन्त भेद होने से 8x3 - 24 भेद हो जाते है ।
डॉ0 नेमिचन्द शास्त्री ने यमक के प्रमुख भेदों का उल्लेख इस प्रकार किया है -
प्रथम और द्वितीय पाद की समानता होने से मुख यमक होता है ।
का0प्र0 सूत्र - 117 एव वृत्ति ।
का प्रतापरूद्रीय विद्यनाथ) - यमक पौनरुक्त्ये तु स्वरव्यञ्जनयुग्मयो । खि सा0द0 10/8 श्लोक पादपदावृत्तिवर्णावृत्तियुताऽयुता । भिन्नवाच्यादिमध्यान्तविषया यमक हि तत् ।।
अचि0 - 3/12
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2 3 4 5 6 00
7
8
9
10
11
प्रथम और तृतीयपाद मे समानता होने से सदश यमक होता है । प्रथम और चतुर्थपा = मे समानता होने से आवृत्ति यमक होता है । द्वितीय और तृतीयपाद मे समानता होने से गर्भ यमक होता है । द्वितीय और चतुर्थपाद मे समानता होने से सदष्टक यमक होता है। तृतीय और चतुर्थपाद में समानता होने से पुच्छ यमक होता है ।
चारो चरणों के एक समान होने से पक्ति यमक होता है ।
प्रथम और चतुर्थ तथा द्वितीय और तृतीयपाद एक समान हों तो परिवृत्ति यमक होता है ।
प्रथम और चतुर्थ तथा द्वितीय और तृतीयपाद एक समान हों तो युग्मक यमक होता है ।
श्लोक का पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध एक समान होने से समुद्गक यमक होता है ।
एक ही श्लोक के दो बार पढे जाने पर महायमक होता है ।
आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा पर आचार्य भामह पुराण का प्रभाव है ।
दण्डी तथा अग्नि
प्रस्तुत अध्याय के सर्वेक्षण से ज्ञात होता है कि आचार्य अजित सेन ने शब्दालकारों के निरूपण मे भी अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है। वक्रोक्ति अलकार के निरूपण मे वक्राभिप्राय से अर्थान्तर के कथन मे वक्रोक्ति अलकार व काकु का उल्लेख नहीं किया जिसका परिज्ञान उदाहरण के अवलोकन से ही ज्ञात हुआ कि इन्हे श्लेष तथा काकु दोनों में यह अलकार अभीष्ट है ।
यमक
अलकार का निरूपण अत्यन्त सुस्पष्ट एवं वैज्ञानिक रीति से किया । श्लोक, पाद, पद, वर्ण की आवृत्ति मे यमक अलंकार स्वीकार करते हुए दण्डी आदि पूर्व आचार्यों द्वारा अनुमोदित आदि मध्य तथा अन्त विषयक यमक को भी स्वीकार किया है और यमक मे वाच्चार्थ की भिन्नता का भी उल्लेख किया है इसके अतिरिक्त यमक तथा अनुप्रास के अन्तर को भी सुस्पष्ट किया है जिसका उल्लेख पूर्ववर्ती किसी भी आचार्य ने नहीं किया ।
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अलंकारों का वर्गीकरण
:: 118 ::
अध्याय
अलंकारों का वर्गीकरण तथा अर्थालंकारों का समीक्षात्मक विवेचन
-
1
5
अलकारों के वर्गीकरण के पूर्व अलकारों के मूल तत्व के विषय मे विचार कर लेना अनुपयुक्त न होगा । अलकारों की विवेचना के प्रसंग मे यह जानना आवश्यक है कि उनका मूल तत्व क्या है ? अलंकारों को काव्यगत चारुत्व का हेतु अथवा शोभा के अतिशय का आधायक कहा गया है । वस्तुत उक्ति की विचित्रता ही अलकार होती है जो कि कवि की प्रतिभा से उत्थित होती है । यह उक्ति जब काव्यगत चमत्कार उत्पन्न करती है तो वही अलकार होता है। अलकारों के मूल के विषय मे आचार्यों ने निम्न मुख्य मत प्रतिपादित किए है
अलंकारों का मूल तत्त्व वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति
आचार्य भामह के अनुसार अलकारों का मूल तत्व वक्रोक्ति है । इसी वक्रोक्ति के माध्यम से अलंकार भक्ति होते है 1 यह वक्रोक्ति या अतिशयोक्ति ही अलकारों का जीवनाधायक तत्व है । इसी लोकातिक्रान्तवाग्विन्यास को अतिशयोक्ति की अभिधा प्रदान की गयी है ।
आचार्य भामह की इस मान्यता का उत्तरवर्ती अलंकारिकों ने भी मुक्त कण्ठ से समर्थन किया है । आचार्य दण्डी ने दृढतर शब्दों मे कहा है कि
अलकारान्तराणामप्येकमा हु परायणम् । वागीशमहितामुक्तिमिमामतिशयायाम् ।।
का० द० 2/220
बृहस्पति द्वारा प्रशंसित यह अतिशयोक्ति अन्य अलंकारों का भी प्रधान और सर्वश्रेष्ठ आधार है ।
सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थी विभाव्यते ।
यत्नोऽस्या कविना कार्य कोऽलङ्कारोऽनया विना ।।
निमित्ततोवचो यत्तु लोकातिक्रान्तगोचरम् । मन्यन्तेऽतिशयोक्ति तामलकारतया यथा ।।
भा० काव्यालकार 2/85
भा० काव्या० 2/81
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________________
..
..
..
आचार्य आनन्दवर्धन ने भी उसकी उपादेयता स्वीकार की है ।'
काव्यप्रकाशकार ने भी अतिशयोक्ति को अलंकारों का प्राण स्वीकार
किया है -
सर्वत्र एवविधविषयेऽतिशयोक्तिरेव प्राणत्वेनावतिष्ठतेता विना प्रायेणालकारत्वायोगात् ।
का0प्र0 पृ0 - 743 यह अतिशयोक्ति नामक अलकार नहीं अपितु अलकारत्व का बीजभूत तत्व है ।
अलंकारों का मूल तत्व उपमाः
आचार्य अप्पय दीक्षित ने उपमा को सब अलकारों का एकमात्र मूल हेतु माना है । उनके अनुसार अकेली उपमारूपिणी नर्तक्की ही विभिन्न अलंकारों की भूमिका को प्राप्त करके काव्य रूपी रगमञ्च पर नृत्य करती हुई सहृदयों के मनो को आनन्दित करती है ।2 राजशेखर ने उपमा को अलकारों मे शिरोमणि काव्य सम्पत्ति का सर्वस्व तथा कविवंश की माता कहा है ।
अलंकारों का मूल तत्व वास्तव, औपम्य, अतिशय और श्लेष:
आचार्य रुद्रट ने अलकारों में केवल एक तत्व को मूल नहीं माना। उनके अनुसार अलकारों को चार वर्गों में विभक्त किया जा सकता है तथा प्रत्येक वर्ग का आधार भिन्न है । कुछ अलकारों का मूल आधार वास्तविकता है, कुछ
------
-
प्रथमं तावदतिशयोक्ति गर्भता सर्वालकारेषु शक्यक्रिया । कृतैव च सा महाकविभ कामपि काव्यच्छायां पुष्पतीति कथं पतिशययोगिता स्वविषयौचित्येन क्रियमाणा सती काव्ये नोत्कर्षमावहेत् ।
ध्वन्या० पृ0 - 259
उपमेका शैलूषी सम्प्राप्ता चित्रभूमिकाभेदान् । रञ्जयति काव्यरगे नृत्यन्ती तद्विदां चेत ।।
चित्रमीमांसा पृ० - 40
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कुछ का अतिशय है और कुछ का श्लेष है ।' इन्हीं चार मूल आधारों पर उन्होंने अलकारों को चार वर्गों - वास्तव, औपम्य, अतिशय तथा श्लेष मे विभक्त किया
अलंकारों का वर्गीकरण -
ऐतिहासिक वर्गीकरण - सस्कृत वाड्मय के आचार्यों ने अलकारों के लक्षण पर तो अति विस्तृत विवेचन किया है किन्तु अलकारों के वर्गीकरण पर विशेष ध्यान नहीं दिया है । अलकारों के वैज्ञानिक वर्गीकरण के विषय में विचार करने वाले आचार्यों मे रुद्रट, रुय्यक, अजितसेन तथा विद्यानाथ प्रमुख है ।
___आचार्य रुद्रट के पूर्व अलंकारों का निरूपण भामह के काव्यालकार मे प्राप्त होता है किन्तु इनके द्वारा निरूपित अलंकारों मे कोई यौक्तिक क्रम नहीं है । बहुत सम्भव है कि इन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा निरूपित क्रम को ही स्वीकार किया हो क्योंकि काव्यालकार मे अनेक पूर्ववती आचार्यों का उल्लेख भी प्राप्त होता है।
आचार्य उद्भट ने छ वर्गों में अलकारों का निरूपण किया है किन्तु उन वर्गों का नामोल्लेख नहीं किया । प्रत्येक वर्ग के अन्त मे अनिश्चय वाचक सर्वनाम केचित् - कश्चित् आदि के द्वारा अलकारों का परिगणन करके उन्हें भिन्नभिन्न वर्गों मे रखा है । अत उद्भट कृत वर्गीकरण को वैज्ञानिक वर्गीकरण के रूप मे स्वीकार करना अनुपयुक्त प्रतीत होता है । अत भामह और उद्भट कृत वर्गीकरण को ऐतिहासिक वर्गीकरण के रूप में स्वीकार करना समीचीन प्रतीत होता है।
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अर्थस्यालकारा वास्तवमोपम्यमतिशय श्लेष । एशामेव विशेषा अन्ये तु भवन्ति नि शेषा ।।
रूद्रट - काव्यालंकार 7/9
क इत्येत एवालंकारा वाचां कैश्चिदुदाहृता ।
काव्यालकारसारसंग्रह 1/2
ख) समासातिशयोक्ति चेत्यलंकारानपरे बिदु ।
वही - 2/1
गए अपरेत्रीनलंकारान् गिरामाहुरलकृतौ ।
वही - 3/1
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वैज्ञानिक वर्गीकरण:
अलकारों के वैज्ञानिक वर्गीकरण का श्रेय आचार्य रुद्रट को प्राप्त है इन्होंने वास्तव, औपम्य, अतिशय तथा श्लेष वर्ग मे किया ।
वास्तव
w
को वास्तव वर्ग के अलकारों मे अलकारों का उल्लेख किया गया है 2
11 सहोक्ति, (2) समुच्चय, (3) जाति (स्वभावोक्ति), (4) यथासख्य, ( 5 ) भाव, 160 पर्याय, 70 विषम, 8 अनुमान, (90 दीपक, 100 परिकर 110 परिवृत्ति, 0120 परिसंख्या 120 हेतु 140 कारणमाला, ( 150 व्यतिरेक, 0 160 अन्योन्य, 17 उत्तर ( 18 ) सार, 0 19 0 सूक्ष्म, ( 200 लेश, ( 21 ) अवसर (220 मीलित और 230 एकावली ।
औपम्य. -
सादृश्य, अतिशय और श्लेष से भिन्न हृदयावर्जक वस्तु स्वरूप कथन परिगणित किया है । इस वर्ग में निम्नलिखित
औपम्य वर्ग के अन्तर्गत उन अलकारों का परिगणन किया गया है जहाँ प्रकृत वस्तु के समान अप्रकृत वस्तु का विन्यास किया जाता है । 3
प्रकार है 4
।
2
3
4
-
10 उपमा, 24 उत्प्रेक्षा, (30 रूपक, 40 आपह्नुति,
2
50 सशय, 60 समासोक्ति, 70 मत, 8 उत्तर 19 अन्योक्ति 100 प्रतीप 110 अर्थात्तरन्यास, 120 उभयन्यास, 0 1 30 भ्रान्तिमान, 140 आक्षेप, 0150 प्रत्यनीक, 0160 दृष्टान्त, 170 पूर्व, 180 सहोक्ति, 191 समुच्चय, 1200 साम्य, 21
स्मरण ।
इस वर्ग मे इन्होंने 21 अलकारों का निरूपण किया है जो इस
वास्तवमिति तज्ज्ञेय क्रियते वस्तुस्वरूपकथनयत् । पुष्टार्थमविपरीत निरूपममनतिशयश्लेषम् ।।
दृष्टव्य वही 7 / 11, 12
वही - 8 / 1
वही
-
-
8/2, 3
रुद्रट
-
काव्यालंकार 7/10
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अतिशय -
अतिशय वर्ग मे उन अलकारों का निरूपण किया गया है जिनमे लोकातिक्रान्त विषयक वस्तु का वर्णन किया जाता है । इस वर्ग मे 12 अलकारों का उल्लेख किया गया है जो इस प्रकार है2.
। पूर्व, 12 विशेष, 13 उत्प्रेक्षा, 4 विभावना, 15 अतद्गुण, 16 अधिक, 17 विरोध, 18 विषम, 19 असगति, 10 पिहित, 1 व्याघात, 012) अहेतु ।
श्लेष:
श्लेष वर्ग मे उन अलकारों का उल्लेख किया गया है जहाँ एक वाक्य से अनेक अर्थों का विनिश्चय किया जाता है ।
श्लेष वर्ग मे 10 अलकारों का निरूपण किया है
if अविशेष, 20 विरोध, 30 अधिक, 14 वक्र, 150 ब्याज, 60 उक्ति, 170 असभव, 18| अवयव, 9 तत्व, (10 विरोधाभास ।
परवर्ती काल में आचार्य रुय्यक ने चित्र चित्तवृत्ति के आधार पर अलकारों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है सभवत इसीलिए आचार्य रुद्रट द्वारा निरूपित अतिशय वर्ग के विरोध, विभावना, असगति, विषम, अधिक और विशेष अलकारों को विरोध वर्ग के अलकारों में परिगणित किया है।
चित्तवृत्ति के आधार पर अलंकारों का वर्गीकरणः
आचार्य रुय्यक ने मानव चित्तवृत्ति के आधार पर अलंकारों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया है । इनका वर्गीकरण अधिक वैज्ञानिक तथा महत्त्वपूर्ण है । इन्होंने अलंकारों का वर्गीकरण 7 वर्गों में किया है -
यत्रार्थधर्मनियम प्रसिद्धिबाधाद्विपर्यय याति । कश्चित्वचिदतिलोक स स्यादित्यतिशयस्तस्य ।।
रुद्रट - काव्यालकार 9/1
वही - 9/2 वही - 10/ वही - 10/2
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________________
dud
भेद प्रधान:
(क)
(ख)
ग
(घ)
(ड)
[ਚ
(ख)
(ग)
।
2
3
साधर्म्यमूलक अलंकार. -
साधर्म्य के तीन भेद होते है
(क) भेद प्रधान, (ख) अभेद प्रधान, (ग) भेदाभेद प्रधान ।
4
आरोप मूलक - रूपक, परिणाम, सन्देह, भ्रान्तिमान, उल्लेख, अपह्नुति । अध्यवसाय मूलक- साध्य अध्यवसाय मूलक उत्प्रेक्षा तथा सिद्ध अतिशयोक्ति ।
5
:: 123 ::
व्यतिरेक, सहोक्ति, विनोक्ति ।
विशेषण विच्छित्ति - समासोक्ति, परिकर ।
विशेषण - विशेष्य विच्छित्ति - श्लेष ।
अप्रस्तुत प्रशसा अर्थान्तरन्यास
पर्यायोक्त, व्याजस्तुति, आक्षेप ।
अभेद प्रधान के तीन भेद है
गम्यमान औपम्य मूलक :- पदार्थगत गम्यमान औपम्य मूलक तुल्ययोगिता, दीपक तथा वाक्यार्थगत, गम्यमान औपम्य मूलक प्रतिवस्तुपमा, दृष्टान्त,
निदर्शना ।
क आरोप मूलक (ख) अध्यवसाय मूलक
(ग) गम्यमान औपम्य - मूलक ।
-
-
श्रृंखला मुलक . -
तर्कन्याय मूलक --
वाक्यन्याय मूलक
-
भेदाभेद प्रधान:
उपमा, उपमेयोपमा, अनन्वय, स्मरण ।
विरोध मूलक . -
अध्यवसायमूलक
-
विरोध, विभावना,
विशेषोक्ति, अतिशयोक्ति, असगति, विषम, सम, विचित्र, अधिक, अन्योन्य, विशेष, व्याघात ।
कारणमाला, एकावली, मालादीपक, सार ।
काव्यलिग, अनुसान ।
यथासख्य, पर्याय, परिवृत्ति, अर्थापत्ति, विकल्प, परिसंख्या, समुच्चय, समाधि ।
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________________
लोकन्याय मूलक.-
गूढार्थप्रतीति मूलक -
प्रत्यनीक, प्रतीप, मीलित, सामान्य, तद्गुण, अतद्गुण, उत्तर । सूदम, व्याजोक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, भाविक. उदात्त, रावत, प्रेयरा, ऊर्जस्वी, समाहित, भावोदय, भावसन्धि तथा भावसबलता के विवेचन मे किसी वर्ग-विशेष का निर्धारण नहीं किया गया । रुय्यक के अनुसार उपर्युक्त अलकारविवेचन, चित्तवृत्ति, को दृष्टि मे रखकर किया गया है ।
ससृष्टि और संकर को अलकार संश्लेष पर आधृत कहा गया है।
इस प्रकार 'अलकार सर्वस्व' मे 82 अलंकारों का विवेचन उपलब्ध
आचार्य अजितसेन के अनुसार अलंकारों का वर्गीकरण:
इसके पूर्व अलकारों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया जाये अलकार चिन्तामणि मे आए हुए अलकारों का उल्लेख करना नितान्त आवश्यक है । आचार्य अजितसेन ने कुल 72 अर्थालकारों का निरूपण किया है । जिसके नाम इस प्रकार है
___410 उपमा, 12 अनन्वय, 13 उपमेयोपमा, 140 स्मरण, 50 रूपक, 16 परिणाम, 70 सन्देह, 8 भ्रान्तिमान, 19 अपह्नव, of उल्लेख, 10 उत्प्रेक्षा, 12 अतिशयोक्ति, 130 सहोक्ति, 140 विनोक्ति, 150 समासोक्ति, 016 वक्रोक्ति, 117 स्वभावोक्ति, 1180 व्याजोक्ति, 19 मीलन, [20f सामान्य, (210 तद्गुण, 1220 अतद्गुण, 123 विरोध, 240 विशेषक, 25 अधिक, 260 विभाव, 27 विशेषोक्ति, 1280 असगति, 290 चित्र, 300 अन्योन्य, 311 सामान्य, 0324 तुल्योगिता, 133 दीपक, 340 प्रतिवस्तूपमा 35 दृष्टान्त, 36 निदर्शना, 1371 व्यतिरेक, 138| श्लेष, 390 परिकर 40f आक्षेप, 4 व्याजस्तुति,
420 अप्रस्तुतस्तुति, 1430 पर्यायोक्ति, 1440 प्रतीप, [45 अनुमान, [46] काव्यलिंग, 1471 अर्थान्तरन्यास, 480 यथासंख्य, 49 अर्थापत्ति, 1500 परिसंख्या, 510 उत्तर, 52 विकल्प, 53 समुच्चय, 540 समाधि, 55 भाविक, 56 प्रेयस्,
तदेते चित्तवृत्तिगतत्वेनालकारा लक्षिता ।
अ0स0 पृ0 - 214
अ०चि0 - 4/8-17
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________________
( 57 )
रसी रसवद् ), ( 58 ) ऊर्जस्वी, 1620 सूक्ष्म, 1630 उदात्त,
( 59 ) प्रत्यनीक, 1600 व्याघात, 06 10 पर्याय, 640 परिवृत्ति, 1 650 कारणमाला, 1660 एकावली, 670 द्विकावली, 168 0 माला, ( 690 दीपक, (700 सार, 0710 ससृष्टि, 720
सकर । उभयालकार ससृष्टि के अन्तर्गत माना गया है ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार अर्थालंकारों को प्रथमत चार भागों मे विभाजित किया गया है ।
010
(20
(30
(40
0.0
(2)
(3)
I
प्रतीयमान शृगार
स्फुट प्रतीयमान अभाव मूलक
प्रतीयमान वस्तु मूलक
प्रतीयमान औपम्य मूलक इस प्रकार अर्थाकृति चार प्रकार की होती है ।।
अलकारों मे प्रतीयमान की व्यवस्था
प्रतीयमान श्रृंगार रस भाव द्विमूलक अलंकार:- प्रेयस् रसवद् ऊर्जस्वी, समाहित और भाविक अलकारों मे रस और भाव आदि की प्रतीति होती है ।
-
रस भावमूलक
अस्फुट प्रतीयमान मूलक अलकारः - उपमा, विनोक्ति, विरोध, अर्थान्तरन्यास, विभावना, उक्तिनिमित्त विशेषोक्ति, विषम, सम, चित्र, अधिक, अन्योन्यकारणमाला, एकावली, दीपक, व्याघात, माला, काव्यलिंग, अनुमान, यथासंख्य, अर्थापत्ति, सार, पर्याय, परिवृत्ति, समुच्चय, परिसंख्या, विकल्प, समाधि, प्रत्यनीक, विशेष, मीलन्, सामान्य, सगति, तद्गुण, अतद्गुण, व्याजोक्ति, प्रतिपदोक्ति, स्वभावोक्ति, भाविक और उदात्त अलंकारों मे विद्वानों के चित्त को आनन्दित करने वाली वस्तु स्पष्टतया प्रतीयमान नहीं होती ।
प्रतीयमान वस्तु मूलक अलंकार आक्षेप, परिकर,
पर्यायोक्त,
-
व्याजस्तुति, उपमेयोपमा, समासोक्ति,
अतिशयोक्ति,
अप्रस्तुत,
प्रशंसा
अनन्वय,
प्रतीयमानश्रृंगाररसभावादिका मता । स्फुटा प्रतीयमानाऽन्या वस्त्वौपम्यतदादिके ।
अ०चि० 4 / 1
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:: 126::
और अनुक्तनिमिता विशेषोक्ति अलकारों में वस्तु प्रतीयमान होकर काव्यालकारत्व को प्राप्त होती है ।
040
प्रतीयमान औपम्य मूलक अलंकारः- परिणाम, सन्देह, रूपक, भ्रान्तिमान्, उल्लेख, स्मरण, अपह्नव, उत्प्रेक्षा, तुल्ययोगिता, दीपक, दृष्टान्त, प्रतिवस्तूपमा, व्यतिरेक, निदर्शना, श्लेष और सहोक्ति अलकारों में औपम्य प्रतीयमान रहता है । इस प्रकार अलकारों में सादृष्य - विभाग है ।
आचार्य अजितसेन ने अलंकारों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है -
सादृश्यमूलक अलंकार - उपमा, अनन्वय, उपमेयोपमा, स्मरण, रूपक, परिणाम, सन्देह, भ्रान्तिमान, अपह्नुति, उल्लेख, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, सहोक्ति, विनोक्ति, समासक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, व्याजोक्ति, मीलन, सामान्य, तद्गुण तथा अतद्गुण ।
विरोधमूलक अलकार - विरोध, विशेष, अधिक, विभावना, विशेषोक्ति, असगति, विचित्र, अन्योन्य, विषम तथा सम ।
गम्यौपम्यमूलक अलकार - तुल्योगिता, दीपक ।
वाक्यार्थमूलक अलंकार.- तथा श्लेष ।
तिवस्तूपमा, दृष्टान्त, निदर्शना, व्यतिरेक
विशेषण वैचित्र्य मूलक अलंकार - परिकर, परिकराकुर, व्याजस्तुति, अप्रस्तुतप्रशंसा, आक्षेप, पर्यायोक्त तथा प्रतीप ।
तर्कन्याय मूलक अलंकारः- अनुमान, काव्यलिंग अर्थान्तरन्यास, यथासख्य, अर्थापत्ति, परिसख्या तथा उत्तर ।
वाक्यन्यायमूलक अलंकार - विकल्प, समुच्चय, समाधि ।
लोक न्याय मूलक अलंकारः- भाविक, प्रेयस्, रसवत्, ऊर्जस्वी, प्रत्यनीक व्याघात, पर्याय सूक्ष्म, उदात्त तथा परिवृत्ति ।
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9
10
।
2
3
4
श्रृंखलान्याय
सार ।
मिश्र अलकार -
-
मूलक :
सृष्टि, सर ।
आचार्य अजितसेन ने अलकारों की परिगणन सूची मे 'सम' अलंकार का उल्लेख नहीं किया है किन्तु अलकारों के वर्गीकरण के प्रसंग मे इसे विरोध मूलक अलकार वर्ग के अन्तर्गत रखा है । आचार्य रुय्यक ने भी इसे विरोध मूलक अलकारों के मध्य परिगणित किया है । ।
I
2
अजितसेन के पश्चात् आचार्य विद्यानाथ ने अलकारों के वर्गीकरण पर गम्भीरता से विचार व्यक्त किया है । इनके वर्गीकरण पर आचार्य अजितसेन का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है इन्होंने अजितसेन की भाति प्रथमत अलंकारों को चार भागों मे विभाजित किया है 2
।
-
प्रतीयमान वस्तु मूलक अलकार उपमेयोपमा, अनन्वय, अतिशयोक्ति, विशेशोक्ति ।
141
प्रतीयमान वस्तु मूलक
प्रतीयमान औपम्य मूलक
प्रतीयमान रसभावादि मूलक अस्फुट प्रतीयमान
कारणमाला, एकावली,
-
मालादीपक तथा
प्रतीयमान औपम्य मूलक अलंकार - रूपक, परिणाम, सन्देह, भ्रान्तिमान, उल्लेख, अपह्नुति, उत्प्रेक्षा, स्मरण, तुल्ययोगिता, दीपक, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, सहोक्ति, व्यतिरेक, निदर्शना और श्लेष ।
पर्याप्योक्ति, आक्षेप, व्याजश्रुति,
समासोक्ति, परिकर, अप्रस्तुत प्रशसा, अनुक्तनिमित्ता
विरोधगर्भतया विरोधविभावनाविशेषोक्त्यतिशयोक्त्यन्तरासंगतिविषमसमविचित्राधि यविशेषव्याघातद्वयानि ।
अलंकार सर्वस्व सञ्जीवनी टीका पृ० - 377
अर्थालकाराण्यं चातुर्विध्यम् । केचित् प्रतीयमानस्तव । केचित् प्रतीयमानौपम्य । केचित् प्रतीयमानरसभावादय । केचिदस्फुट प्रतीयमाना इति ।
प्रतापरुद्रीय
रत्नापण टीका, पृ0 - 399
-
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:: 128 ::
प्रतीयमान रसभावादि मूलक - रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्वि, समाहित, भावोदय, भावसन्धि और भावराबलता ।
अस्फुट प्रतीयमान मूलक - उपमा, विनोक्ति, अर्थान्तरन्यास, विरोध, विभावना, उक्तगुण निमिक्ता विशेषोक्ति, विषम, सम, विचित्र, अधिक, अन्योन्य, कारणमाला, काव्यलिग, अनुमान, सार, यथासख्य, अर्थापत्ति, पर्याय, परिवृत्ति, परिसख्या, विकल्प, समुच्चय, समाधि, प्रत्यनीक, प्रतीप, विशेष, मीलन, सामान्य, तद्गुण, अतद्गुण, असगति, व्याजोक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, भाविक और उदात्त - ये अस्फुट प्रतीयमान मूलक अलकार है ।
विद्यानाथ कृत उक्त वर्गीकरण अजितसेन से प्रभावित है ।
आचार्य अजितसेन अलकारों के वर्गीकरण के अनन्तर अलकारों मे होने वाले पारस्परिक अन्तर को भी स्पष्ट किया है जिनका विवेचन इस प्रकार
परिणाम और रूपक मे भेद -
आचार्य अजितसेन के अनुसार - परिणाम और रूपक इन दोनों में आरोप किया जाता है । परिणाम में आरोग्य विषय का प्रकृत मे उपयोग होता है, पर रूपक मे उसका उपयोग नही होता. यही भेद है।
उल्लेख और रूपक में भेद:
उल्लेख और रूपकालकारों में आरोप प्रत्यक्ष का आरोप्य स्वाभाव के राम्भव और असम्भव के कारण दोनों में भेद है । अभिप्राय यह है कि दोनों आरोपमूलक अभेद प्रधान सादृश्य गर्भ अर्थालंकार है । निरगमाला रूपक मे अनेक उपमानों का एक उपमेय में आरोप मात्र रहता है, उल्लेख में एक वस्तु का परिस्थिति भेद से अनेकधा वर्णन किया जाता है ।2
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-
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---------- परिणामरूपकयोरारोपगत्वेऽप्यारोप्यस्य प्रकृतोपयोगानुपयोगाभ्या भेद ।
अचि0 पृ0 - ।।4 उल्लेखरूपकयोरारोपगोचरस्यारोप्यस्वभावसभवासभवाभ्यां वलक्षण्यम ।
अचि0 पृ0 - 114
N
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भ्रान्तिमान अपह्नति और सन्देह में अन्तरः
भ्रान्तिमान, अपह्नव और सन्देहालकारों मे आरोप विषय की भ्रान्ति, असत्य कथन एव सन्देह के कारण परस्पर भेद है । उक्त तीनों ही सादृश्य गर्भ अभेद प्रधान आरोपमूलक अर्थालकार है । भ्रान्तिमान् से मिथ्यात्व सादृश्य पर आधारित होता है और सन्देह मे मिथ्यात्व की सशयावस्था सादृश्य मे स्वय उत्पन्न होती है । भ्रान्तिमान् के मूल मे भ्रान्ति है और सन्देह के मूल में सशय। अपह्नति मे प्रकृत - प्रत्यक्ष को निषेधवाचक शब्दों द्वारा छिपाया जाता है एव उसमे अपकृत का चमत्कारवेष्टित आरोप या स्थापन किया जाता है ।'
उपमा, अनन्वय और उपमेयोपमा मे भेद -
उपमा, अनन्वय और उपमेयोपमा नामक अलकारों मे साधर्म्य के वाच्य होने के कारण यद्यपि सादृश्यमूलकता है तो भी तुल्ययोगिता, निदर्शना, दृष्टान्त, व्यतिरेक और दीपकालकारों मे सादृश्य के प्रतीयमान होने के कारण भिन्नता
उपमेयोपमा और प्रतिवस्तूपमा मे अन्तर -
उपमेयोपमा और प्रतिवस्तूपमा अलकारों मे साधारण धर्म के क्रमश वाच्य और प्रतीयमान होने के कारण भेद है ।
प्रतिवस्तूपमा और दृष्टान्त में परस्पर भेद.
प्रतिवस्तूपमा मे वस्तु तथा प्रतिवस्तु का बिम्बभाव और दृष्टान्त अलकार मे वस्तु-प्रतिवस्तु का प्रतिबिम्ब भाव रहता है । अत दोनों अलंकारों मे परस्पर अन्तर है । आशय यह है कि दोनों ही सादृश्य गर्भ गम्यौपम्याश्रयमूलक वर्ग के वाक्यार्थगत अर्थालकार है । दोनों के उपमेय - वाक्य और उपमान - वाक्य निरपेक्ष
-
0
भ्रान्तिमदपनवसदहानामारोपविषयस्य भ्रान्त्य पलापसशये भेद ।
___ अचि० पृ0 - ।।5 उपमानन्वयोपमेयोपमा साधर्म्यस्य वाच्यत्वात् सादृश्यमूलत्वोऽपि तुल्ययोगितानिदर्शनदृष्टान्तव्यतिरेकदीपकेभ्यो भिन्ना ।
अचि0 पृष्ठ - 115 उपमेयोपमाप्रतिवस्तूपमयो साधारणधर्मस्य वाच्यत्वप्रतीयमानत्वाभ्यां भेद ।
अचि० पृ0 - 115
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होते है । दृष्टान्त मे बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव होता है, पर प्रतिवस्तूपमा मे वस्तुप्रतिवस्तुभाव । दृष्टान्त मे दो साधर्म्य रहते है, जिन्हें भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा कहा जाता है, प्रतिवस्तूपमा मे साधर्म्य एक ही रहता है, केवल दो भिन्न शब्दों द्वारा उनका कथन भर किया जाता है । ।
दीपक और तुल्ययोगिता में परस्पर अन्तर:
समस्त
दीपक और तुल्ययोगिता मे अप्रस्तुत और प्रस्तुत के क्रमश और व्यस्त होने के कारण परस्पर भेद है । आशय यह है कि दोनों सादृश्यगर्भ गम्यौपम्याश्रयमूलक वर्ग के पदार्थगत अर्थालंकार है । दोनों मे एक धर्माभिसम्बन्ध होता है । दोनों सादृश्य, साधर्म्य पद्धति द्वारा निर्दिष्ट होते है । दोनों मे कथन एक वाक्यगत होता है, पर दीपक मे जहाँ प्रस्तुताप्रस्तुत का एक धर्माभिसम्बन्ध होता है, वहाँ तुल्ययोगिता मे केवल प्रस्तुत का अथवा केवल अप्रस्तुत का 12
उत्प्रेक्षा और उपमा में अन्तर -
उत्प्रेक्षा और उपमा मे क्रमश उपमान की अप्रसिद्ध और प्रसिद्धि के कारण भिन्नता है । तात्पर्य यह है कि ये दोनों ही साधर्म्यमूलक अर्थालंकार है, पर उपमा है भेदाभेदतुल्यप्रधान और उत्प्रेक्षा अभेद प्रधान अध्यवसायमूलक है । उपमा मे उपमेय और उपमान मे साम्यप्रतिपादन किया जाता है और उत्प्रेक्षा मे उपमेय मे उपमान की सम्भावना की जाती है । उपमा मे साम्यभाव निश्चित है पर उत्प्रेक्षा मे अनिश्चित । 3
उपमा और श्लेष में अन्तर :
उपमा और श्लेष अर्थसाम्य के कारण भिन्न है । क्योंकि श्लेष म शब्दसाम्य होता है 4
I
2
3
4
प्रतिवस्तूपमादृष्टान्तौ वस्तुप्रतिवस्तुबिम्बप्रतिबिम्बभावद्वयेन भिद्येते ।
अचि० पृ० 115
दीपक तुल्ययोगितयोर प्रस्तुतप्रस्तुताना समस्तत्व - व्यस्तत्वाभ्या भेद ।
अ०चि० पृ०
उत्प्रेक्षोपमयोरूपमानस्याप्रसिद्ध प्रसिद्धत्वाभ्या भेद ।
उपमाश्लेषी अर्थसाम्येन च भिद्यते ।
अचि० पृ०
वही
- 116
- 116
पृ0 - 116
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उपमा और अनन्वय का अन्तरः
उपमान और उपमेय के स्वतो भिन्न होने के कारण उपमा और अनन्वय परस्पर भिन्न है । उक्त दोनों भेदाभेद तुल्य प्रधान साधर्म्य मूलक अर्थालंकार है। उपमा मे उपमेय और उपमान भिन्न-भिन्न होते हैं अनन्वय मे उपमेय ही स्वय उपमान होता है ।'
उपमा और उपमेयोपमा में अन्तर.
उपमा मे उपमान और उपमेय दोनों भिन्न होते है और दोनों मे समानता का प्रतिपादन किया जाता है किन्तु उपमेयोपमा मे उपमेय को उपमान तथा उपमान को उपमेय बना दिया जाता है इसमे तृतीय सदृश वस्तु का सर्वथा अभाव
रहता है ।2
समासोक्ति और अप्रस्तुत प्रशंसा में अन्तर.
समासोक्ति मे सक्षेप मे दो अर्थों का कथन होता है प्रस्तुत अर्था वाच्य रहता है और अप्रस्तुत व्यग्य । जबकि अप्रस्तुत प्रशसा मे अप्रस्तुत के कथन से प्रस्तुत अर्था की प्रतीति कराई जाती है । अप्रस्तुत प्रशसा मे अप्रस्तुत वाच्य रहता है और प्रस्तुत व्यग्य इस प्रकार दोनो ही अलकारों में दो अर्थों की प्रतीति होती है दोनों परस्पर एक - दूसरे के विपरीत हैं ।
पर्यायोप्ति एवं अप्रस्तुत प्रशंसा में भिन्नताः
अप्रस्तुत प्रशंसा मे वाच्य और व्यग्य दोनों ही प्रस्तुत होते हैं जबकि अप्रस्तुत प्रशसा मे केवल वाच्यार्थ ही उपस्थित रहता है ।
-
N
उपमानन्वयौ स्वतोभिन्नत्वाभ्यामुपमानोपमेययोभिन्नौ ।
अचि0 पृ0 - 116 उपमोपमेयोरूपमानोपमेयस्वरूपस्थयौगपद्यपर्यायाभ्या भेद । समासोक्त्यप्रस्तुत प्रशययोरप्रस्तुतस्य प्रतीयमानत्ववाच्यत्वाभ्यामन्यत्व । व्यग्यवाच्यद्वयस्य प्रस्तुतत्वेपर्यायोक्ति अप्रस्तुतप्रशसा वाच्यस्याप्रस्तुतत्वे कथ्यते, ततस्ते भिन्ने ।
अचि०, पृ0 - 116
W
A
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अनुमान एवं काव्य लिग मे भिन्नता -
अनुमान अलकार मे पक्ष धर्मता और व्याप्ति की स्थिति रहती है जबकि काव्यलिग मे नहीं । काव्यलिग मे कार्य कारण भाव व्यग्य होता है, वाच्य नहीं । अनुमान मे साध्य -साधन भाव वाच्य होता है । अनुमान मे 'कारक' हेतु रहता है जबकि काव्यलिग मे 'ज्ञापक' हेतु ।'
सामान्य और मीलन अलंकार मे भिन्नता -
दोनों ही अलकारों मे दो ऐसी वस्तुओं का वर्णन किया जाता है जिनकी भिन्नता का ज्ञान समानधर्मता के कारण नहीं हो पाता । मीलि मीलित मे सबल पदार्थ निर्बल को छिपा लेता है जबकि सामान्य मे दोनों इस प्रकार घुल-मिल जाते है कि उनकी पृथक् प्रतीति नहीं हो पाती । मीलित मे दोनों पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो पाता क्योंकि एक-दूसरे को आच्छादित कर लेता है । सामान्य मे दोनों पदार्था प्रत्यक्ष होते है पर उनके भेद का ज्ञान नहीं होता है ।
उदात्त और परिसंख्या
मे भेद -
परिसख्या अलकार मे अन्य योग की व्यवच्छेदकता रहती जबकि उदात्त अलकार मे नहीं । परिसख्या में एक वस्तु के अनेकत्र स्थिति सभव रहने पर भी अन्यत्र निषेध कर एक स्थान मे नियमन कर दिया जाता है उदात्त मे अन्य का निषेध नहीं किया जाता अपितु लोकोत्तर वभेव अथवा महान चरित्र की समृद्धि का वर्णन वर्ण्य - वस्तु के अग रूप मे किया जाता है ।
समाधि एवं समुच्चय मे अन्तर -
जहाँ काकतालीयन्याय से कारणान्तर के आगमन से कार्य की सिद्धि, सिद्धि हो जाए वहाँ समाधि अलकार होता है और जहाँ अनेक कारणों के मिलने
।
पक्षधर्मत्वव्याप्त्याद्यसभवादनुमानतो भिन्नं काव्यलिगम् ।
अचि0, पृ0 - ।।6 साधारणगुणयोगित्वेन भेदादर्शने सति सामान्यम्, उत्कृष्ट गुण योजनहीनगुणतिरोहितत्वे मीलनम् ।
वही - पृ० - ।।6 अन्ययोगव्यवच्छेदेनाभिप्रायाभावादुदात्तस्य परिसख्यातोऽन्यत्वम् ।
वही - पृ0 - ||6
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से कार्य सिद्ध सम्पन्न हो वहाँ समुच्चय अलकार होता है । समुच्चय मे कार्य सिद्धि के लिए एक समर्थ साधक के रहते हुए भी साधनान्तर का कथन किया जाता है ।
व्याजस्तुति एव अपर्तुति में भेद -
व्याजस्तुति मे असत्य कथन प्रतीयमान रूप मे रहता है और अपह्नुति मे वाच्य रूप ।
परवर्ती काल मे आचार्य विद्यानाथ ने भी अलकारों के वर्गीकरण के पश्चात् कतिपय अलकारों के पारस्परिक विलक्षणता के कारणों का निरूपण किया है । इनका यह निरूपण अजितसेन से पूर्णरूप से प्रभावित है । यहाँ तक कि अलकारों का अनुक्रम भी वही रखा गया है, जो अजितसेन की अलकार चिन्तामणि मे प्रतिपादित है ।
अर्यालकारों का समीक्षात्मक अध्ययन -
प्रस्तुत अध्याय मे अलकार चिन्तामणि मे निरूपित अर्थालकारों की समीक्षा अलकारों के वर्गीकरण के क्रम से की जा रही है जिसमे प्रथम सादृश्यमूलक अलकारों का निरूपण किया जा रहा है इस वर्ग मे निम्नलिखित अलकार है
साधर्म्य मूलक अलंकार.
उपमा, अनन्वय, उपमेयोपमा, स्मरप, रूपक, परिणाम, सन्देह, भ्रान्तिमान, अपर्तुति, उल्लेख, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, सहोक्लि, विनोक्ति, समासोक्ति, वक्रोक्त, स्वभावोक्ति, व्याजोक्ति, मीलन, सामान्य, तद्गुण, अतद्गुण ।
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कार्यसिद्धौ काकतालीयत्वेन 'कारणानतरसभवे समाधि । सिद्धावहमहमिकया हेतूनां बहुनां व्याप्ती समुच्चय । व्याजस्तुव्यपह्नत्योरपलापस्य गम्यवाच्यत्वाभ्या श्लेषाणां भेद सुगम । प्रतापरूद्रीयम् - रत्नापण टीका पृ0 - 401-403
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उपमा
उपमा अलकार का सर्वप्रथम उल्लेख भरतमनि के नाट्यशास्त्र में किया गया है उन्होंने रूपक, दीपक तथा यमक के साथ उपमा का भी उल्लेख किया है। जिनमे सर्वप्रथम निर.पण उपमा अलकार का ही है -
उपमा रूपक चैव दीपक यमक तथा । अलकारास्तु विज्ञेयाश्चत्वारो नाटकाश्रया ।।
ना०शा0 - 17/43
भरतमुनि के अनुसार जहाँ गुण और आकृति के आधार पर किञ्चित् साम्य होने पर भी सादृश्य की प्रतीति कराई जाए वहाँ उपमा अलकार होता है।'
आचार्य भामह की परिभाषा मे किञ्चत् नवीनता है । इनके अनुसार जहाँ विरुद्ध भिन्न उपमान के साथ देश-काल एव क्रियादि के द्वारा साम्य स्थापित किया जाए वहाँ उपमा अलकार होता है । इन्होंने भामह के 'यत्किञ्चित्' पद के आशय को 'गुणलेशेन' पद के माध्यम से व्यक्त किया ।
आचार्य दण्डी भी भरत और भामह की भाँति कथञ्चित् सादृश्य मे उपमा अलकार को स्वीकार करते है ।
आचार्य उद्भट 'चेतोहारि' साधर्म्य मे उपमा को स्वीकार कर एक नया विचार व्यक्त किया है क्योंकि इनके पूर्ववर्ती भरत भामह, दण्डी आदि आचार्यों ने इसका उल्लेख नहीं किया ।
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ना०शा0 17/44
भा० काव्या0 - 2/30
यत्किञ्चित् काव्यबन्धेषु सादृश्येनोपमीयते । उपमा नाम विज्ञया गुणाकृति समाश्रया ।। विरूद्धनोपमानेन देशकाल क्रियादिभि ।' उपमेयस्य यत्साम्य गुणलेशेन सोपमा ।। यथाकथञ्चित् सादृश्यं यत्रोद्भूत प्रतीयते । उपमानाम सा तस्या प्रपञ्चोऽय प्रदर्श्यते ।। बच्चेतोहारि साधर्म्यमुपमानोपमेययो. ।। मिथो विभिन्नकालादि शब्दयोरूपमा तु तत् ।।
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का0द02/14
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का०ल0सा0 स0 - 1/15
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वामन की कृत परिभाषा भामह से प्रभावित है ।
आचार्य मम्मट के अनुसार उपमान तथा उपमेय मे भेद होने पर भी जहाँ दोनों के साधर्म्य का प्रतिपादन किया जाए वहाँ उपमा अलकार होता है 12 लक्षण मे भेद पद का उल्लेख अनन्वय अलंकार की व्यावृत्ति के लिए किया गया है क्योंकि अनन्वय मे उपमेय तथा उपमान दोनों एक ही होते हैं किन्तु उपमा मे इन दोनों का भिन्न होना नितान्त आवश्यक है ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ उपमान के द्वारा उपमेय का साम्य स्थापित किया जाए वहाँ उपमा अलकार होता है । 3 इन्होंने उपमान को लोक प्रसिद्ध होना आवश्यक बतलाया है । प्रसिद्ध उपमान के अभाव मे इन्हे उपमा अलकार अभीष्ट नहीं है । यदि कारिका मे 'स्वत सिद्धेन' का उल्लेख न होता तो उत्प्रेक्षा अलकार मे भी इस लक्षण की प्रसक्ति हो जाती क्योंकि उत्प्रेक्षा अलंकार मे उपमान का प्रसिद्ध होना आवश्यक नहीं होता इससे स्पष्ट हो जाता है कि उपमान के स्वत सिद्ध होने पर उपमा तथा स्वत असिद्ध या अप्रसिद्ध होने पर उत्प्रेक्षा अलकार होता है । इसके अतिरिक्त इन्होंने उपमान को स्वत भिन्न भी बताया है जिससे अनन्वय अलंकार का निराकरण हो जाता है । उपमान के स्वत भिन्न होने का उल्लेख तो आचार्य मम्मट ने भी किया है किन्तु उनकी परिभाषा मे स्वत सिद्धेन का उल्लेख नहीं है । निश्चित ही इस पद का उल्लेख करके आचार्य अजितसेन ने एक नया विचार किया । कारिका में प्रयुक्त धर्मत पद के निबन्धन से श्लेषालकार की निवृत्ति हो जाती है क्योंकि श्लेष अलकार मे भी शब्द साम्य रहता है अत उसे भी उपमा अलकार स्वीकार किया जा सकता था किन्तु धर्मत पद के उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म - साम्य होने पर ही उपमा सम्भव है शब्द साम्य मे नहीं ।
1
2
3
'धर्मत इत्यनेन श्लेषनिरास । श्लेषालकारे शब्द साम्यमात्रस्यागीकारात् । न गुण क्रियासाम्यस्य ।'
उपमानेनोपमेयस्य गुणलेशत साम्यमुपमा ।
साधर्म्यमुपमाभेदे ।
वर्ण्यस्य साम्यमन्येन स्वत सिद्धेन धर्मत । भिन्नेन सूर्य भीष्टेन वाच्य यत्रोपमैकदा ।।
अ०चि० पृ०
का०प्र०
-
काव्या० सू0 4, 2, 1
10/87
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अचि० 4 / 18 एवं वृत्ति
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कारिका में निबद्ध 'साम्यमन्येन वर्णस्य'
वाक्य के द्वारा प्रतीप अलंकार की व्यावृत्ति हो जाती है क्योंकि प्रतीप अलंकार मे उपमान काल्पनिक रहता है और वहाँ उपमेय का अप्रकृत के साथ साधर्म्य स्थापित किया जाता है । जो निम्नलिखित पक्ति मे स्पष्ट है
-
साम्य के उल्लेख से उपमेयोपमा अलकार का निराकरण हो जाता है क्योंकि उपमा मे एक बार सादृश्य का प्रतिपादन किया जाता है और उपमेयोपमा मे अनेकबार सादृश्य प्रतिपादित रहता है ।
'प्रतीपे उपमानत्वकतपनादुपमेयस्य प्रकृतेन सहाप्रकृतस्य साधर्म्यवर्णनात् । ' अ०चि० पृ० - 121
1
अ०चि० पृ०
इसके अतिरिक्त 'सूर्यभीष्टेन' पद का भी उल्लेख किया है जिससे विदित होता है कि इन्हे विद्वज्जनाभिमत स्थल पर ही उपमा अभीष्ट है । यदि उक्त पद का उल्लेख न किया गया होता तो हीनोपमा मे भी लक्षण की प्रसक्ति हो जाती । अत हीनोपमा में लक्षण प्रसक्ति के निवारण के लिए ही सूर्यभीष्टेन पद का उल्लेख किया गया है । कारिका में प्रयुक्त 'वाच्यम्' पद भी महत्त्वपूर्ण है । इस पद के उल्लेख यह विदित होता है कि जहाँ उपमा वाचक इव, यथा, वा आदि का प्रयोग हो उसी स्थल पर इन्हें उपमा अभीष्ट है । प्रतीयमानोपमा तथा रूपक के निराकरण के लिए ही 'वाच्य' पद का उल्लेख किया गया है । " भरत से अजितसेन तक उपमा अलकार के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अजितसेन कृत परिभाषा में जिन अभिनव तत्त्वों का उन्मीलन हुआ है उन तत्वों का उन्मीलन पूर्ववती आचार्यों की परिभाषाओं मेनही हो सकता है ।
2
'साम्यमित्यनेनोपमेयोपमानिराकरणम् । तस्यामुपमानोपमेययोरनेकदा सादृश्यवचनात्' ।
आचार्य विद्यानाथकृत परिभाषा आचार्य अजितसेन से पूर्णत प्रभावित है । जहाँ अजितसेन ने सूर्यभीष्टेन पद का उल्लेख किया है वहाँ विद्यानाथ ने 'संमत्तेन' पद का । शेष अंशों मे प्राय पूर्ण साम्य दृष्टिगोचर होता है । 2
'वाच्यमित्यनेन केषांचिद्रूपकादिप्रतीयमानौपम्याना निरास ।'
स्वत सिद्धेन भिन्नेन संमतेन च धर्मत ।
साम्यमन्येन वर्ण्यस्य वाच्य चेदेकदोपमा ।।
अ०चि० पृ०
प्रतापरूद्रीयम् - पृ०
122
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122
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भेद - आचार्य अजितसेन ने पूर्णा तथा लुप्ता रूप से उपमा को दो भागों मे विभाजित किया है ।'
पूर्णोपमा -
इनके अनुसार जहाँ उपमान, उपमेय, विशेष धर्म तथा सादृश्य वाचक पदों का उल्लेख हो वहाँ पूर्णोपमा अलकार होता है ।2 'पूर्णा' को पुन इन्होंने श्रौती और आर्थी रूप से दो भागों में विभाजित किया है । पुन प्रत्येक के वाक्यगत, समासगत तथा तद्धितगत भेदों को भी स्वीकार किया है इसलिए 2x3 = 6 भेद पूर्णोपमा अलकार के हो जाते है ।
लुप्तोपमाः
जहाँ उपमान, उपमेय, साधारण धर्म और सादृश्य वाचक शब्दों में से एक दो या तीनों के लुप्त रहने पर लुप्तोपमालकार होता है ।' इन्होंने लुप्तोपमा के निम्नलिखित भेद किए है5.
वाक्यगता अनुक्तधर्मा श्रौती लुप्तोपमा समासगता अनुक्तधर्मा श्रौती लुप्तोपमा वावयगता अनुक्तधर्मा आथी लुप्तोपमा समासगता अनुक्तधर्मा आर्थी लुप्तोपमा तद्धितगता अनुक्तधर्मा आर्थी लुप्तोपमा अनुक्त धर्म और लुप्तोतमा कर्मणमा अनुक्तधर्मा लुप्तोपमा कर्तृणमा अनुक्तधर्मा लुप्तोपमा क्विपा अनुक्तधर्मा लुप्तोपमा
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अचि0 पृ0 - 124
सा तप्वद् द्विधा, पूर्णोपमा लुप्तोपमा चेति । अचि0 1/28 अचि0 4/30, 31 अचि0 4/29 दृष्टव्य अचि0, चतुर्थपरिच्छेद, पृ0 - 127-13।
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ON 23 +
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इसके अतिरिक्त इन्होंने उपमा के अन्य भेदों का भी उल्लेख किया है जो प्राय दण्डी द्वारा निरूपित किए जा चुके है इस प्रकार की उपमाओं के विभाजन का आधार साधारण धर्म का उत्कर्ष तथा अपकर्ष के अतिरिक्त उपमानों एव साधारण धर्मों की अनेकता भी है । ये उपमाएँ निम्नलिखित है । -
कर्मक्यच् अनुक्तधर्मा लुप्तोपमा क्यच् अनुक्तधर्मा लुप्तोपमा अकथित उपमान लुप्तोपमा समासगा लुप्तोपमा
धर्मोपमा, वस्तूपमा, विपर्यासोपमा, अन्योन्योपमा, नियमोपमा, अनियमोपमा, समुच्चयोपमा, अतिशयोपमा, मोहोपमा, सशयोपमा, निश्चयोपमा, श्लेषोपमा, सन्तानोपमा, निन्दोपमा, प्रशखोपमा, आचिख्यासोपमा, विरोधोपमा, प्रतिषेधोपमा, चाटूपमा, तत्त्वाख्यानोपमा, असाधारणोपमा, अभूतोपमा, असम्भावितोपमा, विक्रियोपमा, प्रतिवस्तूपमा, तुल्योगोपमा, हेतूपमा, मालोपमा ।
वाक्यधर्मोपमानिका समासगा लुप्तोपमा अनुक्तधर्मा इवादि सामान्यवाचक लुप्तोपमा
आचार्य अजितसेन द्वारा निरूपित उक्त उपमा भेद आचार्य दण्डी के समान है । 2 इन्होंने दण्डी द्वारा निरूपित उत्प्रेक्षितोपमा, निर्णयोपमा, समानोपमा, बहूपमा, के अतिरिक्त अन्य सभी भेदों को सादर स्वीकार कर लिया है ।
इसके अतिरिक्त व्याकरणिक उपमाएँ भी उद्भट और मम्मट से प्रभावित है । 3
उपमावाचक पदों का निर्देश
I
आचार्य अजितसेन ने उपमा के वाचक पदों का भी उल्लेख किया है जो इस प्रकार है इव, वा, यथा, समान, निभ, तुल्य, संकाश, नीकाश, प्रतिरूपक,
2
3
-
दृष्टव्य अ०चि० चतुर्थ परिच्छेद पृ0 133-139
काव्यादर्शी 2/14-41
(क) काव्या० सा० स० 1/19-20 (ख) का०प्र० दशम उल्लास
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प्रतिपक्ष, प्रतिद्वन्द्व, प्रत्यनीक, विरोधी, सदृक, सदृश, सम, सवादि सजातीय, अनुवादि, प्रतिबिम्ब, प्रतिच्छन्द, सरूप, सम्मित, सलक्षणभ, सपक्ष, प्ररण्य, प्रतिनिधि, सवर्ण तुलित शब्द और कल्प, देशीय, देश्य, वत् इत्यादि प्रत्ययान्त तथा चन्द्रप्रभादि शब्दों मे समास का उपमा मे प्रयोग करने योग्य शब्द उपमा (सादृश्य) वाचक है । ' उपर्युक्त वाचक पर्दों की संख्या तथा निरूपण क्रम दण्डी के ही समान है । 2
साधारण धर्म का निर्देश -
है । 3
0.0
(20
(30
I
2
सादृश्य मूलक काव्यालकारों मे धर्म का निर्देश तीन प्रकार से होता
3
अनुगामी धर्म उपमेय एव उपमान से एक रूप से स्थित साधारण धर्म के अनुगामी धर्म कहते है । यह जिस रूप मे उपमान मे होता है उसी रूप मे उपमेय मे भी देखा जाता है । इस रूप मे उपमेयोपमान मे साधारण धर्म का प्रयोग एक ही बार होता है ।
उपमा का औचित्यः
वस्तुप्रतिवस्तुभाव - जब साधारण धर्म उपमेय एवं उपमान में एक होने पर भी भिन्न भिन्न वाक्यों में विभिन्न शब्दों द्वारा प्रकट हो तो वहाँ वस्तु प्रतिवस्तु भाव धर्म होता है । यह शुद्ध न होकर बिम्बप्रतिबिम्बभाव से मिश्रित होता है ।
बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव - उपमेय एव उपमान वाक्यों में धर्म का भिन्नभिन्न होना, बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव है । पर दोनों में धर्म की भिन्नता के होने पर भी पारस्परिक सादृश्य के कारण उनमें अभिन्नता स्थापित हो जाती है ।
आचार्य अजितसेन ने उपमा के दोषों पर भी विचार व्यक्त किया है।
दृष्टव्य अचि० चतुर्थ परिच्छेद पृ० - 140
दृष्टव्य काव्यादर्श परिच्छेद 2/57-60
चि०मी० पृ0-86
(क) पूर्णाया क्वचचिद् साधारणधर्मस्यानुगामितया निर्देश । (ख) एकस्यैव धर्मस्य सम्बन्धिभेदेन द्विरूपादान वस्तुप्रतिवस्तुभाव 1
वही, - 89
(ग) वस्तुतो भिन्नयोर्धर्मयो
परस्परसादृश्यादभिन्नतयाध्यवसितयोर्द्विरूपादानं
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इनके अनुसार लिंग, वचन, अधिकत्व तथा हीनता के होने पर भी यदि सहृदयजनों को उद्वेग न हो तो ये दोषोत्पादक नहीं होते । अत क्रिया साम्य गुण साम्य तथा प्रभाव साम्य का औचित्य उपमा निबन्धन मे परमावश्यक बताया गया है ।'
उपमा और अर्थान्तरन्यास का अन्तर -
उपमा अलकार मे सामान्य धर्म का ही विन्यास होता है जबकि अर्थान्तरन्यास मे प्रस्तुतार्थ के साधन मे समा सदृश अथवा असदृश वाक्य का विन्यास किया जाता है ।
अस्या समानधर्म पैव न्यसनम् अर्थान्तरन्या साल कारे तु प्रस्तुतार्थसाधनक्षमस्य सदशस्य वा असदशस्य वा न्यसनमिति सा भिन्ना तस्मात ।
अचि0 पृ0 - 138
अनन्वय -
आचार्य भामह के अनुसार जहाँ एक ही वस्तु परस्पर उपमान और उपमेय बन जाए और उसमे असादृश्य की विवक्षा रहे तो वहाँ अनन्वय अलकार होता है ।2 आचार्य दण्डी की असाधारणोपमा मे अनन्वय का स्वरूप देखा जा सकता है ।
परवर्ती आचार्य उद्भट वामन, मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, पं० राज जगन्नाथ आदि की परिभाषाएँ भामह से प्रभावित है ।
आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा पूर्ववर्ती आचार्यों की अपेक्षा सरल सुबोध तथा स्पष्ट है । इनके अनुसार जहाँ द्वितीय अर्थ की निवृत्त के लिए एक ही वस्तु या पदार्थ मे उपमानोपमेय भाव का प्रयोग किया जाए वहाँ अनन्वयालकार
न लिग न वचो भिन्नं नाधिकत्व न हीनता । दूषयत्युपमा यत्र नोवेगो यदि धीमताम् ।।
अ0च0 4/90 ___ तुलनीय - काव्यादर्श न लिंगवचने भिन्ने न हीनाधिकतापि वा । उपमादषणायालं यत्रोद्वगो न धीमताम ।
2/51 भा० काव्या0 3/45 का0द0 2/55
का का०लंसा0स0 - 6/4 खि एकस्योपमेयोपमानत्वेऽनन्वय । का०लं0सू० - 4/3/14 ग उपमानोपमेयत्वे एकस्यैवक वाक्यगे अनन्वय । का0प्र0 - 10/9 घ) अ०सुसू० 3
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होता है ।' अनन्वय का शाब्दिक अर्थ है - न विद्यतेऽन्वयो यत्र सोऽनन्वय । जिसका अन्वय न हो । दूसरे उपमान के साथ उपमेय की यहाँ तुलना नहीं की जाती । उपमेय स्वय उपमान भी हो जाता है, अत अन्य उपमानों का निराकरण कर देता है । इस प्रकार स्वय अपने ही साथ अन्य वस्तुओं का सादृश्य सभव हो जाता है ।
उपमेयोपमा.
इस अलकार का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य भामह ने किया है । इनके अनुसार जहाँ क्रम से उपमान को उपमेय, उपमेय को उपमान बना दिया जाय वहाँ उपमेयोपमा अलकार होता है ।2 आचार्य दण्डी ने इसे स्वतत्र अलकार न मानकर अन्योन्योपमा नाम से उपमा के ही एक भेद के रूप में स्वीकार कर लिया है।' परवी आचार्य उद्भट, वामन, मम्मट, रुय्यक, शोभाकर मित्र आदि की परिभाषाएँ भामह से प्रभावित है।
आचार्य अजितसेन की परिभाषा भी तात्विक दृष्टि से भामह, मम्मटादि आचार्यों के समान है किन्तु प्रतिपादन शैली मे किञ्चित् नव्यता है । इनके अनुसार जहाँ उपमान और उपमेय की स्थिति पर्याय क्रम से हो वहाँ उपमेयोपमा अलंकार होता है । उपमेयोपमा अलकार मे तृतीय सदृश वस्तु का सर्वथा अभाव रहता है । उपमेयोपमा की सृष्टि दो वाक्यों में होती है । प्रथम वाक्य में जो वस्तु या पदार्थ उपमेय रहता है द्वितीय वाक्य मे उसे उपमान बना दिया जाता है । उपमेयोपमा अलकार मे 'उपमेयेन उपमा' अर्थात् उपमेय से ही उपमा दी जाने के कारण इस अलकार को उपमेयोपमा की अभिधा प्रदान की गयी है।
च
सा0द0 10/26 द्वितीय सदृशव्यवच्छेदफलकवर्णन विषयीभूतयदेकोपमानोपमेयक सादृश्य तदनन्वय ।
र0ग0 पृ0 - 270 द्वितीयार्थनिवृत्यर्थ यत्रैकस्यैव रच्यते । ' उपमानोपमेयत्व मनोऽनन्वय इत्यसौ ।।
अचि0 4/98 भा० काव्या0 3/37 काव्यादर्श परि0 - 2 पयिणोपमानोपमेयत्वमवमश्यते । द्वयोर्यत्र स्फुट सा स्यादुपमेयोपमा यथा ।
अ०चि0 4/100 र0ग0 पृ0 - 262
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आचार्य अजितसेन ने उपमेयोपमा के निरूपण मे यह भी बताया है कि इस अलकार को कतिपय आचार्य अन्योन्योपमा भी कहते है' किन्तु अन्योन्योपमा को स्वीकार करने वाले आचार्यों का नामोल्लेख नहीं किया । इससे विदित होता है कि आचार्य दण्डी द्वारा निरूपित अन्योन्योपमा आचार्य अजितसेन कृत उपमेयोपमा से अभिन्न है।
आचार्य विद्याधर कृत परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है ।2
स्मरण -
आचार्य भामह दण्डी उभट और वामन ने इस अलकार का उल्लेख नहीं किया है । इसकी उद्भावना का श्रेय सर्वप्रथम आचार्य रुद्रट को है उनके अनुसार जहाँ वस्तु विशेष को देख करके पुन तत्सदृशवस्तु को देखने पर व्यक्ति को पूर्वानुभूत वस्तु का स्मरण हो जाए वहाँ स्मरणालकार होता है ।
आचार्य रुद्रट की परिभाषा मे निखपित स्मरण अलंकार का स्रोत उद्भट कृत काव्यलिग अलकार में निहित है ।
परवर्ती आचार्यों की परिभाषाएँ प्राय रुद्रट से प्रभावित है ।
आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा पर भी रूद्रट का प्रभाव परिलक्षित होता है इनके अनुसार जहाँ सदृश पदार्थ के दर्शन से जहाँ वस्त्वन्तर की स्मृति हो वहाँ स्मरपालकार होता है । इस अलंकार मे किसी सुन्दर या असुन्दर वस्तु को देखने से पूर्वानुभूत किसी सुन्दर या असुन्दर वस्तु का स्मरण हो जाए तो वहाँ स्मरपालकार होता है ।
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एषा केषांचिदन्योऽन्योपमैव । अचि0 चतुर्थ परिच्छेद पृ0 - 142 पयिण द्वयोस्तस्मिन्नुपमेयोपमा मता ।
प्रतापरुद्रीयम् पृ0 - 441 वस्तुविशेष दृष्ट्वा पतिपत्रास्मरति यत्र तत्सदृशम् । कालान्तरानुभूत वस्त्क्न्त रमित्यद स्मरणम् ।। रुद्रट काव्या0 8/109 श्रुतमेक यदन्यत्र स्मृतेरनुभवस्यवा । हेतुता प्रतिपद्येत काव्यलग तदुच्यते ।।
काव्यासा0स0 6/7 क का0प्र0, सू0 198 10/132, ख प्रताप0 पृ0 - 441, ग चि०मी०, पृ0 - 50, घ र0ग0, पृ0 - 286-91 सदृशस्य पदार्थस्य सदृग्वस्त्वन्तरस्मृति । यत्रानुभवत प्रोक्ता स्मरणालकृतियथा ।।
अचि0 4/102
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रूपक -
भरतमुनि से लेकर प0 राज जगन्नाथ तक प्राय सभी आचार्यों ने इसका उल्लेख किया है । भरतमुनि के अनुसार गुण के आश्रय से किञ्चिद् सादृश्य को स्वविकल्प रूप प्रदान करना रूपक अलकार है ।
भामह के अनुसार जहाँ गुणों की समता को देखकर उपमान के साथ उपमेय के तादात्म्य का आरोप हो वहाँ रूपक अलकार होता है । इसमे उपमेय तथा उपमान का अभेद कथन प्राय गुण साम्य पर आधारित रहता है ।
आचार्य दण्डी के अनुसार भेद रहित उपमा ही वस्तुत रूपक है । इनका आशय यह है कि यदि उपमा से वाचक पद और साधारण धर्म को निकाल दिया जाए तो वह रूपक अलकार का रूप धारण कर लेती है । आचार्य उद्भट के अनुसार गुणवृत्ति की प्रधानता के कारण एक पद का अन्य पद के साथ योग होना ही रूपक है । इनकी रूपक की परिभाषा गौणी लक्षणा पर आधारित है। आचार्यवामन ने भामह एव दण्डी के विचारों का सार ग्रहण करते हुए रूपक के लक्षण का निर्माण किया है । आचार्य रुद्रट के अनुसार उपमानोपमेय में गुणों की समानता के कारण अभेद की कल्पना तथा सामान्य धर्म का निर्देश न होना ही रूपक है ।
आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ उपमान एव उपमेय मे भेद प्रदर्शित होने पर भी दोनों साम्य के कारण अभेद का आरोप हो वहाँ रूपक अलकार होता है ।
नाOशा0 16/57-58 उपमानेन यत्तत्वमुपमेयस्य रूप्यते । गुणाना समता दृष्ट्वा रूपकं नामतद्विदु ।
भा० काव्या0 2/2 उपमेव तिरोभूतभेदा रूपकमुच्यते - काव्यादर्श 2/36 उपमानोपमेयस्यगुपसाम्यात् तत्वारोपोरूपकम् । काव्या० सू० 4, 3,6 रूद्रट काव्या0 8/38 तद्रूपकभेदोपमानोपमेययो अतिसाम्यादनपहनुतभेदयोरभेद ।
का0प्र0 10/93
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आचार्य अजितसेन कृत परभाषा पूववर्ती आचार्यों से भिन्न है । इनके अनुसार अतिरोहित रूप वाले आरोप विषय का जहाँ आरोग्य या उपमान के द्वारा उपरञ्जन हो वहाँ रूपक अलकार होता है । आरोप वस्तुत दो प्रकार से सभव है 10 अभेद रूपक 20 तद् रूपक ।।
'मुख चन्द्र ' इत्यादि उदाहरण मे आरोप का विषय मुख है आरोप्य चन्द्रमा है । कारिका मे आए हुए 'अतिरोहितरूपस्य व्यारोप विषयस्य यत्' के द्वारा यह बताया गया है कि तिरोहित रूप वाले संदेहालकार, भ्रान्तिमान अलकार और अपलुति अलकार मे रूपक अलकार की स्थिति सभव नहीं है । यद्यपि उक्त तीनों के ही स्थलों पर विषय का आरोप होता है किन्तु वह तिरोहित रूप वाला रहता है । किन्तु रूपक मे विषय उपमेय, सर्वथा अतिरोहित रूप वाला रहता है और आरोप्यमाण उपमान के द्वारा उसका उपरञ्जन कर दिया जाता है।
'व्यारोपविषयस्य' इस पद के सन्निधान से अध्यवसाय, गर्भाउत्प्रेक्षा तथा अनारोप हेतुक उपमादि अलकारों की व्यावृत्ति हो जाती है ।
उपरञ्जक पद के उल्लेख से परिणाम अलकार की व्यावृत्ति हो जाती है कयोंकि परिणाम मे आरोप्यमाण प्रकृतोपयोगी हो जाता है न कि उपरजक। अत सादृश्य हेतुक अन्य सभी अलंकारों से रूपक अलकार की भिन्नता सिद्ध हो जाती है ।
भेद -
आचार्य अजितसेन ने इसके तीन भेदों का उल्लेख किया है -
010 सावयव रूपक, 2 निखयव रूपक, 131 परम्परित रूपक
पुन सावयव रूपक के समस्त वस्तु विषयक तथा एक देश विवृती रूप से दो भेद हो जाते हैं । निखयव रूपक को भी 'केवल' और 'माला' रूप से दो भागों में विभाजित किया है । इसी प्रकार से परम्परित रूपक के भी श्लिष्ट हेतुक तथा 'अश्लिष्ट हेतुक' दो भेदों का उल्लेख किया है । इन दोनों के भी "केवल' और 'माला' रूप से दो भेद बताए गए है । अत रूपक के प्रत्येक भेदों का परिगणन करने से रूपक के आठ भेद हो जाते है।
प्रत्येक के वाक्यगत तथा समासगत दो अन्य भेदों का भी उल्लेख किया है इस प्रकार 8x2 = 16 भेद रूपक के हो जाते है' - -------------------------------------- । अ०चि0 पृ0 - 143 पर0 4
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परवर्ती आचार्य विद्यानाथ ने भी किचित् शाब्दिक परिवर्तन के साथ अजितसेन कृत परिभाषा को ही उद्धृत कर दिया है ।'
परिणाम - इस अलकार का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य रुय्यक ने किया है । इनके अनुसार जहाँ आरोप्यमाण अर्थात् उपमान, आरोप विषय प्रकृत के लिए उपयोगी हो वहाँ परिणाम अलकार होता है ।2
प्रकृत की उपयोगिता मे उपमान का परिणत हो जाना ही इसका मुख्य कार्य है । साथ ही साथ उपमान को प्रकृतोपयोगी होना भी आवश्यक है। जैसे 'स करकमलेन लिखति' यहाँ पर 'कर' मे 'कमल' का आरोप है । साथ ही साथ कमल मे जो लेखन की सामर्थ्य नहीं है, वह भी समाहित हो गयी है । यहाँ उपमान उपमेय के साथ परिणत होकर कार्य कर रहा है । ऐसे ही स्थलों पर परिणाम अलकार होता है ।
आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा किञ्चित् रुय्यक से प्रभावित है इन्हें भी रुय्यक की ही भाँति उपमा की प्रकृत उपयोगिता अभीष्ट है । उपमान के प्रकृतापयोगी हो जाने पर यह परिणाम अलंकार प्राय सभी अलकारों से भिन्न हो जाता है ।
आचार्य अजितसेन ने एकार्थ व अनेकार्य रूप से इसके दो भेदों का उल्लेख भी किया है । आरोप्य की प्रकृतोपयोगिता दो प्रकार से सभव है - सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से और वैयधिकरण्य सम्बन्ध से । उपमान और उपमेय के अभेद मे रूपक की सत्ता होती है और इसमे अभेद होने के साथ-साथ उपमान का क्रिया के साथ सम्बन्ध भी बताया जाता है ।
आचार्य रुय्यक ने एकार्थ तथा अनेकार्थादि भेदों का उल्लेख नहीं किया है और सामान्याधिकरण्य तथा वैयधिकरण्य का भी उल्लेख नहीं किया । आचार्य अजितसेन ने उक्त भेदों की कल्पना करके अलकार शृखला मे वृद्धि की है ।
प्रतापरूद्रीय - पृ0 - 442 आरोपमाणस्य प्रकृतोपयोगित्वे परिणाम । अ0स0 पृ0 28 व वृत्ति। आरोपविषयत्वेनारोप्य यत्रोपयोगि च । प्रकृते परिणामोऽसो द्विधेकार्थतरत्व ।। आरोग्य प्रकृतोपयोगीत्यनेन सर्वोऽलकारेभ्यो वैलक्षण्यमस्य । स द्विधा सामानाधिकरण्यवयधिकरण्याभ्यां क्रमेण द्वय यथा --
अचि0 - 4/125 एव वृत्ति
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परवर्ती काल मे विद्यानाथ कृत परिभाषा तथा भेद प्रभेद भी आचार्य अजितसेन से प्रभावित है ।
सन्देह
संस्कृत वाङ्मय मे इसके
तीन नामों का उल्लेख प्राप्त होता है 1 आचार्य रुद्रट तथा भोज ने इसे 'सशय' कहा है । भामह तथा उद्भट ने 'स्सदेह' । आचार्य वामन तथा अजितसेन ने संदेह कहा है | 2
आचार्य भामह के अनुसार जहाँ उपमेय की स्तुति के निमित्त उसका उपमान के साथ भेद या अभेद दिखाते हुए सन्देह युक्त वचन का प्रयोग किया जाए वहाँ ससन्देहालकार होता है । 3
है। 5
आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ उपमेय तथा उपमान मे सशय हो वहाँ ससन्देह अलकार होता है 1° इन्होंने इसके दो भेदों का उल्लेख भी किया है । जो भेद की उक्ति तथा अनुक्ति मे होता है ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ सज्जनों से अभिमत मादृश्य के कारण विषय और विषयी में कवि को सन्देह प्रतीत हो वहाँ सन्देहालकार होता
'
आचार्य दण्डी इसे सशयोपमा के अन्तर्गत ही स्वीकार किया है । 4
आचार्य उद्भट ने भामह कृत परिभाषा को ही उद्धृत कर दिया
2
3 4 5 6
प्रताप० पृ० 452
(क) रू० काव्यालंकार
8/59
(ख) सरस्वतीकण्ठाभरण 4/41-42
ग) भा० काव्या०
(घ) का०ल०सा०स० (ड) काव्या० सू० (च) अ०चि०
-
-
भा० काव्या० 3/43
काव्यादर्श
2/26
काव्या०सा०स०
-
3/43
6/2
4/3/11
4/128
6/2-3
का०प्र० - 10/92 एव वृत्ति
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है । आशय यह है कि जहाँ साम्य के कारण चित्तवृत्ति दोलायित रहती है, किसी एक विषय का निश्चय नहीं हो पाता है वहाँ सन्देहालकार होता है । इसमे किं, कथमादि पदों के द्वारा दो पदार्थों मे सन्देह की स्थापना की जाती है। इन्होंने इसके तीन भेदों का उल्लेख भी किया है ।
(10
(2)
(30
I
2
3
4
5
शुद्ध सन्देह
की कोटि मे रखा गया है । 2
निश्चय गर्भ
परवर्ती आचार्य विद्यानाथ, विश्वनाथ, पण्डितराज आदि की परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है ।
भ्रान्तिमान
6
इस अलकार का उल्लेख भामह, दण्डी, उद्भट तथा वामन ने नहीं किया इसकी उद्भावना का श्रेय आचार्य रुद्रट को है 1 रुद्रट के अनुसार जहाँ किसी अर्थ विशेष को देखकर तत्सदृश अन्य वस्तु को बिना सन्देह ही मान ले वहाँ भ्रान्तिमान् अलकार होता है । इस अलकार का स्रोत आचार्य दण्डी की 'मोहोपमा' मे निहित है 15 इसमे उपमेय मे, उपमान के निश्चय को भ्रान्तिमान अलकार कहा गया है 16
-
जिसमे अन्त तक सन्देह बना रहता है उसे शुद्ध सन्देह
निश्चयान्त. - आरम्भ मे जो सन्देह उत्पन्न होता है, यदि अन्त मे उसका निराकरण हो जाए तो वहाँ निश्चयान्त सन्देह होता
है ।
इसमे दो पदार्थों के मध्य सशय बना रहता है | 3
-
-
अ०चि० 4/128-29
अ०चि०
4/130
वही
4/131
वही - 4 / 132
काव्यादर्श - 2/25
रू० काव्या०
-
8/87
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आचार्य भोज ने विपर्य ज्ञान को भ्रान्ति कहा है और उसके दो भेदों का उल्लेख किया है - अतत् मे तत् तथा तत् मे अतत् के ज्ञान को भ्रान्ति कहा है।
आचार्य मम्मट कृत परभाषा रुद्रट पर आधारित है । इन्होंने सदृश वस्तु के दर्शन से अन्य वस्तु के ज्ञान को भ्रान्तिमान कहा है ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ आच्छादित आरोप विषय मे सादृश्य के कारण आरोग्य का ज्ञान हो वहाँ भ्रानिमान् अलकार होता है । तात्पर्य यह है कि प्रस्तुत के देखने से सादृश्य के कारण अप्रस्तुत का भ्रम हो जाये, वहाँ पर भ्रान्तिमान् अलकार होता है । दो वस्तुओं मे उत्कट साम्य के आधार पर वस्तु की स्मृति जागती है एवं इसके पश्चात् भ्रम उत्पन्न होता है । निश्चित मिथ्याज्ञान ही भ्रम है इसमे ज्ञान तो होता है मिथ्या ही, पर मिथ्या होने पर भी ज्ञाता के लिए मिथ्याज्ञान निश्चय कोटि का होता है । इसमे भ्रम स्थिति तो वाच्य होती है, पर सादृश्य की कल्पना व्यग्य ।
आचार्य शोभाकार मित्र सादृश्येतर सम्बन्ध मे भी भ्रान्तिमान अलकार स्वीकार करते है ।
आचार्य जयदेव विश्वनाथ विद्यानाथ अप्पय दीक्षित तथा पण्डितराज जगन्नाथ कृत परिभाषाएँ अजितसेन से प्रभावित है ।
का0प्र0, 10/46 एव वृत्ति
स0क0म0, 3/35 भ्रान्तिमानन्यसंवित्तुल्यदर्शने । पिहितात्मनि चारोपविषये सदृशत्वत । आरोप्यानुभवो यत्र भ्रान्तिमान् स मतो यथा ।।
अ०चि0 4/133
अ0र0, पृ0 - 52-53
का चन्द्रा0 पृ0 - 32 खि सा0द0 - 10/36 गई प्रताप0 - पृ0 - 456 घl कुवलयानद - 24 ड र0ग0 - पृ0 - 353-55
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अपर्तुति -
भामह के अनुसार जहाँ वास्तविक वस्तु को छिपाने के लिए अवास्तविक वस्तु का आरोप किया जाए वहाँ अपह्नुति अलकार होता है । किञ्चिदन्तर्गतोपमा के माध्यम से इन्होंने यह भी बताया है कि अपह्नति मे उपमा का होना आवश्यक है क्योंकि सादृश्य के कारण ही सत्यभूत वस्तु पर असत्य का आरोप करके सुगमता से छिपाया जा सकता है । भूतार्थ सत्य वस्तु का अपह्नव होने के कारण ही इसे अपह्नति की अभिधा प्रदान की गयी है ।'
आचार्य दण्डी ने अपह्नति को तीन स्थलों पर वर्णित किया है - उपमापह्नुति, तत्वापनुति एव नवरूपकापह्नति तत्वापह्नति मे सादृश्य तथा रूपकापलुति मे आरोप की सत्ता रहती है 12
उद्भट ने भामह के लक्षण को ही उद्धृत कर दिया है ।
मम्मट के अनुसार जहाँ प्रकृत का निषेध कर उस पर अप्रकृत उपमान का सत्य रूप मे आरोप किया जाए वहाँ अपह्नति अलकार होता है ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ उपमेय का निषेध कर अप्रकृत - उपमान का आरोप किया जाए वहाँ अपह्नुति अलकार होता है । इन्होंने इसके तीन भेदों का उल्लेख किया है -1 आरोप्यापह्नव, 12 अपह्नवारोप और 130 छलादि उक्ति ।
अपह्नुतिरभीष्टा च किञ्चिदन्तर्गतोपमा । भूतार्थापह्नवादस्या क्रियते चाभिधा यथा ।।
भा०काव्या0 3/21 उपमापर्तुति पूर्वमुपमास्वेव दर्शिता । इत्यपह्नुतिभेदाना लक्ष्यो लक्ष्येषु विस्तर ।।
का0द0 2/309 दृष्टव्य काव्यदर्पण - 2/95, 2/304, 2/94, 2/305, 308 काव्या० सा0स0, 5/3 प्रकृत यन्निषिध्यान्यत्साध्यते साऽत्वपर्तुति. ।।
का०प्र० 10/ उपमेयमसत्यं कृत्वोपमान सत्यतया यत्स्थाप्यते सात्वपनुति । वृत्त इद न स्पादिद स्यादित्येषा साम्यादपट्नुति । आरोप्यापह्नवारोपच्छलाधुक्तिभिदा त्रिधा ।। आरोप्यापह्नव अपहनवारोप्य छलादिशब्दरसत्यत्ववचन चेति त्रिधा सा ।
अचि0 4/135 एव वृत्ति ।
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आरोप्यापह्नव मे आरोप पूर्वक निषेध होता है । अपह्नवारोप में निषेध पूर्वक अपह्नव होता है । छलादि उक्ति की अपह्नुति मे अति सादृश्य के कारण सत्य होने पर भी असत्य कह कर उपमान को सत्य सिद्ध किया जाता है ।
परवर्ती आचार्य विद्यानाथ कृत परिभाषा अजितसेन से अनुकृत है । ' जयदेव, दीक्षित, पण्डितराजादि ने भी किञ्चित् शाब्दिक परिवर्तन के साथ अजितसेन कृत परिभाषा को स्वीकार कर लिया है । तात्विक दृष्टि से विचार करने पर इन आचार्यों की परिभाषाओं मे किसी प्रकार की नव्यता दृष्टिगोचर नहीं होती | 2
उल्लेख
इस अलकार की उद्भावना का श्रेय आचार्य रुय्यक को है इनके अनुसार जहाँ एक वस्तु का निमित्तवश अनेक प्रकार से ग्रहण किया जाए वहाँ उल्लेख अलकार होता है 3
आचार्य शोभाकर मित्र कृत परिभाषा रुय्यक से किञ्चित् भिन्न है इन्होंने एक वस्तु की अनेकधा कल्पना मे उल्लेख अलकार को स्वीकार किया, साथ साथ 'तत्धर्मयोगात्' के माध्यम से यह भी स्पष्ट किया है कि वस्तु का अनेकधा उल्लेख धर्म के सम्बन्ध से ही किया जाए तो उसमे प्राय विशेष औचित्य की सृष्टि होती है । 4
आचार्य अजितसेन के अवशिष्ट रुच्यर्थ के सम्बन्ध से उल्लेख अलकार होता है 1 किसी भी प्रकार की चर्चा नहीं की कर दिया कि ग्रहणकर्ता किसी वस्तु
अनुसार जहाँ ग्रहीता के भेद से एक वस्तु का अनेक प्रकार का उल्लेख किया जाए वहाँ इनके पूर्ववर्ती आचार्यों ने रुच्यर्थ के सम्बन्ध में इन्होंने रुचि का उल्लेख कर के यह स्पष्ट की जब अनेक प्रकार से कल्पना करता है तो उसकी यह कल्पना उसके रूचि के अनुकूल ही हुआ करती है । इनके अनुसार
|
-
2
(ख)
3
4
प्रतापरूद्रीयम्
पृ० 457
(क) अतथ्यमारोपयितु तथ्यापास्त
चि०मी० पृ०
82
성명 366
-
अ०म० (सजीवनी टीका ( पृ०
अलकार रत्नाकर
-
-
70
पृ० - 54
-
चन्द्रा० 5/24
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इस अलकार को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है - 10 ज्ञातृ भेद से किसी एक विषय वस्त या पदार्थ का अनेक रूप में वर्णन करना । 02 विषय भेद से किसी एक विषयवस्तु या पदार्थ का अनेक रूप मे वर्णन करना ।
इस अलकार मे अपनी-अपनी भावनावश बहत रूपों का उल्लेख किया जाता है । इन्होंने श्लेष के योग मे भी इस अलकार की सत्ता स्वीकार की है जो इनके पूर्ववर्ती आचार्यों की परिभाषाओं मे अप्राप्त है ।'
आचार्य विद्यानाथ कृत परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है ।2 परवर्ती जयदेव दीक्षित तथा पण्डित राजादि की परिभाषाओं में भी किसी विशेष प्रकार का अन्तर नहीं है । इनकी परिभाषाएँ अजितसेन तथा रुय्यक से प्रभावित
है ।
उत्प्रेधाः
आचार्य भामह के अनुसार जहाँ सादृश्य की प्रतीति करता अभीष्ट न हो किन्तु उपमा की आंशिक सामग्री विद्यमान हो, साथ ही अतिशय द्वारा झिन वस्तु के गुप और क्रिया रूप धर्म का सम्बन्ध भिन्न वस्तु मे बताया जाए, उसे उत्प्रेक्षा कहते है ।
आचार्य वामन के अनुसार गुण, क्रियादि रूप वस्तु के स्वभाव को छिपाकर जिसमे जैसा नहीं है उसमे वैसे स्वभाव का ज्ञान कराना उत्प्रेक्षा अलकार है इसमें आरोप या लक्षणा नहीं रहती, न ही भ्रान्तिमान् । यह सादृश्य मूलक होती है।
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अचि0 - 4/140 अचि0 पृ0-155
एकस्य शेषरूच्यर्थयोमेरुल्लेखः बहु । ग्रहीतृभेदादुल्लेखालकारः स मतोयथा ।। अत्र रूच्यर्थयोगाभ्यामुल्लेख । श्लेषेण यथा -- । प्रतापरुद्रीयम् - पृ0 - 459 रत्नापण टीका (क) बहुभिर्बहुधोल्लेखादेकस्योल्लेखिता मत । ख चि०मी० पृ0 - 77 गः रसगगाधर - पृ0 - 360-61 का०ल0 - 2/91 काव्या० सू०, 4/3/9
चन्द्रा0 5/23
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:: 152::
उद्भट के मत मे इवादि शब्द के प्रयोग होने पर भी जहाँ उपमा की अविवक्षा रहे, भिन्न वस्तु के गुण भिन्न वस्तु में भले ही विधाता की सृष्टि मे न हो सके किन्तु कवि की सृष्टि में यह असभव नहीं, अत उत्प्रेक्षा मे लोकातिक्रान्त विषयक वस्तु का प्रतिपादन रहता है । यहाँ सम्भावना का अस्तित्व भावात्मक तथा अभावात्मक दोनों प्रकार से सभव है । इवादि के प्रयोग मे वाच्योत्प्रेक्षा होती
आचार्य रुद्रट के अनुसार जहाँ पहले उपमान तथा उपमेय का अत्यन्त सादृश्य के आधार पर अभेद बताया जाए, पुन उपमान का सद्भाव सिद्ध बतलाकर उसमे उपमान धर्मों का आरोप किया जाए वहाँ उत्प्रेक्षालकार होता है । आचार्य रूद्रट ने लोकातिक्रान्त विषयक वस्तु की चर्चा नहीं की और न ही भामह की भाँति अविवक्षित सामान्य का ही उल्लेख किया तथापि रुद्रट की परिभाषा मे भी भामह और उद्भट के विचार का समन्वय प्राप्त होता है ।
आचार्य मम्मट कृत परिभाषा भामह तथा उद्भट आदि आचार्यों की अपेक्षा स्पष्ट है । इनके अनुसार जहाँ प्रकृत उपमेय की उपमान रूप मे सभावना की जाए वहाँ उत्प्रेक्षालकार होता है । यहाँ मम्मट ने 'सभावन' शब्द आलकरिक परम्परा से अपनाया है किन्तु टीकाकारों ने उसे अपने मत से इस प्रकार स्पष्ट किया है -
"उत्कटोपमा नैक कोटिक सशय संभावनम्' अर्थात् उस संशय सभावन कहते हैं जिसमे उपमान की ओर बुद्धि का झुकाव अधिक हो ।"
को
आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा पूर्ववर्ती भामह, उद्भट तथा वामन से भिन्न है इनकी परिभाषा पर किचित् मम्मट का प्रभाव परिलक्षित होता है। इनके अनुसार जहाँ अप्रकृत के सम्बन्ध रो प्रकृत वस्तु का अप्रकृत वस्तु स्वरूप से आरोप किया जाए वहाँ उत्प्रेक्षालकार होता है । इन्होंने वृत्ति मे अप्रकृत मे विद्यमान
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का0प्र0, 10/92
काव्या0सा0स0 - 3/3-4 रू0 काव्या0 8/32 सभावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत् । अ0स0, डॉ0 रेवा प्रसाद द्विवेदी, हिन्दी टीका, पृ0 - 225 यत्राप्रकृतसबन्धात्प्रकृतस्योपतर्कणम् । अन्यत्वेन विधीयेत सोत्प्रेक्षा कविनोदिता ।।
अचि0, 4/141
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गुण, क्रियादि धर्मों का भी उल्लेख किया है । आशय यह है कि अप्रकृत के गुण क्रियादि धर्मो का जहाँ प्रकृत रूप मे सभावना की जाए वहाँ उत्प्रेक्षालंकार होता है । कारिका मे आए हुए 'उपतर्कणम्' का अर्थ 'उपसभावनम्' करना समीचीन प्रतीत होता है क्योंकि अप्रकृत के धर्म की प्रकृत मे सभावना ही वस्तुत उत्प्रेक्षा है । इन्होंने असत्य को सत्य रूप से उद्भावित करने में भी उत्प्रेक्षालकार को स्वीकार किया । वाच्य उत्प्रेक्षा तथा मम्योत्प्रेक्षा - दो भेद भी किया साथ ही साथ यह भी बताया है कि जहाँ . 'विमा मन्ये नून प्राय ' इत्यादि आरोपण वाचक शब्दों का प्रयोग हो वहाँ वाच्योत्प्रेक्षा होती है और इन शब्दों के अभाव मे गम्योत्प्रेक्षा होती है । उत्प्रेक्षा के उपर्युक्त भेदों का उल्लेख आचार्य मम्मट ने भी किया है किन्तु 'असत्ये सत्यरूपा उत्प्रेक्षा' इनकी नवीन कल्पना है 12 जिसका उल्लेख पूर्ववर्ती आचार्यों ने नहीं किया । इन्होंने जाति उत्प्रेक्षा तथा फलोत्प्रेक्षा का उदाहरण व विवेचन भी प्रस्तुत किया ।
आचार्य विद्यानाथ कृत परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है 14 आचार्य रुय्यक तथा विद्यानाथ ने इसके 96 भेदों की चर्चा की है । किन्तु अजितसेन को ग्रन्थ - गौरव के भय से भेद विस्तार अभीष्ट नहीं है ।
अतिशयोक्ति -
आचार्य भामह के अनुसार किसी निमित से कथित लोकोत्तर उक्ति ही अतिशयोक्ति है ।' आचार्य वामन ने किसी अन्य आचार्य के मत को उद्धृत करके यह बताया है कि उत्प्रेक्षा ही अतिशयोक्ति है । किन्तु आचार्य वामन सभाव्य धर्म और उसके उत्कर्ष की कल्पना मे अतिशयोक्ति को स्वीकार करते है ।
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अ०चि0, पृ0 - 155 अचि0, 4/14। की वृत्त । इय जाति फलोत्प्रेक्षा नूनं चक्रिभुजद्वयम् । अचि0, पृ0 - 156 प्रताप0 पृ0 - 461 अ0स0, सू०-22 द्र0 वृत्त । उत्प्रेक्षा बहुविद्या विधाएं संक्षिप्ता ग्रन्थविस्तरभीरुत्वात् । अतैव सर्वत्र सक्षेप ।
__ अ०चि0, 4/142 की वृत्ति निमित्ततो वचो यत्तु लोकतिक्रान्तगोचरम् । मन्यन्तेऽतिशयोक्ति तामलकारतयो यथा ।।
भा०, काव्या0, 2/81 सभाव्यधर्मतदुत्कर्षकल्पनाऽतिशयोक्ति ।।
काव्या० सू०, 4/3/10
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आचार्य उद्भट कृत लक्षण भामह के समान है ।। आचार्य रुद्रट ने अतिशयोक्ति नाम से किसी एक स्वतंत्र अलकार के नाम का उल्लेख नहीं किया अपितु अतिशय वर्ग के 12 अलकारों का उल्लेख किया है । 2
आचार्य मम्मट कृत परिभाषा पूर्ववर्ती आचार्यों की अपेक्षा किचित् नवीन है । इनके अनुसार जहाँ उपमान द्वारा उपमेय का निगरण कर लिया जाए या प्रस्तुत पदार्थ का अन्य रूप मे वर्णन किया जाए अथवा यदि शब्द के अर्थ की उक्ति के द्वारा असभावितार्थ की कल्पना की जाए अथवा कार्य व कारण के पौर्वापर्य का विपर्य हो तो वहाँ अतिशयोक्ति अलकार होता है । 3
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ कवि की प्रौढ वाणी से उपमान के द्वारा उपमेय का निगरण कर लिया जाए वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है । कारिका मे प्रयुक्त 'विषयस्यतिरोधानात्' पद का आशय यह है कि जहाँ विषय अर्थात् उपमेय तिरोहित हो जाए, अर्थात् उपमान के द्वारा उसका निगरण कर लिया जाए वहाँ अतिशयोक्ति नामक अलकार होता है इन्होंने इसके चार भेदों का उल्लेख किया है
0 10
(2)
030
(40
आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा मम्मट से भिन्न है इन्होंने कारणकार्य के पौर्वापर्य विपर्य मे तथा यद्यर्थ के कथन मे होने वाली अतिशयोक्ति का कथन नहीं किया 14
।
2
भेद मे अभेद रूप अतिशयोक्ति
अभेद मे भेद रूप अतिशयोक्ति
असम्बन्ध मे सम्बन्ध रूप अतिशयोक्ति तथा
सम्बन्ध मे असम्बन्ध रूप अतिशयोक्ति
3
4
काव्या० सा०स०, 2 / 111
रू0 काव्या0, 9/12
का0प्र0, 10/100, 101 कविप्रौढगिरा यत्र विषयी सुविरच्यते । विषयस्य तिरोधानात् सा स्यादतिशयोक्तिता ।। भेदेऽभेदस्त्वभेदे तु भेद सम्बन्ध के पुन । असबन्धस्त्वसबन्धे संबन्धस्सा चतुर्विधा ।।
अ०चि०, 4 / 155-52
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आचार्य रूय्यक तथा विद्यानाथ कृत परिभाषा तथा भेद अजितसेन के समान है ।। किन्तु दोनों ही आचार्यो ने मम्मट द्वारा निरूपित कार्यकारण के पौर्वापर्य
स्वीकृत भेद को भी स्वीकार किया है जिसके विषय मे अजितसेन
विपर्य रूप मम्मट मौन है 12
सहोक्ति
आचार्य भामह के अनुसार जहाँ दो वस्तुओं से सम्बद्ध दो क्रियाओं का एक ही पद से कथन हो वहाँ सहोक्ति अलकार होता है । इसमे सहार्थ वाचक शब्दों का प्रयोग होना आवश्यक है 13
आचार्य दण्डी गुण तथा कर्म क्रिया) के सहभाव अलकार को स्वीकार किया है। 1 उद्भट कृत परिभाषा भामह वामन कृत परिभाषा पर भी भामह का स्पष्ट प्रभाव है 16
अग्निपुराण के अनुसार जहाँ तुल्यधर्मियों के सहभाव का कथन हो वहाँ सहोक्ति अलकार होता है । इन्होंने दण्डी द्वारा निरूपित 'गुण कर्मणाम्' के स्थान पर 'तुल्यधर्मिणाम्' पद का उल्लेख किया है । 7
आचार्य रुद्रट ने वास्तव तथा औपम्य दोनों ही वर्गों में इसका निरूपण किया है । वास्तव गत सहोक्ति मे दो पदार्थों के एक साथ कथन मे सहोक्ति अलकार को स्वीकार किया है ।8 और औपम्य वर्ग मे केवल सादृश्य पक्ष पर विचार किया गया है ।
1
2
3 4 5 6 7 ∞0
8
(क) अ०स०, सूत्र (ख) प्रताप०, पृ०
(क) कार्यकारणपौर्वापर्यविध्वसश्च ।
(ख) कार्यकारणयो पौर्वापर्यविपर्ययरूपातिशयोक्तिर्यथा ।
-
23 एव वृत्ति
477
-
कथन मे सहोक्ति अनुकृत है 15
काव्यालकार
3/39 सहोक्ति सहभावेन कथन गुणकर्मणाम् ।
काव्या० सा० स०, 5 / 15
वस्तुद्वयक्रिययोस्तुल्यकालयोरेकपदाभिधानं सहोक्ति । सहोक्ति सहभावेनकथन तुल्यधर्मिणाम् ।।
रु काव्या०, 7/13
अ०स० सू० 23, की वृत्ति
प्रताप0, पृ0 481
काव्यादर्श - 2 / 351
काव्य०सू०, 4/3/28 अ०पु०, 8 / 23 पृ0 - 345
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आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ सह साथ, अर्थ को अभिव्यक्त करने वाले पदों के द्वारा एक साथ दो पदार्थों का कथन हो वहाँ सहोक्ति अलकार होता
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ अतिशयोक्ति के बल से सह अर्थ वाले शब्दों के माध्यम से उपमान उपमेय भाव की कल्पना की जाए वहाँ सहोक्ति अलंकार होता है । इसमें एक का प्रधान के साथ तथा अन्य का सहार्थक शब्द के साथ अन्वय होता है । सहोक्ति अलकार के मूलत दो भेद हैं - कार्यकारण के पौर्वापर्य विपर्यरूपा अतिशयोक्ति मूलक 20 अभेदाध्यवसाय अतिशयोक्ति मूलक ।2
अभेदाध्यवसाय मूलक अतिशयोक्ति को श्लेषमूलक तथा अश्लेषमूलक दो भागों में विभाजित किया जा सकता है ।
आचार्य विद्यानाथ, विश्वनाथ तथा पण्डितराज जगन्नाथ भी अजितसेन द्वारा निरूपित अभेदाध्यवसाय मूलक अतिशयोक्ति को स्वीकार करते है ।
विनोक्ति -
आचार्य भामह, दण्डी, वामन, उद्भट तथा रुद्रट ने इसका उल्लेख नहीं किया इसका सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य मम्मट ने किया तत्पश्चात् अजितसेन, रुय्यक, विद्यानाथ, विश्वनाथ तथा पण्डितराज जगन्नाथ ने भी किया है ।
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सा सहोक्ति सहार्थस्य बलादेकं द्विवाचिकम् ।। का0प्र0, 10/112 यत्रान्वय सहार्थेन प्रोच्यतेऽतिशयोक्तित । ओपम्यकल्पनायोग्या सहोक्तिरिति कथ्यते ।। कार्यकारणपौर्वापर्यवपर्ययरूपातिशयोक्तिमूला अभेदरूपातिशयोक्तिश्लेषगर्भा चारूत्वातिशयहेतुरिति सा द्विधा ।
अ०चि0, 4/160 एवं वृत्ति का प्रताप0, पृ0 - 483, ख सा0द0, 10/72, ग र0ग0, पृ0-595 का विनोक्ति सा विनाऽन्येन यत्रान्य सन्न नेतर ।। का0प्र0, 10/113 ख अचि0, 4/163 कञ्चिदन्यस्य सदसत्वाभावो विनोक्ति ।
अ0स0, पृ०-105 of प्रताप0, पृ0 - 484 ड) सा0द0, 10/55 चा विनार्थ संबन्ध एवं विनोक्ति ।
र0ग0, पृ0 - 490
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उक्त 'विना' पद के द्वारा
आचार्यों के मत मे विनोक्ति अलकार वहाँ होता है जहाँ किसी की चारूता या अचारूता का प्रतिपादन किया जाता है । 'बिना' शब्द के वाचक समस्त शब्दों के योग में यह अलकार सभव है ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ किसी वस्तु के असन्निधान से कोई वस्तु सुन्दर या असुन्दर प्रतीत हो वहाँ विनोक्ति अलकार होता है । इन्होंने शोभन विनोक्ति, तथा अशोभन विनोक्ति रूप से इसके दो भेद किए हैं 12 विनोक्ति के सम्बन्ध में प्राय सभी आचार्यों की परिभाषाएँ समान है ।
समासोक्ति
समासोक्ति का अर्थ है सक्षेप मे कथन अर्थात् जहाँ सक्षेप मे दो अर्थों का कथन किया जाए वहाँ समासोक्ति अलकार होता है 1 आचार्य भामह, दण्डी, उद्भट, वामन तथा भोज सक्षिप्त कथन में समासोक्ति को स्वीकार करते है । 3
आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ श्लिष्ट विशेषणों के द्वारा प्रकृ का कथन हो वहाँ समासोक्ति अलकार होता है । 4 आचार्य रुय्यक के अनुसार जहाँ विशेषणों का साम्य होने पर अप्रस्तुतार्थ की प्रतीति गम्य हो वहाँ समासोक्ति अलंकार होता है ।5 आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ विशेषणों का साम्य होने के कारण प्रस्तुत अर्थ का वर्णन किया जाए और अप्रस्तुत अर्थ की प्रतीति हो वहाँ समासोक्ति अलकार होता है 16 इन्होंने श्लिष्ट विशेषणों के साम्य में तथा साधारण विशेषण के
2
3
456
इय च न केवल विनाशब्दस्य सत्व एव भवत्यपि तु विनाशब्दार्थ वाचकमन्त्रस्य । तेन नञ् निर् वि अन्तरेण ऋते रहित विकलेत्यादि प्रयोगे इयमेव । ०ग०, पृ0 -577, उद्धृत चन्द्रालोक सुधा, हिन्दी टीका ।
असन्निधानतो यत्र कस्यचिद् वस्तुनोऽपरम् । वस्तु रम्यमख्य वा सा विनोक्तिरिति द्विधा ।।
(क) काव्या0, 2/79, (ख) का0दं०, 2/250, Ñग) 2/10, (६) काव्या० सू०, 4, 4, 3, (ड) स०क०भ०, 4/46 परोक्तिर्भेदकै श्लिष्टै समासोक्ति । का0प्र0, 10/97 विशेषणानां साम्यादप्रस्तुतस्य गम्यत्वेसमासोक्ति । प्रस्तुत वर्ण्यते यत्र विशेषणसुसाम्यत । अप्रस्तुत प्रतीयेत सा समासोक्तिरिष्यते ।
श्लिष्टविशेषणसाम्या साधारण विशेषणसाम्या चेति द्विधा ।
अ०चि०, 4/163 काव्या० सा०स०,
अ०स०, सू0 31
अ०चि०, 4 / 66 एवं वृत्ति
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साम्य मे होने वाली दो प्रकार की समासोक्ति का उल्लेख किया है ।।
इनके पूर्ववर्ती आचार्यों ने साधारण विशेषण साम्या समासोक्ति का उल्लेख नहीं किया तथापि विशेषण साम्य मे तथा श्लिष्ट विशेषण मे समासोक्ति की चर्चा की गयी है । साधारण शब्द के प्रयोग से यह स्पष्ट होता है कि समासोक्ति मे इस प्रकार का विशेषण रखना चाहिए जो प्रकृत तथा अप्रकृत दोनों प्रकार की प्रतीति कराने में समर्था हो । सभवत इसीलिए आचार्य अजितसेन ने विशेषण साम्य के स्थान पर साधारण विशेषण साम्य पद का उल्लेख किया है ।
वक्रोक्तिः
संस्कृत साहित्य मे वक्रोक्ति पद का उल्लेख दो अर्थों में होता है। एक अर्थ तो केवल अलकार मात्र का सूचक है और दूसरा अलकार विशेष का। आचार्य भामह के अनुसार अतिशयोक्ति ही समग्र वक्रोक्ति अलकार प्रपञ्च है इससे अर्थ मे रमणीयता आती है । वक्रोक्ति अलकार के अभाव मे इन्हे अलकारत्व अभीष्ट ही नहीं है, सभवत इसीलिए इन्होंने सूक्ष्म, हेतु व लेश को अलकार नहीं माना है ।
आचार्य दण्डी के अनुसार श्लेष प्राय सभी वक्रोक्तियों का शोभाधायक है । इनके अनुसार सम्पूर्ण वाड्मय स्वाभावोक्ति एव वक्रोक्ति के रूप मे विभक्त है ।2 आचार्य वामन ने इसे अलकार के रूप मे स्वीकार करते हुए सादृश्य लक्षणा को ही वक्रोक्ति बताया है । किन्तु इसे गौणी लक्षणा के रूप मे स्वीकार करना ही उचित प्रतीत होता है ।
__ आचार्य रूद्रट के अनुसार जब वक्ता द्वारा विशेष अभिप्राय से कथित बात का उत्तरदाता पद भगी के द्वारा जान बूझकर अन्य उत्तर दे तो वहाँ वक्रोक्ति अलकार होता है । जहाँ पदभगी के द्वारा अन्यार्थ की प्रतीति हो वहाँ श्लेष वक्रोक्ति तथा स्वर विशेष के द्वारा अन्यार्थ की प्रतीति होने पर काकु वक्रोक्ति
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2
.
भा०, काव्यालकार, 2/84, 85-86 श्लेष सर्वासु पुष्णाति प्राय वक्रोक्तिषु श्रियम् । भिन्न द्विधा स्वभावोक्तिर्वक्रोक्तिश्चेतिवाडमयम् ।। का0द0, 2/363 सादृश्यलक्षणा वक्रोक्ति ।
काव्यालंकार सूत्र वृत्ति, 4/3/8
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:: 159 ::
होती है ।' आचार्य मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, जयदेव व अप्पय दीक्षित कृत वक्रोक्ति की परिभाषा रुद्रट से प्रभावित है 12 आचार्य अजितसेन केवल काकु वक्रोक्ति को ही स्वीकार करते है इन्होंने श्लेष वक्रोक्ति की चर्चा नहीं की । इससे विदित होता है कि श्लेष वक्रोक्ति को इन्होंने श्लेष अलकार मे ही अन्तभवित कर लिया है । अन्यथा मम्मट आदि की भाँति इन्हे श्लेष तथा काकु दोनों ही स्थलों पर वक्रोक्ति स्वीकार करना चाहिए था किन्तु इन्होंने केवल यह बताया कि जहाँ अन्य के द्वारा कथित वाक्य का काकु के द्वारा अन्य प्रकार से योजना की जाए वहाँ वक्रोक्ति नामक अलकार होता है ।
स्वाभावोक्ति -
सस्कृत साहित्य मे जाति तथा स्वाभावोक्ति दो नामों से इस अलकार का निरूपण किया गया है ।
आचार्य दण्डी ने इसे जाति तथा स्वभावोक्ति दोनों ही नामों से अभिहित किया है तथा भोज ने केवल जाति का ही उल्लेख किया है । डॉ0 वी0 राघवन ने जाति के दो अर्थों की कल्पना की है - "जाति शब्द को जन् धातु से व्युत्पन्न मानकर उन्होंने इसका अर्थ किसी पदार्थ के वास्तविक रूप का वर्णन किया है। जाति से इनका अभिप्राय किसी पदार्थ के सहजात रूप वर्णन से है । इन्होंने दूसरे अर्था मे वर्ग के आधार पर किसी वस्तु की जातिगत विशेषताओं के वर्णन को जाति कहा है । कालान्तर मे दोनों ही अर्थ अलकार रूप मे गृहीत हुए ।"5
--
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रू0 काव्या0, 2/14, 16
वक्त्रातदन्यथोक्तं व्याचष्टे चान्यथा तदुत्तरद । वचन यत्पदभंया सा श्लेष वक्रोक्ति ।। विस्पष्ट कियमापादक्लिष्टा स्वर विशेषोभवति । अर्थान्तरप्रतीतिर्यत्रासौ काकुवक्रोक्ति ।।
का का0प्र0, 9/78 खि अ0स0, सू0 78
सा0द0, 10/9 of चन्द्रा0, 5/1।। ड) कुव0, 159 अन्यथोदितवाक्यस्य काक्वा वाच्यावलम्बनात् । अन्यथा योजन यत्सा वक्रोक्तिरिति कथ्यते ।। क) काव्यार्था - 2/8 ख स0क0म0 - 3/4-8 अलकारों का ऐतिहासिक विकास ।
· अ०चि0, 4/171
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आचार्य दण्डी के यथावत स्वरूप का प्रतिपादन
है ।
आचार्य उद्भट के अनुसार पशुओं तथा बच्चों की चेष्टाओं के यथावत् वर्णन मे स्वभावोक्ति अलकार होता है । इनके अनुसार क्रिया मे प्रवृत्त मृग एव बालकों की स्वाभाविक चेष्टाओं का निबन्धन ही स्वभावोक्ति अलकार है । '
आचार्य मम्मट कृत परिभाषा उद्भट से प्रभावित है 12
आचार्य अजितसेन के अनुसार स्वाभाविक वर्णन से परिलसित पदावली ही स्वभावोक्ति अलकार है । इसी स्वभावोक्ति को जाति नाम से भी अभिहित किया गया है । जाति, क्रिया, गुण तथा द्रव्य से इसके अनेक भेद संभव है । किन्तु इन्होंने इसके प्रत्येक भेदों को उदाहृत नहीं किया है । 3
1
इनके पूर्ववर्ती आचार्यों ने जाति द्रव्य गुण तथा क्रियादि का उल्लेख नहीं किया था, किन्तु अजितसेन ने इसका स्थल निर्देश करके इसके वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट कर दिया है । क्योंकि आचार्य पतञ्जलि ने 'चतुष्टयी शब्दाना प्रवृत्ति महाभाष्य प्रथम आह्निक ) का उल्लेख करके उक्त जात्यादि चार स्थलों पर शब्दों की प्रवृत्ति को स्वीकार किया है । इससे विदित होता है कि यह स्वाभाविक वर्णन जाति, गुण, क्रिया सभी का हो सकता है संभवत इसीलिए महाकवि बाणभट्ट ने अग्राम्यत्व जाति की प्रशंसा की है । 5
2
3
4
:: 160 ::
5
अनुसार जहाँ नाना अवस्थाओं मे स्थित पदार्थों के किया जाए वहाँ स्वभावोक्ति नामक अलकार होता
1
काव्या०स० स०, 3/5
स्वभावोक्तिस्तु डिम्भादे स्वक्रियारूप वर्णनम् ।
।
स्वभावामात्रार्थपदप्रक्लृपित साया स्वभावोक्तिरिय हि जाति जातिक्रियाद्रव्यगुणप्रभेदा नीचागनात्रस्तसुंताधिरम्या ।।
(क) रू०, काव्या0, 6/10, 30, 31 (ख) अग्निपुराण का काव्यशास्त्रीय भाग, पृ० (ग) अ०स०, सूत्र 79, पृ0 - 664
नवोऽर्थो जातिग्राम्या श्लेषोक्लिष्टस्फुटोरस । विकटाक्षरबन्धश्च कृत्स्नमेकत्र दुर्लभम् ।
- 70
का0प्र0, 10/।।।
अ०चि० 4 / 172
हर्षचरित अ0-8
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:: 161 ::
परवी आचार्यों की परिभाषाएँ प्राय मम्मट के समान है ।'
व्याजोक्तिः
भामह दण्डी तथा उद्भट ने इसका उल्लेख नहीं किया । इसका उल्लेख सर्वप्रथम वामन ने किया । इनके अनुसार छल की सदृशता जहाँ छल से दिखाई जाए वहाँ व्याजोक्ति अलकार होता है ।2 कुछ आचार्य इसे मायोक्ति भी कहते है परन्तु किन आचार्यों के प्रति मायोक्ति का उल्लेख वामन ने किया है यह नहीं कहा जा सकता । आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ प्रकट हुई वस्तु का छल गोपन कर दिया जाए वहाँ व्याजोक्ति नामक अलकार होता है । व्याजोक्ति अलकार मे साधर्म्य का कोई प्रयोग नहीं होता । गोपनीय तथा स्थापनीय पदार्थों मे न कोई उपमेय होता है न उपमाना । परवी आचार्यों मे रुय्यक, विद्याधर, विद्यानाथ तथा विश्वनाथ ने मम्मट के अनुसार लक्षण किया है ।
___ आचार्य अजितसेन के अनुसार प्रकट हो जाने वाली कोई बात जहाँ सादृश्य होने से किसी कारणवश छिपा दी जाए वहाँ व्याजोक्ति अलकार होता है। इनके लक्षण मे निम्नलिखित तत्वों का आधान हुआ है ।
020
इसमे दो सदृशवस्तु का होना आवश्यक है । प्रकट हुई वस्तु को सादृश्य के कारण छिपा देना ही इस अलकार का जीवन है ।
जयदेव, अप्यय दीक्षित आदि आचार्यों ने प्रकट हुई वस्तु को को छल से छिपा देने मे व्याजोक्ति अलकार को स्वीकार किया है । इसमें ब्याज के कारण वस्तु गोपन की चर्चा प्राय सभी आचार्यों ने की है ।
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का चन्द्रा0 5/112
) कु0, 160 ख प्रताप0, पृ0 - 494. ग सा0द0, 10/92 व्याजस्य सत्यसारूप्य व्याजोक्ति । व्याजस्य छद्मना सत्येन सारूप्य व्याजोक्ति. । 'या मयोक्तिरित्याहु ।
काव्या०सू0, 4,3, 25 का0प्र0, 10/118 क) अ0स0, सू0 - 77 ख एकावली, 8/67 गः प्रताप0पृ0 495
सा0द0, 10/91 यत्र प्रकाशितं वस्त साम्यगर्भवत पन ।
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:: 162 ::
मीलन -
आचार्य भामह, दण्डी, उद्भट और वामन ने इसका उल्लेख नहीं किया है रुद्रट ने सर्वप्रथम इसकी उद्भावना की जिसका अनुसरण मम्मट, अजितसेन, रुय्यक, विद्यानाथ, विश्वनाथ तथा जगन्नाथ आदि ने किया है । आचार्य रुद्रट के अनुसार जहाँ हर्ष, कोप, भयादि चिन्हों को तत्तुल्य हर्षादि के द्वारा तिरस्कृत कर दिया जाए तो वहाँ मीलित अलकार होता है । इस अलंकार का विकास आचार्य दण्डी द्वारा निरूपित अतिशयोक्ति के निम्नलिखित उदाहरण के आधार पर हुआ है -
मल्लिकामालभारिव्य सर्वांगीणार्द्रचन्दना । क्षौमवत्यो न लक्ष्यन्ते ज्योत्स्नायामभिसारिका ।।
का0द0 2/2150 काव्य प्रकाश कारादि नवीन आचार्यों ने ऐसे स्थल मे एक स्वतत्र मलित नामक अलकार स्वीकार किया है ।
आचार्य रुद्रट का मीलित अलकार परवर्ती आचार्यों की परिभाषाओं के समान नहीं है ।
परवर्ती आचार्यों द्वारा स्वीकृत मलित अलकार रुद्रट के पिहित अलकार के निकट है । जहाँ यह बताया गया है कि प्रबल गुण वाली वस्तु से समान न्यून गुण वाली वस्तु छिप जाती है । वहाँ पिहित अलकार होता है ।2 भोज का मीलित निरूपप रुद्रट से प्रभावित है । आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ कोई स्वाभाविक या आगन्तुक वस्तु अपने चिन्हों के द्वारा प्रबल पदार्थ को तिरोहित कर ले वहाँ मीलित अलंकार होता है । आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा मम्मट के समान है इन्होंने मम्मट की ही भाँति सहज और आगन्तुक रूप से दो भेदों का उल्लेख भी किया है इनके अनुसार - सहज वस्तु से आगन्तुक वस्तु का तिरोधान -होने
तन्मलितमित यस्मिन्समानचिह्नन हर्ष कोपादि ।
अपरेपतिरस्क्रियते नित्यनागन्तुकेनापि ।। रु काव्या0, 9/50
रू0 काव्या0, 7/106
स0क0म0, 3/41
का0प्र0, 10/130
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:: 163 ::
पर प्रथम प्रकार का मलित होता है और आगन्तुक वस्तु से सहज का मीलन होने पर द्वितीय प्रकार का मीलित होता है ।'
आचार्य रुय्यक एक वस्तु से दूसरी वस्तु के निगूहन मे मीलित अलकार को स्वीकार किया है 12
आचार्य जयदेव सादृश्य के कारण भेद के न लक्षित होने पर मीलित अलकार स्वीकार किया है ।
विद्याधर तथा विद्यानाथ की परिभाषा अजितसेन के समान है ।4
सामान्य.
आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ गुणगत साम्य प्रदर्शित करने की इच्छा से प्रस्तुत पदार्थ का अप्रस्तुत पदार्थ के साथ एकात्म सम्बन्ध प्रतिपादित किया जाए अर्थात् प्रस्तुत और अप्रस्तुत दोनों एक रूप होकर समान रूप से प्रतीत हों वहाँ सामान्य नामक अलकार होता है ।
परवर्ती आचार्य रूय्यक जयदेव विद्याधर विद्यानाथ विश्वनाथ अप्यय दीक्षित आदि की परिभाषाएँ मम्मट के समान है । आचार्य अजितसेन की परिभाषा सक्षिप्त होते हुए भी मम्मट द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त को निरूपित करने में समर्थ है क्योंकि इन्होंने 'वस्त्वन्तरेकरूपत्व सामान्यालकृति' का उल्लेख किया है जिससे स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ दो पदार्थों में एक रूपता का प्रतिपादन किया जाए वहाँ सामान्य अलकार होता है । इसमे अव्यक्त गुण वाले प्रस्तुत और अप्रस्तुत मे गुणसादृश्य के कारण एकरूपता का वर्णन किया जाता है ।
अ०चि0, 4/177 वस्तुना वस्त्वन्तरनिगृहन मलितम् ।।,
अ0स0, सू0 71 चन्द्रा0 5/33 का एकावली 8/63 ख) प्रताप०, पृ0 - 496 प्रस्तुतस्य यदन्येन गुपसाम्यविवक्षया । एकात्म्यं बध्यते योगात्तत्सामान्यमितिस्मृतम् ।।
का0प्र0, 10/134 एक प्रस्तुतस्यान्येन गुणसाम्यादैकात्म्य सामान्यम् ।
অOষ00 72 ख/ चन्द्रा0, 5/34, ग एका0, 8/64, घ! प्रताप०, पृ0 - 498, एंड सा0द0, 10/89, 1च कुव0, 147 वस्त्वन्तरेकरूपत्व सामान्याल कृतियथा ।
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:: 164 ::
तद्गुण -
आचार्य रुद्रट के अनुसार जहाँ नाना गुण वाले पदार्थों में भेद लक्षित न हो वहाँ तद्गुण अलकार होता है । रुद्रट के इस तद्गुण को मम्मट के सामान्य से भिन्न नही कहा जा सकता । इसके अतिरिक्त रुद्रट ने एक अन्य तद्गुण का भी उल्लेख किया है जहाँ यह बताया है कि असमान गुण वाली वस्तु जब अधिक गुणवाली वस्तु के सानिध्य में रहकर उसके गुण को धारण कर ले तो वहाँ तद्गुण अलकार होता है ।2
आचार्य मम्मट ने रुद्रट कृत परिभाषा को किचित् अन्तर से स्वीकार किया । इनके अनुसार जहाँ कोई वस्तु अत्युज्ज्वल गुण वाली वस्तु के समीप रहकर अपने गुप को त्याग कर उत्कृष्ट गुप वाली वस्तु के गुप को ग्रहण कर ले, तो वहाँ तद्गुण अलकार होता है ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार अतिशय साम्य होने से जहाँ कोई वस्तु उत्कृष्ट गुण वाली वस्तु के गुण को ग्रहण कर ले वहाँ तद्गुण अलकार होता
परवर्ती आचार्यों की परिभाषाएँ अजित के समान हैं ।
अचि0, 4/182
50 काव्या0, 9/22 रु० काव्या0, 6/24 का0प्र0, 10/137 विहायस्वगुण न्यून संनिधिस्थितवस्तुन । यत्रोत्कृष्टगुपादान तद्गुपालकृतियथा । (क) एकावली, 8/65
ख) प्रताप0, पृ0 - 498 ग सा0द0, 10/90 (कुव0, 141 (ड) र0म0, पृ0 - 692
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अतद्गुणः
आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ अत्यन्त उत्कृष्ट गुणवाली वस्तु के सानिध्य मे रहने पर भी न्यूनगुण वाली वस्तु उत्कृष्ट गुण वाली वस्तु के गुण को ग्रहप न करे वहाँ अतदगुण अलकार होता है ।'
आचार्य अजितसेन के अनुसार गुप ग्रहण हेतु के विद्यमान रहने पर भी जहाँ कोई वस्तु या पदार्थ उत्कृष्ट गुण वाली वस्तु या पदार्थ के गुण को ग्रहण न करे वहाँ अतद्गुण अलकार होता है ।2 आचार्य अजितसेन अतद्गुण में विरोध के सहभाव को भी स्वीकार करते हैं ।
___ आचार्य रुय्यक, जयदेव, विद्यानाथ, विश्वनाथ तथा अप्यय दीक्षित आदि की परिभाषाएँ प्राय समान हैं ।
120
विरोधमूलक अलंकार.
विरोध -
इस अलकार का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य भामह ने किया है । भामह के अनुसार गुण अथवा क्रिया के के विरुद्ध अन्य क्रिया के वर्णन को विरोध अलकार कहते हैं 15
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का0प्र0, 10/138
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अ०चि0, 4/184
वही, वृत्ति अ0स0, वि0, पृ0-214
-
तद्रूपाननुहारश्चेदस्य तत् स्यादतगुप । यत्र सन्निधिरूपे तुहेतो सत्यपि वस्तुन । नेतरस्य गुपादान सोऽलकारो यतद्गुप ।। विरोधस्यातद्गुणेन किञ्चिद्प्रारब्धत्वाद्विरोध उच्चयते ।
का सतिहेतो तद्रूपाननुहारोऽतद्नुपः । ख एकावली, 8/65 ग प्रताप०, पृ0 - 172 घा सा0द0, 10/90 ड) कुव0, 144 गुणस्य वा क्रियाया वा विरुद्धान्यक्रियाभिधा । या विशेषाभिधानाय विरोधं तं विदुर्बुधा. ।।
भा०-काव्या0, 3/25
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:: 166 ::
आचार्य उद्भट की परिभाषा भामह अनुकृत है ।' दण्डी के अनुसार जहाँ विशेष दर्शन के लिए विरुद्ध पदार्थों के ससर्ग का दर्शन हो वहाँ विरोधाभास अलकार होता है ।2 रुद्रट की परिभाषा आचार्य दण्डी से ही प्रभावित है । आचार्य वामन ने विरुद्धाभास को विरोध अलकार के रूप में स्वीकार किया है । इससे विदित होता है कि इस अलकार मे वास्तविक विरोध न होकर केवल विरोध का आभास मात्र रहता है ।
__ आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ दो पदार्थों में विरोध होते हुए भी उसमे वास्तविक विरोध न हो, विरोध का आभास मात्र हो वहाँ विरोध नामक अलकार होता है । वास्तविक विरोध के अभाव में ही विरोधाभास अलकार होता है । यह विरोध जाति, मुण, क्रिया एव द्रव्य के साथ होता है । इसके निम्नलिखित भेद सभव है -
124 036
जाति का जाति, गुण, क्रिया एव द्रव्य से विरोध गुण का गुण क्रिया एव द्रव्य के साथ क्रिया का क्रिया एव द्रव्य के साथ द्रव्य का द्रव्य के साथ
आचार्य रुय्यक का कथन है यदि विरोध का समाधान न हो सके तो वहाँ 'प्ररूढ' दोष होता है । दोष के समाधान होने पर ही विरोधालंकार सभव है ।
or - wN -
काव्या० सा0स0, 5/6 काव्यादर्श, 2/333 रुद्रट - काव्या0, 9/30 काव्या0 सू०, 4/3/12 का0प्र0, 10/110 अ0स0, पृ0 - 154
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आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा पूर्ववर्ती आचार्यों की अपेक्षा सरल तथा स्पष्ट है । विरोध के सम्बन्ध मे इनका कथन है कि आरम्भ में जहाँ विरोध का आभास प्रतीत हो और तत्पश्चात् उसका परिहार सभव हो सके वहाँ विरोधाभास अलकार होता है । इन्होंने भी मम्मट की भाँति दस भेदों का उल्लेख किया
परवर्ती आचार्यों की परिभाषाएँ प्राय अजितसेन के समान है ।
विशेषक -
आचार्य रुद्रट के अनुसार जहाँ बिना आधार के आधेय की स्थिति का प्रतिपादन किया जाए अथवा एक ही वस्तु की एक साथ, एक ही रूप मे अनेक स्थानों मे स्थिति बताई जाए या एक कार्य करते हुए उसी प्रयत्न से अशक्य कार्य की सिद्धि हो जाए तो वहाँ विशेषक अलकार होता है ।
परवर्तीकाल में आचार्य मम्मट, अजितसेन, रुय्यक, शोभाकरमित्र, विद्यानाथ, विश्वनाथ, अप्यय दीक्षित एवं पण्डितराज जगन्नाथ ने रुद्रट द्वारा निरूपित उक्त त्रिविध भेदों को सादर स्वीकार किया है । शाब्दिक अन्तर के साथ उक्त लक्षण को स्वीकार कर लिया 14
अधिक -
इस अलंकार की उद्भावना का श्रेय आचार्य रुद्रट को है । इनके अनुसार जहाँ एक ही कारण से परस्पर स्वभाव वाले दो पदार्थों के उत्पन्न होने मे अथवा एक ही कारण से परस्पर विरुद्ध परिणाम वाली क्रियाओं के उत्पन्न
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अचि0 4/186-187
का आभासत्वेविरोधस्य विरोधालकृतिर्मता । प्रताप0, पृ0-500 ख चन्द्रालोक - 5/74
मा कुवलयानन्द - 76 (घ) र0म0, पृ0 - 571 रु0 काव्या0, 9/5, 7, 9 का का0प्र0, 10/135-136 ख) अचि0, पृ0 - 176, चतुर्थ पर० ।
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होने पर अधिक अलकार होता है । इसके अतिरिक्त इन्होंने एक अन्य 'अधिक' अलकार को स्वीकार किया है । रुद्रट ने विशाल आधार मे भी, किसी कारण से, छोटी वस्तु के समाविष्ट होने का उल्लेख किया है । यहाँ बड़े आधार से भी छोटे आधेय का अधिक महत्त्व प्रदर्शित किया गया है तथा छोटे आधेय की महत्ता प्रदर्शित करने मे कतिपय कारणों का भी निर्देश है । परवर्ती आचार्यों ने आधाराधेय
न्यूनाधिकता के वर्णन मे हेतु का निर्देश नहीं किया है ।
परवती आचार्यों ने भी रुद्रट के द्वितीय अधिक के आधार पर अधिक अलकार का निरूपण किया है 12
आचार्य मम्मट आधार एवं आधेय मे से एक दूसरे के छोटे होने पर भी उसमे क्रमश बडा सिद्ध करने में अधिक अलकार को स्वीकार किया है 13
रुय्यक एव पण्डितराज ने भी इस मत को स्वीकार किया है। 4
आचार्य अजितसेन के अनुसार यदि आधार और आधेय की विचित्रता के कारण आधार तथा आधेय मे अनुरूपता न होतोवहाँ अधिक अलकार होता है । आधार के अल्प तथा बहुत्व के कारण इसके दो भेद हो जाते है 15 इस अलकार मे जिस प्रकार आधेय की अधिकता का वर्णन किया जाता है उसी प्रकार आधार का भी आधिक्य वर्णित होता है । वर्ण्य की महनीयता पर सर्वदा बल दिया जाता है और कभी-कभी उसे आधार रूप मे भी वर्णित किया जाता है । वैसे वह प्राय आश्रित के रूप मे ही रहता है । एक के आधिक्य का वर्णन दूसरे की अधिकता की भी अभिव्यक्ति करता है ।
आचार्य विद्यानाथ की परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है 16
1
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७
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रू०, काव्या0, 9/26
वही, 9/28
(क) अधिक बोध्यमाधारादाधेयाधिकवर्णनम् ।।
(ख) अधिक पृथुलाधारादाधेयाधिक्यवर्णनम् ।।
का0प्र0, 10/128
(क) अ०स०, पृ0 - 169
(ख) र०ग०, पृ० - 610
अ०चि०, 4 / 201 एव वृत्ति ।
प्रताप0, पृ0 508
-
चन्द्रा0, 5/83 कुव0, 95
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विभावना:
यह प्राचीनतम अलकार है । भामह से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ तक प्राय सभी आचार्यों ने इसका निरूपण किया है । इसमें कारण के अभाव मे कार्य की उत्पत्ति का वर्णन किया जाता है । सस्कृत काव्यशास्त्र मे कारण के लिए क्रिया' तथा 'हेतु' का और कार्य के लिए 'फल' पद का भी प्रयोग किया गया है।
आचार्य भामह, वामन, मम्मट क्रिया के प्रतिषेध अभाव मे फल का व्यक्ति को विभावना के रूप मे स्वीकार किया है ।' आचार्य रुय्यक, जयदेव, विद्यानाथ तथा विश्वनाथ ने कारण के अभाव मे कार्य की उत्पत्ति के वर्णन मे विभावना अलकार को स्वीकार किया है ।
आचार्य दण्डी प्रसिद्ध हेतु के अभाव में कार्य की उत्पत्ति को विभावना स्वीकार किया है ।
आचार्य भामह ने क्रिया के प्रतिषेध मे फलाभिव्यक्ति को विभावना के रूप मे स्वीकार किया है । किन्तु इन्होंने 'समाधी सुलभे सति' का भी उल्लेख किया है जिससे विदित होता है कि फल की उत्पत्ति तभी संभव है जब समाधान सुलभ हो । अर्थात् लोक प्रसिद्ध कारण के अतिरिक्त अन्य कारण विद्यमान है आचार्य दण्डी भी प्रसिद्ध हेतु के अभाव मे कारणान्तर की कल्पना की है । वामन की परिभाषा भामह - अनुकृत है ।
काव्या० सू०, 4/3/13
का0प्र0, 10/107
का भा०, काव्या0, 2/77 खि क्रियाप्रतिषेधे प्रसिद्धतत्फलव्यक्तिर्विभावना । ग क्रियाया प्रतिषेधेऽपि फलव्यक्तिर्विभावना ।
रणाभाव कार्यस्योत्पत्तिविभावना । ख विभावना विनापिस्यात् कारणं कार्यजन्य चेत् ।। ग कारणेन बिना कार्यस्योत्पत्ति स्याद्विभावना ।। (घ) विभावना बिना हेतु कार्यात्पत्तिर्यदुच्यते ।। का0द0, 2/199 काव्या0 सू0, 4/3/13
अ0स0, पृ0 - 157
चन्द्रा0, 5/77 प्रताप0, पृ0 - 509
सा0द0, 10/66
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आचार्य अजितसेन की परिभाषा दण्डी से प्रभावित हैं । विभावना का अर्थ है विशिष्ट भावना या कल्पना । विभावना मे कारण के अभाव का अर्थ वास्तव मे कारण का न होना नहीं किन्तु तात्पर्य कारणान्तर से कारण तो होता है परलोक प्रसिद्ध या सामान्य कारण का अभाव बताकर अप्रसिद्ध कवि कल्पित कारणान्तर का प्रतिपादन किया जाता है ।।
विशेषोक्तिः -
-
:: 170 ::
यह अलकार विभावना के विपरीत है इसमे समग्र कारणों के रहने पर भी कार्य की अनुतपत्ति का प्रतिपादन किया जाता है । आचार्य भामह के अनुसार जहाँ एक गुण की हानि होने पर उसकी पूर्ति गुणान्तर से की जाए, वहाँ विशेषोक्ति अलकार होता है 12
आचार्य दण्डी ने वर्णनीय वस्तु की अतिशयता सिद्ध करने के लिए अपेक्षित गुण, जाति, क्रिया आदि के वैकल्य या न्यूनता के कथन मे विशेषोक्ति को स्वीकार किया है । 3 आचार्य वामन ने विशेषोक्ति को रूपक से अनुप्राणित स्वीकार किया है । 4
आचार्य भोज तथा अग्निपुराणकार ने दण्डी के ही लक्षण को उद्धृत कर दिया 15 आचार्य उद्भट की परिभाषा ही परिवर्ती आचार्यों मे मान्य हुई । उद्भट ने विशेषोक्ति के सन्दर्भ मे यह बताया कि कार्योत्पत्ति के समग्र कारण के विद्यमान रहने पर भी यदि कार्य (फल) की अनुत्पत्ति का प्रतिपादन किया जाए तो वहाँ विशेषोक्ति अलकार होता है 16
आचार्य अजितसेन के अनुसार भी कार्योत्पत्ति के समग्र साधनों के रहने पर भी यदि कार्य की अनुत्पत्ति का वर्णन किया जाए तो वहाँ विशेषोक्ति अलंका
T
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प्रसिद्धकारणाभावे कार्योत्पत्तिर्विभावना । अ०चि०, 4 / 204
भा० - काव्या०, 3/23
का0द0, 2/323
काव्या० सू०, 4/3/23
(क) स०क०भ०, 4/70, 71
(ख) अ०पु०, 8 / 26, काव्यशास्त्रीय भाग पृ० काव्या०सा०स०, 5/4
- 75
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होता है । इसमे फलाभाव के कारण ही चमत्कार की सृष्टि होती है । कारण के रहने पर भी कार्य की अनुत्पत्ति का वर्णन करना तत्व है ।
इस अलकार का जीवनाधायक
विद्यानाथ, जयदेव, दीक्षित, विश्वनाथ एव पण्डितराजादि की परिभाषाएँ उद्भट से प्रभावित है 12
अगति
आचार्य रुद्रट के अनुसार जहाँ कारण तथा कार्य की स्थिति भिन्न स्थल पर समकाल मे हो वहाँ असगति अलकार होता है । 3 आचार्य मम्मट ने काल के अतिरिक्त देश (स्थान) को भी स्थान दिया है 14 जिसे परवर्ती काल मे आचार्य रूय्यक ने भी स्वीकार किया है 15 मम्मट, रुय्यक तथा शोभाकर मित्र की परिभाषा रुद्रट से प्रभावित है ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ एक स्थान मे रहने वाले कार्य कारण की पृथक् देश में स्थिति का वर्णन किया जाए वहाँ असगति अलकार होता है । इन्होंने रुद्रट की भाँति असंगति में कार्य तथा कारण के भिन्न देशत्व पर विशेष बल दिया है । आशय यह है कि असगति में कारण और कार्य भिन्न भिन्न आश्रयों में वर्णित होते हैं किन्तु लोक प्रसिद्ध सगति यही है कि जहाँ कारण रहता है कार्य भी वहीं उत्पन्न होता है । परन्तु यदि कवि लोकातिक्रान्त प्रतिभा द्वारा कारण और कार्य का स्थान भिन्न-भिन्न बताए, तो उसमे उत्पन्न काव्यवैचित्र्य ही असगति अलकार के रूप मे स्वीकार किया जाता है 16
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विशेषोक्तिस्तु सामग्रयां सत्यां कार्यस्य नोद्भव ।।
(क) प्रतापरूद्रीयम् पृ० (ख) चन्द्रा0, 5 / 78
(ग) कुव0, 83
घ) सा0द0, 10/66 (ड) २०ग०, पृ0 589-90
रुद्रट काव्या0, 6/48
का०प्र०, 10/124
अ०स०, पृ० 164
·
- 509
कार्यकारणयोरेकदेशसंवर्तिनोरपि ।
भिन्नदेशस्थितिर्यत्र तत्रासगत्यलकृति ।।
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TOP TO 4/204
अ० चि०, 4 / 206, पृ0 - 179
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परवर्ती आचार्य विद्यानाथ विश्वनाथ अप्पय दीक्षित तथा पण्डितराज की परिभाषाएँ अजितसेन से प्रभावित है ।'
विचित्र -
इस अलकार की उदभावना का श्रेय आचार्य रुय्यक को है । आश्चर्य की प्रतीति होने के कारण ही इस अलंकार को विचित्र की अभिधा प्रदान की गयी
आचार्य रुय्यक के अनुसार जहाँ इष्टफल की प्राप्ति के लिए उसके विरूद्ध प्रयत्न किया जाए वहाँ विचित्र अलकार होता है 12
2
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ अपने अनभिमत फल-प्राप्ति के लिए विस्तृत रूप से उद्योग किया जाए वहाँ विचित्र अलकार होता है । इन्होंने प्रयत्न के स्थान पर उद्योग पद का उल्लेख किया है शेष अश रुय्यक के समान है।
आचार्य शोभाकर मित्र, जयदेव, विद्याधर, विद्यानाथ, विश्वानाथ अप्पय दीक्षित तथा पण्डितराज ने इस अलकार का उल्लेख किया है । इनकी परिभाषाएँ भी अजितसेन से अभिन्न है।4
प्रताप0, पृ0-5।।
का कार्यकारणयोर्भिन्नदेशत्वे सत्यसगति । खि सा0द0, - 10/68 ग कुवलयानन्द, 85-86 घ) र0ग0, पृ0 - 590-93 अ0स0, पृ0 - 168 स्वविरुद्धफलाप्त्यर्थमुद्योगो यत्र तन्यते । विचित्रालकृति प्राहुस्तां विचित्रविदो यथा ।। एक विफल प्रयत्नोविचित्रम् । अ0र0, 62
ख चन्द्रा0, - 5/82 गि एकावली - 2/39
घा प्रताप0 - पृ0 5।। ड) सा0द0 - 10/71 च कुवलयानन्द - 94 छ र0ग0, पृ0 - 608
अ०चि0, 4/208
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:: 173 ::
अन्योन्य -
आचार्य रुद्रट के अनुसार जहाँ दो पदार्थो मे परस्पर क्रिया द्वारा एक ही कारकभाव हों और उससे किसी तत्व विशेष की अभिव्यक्ति हो, वहाँ अन्योन्य अलकार होता है ।
- आचार्य मम्मट की परिभाषा रूद्रट से प्रभावित है । इनके अनुसार जहाँ क्रिया के द्वारा दो पदार्थों की परस्पर उत्पत्ति की चर्चा की जाए वहाँ अन्योन्य अलकार होता है 12
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ परस्पर एक क्रिया द्वारा उत्पाद्यउत्पादक भाव हो वहाँ अन्योन्य अलकार होता है । उत्पाद्य-उत्पादक भाव परस्पर भूष्य - भूषक भाव की सृष्टि करता है ।3।
परवर्ती आचार्यों में विद्यानाथ एव विश्वनाथ ने अजितसेन के मत को ही स्वीकार किया है ।
विषम -
इस अलकार का निरूपण भामह, दण्डी, एव वामन ने नहीं किया। इसको उद्भावित करने का श्रेय आचार्य रुद्रट को है । इनके मत मे विषम अलकार वास्तव मूलक और अतिशय मूलक होता है । जहाँ दूसरे के अभिप्राय की स्थिति की आशका से वक्ता दो पदार्थों के सम्बन्ध को विघटित करता है, वहाँ वास्तव मे विषम का प्रथम प्रकार होता है । जहाँ दो पदार्थों का अनुचित सम्बन्ध वर्णित होता है वहाँ द्वितीय प्रकार का विषम होता है ।
कार्यकारण सम्बन्ध मे गुणगत अथवा क्रियागत विरोध होने पर अतिशयमूलक के दो भेद होते है।
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रू0,काव्या०, 7/91 का0प्र0 - 10/120 अ०चि0, 4/210 तदन्योन्य मिथो यत्रोत्पाद्योत्पादकता भवेत् । रुद्रट काव्याः - 7/47/49 वही, 9/45
प्रताप०, पृ0-512
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: 174 ::
राजानक मम्मट
ओर विश्वनाथ की भेदसरषि रूद्रट के मतवाद पर
आधृत है ।।
आचार्य अजितसेन ने विषम के तीन भेदों का उल्लेख किया है ।2
10 कारण के विरुद्ध कार्य की उत्पत्ति मे प्रथम प्रकार का विषम, 020 अनर्थ-प्राप्ति मे द्वितीय विषम स्थान पर तदविपरीत परिणाम के निरूपण मे द्वितीय प्रकार का विषम, 13 विरूप सघटना मे तृतीय विषम ।
अजितसेन ने विषम का लक्षण न देकर केवल भेदों का ही उल्लेख किया है । इसका समग्र लक्षण अननुरूप सघटना के वर्णन मे ही निहित है ।
परवर्ती काल मे आचार्य विद्यानाथ कृत परिभाषा पर अजितसेन का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है । शोभाकर मित्र ने अजितसेन द्वारा निरूपित तीन भेदों के अतिरिक्त दो अन्य भेदों का भी उल्लेख किया है जो इस प्रकार है -
अनर्थ के स्थान पर अनर्थ की प्राप्ति अनर्थ के स्थान पर अर्थ की प्राप्ति विरूप कार्य की उत्पत्ति विरूप संघटना असमानता
भेदों
मे
प्रथम, तृतीय तथा
चतुर्थ भेद
अजितसेन
से
उपयुक्त प्रभावित है।
का का0प्र0 - 10/126-27 ख सा0द0 - 10/91 हेतोविरुद्धकार्यस्य यत्रानर्थस्य चोद्भव । विरूपघटना त्रेधा विषमालकृतियथा ।। प्रताप० पृ0 - 513 अ0र0, सू0 60 तथा वृत्ति, पृ0 - 105
अचि0, 4/212
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समः
इस अलकार का निरूपण आचार्य मम्मट से आरम्भ होता है । यद्यपि इसके निरूपण का श्रेय आचार्य रुद्रट कृत 'साम्य' अलकार मे निहित है ।
जहाँ अर्थ क्रिया के द्वारा उपमान की उपमेय मे समता दिखाई जाए वहाँ सम अलकार होता है ।
आचार्य मम्मट ने यथायोग्य सम्बन्ध को सम अलकार कहा है 12
आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा भी मम्मट के निकट है । इसमे परस्पर समान रूप वाले पदार्थो का सम्बन्ध वर्णित किया जाता है ।
परवर्ती आचार्य विद्यानाथ विश्वनाथ, जयदेव आदि की परिभाषा मम्मट के ही समान है ।4
03
गम्यौपम्यमूलक अलंकार -
तुल्ययोगिताः
यह प्राचीनतम अलकार है किन्तु प्राचीन और अर्वाचीन आचार्यो की परिभाषाओं मे पर्याप्त अन्तर परिलक्षित होता है, जो परिभाषा भामह, दण्डी आदि आचार्यों ने लिखी उससे भिन्न परिभाषा मम्मट आदि अर्वाचीन आचार्यों ने की है।
आचार्य भामह के अनुसार जहाँ न्यून पदार्थ का विशिष्ट पदार्थ के साथ गुण साम्य की विवक्षा से तुल्य कार्य एव क्रिया के योग का प्रतिपादन किया
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का0प्र0, 10/125
रू0 काव्या - 8/105 समंयोग्यतया योगोयदि सम्भावित क्वचित् । यत्रान्योन्यानुरूपाणामर्थानां घटना समम् । सुभद्रा भरतेशस्य लक्ष्म्या सममभूद्वरा ।। का सा समालकृतिर्योग वस्तुनोरनुरूपयो ।। ख सम स्यादानुरूप्येण श्लाघा योगस्य वस्तुन ।। ग सममौचित्यतोऽनेक वस्तुसम्बन्धवर्णनम् ।।
अचि0, 4/215 प्रताप०, पृ0 - 515
सा0द0, 10/71 चन्द्रा०, 5/81
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जाए वहाँ तुल्योगिता नामक अलकार होता है । भामह के लक्षण से इस तथ्य का द्योतन होता है कि प्रस्तुत एव अप्रस्तुत मे एक ही कार्य का वर्णन करते समय दोनों मे समता स्थापन किया जाय ।
___ आचार्य दण्डी एव वामन, प्रस्तुत की स्तुति या निन्दा करने के लिए उन्हीं गुणों से युक्त अप्रस्तुत से तुल्य गुण योग के कारण समता करने पर तुल्योगिता स्वीकार करते हैं ।
आचार्य उद्भट के अनुसार उपमान और उपमेय की उक्ति से शून्य अप्रस्तुत पदार्थ के द्वारा जहाँ प्रस्तुत मे साम्य प्रतिपादन हो वहाँ तुल्योगिता अलकार
होता है।
मम्मट के अनुसार जहाँ समान कोटिक पदार्थों मे सामान्य धर्म के द्वारा साम्य स्थापित किया जाये वहाँ तुल्योगिता अलकार होता है । इनके अनुसार सभी वर्ण्य पदार्थ केवल प्राकरणिक होंगे अथवा केवल अप्राकरणिक और उनमे एक ही धर्म के साथ सम्बन्ध स्थापित किया जाएगा ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ केवल प्रस्तुतो मे अथवा अप्रस्तुतो मे तुल्य धर्म के कारण उपमा की प्रतीत हो वहाँ तुल्योगिता अलकार होता है। यहाँ प्रस्तुत का प्रस्तुत के साथ और अप्रस्तुत का अप्रस्तुत के ही साथ एक धर्माभिसम्बन्ध होगा । प्रस्तुत या अप्रस्तुत पदार्थ किसी एक क्रिया के कर्ता कर्म या करप रूप मे रहेंगे । इसी प्रकार उनके एक ही गुण से सम्बन्ध रहने पर भी यह अलकार होगा । इस अलकार के मूल मे औपम्य गम्य रहता है । इसके अतिरिक्त इन्होंने भामह की भाँति तुल्यकाल तथा क्रिया के योग मे भी तुल्योगिता अलकार को स्वीकार किया है ।
भा०काव्या0 - 3/27 को का0द0, 2/330 ख का०लसू0, 4/3/26 काव्या0सा0स0, 5/। नियताना सकृद्धर्म सा पुनस्तुल्ययोगिता ।। केवल प्रस्तुतान्येषामर्थाना समधर्मत । यत्रोपम्य प्रतीयत भवत्सा तुल्ययोगिता ।। उपमेयं समीकर्तुमुपमानेन युज्यते । तुल्येक काल क्रियया यत्र सा तुल्ययोगिता ।।
का0प्र0, 10/104
अचि0, 4/216
अ0चि0, 4/220
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दीपक ..
-
दीपक प्राचीनतम अलकार है 1 आचार्य भरतमुनि के अनुसार जहाँ नानाधिकरणों मे स्थित शब्दों का एक वाक्य मे सयोग होना बताया जाए वहाँ दीपक अलकार होता है ।
आचार्य भामह ने इसके आदि, मध्य ओर अन्त तीन भेदों का ही उल्लेख किया है 12
आचार्य दण्डी ने दीपक का विस्तार से वर्णन किया है । इनके अनुसार जहाँ एक वाक्य मे स्थित जाति, गुण, क्रिया एव द्रव्यवाची पद सम्पूर्ण वाक्य का उपकार करे वहाँ दीपक अलकार होता है ।
3
आचार्य उद्भट ने भामह की भाँति आदि, मध्य तथा अन्त दीपक का उल्लेख किया है इन्होंने उपमेय और उपमान का स्पष्ट उल्लेख भी किया है, इससे विदित होता है कि इन्हे प्रस्तुत और अप्रस्तुत के एक धर्माभिसम्बन्ध दीपक अलकार अभीष्ट है । 4
1
आचार्य मम्मट ने उद्भट कृत परिभाषा के आधार पर दीपक की परिभाषा प्रस्तुत की है । किन्तु उद्भट की अपेक्षा मम्मट कृत परिभाषा अधिक स्पष्ट है। मम्मट के अनुसार जहाँ अनेक प्रकृत पदार्थों और अप्रकृत पदार्थों का एक धर्माभिसम्बन्ध बताया जाए वहाँ दीपक अलकार होता है । अनेक क्रियाओं से एक कारक का सम्बन्ध होने पर कारक दीपक ओर अनेक कारकों से एक क्रिया का सम्बन्ध होने पर क्रिया दीपक अलकार होता है 15
2
3
4
5
-
नात्ताधिकरणार्थांना शब्दाना सम्प्रकीर्तितम् । एकवाक्येन सयोगात्तद्दीपकमिहोच्यते ।।
काव्या0, 2/25
का0द0, 2/97
काव्या० सा०सं०, 1/14
सकृद्वृत्तिस्तुधर्मस्यप्रकृताप्रकृतात्मनाम् । सेवक्रियासु ववीषु कारकस्येति दीपकम् ।।
का०प्र०
-
ना०शा०, 16/53
10/103 एव वृत्ति
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आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा पर भामह, दण्डी तथा मम्मट का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है इनके अनुसार प्रस्तुत और अप्रस्तुत पदार्थों मे जहाँ एक धर्माभिसम्बन्ध होने पर उपमान उपमेय की प्रतीति हो वहाँ दीपक अलकार होता है कही-कही ओपम्य के न रहने पर भी दीपक अलकार अभीष्ट है। दीपक का अर्थ है दीपयति प्रकाशयति इति दीपक
जो प्रकाशित करे 1 प्रस्तुत में निविष्ट समान धर्म, प्रसग से अप्रस्तुत को भी जहाँ
वह दीपक है
प्रकाशित करे प्रस्तुत का धर्म जहाँ अप्रस्तुत मे अन्वित हो, वहाँ दीपक अलकार होता है । अथवा दीप इवेति 'सज्ञाया कन् | समुद्रबन्ध, अलकार सर्वस्व 24 0 दीप की भाँति प्रकाशक होने से दीपक है । दीप को प्रासाद पर रख दीजिए, वह गली को भी आलोकित करेगा । इसी प्रकार प्रस्तुत मे स्थित धर्म अप्रस्तुत के धर्म का ज्ञापन करता है । 102
(40
वाक्यार्यमूलक अलंकार:
प्रतिवस्तूपमा:
(ख)
I
·
2
-
1/0 ::
-
आचार्य भामह के अनुसार जहाँ यथा वा आदि समानता के वाचक पदों का अभाव होने पर भी समान वस्तु विन्यास के कारण गुण साम्य की प्रतीति हो वहाँ प्रतिवस्पमा अलकार होता है । आचार्य भामह ने प्रतिवस्तूपमा के निम्नलिखित तत्वों पर विचार किया है
(क)
-
-
प्रतिवस्तूपमा में साधारण धर्म एक ही होता है, किन्तु उसे भिन्न-भिन्न शब्द द्वारा प्रकट किया जाता है किन्तु दृष्टान्त मे दो समान धर्म होते हैं एवं उन्हें दो शब्दों द्वारा कहा जाता है ।
सामस्त्ये प्रस्तुतान्येषा तुल्यधर्मात्प्रतीयते । औपम्यं दीपकं तत्स्यादादिमध्यान्ततस्त्रिधा ।। क्वचिदौपम्याभावेऽपि दीपक यथा ।
-
प्रतिवस्तूपमा मे वस्तु प्रतिवस्तुभाव होता है तो दृष्टान्त में बिम्ब प्रति बिम्बभाव 1 प्रतिवस्तूपमा में साधारण धर्म कथित होता है पर दृष्टान्त साधारण धर्म अपने मूल रूप में नहीं रहता ।
चन्द्रालोक, सुधा हिन्दी टीका, ले0 सिद्धसेन दिवाकर, पृ०
अ०चि०, 4 / 222 एवं वृत्ति
59
·
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________________
(T)
आचार्य दण्डी के अनुसार जहाँ किसी एक वस्तु का वर्णन कर तत्वदृश धर्म वाली अन्य वस्तु का वर्णन किया जाए वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलकार होता है। 2
आचार्य उद्भट के अनुसार जब उपमेय एव उपमान के प्रसग मे साधारण धर्म का बार-बार उपादान किया जाए तो वहाँ प्रतिवस्तुपमा अलकार होता है। 3
:: 179 ::
आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ एक ही सामान्य धर्म की दो वाक्यों मे स्थिति बताई जाए वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलकार होता है । किन्तु दोनों ही वाक्यों में साधारण धर्म के प्रतिपादक शब्द भिन्न-भिन्न होते है, क्योंकि समान पद रखने से पुनरुक्त दोष हो जाता है अत उस दोष से बचने के लिए दोनों ही वाक्यों में एक ही समान धर्म के वाचक दो भिन्न-भिन्न पदों का उल्लेख किया जाता
14
1
प्रतिवस्तूपमा में कवि की दृष्टि दो भिन्न शब्दों द्वारा उपन्यस्त साधारण दृष्टान्त मे कवि का ध्यान धर्म एवं धर्मी
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ दो वाक्यों में समता हो और उनके अर्थ की समता से उपमान, उपमेय भाव की प्रतीति हो वहाँ प्रतिवस्तूपमा अलकार होता है इन्होंने अन्वय और व्यतिरेक रूप से दो भेदों का उल्लेख भी किया है इनके द्वारा निरूपित परिभाषा मे निम्नलिखित चार तत्वों का आधान हुआ है
2
धर्म पर होती है, जबकि दोनों पर टिका रहता है ।
[ दो वाक्यों या वाक्यार्थों का होना (2) दोनों वाक्यों या वाक्यार्थों में एक का उपमेय और दूसरे का उपमान होना, (3) दोनों वाक्यों या वाक्यार्थों मे एक साधारण धर्म का होना और 40 उस साधारण धर्म का भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा कथन किया जाना 15
3
4
5
समानवस्तुन्यासेन प्रतिवस्तूपमोच्यते । यथेवानभिधानेऽपि गुणसाम्य प्रतीति । साधुसाधारणत्वादि गुणोऽ प्रव्यतिरिच्यते । स साम्यमापादयति विरोधेऽपि तयोर्यथा 11
काव्यादर्श - 2 /46
भा० काव्या0, 2/34
वही - 2 / 35
काव्या० सा०स० 1/22-23
प्रतिवस्तूपमा तु सा ।
सामान्यस्य द्विरेकस्य यत्र वाक्यद्वयस्थिति ।। वाक्ययोर्यत्र सामान्यनिर्देश पृथगुक्तयो ।
प्रतिवस्तूपमा गम्यौपम्या द्वेधान्वयान्यत ।।
पृथमुक्तवाक्यद्वये यत्र वस्तुभावेन सामान्य निर्दिश्यते तदर्थसाम्येन गम्यौपम्या प्रतिवस्तूपमा । अन्वयव्यतिरेकाभ्यां सा द्विधा ।
का0प्र0, 10/101 एव वृत्ति
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परवी आचार्य विद्यानाथ विश्वनाथ तथा जगन्नाथादि की परिभाषाएँ प्राय अजितसेन के समान है ।'
दृष्टान्त -
आचार्य भामह के अनुसार जहाँ अभिमतार्थ का बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव से निर्देश किया जाए वहाँ दृष्टान्त अलकार होता है ।।
__ आचार्य उद्भट के अनुसार जहाँ उपमेय तथा उपमान वाक्यों मे एव उनके धर्मों में बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव हो और सादृश्य व्यग्य हो वहाँ दृष्टान्त अलकार होता है । इन्होंने इसे काव्य दृष्टान्त की अभिधा प्रदान करके न्याय दृष्टान्त से भिन्न बताया है ।
___ आचार्य मम्मट ने भामह तथा उद्भट की भाँति इसमें बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव की चर्चा की है तथा इसमे उपमान, उपमेय, साधारण धर्म इन तीनों प्रतिबिम्ब की भी चर्चा की है इनके अनुसार बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव अलंकार का प्राण है।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ दो वाक्यों मे बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव रूप सामान्य धर्म का कथन हो वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है । इन्होंने इसके साधर्म्य दृष्टान्त एवं वैधर्म्य दृष्टान्त - रूप से दो भेदों का उल्लेख किया है।
का प्रतापरूद्रीयम् - रत्नापणबालक्रीडासहित, पृ0 - 521 खि सा0द0, - 10/49 म कुवलयानन्द - 51 घा रसगंगाधर - पृ0 - 442 उक्तस्यार्थस्य दृष्टान्त प्रतिबिम्ब निदर्शनम् ।।
भा०-काव्या०, 8/94 इष्टस्यार्थस्य विस्पष्टप्रतिबिम्बनिदर्शनम् । यथेवादिपदै शून्यं बुधैर्दृष्टान्त उच्यते ।।
काव्या0सा0सं0, 6/8 इष्टस्य प्रकरणिकतया ----- तत्र काव्यदृष्टान्तोनामालंकार ।
लघु वृत्ति, पृ0 - 85 दृष्टान्त पुनरेतेषा सर्वेषां प्रतिबिम्बनम् ।।
काव्यप्रकाश 10/102 दृष्टोऽन्तो निश्चयों यत्र स दृष्टान्त ।।
वही वाक्ययोर्यत्र चेद् बिम्बप्रबिम्बतयोदितम् । सामान्यं सह दृष्टान्त. साधर्म्यतरतो द्विधा ।।
अ०चि0, 4/233
5
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इनकी परिभाषा मे निम्नलिखित तत्त्वों का आधान हुआ है
(10
(20
निदर्शना
1
इन अलंकार का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य भरत ने अपने नाट्यशास्त्र मे किया है । इनके अनुसार जहाँ उपमान की अपेक्षा प्रसिद्ध किन्तु उदासीन पदार्थों का कथन हो वहाँ निदर्शना अलकार होता है । 3 इन्होंने स्पष्ट रूप से उपमानोपमेयभाव का निर्देश नहीं किया है किन्तु इनके 'यत्रार्थानां प्रसिद्धना' पद से उपमेय का और 'परापेक्षाप्युदासार्थ' पद से उपमान का ग्रहण किया जा सकता है । अर्थात् जहाँ
उपमान के द्वारा उपमेय का निर्देश किया जाए, वहाँ निदर्शना अलंकार होता है।
2
-
3
आचार्य भामह के अनुसार दृष्टान्त अलंकार मे क्रिया के द्वारा ही विशिष्टार्थ का प्रतिपादन किया जाता है । इसमें यथा, इव, वति आदि सादृश्यमूलक शब्दों का प्रयोग नहीं होता है ।
4
4
इस अलकार मे सर्वथा दो वाक्य होते है । प्रथम वाक्य द्रान्तिक होता है तथा द्वितीय वाक्य दृष्टान्त ।
दण्डी के अनुसार अर्थान्तर में प्रवृत्त कर्ता के द्वारा जहाँ सदसदात्मक तत्सदृश फल की उत्पत्ति हो वहाँ निदर्शना अलंकार होता है । 5
5
दोनों ही वाक्यों मे बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव का होना आवश्यक बताया गया है ।
परवर्ती आचार्यों की परिभाषाएँ अजितसेन से प्रभावित हैं । 2
-
का०प्र०, बालबोधिनी टीका, पृ०
(क) चन्द्रालोक
(ख) प्रताप, पृष्ठ
(ग) र०ग०, पृ०
-
-
5/56.
-521
452
·
भा०काव्या० - 3/33
काव्यादर्श, 2/348
637
यत्रार्थाना प्रसिद्धाना क्रियतेपरिकीर्तनम् । परापेक्षाप्युदासार्थं तन्निदर्शनमुच्यते ।।
ना०शा० 16 / 15
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आचार्य उद्भट के मत मे जहाँ असभव तथा सभव पदार्थ के आधार पर सादृश्य की स्थापना की जाए, वहाँ निदर्शना अलकार होता है । उद्भट ने इसे निदर्शना न कहकर विदर्शना कहा है ।'
वामन ने भामह का ही अनुकरण किया है ।
मम्मट के अनुसार जहाँ अभवन्वस्तु के सम्बन्ध मे वस्तु सम्बन्ध की योजना करने के लिए काल्पनिक उपमान की सृष्टि की जाए, वहाँ निदर्शना अलकार होता है ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ उपमान और उपमेय में रहने वाला धर्म सर्वथा असम्भव हो, वहाँ अन्वय करने के लिए संयुक्तकर बिम्ब क्रिया औपम्या का आक्षेप किया जाए, उसे निदर्शना अलकार कहते है । इसके दो भेद हैं10 उपमान का उपमेयमतत्वेन असम्भवा और 20 उपमेय का उपमानगतावेन असम्भवा।
इनके पूर्ववर्ती आचार्य मम्मट भी असंभव वस्तु सम्बन्ध मे निदर्शना अलंकार को स्वीकार किया था उसी के आधार पर आचार्य अजितसेन ने भी निदर्शना का लक्षण प्रस्तुत किया है किन्तु इनकी परिभाषा अधिक स्पष्ट है । इनके अनुसार जहाँ उपमान और उपमेय में औपम्य संभव न हो सके तो भी येन-केन-प्रकारणेन साधारण धर्म का आक्षेप करके उन दोनों मे बिम्ब क्रिया के माध्यम से औपम्य की स्थापना की जाए तो वहाँ निदर्शना अलंकार होता है । 4
विद्यानाथ कृत परिभाषा अजितसेन कृत परिभाषा से अनुकृत है ।
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अभवन् वस्तु-सम्बन्धो भवन्वा यत्र कल्पयेत् । उपमानोपमेयत्वं कथ्यते सा बिदर्शना । क्रिययव स्वतदर्थान्वयख्यापनं निदर्शनम् । निदर्शना अभवन् वस्तु सम्बन्ध उपमापरिकल्पक । उपमानोपमेयस्थो यत्र धर्मावसंभवौ । संयोज्याक्षिप्यते बिम्बक्रिया द्वेधा निदर्शना ।
काव्या0सा0सं0, 5/10 काव्या०सू0, 4/3/20
का0प्र0, 10/97
अ0चि0 4/236 एव वृत्त
प्रताप0 पृ0 - 523 रत्नापण बालक्रीडा टीका
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व्यतिरेक.
व्यतिरेक अलकार का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य भामह ने किया है। इनके अनुसार जहाँ उपमान युक्त अर्थ मे वैशिष्ट्य का प्रतिपादन किया जाए वहाँ व्यतिरेक अलकार होता है । इन्होंने उपमान की तुलना मे उपमेय के उत्कर्ष प्रदर्शन को ही व्यतिरेक माना है ।'
आचार्य दण्डी की परिभाषा भामह से भिन्न है । इनके अनुसार जहाँ दो पदार्थों में भेदकथन हो और सादृश्य की प्रतीति वाच्य अथवा प्रतीयमान रूप मे हो तो वहाँ व्यतिरेकालंकार होता है ।दण्डी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि उपमेय मे आधिक्य का वर्णन किया जाए या उपमान मे ।
उद्भट ने उपमान और उपमेय में वैशिष्ट्य के कथन को ही व्यतिरेक अलंकार माना है । इन्होंने दृष्ट और अदृष्ट होने का उल्लेख किया है ।
आचार्य वामन ने उपमेय के आधिक्य में ही व्यतिरेकालकार माना
मम्मट की परिभाषा वामन से प्रभावित है । मम्मट भी उपमान की अपेक्षा उपमेय के गणाधिक्य मे व्यतिरेक अलकार स्वीकार करते हैं।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ उपमान और उपमेय में भेद प्रधान सादृश्य की प्रतीति हो वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है । इन्होंने इसके दो भेदों का उल्लेख किया है - 10 उपमान से उपमेय की अल्पता में 02 उपमान से उपमेय की अधिकता से ।
आशय यह है कि व्यतिरेक में उपमान की अपेक्षा उपमेय में गुणोत्कर्ष
भाo- काव्या0, 2/75 काव्यादर्श - 2/180 काव्या0 सा0 सं0 - 2/6 उपमेयस्य गुणतिरेकित्व व्यतिरेक. । काव्या सू0-4/3/22 उपमानाद् यदन्यस्य व्यतिरेक स एव स ।
का0प्र0, - 10/105
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का प्रतिपादन किया जाता है । कभी-कभी उपमेय की अधिकता के कथन से भी भेद प्रधान सादृश्य की प्रतीति मे व्यतिरेक अलंकार होता है ।।
आचार्य विद्यानाथ विश्वनाथ पञ्चानन तथा अप्यय दीक्षित उपमेय की अल्पता मे व्यतिरेक अलकार को स्वीकार करते हैं । 2 जो अजितसेन कृत परिभाषा के प्रथम भेद से प्रभावित है। इसके अतिरिक्त भामहं दण्डी, पण्डितराजादि उपमेय की अधिकता मे इस अलकार को स्वीकार करने के पक्ष में हैं । 3
श्लेष
सर्वप्रथम आचार्य भामह ने श्लेष अलकार का निरूपण किया है 1 किन्तु पूर्व ही भरतमुनि ने गुण प्रकरण में स्थान देकर इसके महत्त्व की अभिवृद्धि की है । जिसके आधार पर परवर्ती काल मे शब्द श्लेष और अर्थ श्लेष की उद्भावना हुई 14
भामह के अनुसार गुण, क्रिया, नाम या सज्ञा के द्वारा उपमान का उपमेय के साथ अभेद स्थापन को श्लेष के रूप में स्वीकार किया गया है |5
2
3
-
4.
5
प्रतिबिम्बनं भेदप्रधान तु सदृक्षत्व सधर्म पो. । अल्पाधिक्योक्तिभेदेन व्यतिरेको द्विधा यथा ।। सधर्म पोरूपमानोपमेययोरूपमानादुपमेयस्याल्पत्वेन भेदमुख्यं सादृश्यं प्रतीयते स व्यतिरेक ।
(क) भेदप्रधान साधर्म्यमुपमानोपमेययो ।
आधिक्याल्पत्वकथनाद् व्यतिरेक स उच्यते ।। (ख) सा0द0, 10/52
57
[ग कुवलयानन्द jap चन्द्रालोक - 5/59
-
० क ० भा०काव्या० - 2/75 (ख) काव्यादर्श
2/180
[ग] रसगंगाधर पृ0 - 557
ना0शा0, 16/98-99
भा०काव्या० 3/14-15
-
आधिक्येन
वा वचनेन
अ०चि० 4 / 239 एवं वृत्ति
प्रताप०, पृ0-525
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दण्डी के अनुसार एक रूपान्वित कथन से जहाँ अनेकार्थ प्रतीति हो वहीँ श्लेष अलकार होता है ।।
आचार्य भामह कृत परिभाषा मे एकार्थता तथा अनेकार्थता का स्पष्ट उल्लेख नहीं है इसको पूर्ण करने का श्रेय दण्डी को है । 2
उद्भट ने प्रथमत शब्द श्लेष तथा अर्थ श्लेष का विवेचन पृथक्पृथक् किया है जिसे परवती आचार्य मम्मट तथा बलदेव विद्या भूषण ने भी सादर स्वीकार किया है । इनके अनुसार जहाँ एक प्रयत्न उच्चार्य शब्द प्रयुक्त होते हैं वहाँ अर्थ श्लेष तथा उनकी छाया धारण करने वाले शब्दों के प्रयोग मे शब्द श्लेष होता है । 3
रुद्रट के अनुसार जहाँ श्लिष्ट, से युक्त अनेक अर्थों को बताने वाले अनेक शब्द श्लेष तथा अनेकार्थक पर्दों से युक्त एक होने पर अर्थ श्लेष होता है 15
वामन कृत परिभाषा भामह से प्रभावित है । 4
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ भिन्न या अभिन्न एक ही वाक्य अनेक पदों को प्रतिपादित करे वहाँ श्लेष अलंकार
1
2
3
4
5
6.
7
शब्द
आचार्य मम्मट ने श्लेष के दो भेदों का उल्लेख किया है श्लेष तथा अर्थ श्लेष 17 किन्तु आचार्य अजितसेन ने शब्द श्लेष को स्थान नहीं दिया है ।
अश्लिष्ट और विविध पदों की सन्धि वाक्यों की एक साथ रचना हो वहाँ वाक्य के द्वारा अनेक अर्थों की प्रतीति
श्लिष्टमिष्टमनेकार्थमिक रूपान्वितं वच 11 काव्यादर्श - 2 / 113
काव्या०सा०सं० - 4/9/10
काव्या०सू०
4/3/7
रुद्रट - काव्या० 4/1, 4/31, 4/32 एव 10/1 पदैर्भिन्नैरभिन्नैर्वा वाक्यं यत्रैकमेव हि ।
अर्थाननेकान् प्रब्रूते स श्लेषो भणितो यथा ।।
-
भिन्नपदैरनेकार्थ वाक्यं यत्र वक्ति स श्लेषो ।
का०प्र० - 9/84, 10/96
पदों के द्वारा होता है 16
-
काव्यादर्श 2 / 310
अ० चि०, 4/242 वही वृत्ति
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आचार्य विश्वनाथ, अप्यय दीक्षित एव पण्डित राज जगन्नाथ कृत परिभाषा अजितसेन के समान है ।'
5
विशेषण-वैचित्र्यमूलक अलंकार -
परिकरः
आचार्य रुद्रट के अनुसार जहाँ कोई वस्तु या विशेष अभिप्राय युक्त विशेषणों द्वारा विशेषित हो वहाँ परिकर अलकार होता है । द्रव्य, गुण, क्रिया एवं जाति के आधार पर इसके चार भेदों का उल्लेख किया है ।
मम्मट ने अनेक सार्थक विशेषणों के द्वारा वर्णनीय पदार्थ के पोषण मे इस अलंकार को स्वीकार किया है । मम्मट के द्वारा इस अलंकार का लक्षण स्थिर हो गया ।
आचार्य अजितसेन रुय्यक जयदेव विद्यानाथ, विश्वनाथ तथा अप्पय दीक्षित एवं पं0 राज जगन्नाथ तक इसके स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं आया ।
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का सा0द0, 10/11 श्लेषो वावऍभयाश्रित. ।।
कुव०, 64 अनेकार्थ शब्द विन्यास श्लेष. । वही, पृ0 - 98 चौखम्बाई उभयमप्यर्थालंकार इति स्वाभिप्राय ।।
वही, पृ0 - 105 हम श्रुत्थैकयानेकार्थप्रतिपादन श्लेष ।।
तच्च द्वधा । अनेक धर्म पुरस्कारेपेकधर्मपुरस्कारेण च । आद्यं द्वधा । अनेक शब्दप्रतिमानद्वारा एकशब्दप्रतिमानद्वारा चेति विविध श्लेषः ।
र०सं०, पृ० - 523 साभिप्राय सम्यग्विशेषणैर्वस्तु यद्विशिष्यते । द्रव्यादिभेदभिन्नं चतुर्वध.परकरः सद्धति ।। ।
काव्या०, 712 विशेषणैर्यत्साकूतैरूक्ति परिकरस्तु स. ।
का0प्र0, 10/118 का विशेषणे त्वभिप्राययुते परिकरोयथा । स्वयोगे चक्रिपस्तापमह्नितेन्दुमुखी वधु. ।।
अचि0, 4/245 ख विशेषण साभिप्रायत्वपरिकरः ।
अ0स0, सू0 32 गः अलंकार. परिकर साभिप्राये विशेषणे ।
चन्द्रा0, 5/39 घ0 प्रताप0 पृ0-530 ड सा0द0, 7/9 च कुव0, 62
छ र0मं0, पृ0 - 519
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आचार्य अजितसेन ने भी इसे विशेषण वैचित्र्य मूलक अतकार के अन्त परिगठित किया है और अभिप्राय युक्त विशेषण मे इसकी स्थिति स्वीकार की है।
परिकरांकुर ः
परिकराकुर अलकार को निरूपित करने का श्रेय रावप्रथम आचार्य अजितसेन को है इनके अनुसार जहाँ साभिप्रायक विशेभ्य का वर्णन हो वहाँ परिकरांकुर अलंकार होता है | 2
परवर्ती काल में विद्याधर तथा अप्यय दीक्षित ने भी अजितसन के लक्षण के आधार पर इसका निरूपण किया है । 3
व्याजस्तुतिः -
आचार्य भामह, दण्डी, वामन इसकी अलकारता स्वीकार करते है4 राजानक मम्मट, जगन्नाथ व्याजस्तुति को उभय पर्यवसायी मानते है । व्याज से निन्दा के द्वारा स्तुति की जाए अथवा स्तुति वहाँ व्याजस्तुति नामक अलकार होता है ।
।
2
3
4
5
विशेषणवैचित्र्यमूलपरिकर कथ्यते ।
विशेष्ये साभिसंधी तु मत परिकरांकुर । चतुर्णामनुयोगानां तासो धुर्मुख ।।
(क) एकावली, 8/25 (ख) कुव0, 63
(क) काव्या०, 3 / 31
(ख) का0द0, 2/346
(ग) काव्या० सू०, 43, 24
(घ) काव्या० सा० सं०, 5/9
(क) का०प्र० 10/112
प्रताप, पृ० गर० गं०, पृ०
-
और उद्भट स्तुति पर्यवसायीनिन्दा में विद्यानाथ तथा पण्डितराज आशय यह है कि जहाँ के द्वारा निन्दा की जाए
536
- 557
अवि०, पृ0 - 192
arof 40, 4/246
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आचार्य अजितसेन ने भी निन्दा के द्वारा प्रशसा की प्रतीति में तथा प्रशंसा के द्वारा निन्दा की प्रतीति मे व्याजस्तुति अलकार को स्वीकार किया है ।'
अनुसंधात्री के अनुसार इस अलंकार को दो भागों में विभाजित कर पृथक्-पृथक् नामकरण करना उचित प्रतीत होता है । अर्थात् जहाँ निन्दा के द्वारा स्तुति की जाए वहाँ व्याजस्तुति अलंकार होना चाहिए और जहाँ स्तुति के द्वारा निन्दा की जाए वहाँ व्याजनिन्दा नामक अलंकार होना चाहिए ।
अप्रस्तुत प्रशंसाः
इस अलंकार का उल्लेख प्राय. सभी आचार्यों ने किया है । भामह के अनुसार जहाँ अधिकार प्रकरण से अलग अप्राकरणिक किसी अन्य पदार्थ की जो स्तुति है उसे अप्रस्तुत प्रशसा अलंकार कहते है ।।
दण्डी की परिभाषा अन्य आचार्यों से कुछ भिन्न है । इनके अनुसार जहाँ प्रस्तुत की निन्दा करते हुए अप्रस्तुत की प्रशसा की जाए वहाँ अप्रस्तुत प्रशसा अलकार होता है ।
उद्भट की परिभाषा भामह अनुकृत है ।
वामन के अनुसार जहाँ उपमेय के किंचिद् लिंग मात्र के कथन करने पर समान वस्तु की प्रतीति हो वहाँ अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार होता है । आचार्य कुन्तक की परिभाषा में कुछ नवीनता है । इनके मत में प्रस्तुत की विच्छित्ति सौन्दर्य के लिए ही, अप्रस्तुत का कथन होता है । इसमें साम्य तथा सम्बन्धान्तर
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निन्दास्तुतिमुखाभ्यां तु स्तुतिनिन्दे प्रतीतिगे । यत्र द्वेधा निगद्यते व्याजस्तुतिरियं यथा ।। निन्दामुखेन स्तुतिरेव यत्र प्रतीयते सा एका । स्तुतिमुखेन निन्दव गम्यते यत्र सा द्वितीया ।
अचि0, 4/256 एवं वृत्ति अलंकार मंजूषा भट्टदेवशंकर पुरोहित अलंकार सख्या 31 पृ0-110 भा0का0लं0 - 3/29 अप्रस्तुतप्रशंसा स्यादप्रक्रान्तेषु या स्तुति ।
का0द0 2/340 का०लं0, सा0सं0, 5/8 किञ्चिदुक्तावप्रस्तुतप्रशंसा ।
का00, सू0, 4/3/4
in o
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भी पाया जाता है । अप्रस्तुत को वर्णन का विषय बनाया जाने के कारण इसे अप्रस्तुत अलंकार कहते हैं ।'
आचार्य भोज ने धर्म, अर्थ और काम तीनों में से किसी एक की बाधा होने पर किसी भी वाच्य हेतु अथवा प्रतीयमान हेतु के माध्यम से स्तोतव्य की जो स्तुति हो वह अप्रस्तुत अलकार है । 2
मम्मट के अनुसार अप्रस्तुत के कथन से जहाँ प्रस्तुत का आक्षेप किया जाय वहाँ अप्रस्तुत प्रशसा अलकार होता है । 3
रूय्यक के अनुसार जहाँ अप्रस्तुत से सामान्य विशेषभाव, कार्य कारणभाव अथवा सादृश्य सम्बन्ध होने पर प्रस्तुत की प्रतीति हो वहाँ अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार होता है | 4
शोभाकर मित्र के अनुसार जहाँ अप्रस्तुत से अन्य ( प्रस्तुत ) की प्रतीति हो वहाँ अप्रस्तुत प्रशंसा नामक अलंकार होता है । 5
वृतान्त की प्रतीति हो वहाँ अप्रस्तुत प्रशसा भेद होने की चर्चा की है । इनके द्वारा में, और कार्यकारणभाव में जहाँ अप्रस्तुत के अप्रस्तुत प्रशंसा नामक अलंकार होता है 16 का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है ।
I
2.
3
4
5.
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ अप्रस्तुत वृतान्त के कथन से प्रस्तुत अलंकार होता है । इन्होंने इसके अनेक सारूप्य कथन में, सामान्य विशेष भाव कथन से प्रस्तुत की प्रतीति हो वहाँ इनकी परिभाषा पर मम्मट कृत परिभाषा
6.
वक्रोक्तिजीवितम्, 3/21, 22
०क०भ०, 4/158, 159
अप्रस्तुतप्रशंसा या सा सैव प्रस्तुताश्रया ।
अ०स० सू० 35
अ०र० सू० - 38
प्रकृतं यत्र गम्यताप्रकृतस्य निरूपणात् । अप्रस्तुतप्रशंसा सा सारूप्यादेरनेकधा ।।
100 10/98
37.99. 4/259
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आचार्य अजितसेन ने अप्रस्तुत प्रशंसा से समासोक्ति के पारस्परिक अन्तर के निर्धारण में अप्रस्तुत कथनांश पर विशेष बल दिया है । इसी के माध्यम से अप्रस्तुत प्रशसा का अन्तर निर्धारित किया जा सकता है क्योंकि समासोक्ति अलकार में वाच्य प्रस्तुत होता है और उसके द्वारा प्रस्तुत की प्रतीति होती है । अप्रस्तुत प्रशसा अलंकार में अप्रस्तुत का ही कथन होता है और उसी अप्रस्तुत वृतान्त कथन से प्रस्तुतार्थ की प्रतीति होती है, जबकि अनुमान मे गम्य- गमक दोनों का प्रकृत में उपयोग रहता है ।'
इसके पूर्ववर्ती आचार्य मम्मट, रुय्यक तथा शोभाकर मित्र ने अप्रस्तुतप्रशंसा के उपर्युक्त अन्तर का उल्लेख नहीं किया ।
आक्षेपः
आचार्य भामह के अनुसार जहाँ किसी विशेष कथन के अभिप्राय से अभीष्ट वस्तु का प्रतिषेधसा किया जाए वहाँ आक्षेप अलंकार होता है ।
आचार्य दण्डी प्रतिषेधोक्ति को ही आक्षेपालंकार स्वीकार किया
है।
___ आचार्य उद्भट ने भामह के ही लक्षण को उद्धृत कर दिया है । आचार्य वामन ने उपमान के आक्षेप में आक्षेप अलंकार को स्वीकार किया है ।
परवर्ती आचायो ने भामह के अनुसार ही आक्षेप अलंकार का निरूपण किया है । उनकी परिभाषओं में किसी नवीनता का आधान नहीं हुआ है ।
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PAN -
अ०चि0, पृष्ठ - 196 भा०, काव्या0, 2/68 का0द0, 2/120 काव्या०स०सं०, 2/2 उपमानाक्षेपश्चाक्षेप. । काव्या० सू० कअ0स0, पृ0 - 144-49 खि चन्द्रा0, 5/72-73 गि कुव0, 73-74 (घर0म0, पृ0-566
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________________
: 11::
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ भविष्य में कथन किए जाने वाले विषयों का अथवा कथित विषयों का विशेष ज्ञान कराने के लिए निषेधाभास सा कथन किया जाए वहाँ आक्षेप अलंकार होता है । इन्होंने आक्षेप अलकार को चार भागों में विभाजित किया है -
- -
कथित विषय में वस्तु का निषेध कथन का निषेध वक्ष्यमाण विषय मे सामान्य प्रतिज्ञा का विशेष निषेध एक अंश के रहने पर दूसरे अंश का निषेध
-
इनके पूर्ववर्ती आचार्य मम्मट ने भी दो भेदों का उल्लेख किया है2
-
वक्ष्यमाण विषयक तथा उक्त विषयक ।
परवर्ती काल में विद्यानाथ तथा विश्वनाथ ने अजितसेन के आधार पर चार भेदों का उल्लेख किया ।
पर्यायोक्तः
सर्वप्रथम इस अलंकार का निरूपण आचार्य भामह ने किया । इनके अनुसार जहाँ विवक्षितार्थ का कथन प्रकारान्तर से किया जाए वहाँ पर्यायोक्त अलंकार होता है 14
आचार्य दण्डी ने इसे अधिक स्पष्ट किया है उनके मत में - जब इष्टार्थ का कथन किए बिना उसी अर्थ की सिद्धि हेतु प्रकारान्तर से कथन किया जाए तो पर्यायोक्त अलंकार होता है ।
अचि0 4/247 एव वृत्ति का0प्र0, 10/106 का प्रताप0 पृ0 - 531 खा सा0द0, 10/85 पर्यायोक्तं यदन्येन प्रकारेणाभिधीयते । का0द0, 2/225
काव्याo, 3/38
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मम्मट के अनुसार वाच्य वाचक भाव के बिना ही किसी वस्तु का कथन करना पर्यायोक्त है । इसमे व्यग्य के स्थान पर उक्ति वैचित्र्य ही प्रधान होती है 12
प्रतीप
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ प्रस्तुत कार्य के वर्णन से प्रस्तुत कारण की प्रतीति हो, वहाँ पर्यायोक्त अलकार होता है । व्यग्य रूप से विवक्षित अर्थ का वाच्य रूप मे प्रतिपादन पर्यायोक्त का प्राण है 13 इस प्रतिपादन के प्रकार अनेक हो सकते है । अत एव प्रस्तुत कार्य से प्रस्तुत कारण की प्रतीति मात्र मे इसे परिसीमित कर देना उचित नहीं प्रतीत होता । प्रस्तुत कार्य से प्रस्तुत कारण के बोध वर्णन मे रूय्यक, विद्यानाथ विश्वनाथ इस अलकार की स्थिति स्वीकार करते 14
1
आचार्य रुद्रट के अनुसार जहाँ उपमेय की अधिकता का प्रतिपादन समता दिखाकर उसकी प्रशसा या निन्दा की जाए वहाँ प्रतीप अलकार होता है। 5 परवती काल में उपमान की प्रशसा में प्रतीप अलकार की स्थिति को मान्यता नहीं
2
:: 192 ::
3
उद्भट कृत परिभाषा भामह से अनुकृत है । '
आचार्य वामन, रुद्रट व कुन्तक इस विषय मे मौन है ।
4
5
काव्या०स०स०, 4/6
पर्यायोक्त बिना वाच्यवाचकत्वेन यद्वच 1 का0प्र0, 10/115 वाच्यवाचकभावव्यतिरिक्तेनावगमनव्यापारेण यत्प्रतिपादन तत्पययिण भगयन्तरेण
कथनात्पर्यायोक्तम् ।
वृत्ति
प्रस्तुतस्यैव कार्यस्य वर्णनात् प्रस्तुतपुन । कारण यत्र गम्येत् पर्यायोक्त मत यथा ।।
141-42
(क) अलकारसर्वस्व ०
(ख) प्रताप० पृ० - 541
(ग) पर्यायोक्त यदा भगया गम्यमेवाभिधीयते ।।
रूद्र० काव्या०, 8/70
-
अ०चि०
4/265
सा0द0 10/60
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प्रदान की गयी ।
आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ उपमेय के रहते हुए उपमान की व्यर्थता का प्रतिपादन किया जाए या उपमेय की उपेक्षा या उपमान का तिरस्कार किया जाए, वहाँ प्रतीप अलकार होता है ।
उपमान के अपकर्ष के व्यापार को प्रतीप के रूप में स्वीकार किया
गया है
1
"उपमानापकर्ष बोधानुकूलो व्यापार प्रतीपम्". परमानन्दचक्रवती, काव्यप्रकाश विस्तारिका 0 - उद्धृत - चन्द्रालोक - सुधा, हिन्दीटीका पृ०
अनादर्शधिक्य का प्रतिपादन द्वारा उपमान की व्यर्थता
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ उपमान के किया जाए अथवा किम, उत आदि तिरस्कार वाचक पदों के सूचित की जाए वहाँ प्रतीप अलकार होता है । इन्होंने इसके दो भेदों का उल्लेख किया है 10 अलौकिक उपमेय से उपमान के आक्षेप मे होने वाला प्रतीप तथा [2] उपमान की उपमेयत्व के रूप में कल्पना होने पर द्वितीय प्रतीप 12
2
-
अजितसेन कृत परिभाषा मम्मट के निकट है । अन्य परवर्ती आचार्यों की परिभाषाओं मे किसी नवीन तत्व की उपलब्धि नहीं होती । विद्यानाथ, विश्वानाथ तथा पण्डित राज कृत परिभाषा अजितसेन के समान है । 3 आचार्य भामह, दण्डी, उद्भट तथा वामन ने इसका उल्लेख नहीं किया ।
3
1530
ले० सिद्धसेन दिवाकर |
100, 10/133
अक्षिप्तिरूपमानस्य कैमर्थक्यान्निगद्यते । तस्योपनेयता यत्र तत्प्रतीपं द्विधायथा ।।
लोकोत्तरस्योपमेयस्योपमानाक्षेपो यत्र तदेकम् । यत्र चोपमानस्योपमे यत्व कल्पना द्वितीयमिति प्रतीपं द्विधा ।
अ०चि०, 4/267 एव वृत्ति
(क) आक्षेप उपमानस्यकैमर्थक्येन कथ्यते । यद्वोपमेयभाव स्यात् तत्प्रतीपमुदाद्दतम् ।। प्रताप० पृ0-5420
(ख) सा0द0, 10/87
(ग) रसगगाधर, पृ० - 547
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________________
16
तर्कन्यायमूलक अलंकारः
अनुमानः
___ आचार्य रुद्रट के अनुसार जहाँ कवि परोक्ष साध्य पदार्थ को पहले उपन्यस्त कर तत्पश्चात् साधन का उपन्यास करता है अथवा साधन का प्रतिपादन करने के पश्चात् साध्य वस्तु का निर्देश करता है तो वहाँ अनुमान अलकार होता है ।' आचार्य भोज ने लिग के द्वारा लिगी के ज्ञान को अनुमान के रूप मे स्वीकार किया है 12 जबकि मम्मट साध्य-साधन भाव के कथन मे अनुमान को स्वीकारने के पक्ष मे है 13
आचार्य अजितसेन ने अनुमान के उदाहरण को ही प्रस्तुत किया है इसके लक्षण का उल्लेख नहीं किया ।
आचार्य रुय्यकादि की परिभाषाएँ मम्मट के निकट है 15
अनुमान प्रमाण के समान इस अलकार में भी साधन से साध्य की अनुमिति की जाती है । चमत्कार होना आवश्यक है, अतएव 'पर्वतो वह्निमान्, धूमात्' में अनुमान अलंकार नहीं हो सकेगा । साधन सर्वदा तृतीया या पचमी या 'यत्, यस्मात्' आदि द्वारा घोतित होगा । नैयायिको के अनुमान के समान चाहे यह तर्क संगत न भी हो, ते भी अलंकार होता है । यहाँ साधन सदैव सूचक होता है ।
काव्या0, 7/56
स0क0म0, 3/47 का0प्र0, 10/117 अचि0, 4/271 एक अ0स0, सू० - 59
ख चन्द्रा0, 5/36 (गः प्रताप०, पृ0 - 543 of सा0द0, 10/63 ड) कुव0, 109 चई र040, पृ0 - 640
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काव्यलिंग :
संस्कृत काव्यशास्त्र मे 'काव्य हेतु' तथा काव्यलिंग नाम से इस अलकार का निरूपण प्राप्त होता है । आचार्य उद्भट के अनुसार जब एक वस्तु का श्रवणकर वस्त्वन्तर का स्मरण या अनुभव किया जाए तो वहाँ काव्यलिग अलकार होता है ।। इसमें किसी पदार्थ का श्रवण किसी वस्तु के स्मरण अथवा अनुभव का कारण बन जाता है ।
आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ वाक्य या पदार्थ का कथन हेतु के रूप मे किया जाए वहाँ काव्यलिग अलकार होता है । 2 आचार्य रूय्यक, विद्यानाथ, जयदेव, अप्वय दीक्षित तथा पं0 राज जगन्नाथ कृत परिभाषा मम्मट के समान है । 3
आचार्य अजितसेन कृत भी जहाँ वर्णनीय वस्तु के हेतु के किया जाए तो वहाँ काव्यलिग अलंकार होता है । 4
अर्थान्तरन्यासः -
आचार्य भामह के अनुसार जहाँ अर्थान्तर को प्रथम अर्थ से अनुगत मानते हुए दोनों के बीच सादृश्य सम्बन्ध की योजना की जाए वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है । हि' शब्द के प्रयोग से अर्थान्तरन्यास अधिक स्पष्ट हो जाता है 15 प्रस्तुत आचार्य दण्डी के अनुसार जहाँ किसी वस्तु को प्रस्तुत करके उसके
I
2
3
4
5
परिभाषा मम्मट से प्रभावित है इनके अनुसार विषय मे किसी वाक्यार्थ या पदार्थ का उत्पादन
काव्या०, सा०स०, 6/7
काव्यलिंग हेतोर्वाक्य पदार्थता ||
(क) हेतोर्वाक्यपदार्थता काव्यलिगं ।।
(ख) प्रताप, पृ०
543
ग) स्यात काव्यलिंग वागर्थोनूतनार्थसमपर्क ।। (घ) समर्थनीयस्यार्थस्य काव्यलिग समर्थनम् ।। डरनं० पृ०
- 628
अचि०, 4/270
काव्या0, 2 / 71, 73
·
काप्र0, 10/114 अ०स० सू०
-
58
चन्द्रा0, 5/38
कुo, - 121
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समर्थन मे अन्य वस्तु का उल्लेख किया जाए, वहाँ अर्थान्तरन्यास अलकार होता है।'
आचार्य उदभट का कथन है कि इसमें समर्थ समर्थक भाव होता है। समर्थक वाक्य का उल्लेख पहले किया जाता है और समर्थ्य का बाद मे । इन्होंने इसे अप्रस्तुत प्रशसा तथा दृष्टान्त से भिन्न अलकार स्वीकार किया है । उद्भट के अनुसार समर्थ्य - समर्थक भाव ही इस अलकार का जीवातु है ।2 आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ सामान्य का विशेष से अथवा विशेष का सामान्य से समर्थन किया जाए वहाँ अर्थान्तर न्यास अलकार होता है उन्होंने प्रत्येक के साधर्म्यगत तथा वैधर्म्यगत दो भेदों का उल्लेख किया है ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ सामान्य विशेष भाव या कार्यकारण भाव से प्रकृत का समर्थन किया जाए वहाँ अर्थान्तर न्यास अलकार होता है ।
__ आचार्य रूय्यक, विद्यानाथ तथा विश्वनाथ ने अजितसेन की भाँति कार्यकारण भाव मे भी इसकी सत्ता स्वीकार की है । आचार्य अजितसेन ने मम्मटानुमोदित साधर्म्य तथा वधर्म्य का उल्लेख नहीं किया अत इनके अनुसार - 410 सामान्य से विशेष के समर्थन मे, 20 विशेष से सामान्य के समर्थन में, 130 कार्य से कारण के समर्थन मे और 4 कारण से कार्य के समर्थन मे अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है 6
का0द0 - 2/169 काव्या० सा0 स0, 2/4-5 का0प्र0, 10/109 ससामान्यविशेषत्वात् कार्यकारणभावत । प्रकृत यत्समर्थतार्थान्तर्यसनं मतम् ।।
अचि0 4/274 का सामान्यविशेषकार्यकारणभावाभ्या निर्दिष्ट प्रकृत समर्थन अर्थान्तरन्यास ।
अ0स0सू० - 36 खि प्रताप0, पृ0 - 545 गि सा0द0, 10/61 अ०चि०, पृ0 - 201
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यथासंख्य
संस्कृत काव्यशास्त्र मे इसके तीन नामों का उल्लेख प्राप्त होता है. यथासख्य, सख्यान तथा क्रम । आचार्य भामह, उद्भट, रुद्रट, मम्मट, रूय्यक, जयदेव, विद्यानाथ, विश्वनाथ, अप्पय दीक्षित तथा पं0 राज जगन्नाथ ने इसे यथासंख्य की अभिधा प्रदान की है। जबकि वामन और शोभाकर मित्र इसे क्रम नामक अलंकार से अभिहित करते हैं।
आचार्य भामह के अनुसार जहाँ विभिन्न धर्मों वाले अनेक पूर्वकथित पदार्थों का इसी क्रम से निर्देश किया जाए वहाँ यथासंख्य अलकार होता है । 2
आचार्य दण्डी के अनुसार जहाँ प्रथम कथित पदार्थों का इसी क्रम से वर्णन किया जाए वहाँ यथासंख्य संख्यान अथवा क्रम नामक अलंकार होता है । 3 भामह ने 'असधर्माणाम्' पद के द्वारा सिद्ध किया था कि क्रमश. अन्वित होने वाले पदार्थों में सामर्थ्य का अभाव होना चाहिए किन्तु आचार्य दण्डी ने इसकी चर्चा | नहीं की ।
उद्भट कृत परिभाषा भामह से अनुकृत है । 4
वामन ने इसे यथामुख्य न कहकर 'क्रम' कहा है तथा उसमें उपमेय व उपमान के क्रमिक सम्बन्ध का होना आवश्यक बताया । इनकी परिभाषा परवती आचार्यों द्वारा मान्य न हो सकी ।
रुद्रट के अनुसार जहाँ अनेक पदार्थ जिस क्रम से पूर्व निर्देशित किये गए हों यदि क्रम से पुन पूर्व के विशेष या विशेषण भाव को ग्रहण करते हुए उपनिबद्ध किए जाएँ तो वहाँ यथासख्य अलकार होता है । इनके अनुसार पूर्वोदिष्ट पदार्थों का विशेषणों द्वारा कथन आवश्यक बताया गया है 15
1
2 3 4 5
[कý उपमेयोपमानाना क्रमसम्बन्ध क्रम ।। काव्या०सू०, 4/3/17 (ख) अ०र०, पृ०
162
भाO काव्या, 2/88
का0द0, 2 / 273 काव्या० सा० स०, 2/3 रू०, काव्या० 7/34, 35
-
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आचार्य मम्मट के मत में जिस क्रम मे जितनी संख्या में पदार्थों का प्रथमत निर्देश हो उसी क्रम से उतनी ही संख्या मे यदि पुन पूर्व वर्णित पदार्थों के साथ सम्बन्ध बताया जाए तो वहाँ यथासख्य नामक अलकार होता है ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जिस क्रम से पहले अर्थों का निरूपण किया गया हो, पश्चात् कहे गये अर्थों का भी यदि उसी क्रम से प्रतिपादन किया जाए तो वहाँ यथासंख्य अलकार होता है । 2
आचार्य रूय्यक, विश्वनाथ तथा निरूपित क्रम को स्वीकार कर लिया
प० राज जगन्नाथ ने अजितसेन द्वारा इतना अवश्य है कि आचार्य रुय्यक ने इसे शाब्द एव आर्थ दोनों स्थलों पर स्वीकार किया है । समास रहित पदों का समास रहित पदों के साथ सम्बन्ध रहने पर शाब्द यथासख्य अलंकार होता है और अर्थ विश्लेषण के पश्चात् जहाँ सम्बन्ध का ज्ञान होता है वहाँ आर्थ यथासंख्य होता है ।
:: 198 ::
आचार्य अजितसेन ने परिभाषा में केवल अर्थों के क्रमिक अनुनिर्देश की ही चर्चा की है । इन्होंने इसके शाब्द भेद का उल्लेख नहीं किया । यथासंख्य के सदर्भ मे रूय्यक तथा प० राज जगन्नाथ का मत युक्तियुक्त नहीं प्रतीत होता क्योंकि समास और असमास के आधार पर भेद तो संभव है किन्तु लक्षण नहीं । क्योंकि इसका चमत्कार क्रम से निर्दिष्ट पदार्थों के क्रमिक अन्वय में निहित है। अनुसधात्री के विचार से अजितसेन कृत परिभाषा सरल, स्पष्ट तथा वैज्ञानिक है।
।
2
3
यथासंख्यं क्रमेणैव क्रमिकाणा समन्वय ।।
उदिष्टा ये क्रमेरर्था पूर्वं पश्चाच्च तै क्रमै । निरूप्यन्ते तु यत्रैतद् यथासख्यमुदाहृतम् ।।
क) अ०स०, पृ० (ख) सा0द0, 10/79 [ग] रं०ग०, पृ० (घ) चन्द्रा0, 5/92 (ड) कुव0, 109
-
187
643
का0प्र0, 10/108
अठिचि०, 4/279
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अर्थापत्ति:
अर्थापत्ति का विकास भरत के 36 काव्य लक्षणों से हुआ है । इनके अनुसार जहाँ अर्थान्तर के कथन से वाक्य माधुर्य युक्त अन्यार्थ की प्रतीति हो वहाँ अर्थापत्ति अलकार होता है ।' आचार्य भोज के अनुसार जहाँ प्रत्यक्षादि प्रमाणों से प्रतीत होने वाला अर्थः सगत न प्रतीत हो और उससे अर्थान्तर की प्रतीति हो तो वहाँ अर्थापत्ति अलकार होता है ।2
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ किसी अर्थ की निष्पत्ति मे कैमुत्य न्याय से अन्यार्थ की प्राप्ति हो, वहाँ अर्थापत्ति अलकार होता है । इसमे किम्, का, क आदि सर्वनामों से कैमुत्य न्याय से अन्य तथ्य की प्रतीति होती है ।
विद्यानाथ, अप्पय दीक्षित तथा पण्डितराज जगन्नाथ भी अजितसेन की ही भाँति कैमुत्य न्याय से ही अर्थान्तर की प्रतीति होने पर अर्थापत्ति को स्वीकार करते है 14 जिस प्रकार से मूषक के दण्ड खा लेने से उसमे सलग्न माल- पूए को खा लेने की सहज कल्पना की जाती है उसी प्रकार से किसी अर्थ की उत्पत्ति से अन्य पदार्थ की प्रतीति अनायास ही हो जाती है । जैसे- 'पीनो देवदत्तो दिवा न भुडक्ते' । वाक्य से रात्रि भोजन का ज्ञान अनायास ही हो जाता है अन्यथा स्थूलत्व सभव नहीं है । अत रात्रि विषयक ज्ञान अर्थापत्ति के माध्यम से ही होता है
परिसंख्याः
__ आचार्य भामह, दण्डी तथा उद्भट ने इसका उल्लेख नहीं किया । इसके उल्लेख का सर्वप्रथम श्रेय आचार्य रुद्रट को है । आचार्य रूद्रट के अनुसार
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ना०शा०, 16/32
अचि0, 4/281
अर्थान्तरस्य कथने यत्रान्यार्थ प्रतीयते । वाक्यमाधुर्यसंयुक्तं सार्थापत्तिरुदाहृता ।। स0क0म0, 3/52 यत्र कस्यचिदर्थस्य निष्पत्तावन्यदापतेत् । वस्तु कैमुत्यसंन्यायादापत्तिरियं यथा ।। का प्रताप0, पृ0 - 548 ख कुव0, 120 गः र0ग0, पृ0 - 656-57 का अ0सं0, पृ0 - 19-198 खि सा0द0, 10/83
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जहाँ किसी वस्तु का गुण, क्रिया या जाति रूप से अन्य स्थानों पर विद्यमान रहने पर भी कहीं उसके अभाव का वर्णन हो तो वहाँ परिसख्या अलकार होता है । इसके दो भेदों का उल्लेख भी कया है । '
10 प्रश्नपूर्विका तथा 20 अप्रश्नपूर्विका ।
आचार्य मम्मट ने रुद्रट के आधार पर परिसख्या की परिभाषा प्रस्तुत की है । इनके अनुसार जहाँ पूछी गयी या न पूँछी गयी वस्तु शब्दत प्रतिपादित होकर अन्तत अपने समान किसी अन्य वस्तु का जहाँ निषेध करें वहाँ परिसख्या अलकार होता है । 2
प्रकाश के टीकाकार
का अर्थ है
वामन झलकीकर के अनुसार परिसख्या बुद्धि या विचारणा । वर्जन पूर्ण बुद्धि को परिसख्या के रूप मे स्वीकार किया गया है । 3
(10
120
$30
040
काव्य
1
2
3
4
-
-
परिसंख्या अलकार के चार भेद सभव हैं
प्रश्न कर शब्द द्वारा जहाँ निषेध किया जाए । प्रश्न कर निषेध की व्यजना करायी जाए ।
बिना प्रश्न के शब्द द्वारा जहाँ निषेध किया जाए तथा बिना प्रश्न के निषेध की व्यजना करायी जाए ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ एक वस्तु की अनेकत्र स्थिति रहने ही अर्थ में नियमित कर दिया जाए, वहाँ परिसंख्या
भेदों
पर भी अन्यत्र निषिद्ध कर एक अलंकार होता है । इन्होंने इसके प्रश्न का उल्लेख भी किया है पुन प्रत्येक के भेद भी किए हैं । उक्त चार भेदों के अतिरिक्त चारुत्वातिशय रूप श्लेषजन्य परिसख्या का भी उल्लेख किया है । सम्पूर्ण भेदों को मिलाकर इन्होंने परिसंख्या के पाच भेदों का उल्लेख किया है।
4
-
पूर्वक तथा अप्रश्न पूर्वक शाब्दवर्ज्य ( शाब्दी ) तथा आर्थवर्ण्य
-
-
रू0 काव्या0, 7/79
का0प्र0, 10/112
वामन झलकीकर टीका, पृ० 703
सर्वत्र सभवद्वस्तु यत्रक युगपत्पुन ।
एकत्रैव नियम्येत परिसख्या तुसा यथा ।।
सा द्विधा - प्रश्नाप्रश्नपूर्वकत्वभेदात् । तद्वयमपि द्विधा - वर्ज्यस्य शाब्दत्वार्थत्वाभ्याम् ।
अ०चि०, 4 / 284 एव वृत्ति ।
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::
201 ::
120
प्रश्नपूर्वक शाब्दवर्ण्य परिसख्या प्रश्नपूर्वक आर्थवर्ण्य परिसख्या अप्रश्नपूर्वक शाब्दवर्ण्य परिसख्या अप्रश्न पूर्वक आर्थवर्ण्य परिसख्या श्लेषजन्य परिराख्या
परवी काल मे आचार्य रुय्यक विद्यानाथ ने भी अजितसेन द्वारा निरूपित सभी भेदों को स्वीकार कर लिया है ।। पण्डित राज जगन्नाथ ने भी आदि के चार भेदों का निरूपण किया है । किन्तु इन्होंने शुद्धा शाब्दी तथा शुद्धा आथी, प्रश्न पूर्विका तथा अप्रश्न पूर्विका का उल्लेख किया है 12
उक्त विवेचन के अवलोकन से विदित होता है कि आचार्य रुय्यक तथा विद्यानाथ ने परिसख्या के पाँचों भेदों को स्वीकार करके अजितसेन की भेद निरूपण सरणि को स्वीकार करके अलकार श्रृंखला में वृद्धि की ।
उत्तरः
आचार्य रुद्रट के अनुसार जहाँ उत्तर वचन श्रवण से उत्तर की प्रतीति हो, वहाँ उत्तर अलकार होता है । इसके अतिरिक्त इन्होंने एक अन्य उत्तर का भी उल्लेख किया है जहाँ इन्होंने यह बताया है कि ज्ञात प्रसिद्ध उपमान से भिन्न वस्तु उपमेय के पूछे जाने पर उपमान के सदृश वस्तु का जहाँ कथन किया जाए वहाँ उत्तर अलकार होता है ।
आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ उत्तर के श्रवण मात्र से प्रश्नोन्नयन हो अथवा प्रश्न के अनेक असभाव्य उत्तर दिए जाएं, वहाँ उत्तरालंकार होता है। इनकी परिभाषा पर रुद्रट की प्रथम परिभाषा का प्रभाव परिलक्षित होता है ।
एक अ0स0, पृ0 - 193-95
ख प्रताप0 पृ0 - 550 र0ग0, पृ0 - 653 रू0, काव्या0, 7/93 का0प्र0, 10/121
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:: 202 ::
आचार्य अजितसेन ने रुद्रट और मम्मट के लक्षण का समन्वय प्रस्तुत किया है । इनके अनुसार जहाँ प्रश्न और उत्तर दोनों का निबन्धन हो अथवा उत्तर से ही प्रश्न की कल्पना की जाए वहाँ उत्तरालकार होता है । इस प्रकार से इन्होंने प्रश्नोत्तर के दो भेदों का उल्लेख किया है ।'
विद्यानाथ कृत परभाषा अजितसेन के समान है ।2 परवर्ती आचार्यों मे जयदेव, दीक्षित तथा प० राज जगन्नाथ की परिभाषाये प्राय अजितसेन के समान ही है 13
071
वाक्यन्यायमूलक अलकार -
विकल्प -
इस अलकार की उद्भावना का श्रेय आचार्य रुय्यक को है । इनके अनुसार जहाँ दो वस्तुओं मे तुल्य बल विरोध होने पर एक को ही स्वीकार किया जाए वहाँ विकल्पालकार होता है । 4
___ आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ सम प्रमाण वाले दो पदार्थों में औपम्यादि की प्रतीति एक ही साथ होने पर विरोध प्रतीत हो, वहाँ विकल्पालकार होता है। इन्होंने अपनी परिभाषा मे औपम्यादि का उल्लेख करके एक नया विचार व्यक्त किया है ।
__ आचार्य शोभाकरमित्र तुल्य बल विरोध होने पर पाक्षिक वस्तु के ग्रहण को विकल्पालंकार के रूप में स्वीकार किया है । आचार्य विद्यानाथ, विद्याधर,
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अचि0, 4/290 एव वृत्ति
प्रश्नोत्तरे निबध्यते बहुधा वात्तरादपि । प्रश्न उन्नीयते यत्र सोत्तरालक्रिया द्विधा ।। प्रताप0 पृ0 - 552
का चन्द्रा0, 5/108 खि कुव0, 149, 50 गा र070, पृ0 - 700 अ0स0, पृ0 - 200 विमर्शिनी विरीधे तु द्वयोर्यत्र तुल्यमानविशिष्टयो ।
औपम्याधुगपत्प्राप्तौ विकल्पालकृतियथा ।। विरूद्धयोस्तुल्यत्वे पाक्षिकत्व विकल्प ।।
अचि0, 4/293
अ0र0, 88
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जयदेव एव पण्डित राज जगन्नाथ कृत परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है ।'
समुच्चयः
आचार्य रुद्रट के अनुसार यदि एक ही आधार मे द्रव्य, गुप, क्रिया रूप अनेक वस्तुओं का मुखावह अथवा दुखावह वर्णन हो तो वहाँ समुच्चय अलकार होता है । सुख-दु ख परक अनेक द्रव्यादि रूप वस्तुओं का जहाँ वर्णन होगा, वहाँ दूसरा समुच्चय होगा । दूसरे समुच्चय के तीन प्रकार है -
। सद्योग [20 असद्योग, 13 सदसद्योग
भिन्न आधार वाले मुण या क्रिया जब एक स्थान पर समान काल मे वर्णित हो, तो वहाँ तृतीय समुच्चय होता है ।
आचार्य मम्मट के अनसार समच्चय अलकार मे प्रस्तुत काये की सिद्धि के लिए एक साधक या कर्ता के होते हुए भी अन्य कारण की साधकता का भी वर्पन किया जाता है ।
अजितसेन के अनुसार जिसमे क्रिया तथा अम्लत्व आदि गुपों का साथसाथ वर्णन हो वहाँ समुच्चय अलकार होता है । समुच्चय अलकार में दो क्रियाओं का अथवा दो गुणों का एक ही साथ वर्णित होना आवश्यक है । एक ही कार्य को सिद्ध करने के लिए जहाँ अनेक कारणों की उपस्थिति अहमहमिकया रूप से हो वहाँ समुच्चय अलंकार होता है ।
का प्रताप०, पृ0 - 554 खि एकावली, 8/57
गई चन्द्रा0, 5/96 (घ) र0म0, पृ0 - 657 डि सा0द0, 10/83
च कुव०, ।।4 रू0, काव्या0, 7/19-27 तत्सिद्धिहेतावकस्मिन् यत्रान्यत्तत्कर भवेत् समुच्ययोसौ ।
का0प्र0, 10/116
क्रियाणा चामलत्वादिगुणाना युगपत्तत । अवस्थान भवद् यत्र सोऽलकार समुच्चय ।।
अचि0, 4/295
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:: 204 ::
इस प्रकार से आचार्य अजितसेन के लक्षण में समुच्चय के तीन भेद किए जा सकते हैं -
10 क्रिया समुच्चय, 20 गुण समुच्चय, 36 किसी एक कार्य को सिद्ध करने में अनेक कारणों की उपस्थिति मे होने वाला-कारण समुच्चय ।
आचार्य विद्यानाथ कृत आदि के दो भेद अजितसेन से प्रभावित है और कारण समुच्चय रूप तृतीय भेद में इन्होंने खलेकपोतन्याय का भी उल्लेख किया है । जिसका उल्लेख अजितसेन कृत परिभाषा मे नहीं है । तथापि अहमहमिकया पद के भाव से प्रेरित होकर ही विद्यानाथ ने खलेकपोतन्याय का उल्लेख किया।'
आचार्य विश्वनाथ ने भी अजितसेन कृत सभी भेदों को स्वीकार कर लिया है 12
समाधि -
आचार्य भामह ने इसके उदाहरण को ही प्रस्तुत किया है जिससे विदित होता है कि आरम्भ किए गए कार्य में यदि कहीं से सहायता प्राप्त हो जाए तो वहाँ समाधि अलकार होता है।'
आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ कारपान्तर के संयोग से कार्य सकर हो जाए, वहाँ समाधि नामक अलकार होता है ।
परवर्ती आचार्यों की परिभाषाएं मम्मट से प्रभावित हैं 15
आचार्य अजितसेन ने बताया कि जहाँ कार्य सिद्धि के लिए एक हेतु और अचानक उस कार्य को सुन्दर ढग से प्रतिपादित करने के लिए
प्रवृत्त हो
प्रताप०, पृ० - 555 सा0द0, 10/84-85 भा०, काव्याo, 3/10 समाधि सकरं कार्यकारणान्तरयोगत ।। का0प्र0, 10/125 का चन्द्रा0, सू० - 95 ख) र0म0, पृ0 - 664
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दूसरा हेतु भी उपस्थित हो जाए तो वहाँ समाधि अलकार होता है । आचार्य अजितसेन का कथन है कि कार्य सिद्धि मे एक कारण के प्रवृत्त होने पर काकतालीय न्याय से जहाँ अन्य कारण की प्रवृत्ति हो और कार्य सुन्दर ढंग से प्रतिपादित हो जाए, वहीँ समाधि नामक अलकार होता है । ।
परवर्ती काल मे रूय्यक तथा अप्पय दीक्षित ने भी अजितसेन की ही भाँति काकतालीय न्याय से कारणान्तर के आगमन की चर्चा की है जो कार्य को सुन्दर ढंग से प्रतिपादित करने में समर्थ हो जाता है 12
(80
लोकन्यायमूलक अलंकार. -
भाविक
इस अलकार का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य भामह ने किया । इनके अनुसार भाविकत्व को प्रबन्ध विषयक गुण कहा गया है । जिसमे भूत एव भावी पदार्थों का प्रत्यक्षत अवलोकन किया जाता है । अर्थ की विचित्रता, उदात्तता, कथा की अभिनेयता, अद्भुतता और शब्दों की अनुकूलता इसके हेतु बताए गये है। 3
की है ।
:: 205 ::
आचार्य दण्डी ने भाव का अर्थ कवि के अभिप्राय से लिया है जो सम्पूर्ण काव्य मे विद्यमान रहता है । इसीलिए भामह की भाँति इन्होंने भाविक को प्रबन्ध विषयक गुण ही कहा है । 4
रुद्रट, वामन तथा पण्डितराज जगन्नाथ ने इसकी चर्चा नहीं
I
2
3
4
-
टीकाकार वामन झलकीकर के अनुसार अतीत तथा अनागत पदार्थों का
कार्यसिद्धयथमिकस्मिन् हेतौ यत्र प्रवृत्ति के । काकतालीयवृत्तोऽस्य समाधिरुदितो यथा ।।
(क) कारणान्तरयोगात्कार्यस्य सुकरत्व समाधि । (ख) समाधि कार्यसौकार्य कारणान्तर सन्निधे ।
काव्यालकार, 3/53-54
काव्यादर्श 2 / 364 - 366
31040 4/301
अ०स० सू० 68
कुव0, 118
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प्रत्यक्षवत् प्रतिपादन करना भाविक अलकार है । जिस प्रकार से योगीजन भूत तथा भविष्यकालीन सम्पूर्ण विषयों का साक्षात्कार कर लेते है ठीक वैसे ही कवि भी भूत तथा भविष्य की बातों को वर्तमान समझते है । '
उद्भट ने सर्वप्रथम भाविक को काव्यालकार की सज्ञा दी । उद्भट के पूर्ववर्ती आचार्यों ने इसे प्रबन्ध, नाटक अथवा आख्यायिका का अलकार माना है । उद्भट ने भामह द्वारा स्वीकृत भाविक के निष्पादक तत्त्वों मे से केवल 'अद्भुतता' एव 'वाचामनाकुल्य' को ही स्वीकार किया । इनके अनुसार भूत या भावी आश्चर्यजनक वस्तुएँ जहाँ सुबोध शब्दों मे प्रत्यक्ष की भाँति वर्णित हो वहाँ भाविक अलकार होता है । 2
परवर्ती आचार्यों की परिभाषाएँ भामह से प्रभावित है । 3
अजितसेन की परिभाषा भी उद्भट से भिन्न नहीं कही जा सकती क्योंकि इन्होंने भी अतीत व अनागत वस्तुओं के प्रत्यक्षवत् वर्णन को भाविक अलकार के रूप से स्वीकार किया है । मानव चित्त को भावित करने के कारण ही इस अलकार को भाविक के रूप मे स्वीकार किया गया है ।
4
प्रेयस् :
आचार्य भामह ने प्रेय अलंकार का लक्षण न देकर केवल उदाहरण ही प्रस्तुत किया है 15 आचार्य दण्डीने प्रियतर आख्यान को प्रेय की अभिधा प्रदान की है 16 उद्भट की परिभाषा भामह व दण्डी से भिन्न है । इनके
1
2
3
4
5 6
बा०ब० टीका पृ० 767
प्रत्यक्षा इव यत्रार्था दृश्यन्ते भूतभाविन । अत्यद्भुता स्यात्तद्वाचामनाकुल्येन भाविकम् ।।
(क) का०प्र०, 10 / 114
(ख) चन्द्रा0, 5/113
(ग) सा0द0, 10/93, कुव0, 161 (घ) अ०र०, सू0 107 यत्रात्यद्भुतचारित्रवर्णनाद् भूतभावन । प्रत्यक्षायितता प्रोक्ता वस्तुनोभाविकं यथा ।। भा०, काव्या०, 3/5 प्रेयोप्रियतराख्यानम् ।
काव्या0सा0स0, 6/6
अ०चि०, 4/303 एवं वृत्ति
का0द0, 2/275
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अनुसार जहाँ अनुभावादि के द्वारा रत्यादि भावों की सूचना दी जाए वहाँ प्रेय अलकार होता है ।।
आचार्य अजितसेन के अनुसार अत्यन्त अभिमत वस्तु के कथन मे प्रेयस् अलकार होता है । इनकी परिभाषा आचार्य दण्डी के समान है 12 आचार्य रुय्यक प्रियतर आख्यान के गुम्फन मे प्रेय अलकार स्वीकार किया है3 जबकि शोभाकर मित्र रसादि की अगता मे, जयदेव विश्वनाथ, अप्पय दीक्षित, भट्टदेव शकर पुरोहित तथा विश्वेश्वर पर्वतीय आदि भाव की परांगता मे इसकी स्थिति स्वीकार किया है । 4
उपर्युक्त विवेचन से विदित होता है कि प्रेय अलकार के सम्बन्ध मे विद्वानों की दो धाराएँ है । प्रथम धारणा उन आचार्यों की है जो प्रियतर आख्यान मे प्रेम अलकार को स्वीकार करते है इन आचार्यों मे भामह, दण्डी, उद्भट तथा अजितसेन है । द्वितीय धारणा उन आचार्यों की है जो भाव की परागता मे इसकी सत्ता स्वीकार करते है । इस परम्परा के प्रमुख आचार्य जयदेव, विश्वनाथ, अप्पय दीक्षित आदि है ।
रसवत्.
1
2
इस अलकार की उद्भावना आचार्य भामह ने की है । इनके अनुसार जिसमें श्रृंगारादि रसों की प्रतीति हो वहाँ रसवत् अलकार होता है । अलकारवादी आचार्य होने के कारण इन्होंने रसों का अन्तर्भाव रसवत् अलकार मे कर दिया 15
3
4
:: 20/ ::
-
5
रत्यादिकाना भावानां अनुभावादि सूचनै । यत्काव्य वध्यते सद्भि तत् प्रेयस्वदुदाहृतम् ।।
यत्रेष्टतरवस्तूक्ति सा प्रेयोऽलकृतिर्यथा । -
अ०स०, सूत्र 83
(क) अ०र०, 109 तथा वृत्ति
(ख) चन्द्रा0, 5/117
(ग) सा0द0, 10/96
(घ) कुव0, 170
-
-
(ड) अ०मं०, पृ०
छ) कुव0, 170
(च) अ०प्र०, 116
रसवद्दर्शितस्पष्टशृगारादि रस यथा ।
227
काव्या०सा०स०, 4/2 अ०चि०, 4/306
काव्या0 3/6
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:: 208 ::
आचार्य दण्डी ने रत्यादि से रमणीय आख्यान को रसवत् कहा है ।' शिला मेघसेन कृत परिभाषा दण्डी अनुकृत है ।2 आचार्य उद्भट ने भामह की ही शब्दावली का प्रयोग किया है । आचार्य कुन्तक को रसवत् की अलकारता अभीष्ट नहीं है ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जिसमे श्रृगारादि रस की विशेष पुष्टि का वर्णन हो उसे रसवत् अलकार कहा गया है । इनकी परिभाषा पर भामह का स्पष्ट प्रभाव है । रुय्यक की परिभाषा भामह से प्रभावित है । शोभाकर मित्र, जयदेव, अप्पय दीक्षित, भट्टदेव शकर पुरोहित ने रसों का रसादि के प्रति अगता मे रसवत् अलकार स्वीकार किया है।
ऊर्जस्वी.
आचार्य भामह ने इसका उदाहरण मात्र ही प्रस्तुत किया है किन्तु उदाहरण के अवलोकन से विदित होता है कि इन्हे गर्वोक्ति मे ऊर्जस्वी अलकार अभीष्ट है 18 आचार्य दण्डी तथा अमृतानन्दयोगी शिलामेसेन ने रूढाहकार को ऊर्जस्वी अलकार के रूप मे स्वीकार किया है । आचार्य उद्भट के अनुसार जहाँ काम क्रोधादि के कारण भायो" तथा रसों का अनुचित प्रयोग हो वहाँ
रसवदसेपशलम् । का0द0, 2/275 बौद्धा0 भाग 2, 272 काव्या0सा0स0, -4/3 अलकारों न रसवत् परस्याप्रतिभासनात् । व0जी0, 3/।। शृगारादिरसोत्पुष्टिर्यत्र तद्रसवद् यथा । अचि0, 4/306 अ0स0, 83 एक अ0र0, 109 ख चन्द्रा0, 5/117 ग कुव0, 170 gol अ0म0, पृ0 - 226-27 ऊर्जस्वि कर्णेन यथापार्थाय पुनरागत । द्वि सन्दधाति कि करण शल्यत्यहि अपाकृत ।। काव्याo, 3/7
क) का0द0, 2/275 खि अ0स0, 37 उत्तरार्ध
गः बौद्धा0 भाग-2, 272 काव्या० सा0स0, 4/5
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209 ::
ऊर्जस्वी अलकार होता है ।' कुन्तक को ऊर्जस्वी अलकार स्वीकार नहीं है।2
___ आचार्य अजितसेन ने आत्मश्लाघा मे ऊर्जस्वी अलकार को स्वीकार किया है । इस प्रकार अजितसेन तक ऊर्जस्वी अलकार की समीक्षा करने से विदित होता है कि गर्वोक्ति, रूढाहकार तथा आत्मश्लाघा मे ऊर्जस्वी अलकार होता है । रुय्यक कृत परिभाषा आचार्य दण्डी से प्रभावित है । शोभाकर मित्र रत्यादि की अगता मे इसे स्वीकार करते है । आचार्य जयदेव, विश्वनाथ, दीक्षित तथा भट्टदेव शकर पुरोहित, रसाभास तथा भावाभास मे इसकी सत्ता स्वीकार करते है । इस प्रकार अजितसेन के पश्चात् इसके लक्षण मे अत्यधिक अन्तर आ गया । रत्यादि की अगता, रस तथा भावों के अनुचित प्रयोग मे ऊर्जस्वी अलकार को मान्यता प्राप्त हुई।
प्रत्यनीक -
आचार्य रुद्रट के अनुसार जहाँ उपमेय को उत्कृष्ट बनाने के लिए उपमेय को जीतने की इच्छा से जहाँ विरोधी उपमान की कल्पना की जाती है वहाँ प्रत्यनीक अलकार होता है ।
आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ प्रतिपक्षी का उपकार करने में असमर्थ व्यक्ति उसके किसी सम्बन्धी का तिरस्कार करे, वहाँ प्रत्यनीक अलकार होता है । मम्मट की यह परिभाषा रुद्रट से भिन्न है 18
अचि0, 4/209
काव्या0सा0सं0, 4/5 व0जी0, 3/12 यत्रात्मश्लाघनारोहो यथा सोर्जस्वलक्रिया । अ0स0, सू० - 83 अ0र0, सूत्र 109 का रसभाव तदाभास भावशन्ति निबन्धनात् ।
रसवत्प्रेयऊर्जस्व समाहि तमथाभिधा ।। ख सा0द0, 10/96 गि कुव0 170
p अ०म० पृ0 - 226-28 काव्या०, 8/92 का0प्र0, 10/129
चन्द्रा0 5/117
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:: 210 ::
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ शत्रु के वध में असमर्थ रहने पर शत्रु के सगी को दोष दिया जाए, वहाँ प्रत्यनीक अलकार होता है । इस अलकार मे जब कोई व्यक्ति समर्थ प्रतिपक्ष का निराकरण करने में असमर्थ हो जाता है तो तत्सम्बन्धी किसी अन्य व्यक्ति का निराकरण करे तो वहाँ प्रत्यनीक अलकार होता है ।
परवती आचार्यों की
परिभाषाएँ मम्मट
तथा
अजितसेन
के
समान
है 12
व्याधात:
व्याघात अलकार का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य रुद्रट ने किया । इनके अनुसार जहाँ दूसरे कारणों के विरोधी न होते हुए भी, 'कारण' कार्य का जनक नहीं होता वहाँ व्याघात अलकार होता है 13
___ मम्मट के अनुसार जब किसी व्यक्ति के द्वारा जिस प्रयत्न से किसी कार्य को सिद्ध किया जाता है, उसी प्रयत्न से यदि कोई दूसरा व्यक्ति उस कार्य को उसके विपरीत कर दे, तो वहाँ व्याघात अलकार होता है 14
रुय्यक ने एक अन्य प्रकार के व्याघात की चर्चा की है इनके अनुसार सुकर्ता के साथ यदि कार्य के विपरीत क्रिया हो तो वहाँ भी व्याघात अलकार होता है । इनकी परिभाषा मम्मट से प्रभावित है 15
आचार्य अजितसेन के अनुसार - जो वस्तु जिस किसी कर्ता के द्वारा
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प्रत्यनीक रिपुध्वंसाशक्तो तत्सगिदूषणम् ।।
अ०चि0, 4/309 का प्रत्यनीक बलवत शत्रो पक्षे पराक्रम ।।
चन्द्रा0 5/99 खि तत्सम्बन्धित्व च सादृश्यादिसम्बन्धमूलम् ।
विम0, पृ0 206 (गप्रत्यनीक बलवत शत्रो पक्षे पराक्रम ।
कुव0, 119 घा प्रतिपक्षसम्बन्धिनतिरस्कृति प्रत्यनीकम् । र०म०, पृ0 - 665 रू0, काव्या0, 9/52 यद्यथा साधितं केनाप्यपरेप तदन्यथा । तथैव यद्विधीयेत् स व्यामत इति स्मृत '। का0प्र0, 10/138, 139 यथासाधितस्य तथैवान्येनान्यथाकरणं व्याघात. ।
अ0स0, पृ0 - 173
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जिस साधन से सिद्ध की गयी हो, वही वस्तु किसी दूसरे कर्ता के द्वारा उसी साधन से विपरीत बना दी जाये, तो वहाँ व्याघात अलकार होता है ।'
आचार्य विद्यानाथ. शोभाकर मित्र. अप्पय दीक्षित तथा पण्डितराज कृत परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है 12
पर्याय -
इस अलकार का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य रुद्रट ने किया है । इनके अनुसार जहाँ एक वस्तु की अनेकत्र तथा अनेक वस्तु की एकत्र स्थिति का प्रतिपादन किया जाए वहाँ पर्याय अलकार होता है । आचार्य भोजकृत परिभाषा रूद्रट से भिन्न है इनके अनुसार जहाँ मिष, भगी तथा अवसर की निराकाक्ष तथा साकांक्ष उक्ति हो, वहाँ पर्याय अलकार होता है 14 आचार्य मम्मट कृत परभाषा रुद्रट से प्रभावित है । मम्मट के अनुसार भी जहाँ एक वस्तु की अनेकत्र तथा अनेक वस्तु की एकत्र स्थिति मानी जाए वहाँ पर्याय अलकार होता है ।
आचार्य अजितसने कृत परिभाषा को भी रुद्रट से भिन्न नहीं कहा जा सकता । इनके अनुसार जहाँ एक में अनेक तथा अनेक में एक आधेय का वर्णन हो वहाँ पर्याय अलकार होता है । उक्त कारिका मे क्रमेण पद के द्वारा समुच्चयालकार की तथा विशेषालकार की व्यावृत्ति हो जाती है । इनके पूर्ववर्ती आचार्यों ने समुच्चय एव विशेषालकार की व्यावृत्ति विषयक चर्चा नहीं की है।
अ०चि0, 4/312 का प्रताप० पृ0 - 564 ख उत्पत्तिविनाशयोरेकोपायत्वे व्याघात । अ0र0, पृ0 - 113 म कुव0, 102-103 घि र0ग0, पृ0 - 617-618 . रु0, काव्या0, 7/44 स0क0म0, 4/80 एक क्रमेपानेकस्मिन्पर्याय । का0प्र0, 10/117, 50वृत्ति । क्रमेणानेकमेकस्मिन्नेकं वा यदि वर्तते । अनेकस्मिन् यदाधेयंपर्याय सद्विधा यथा ।। अचि0, 4/314
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आचार्य रुय्यक, शोभाकर मित्र, दीक्षित तथा पण्डितराज कृत परिभाषा अजितसेन के समान है ।
सूक्ष्म -
आचार्य भामह हेतु सूक्ष्म तथा लेश को अलकार मानने के पक्ष में नहीं है । इस सन्दर्भ मे भामह का कथन है कि इन अलकारों मे वक्रोक्तिकाअभाव रहता है अत इन अलकार की कोटि मे स्वीकार करना उचित नहीं है 12
आचार्य दण्डी ने इगित और आकार से लक्षित अर्थ को सूक्ष्म अलकार के रूप में स्वीकार किया है तथा इसे वाणी का उत्तम आभूषण भी बताया है । आचार्य मम्मट के अनुसार कहीं से लक्षित सूक्ष्म अर्थ यदि अन्य व्यक्ति पर प्रकट कर दिया जाए तो वहाँ सूक्ष्म अलकार होता है । आचार्य अजितसेन ने मम्मट के लक्षण के आधार पर सूक्ष्म को परिभाषित किया है इनके अनुसार जहाँ आकार एव चेष्टा से पहचाना हुआ सूक्ष्म पदार्थ किसी चातुर्यपूर्ण सकेत से सहृदयवेद्य बनाया जाए तो वहाँ सूक्ष्म अलकार होता है । विद्यानाथ, विश्वनाथ तथा अप्यय दीक्षित कृत परिभाषा अजितसेन के समान है ।'
क) अ0स0, सू० - 61 ख) अर0, ग कुव0, 110 घा र0म0, पृ0 - 645 ड! चन्द्रा, 5/93 भा०काव्या0, 2/83 हेतुश्चसूक्ष्मलेशौ च वाचामुत्तमभूषणम् । इंमिताकारलक्ष्योऽर्थ सौक्ष्म्यात् सूक्ष्मइति स्मृत ।। का0प्र0, 10/122 . कायाकारेंगताभ्या हि सा सूक्ष्मालकृतियथा । सुभद्रा नवसर्गे प्रिये क्षुतवति द्रुतम् ।। क) असलक्षितसूक्ष्मार्थ प्रकाशः सूक्ष्म उच्यते । ख/ सा0द0, 10/91 गि कुव0 151
. का0द0, 2/235
अचि0, 4/317
प्रताप0 पृ0 - 566
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उदात्त:
आचार्य भामह के अनुसार जहाँ चरित्र की महत्ता या सम्पत्ति की सवृद्धि का वर्णन किया जाए वहाँ उदात्त अलकार होता है । आचार्य दण्डी ने भी आशय तथा सम्पत्ति के वर्पन में उदात्त अलकार को स्वीकार किया है । उद्भट कृत परिभाषा भामह से प्रभावित है । आचार्य मम्मट - महापुरूषों के चरित्र वर्णन मे तथा वस्तु - सम्पत्ति के वर्षन मे उदात्त अलकार को स्वीकार करते है । आचार्य रुय्यक, शोभाकर मित्र, जयदेव तथा अप्पय दीक्षित कृत परिभाषाएँ समान है । जबकि आचार्य अजितसेन, महासवृद्धि के वर्णन मे ही उदात्त अलकार को स्वीकार किया है । यह सम्वृद्धि चारित्रिक भी हो सकती है क्योंकि उनके द्वारा प्रदत्त उदाहरण मे चारित्रिक सम्वृद्धि तथा धन सम्वृद्धि दोनों का ही प्रतिपादन किया गया है । इससे विदित होता है कि इन्हे भी सवृद्धि वर्णन तथा चरित्र वर्णन मे उदात्त अलकार अभीष्ट है । विद्यानाथ कृत परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है ।।
काव्या0, 3/11-12 का0द0, 2/300 काव्या० सा0स0, 4/8 का0प्र0, 10/115
का समृद्धि वस्तुवर्णनमुदात्तम् ।। अ0स0, सूत्र - 8। एख, उदारचरितामत्वमुदात्तम् ।। अ0र0, सू0 - 108 ग उदात्तमृद्धश्चरित श्लाध्य चान्योपलदाणम् ।। चन्द्रा0, 5/115 घ, उदात्तद्धिश्चरित श्लाध्य चान्योपलक्षणम् ।। कुव0 सू0 162 महासमृद्धिरम्याणा वस्तूना यत्र वर्णनम् । विधीयते च तत्र स्यादुदात्तालंक्रिया यथा ।। अ०चि0, 4/319 तदुदात्त भवेद्यत्र समृद्ध वस्तु वर्ण्यते । प्रताप0 पृ0 - 567
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परिवृत्तिः -
इस अलकार का सर्वप्रथम उल्लेख भामह ने किया इनके अनुसार अन्य वस्तु के त्याग द्वारा अन्य विशिष्ट वस्तु का आदान करना ही परिवृत्ति है इन्होंने इसे अर्थान्तरन्यास से अनुप्राणित भी बताया है ।। उद्भट ने सम, न्यून, विशिष्ट तथा अर्थानर्थ मे इसकी सत्ता स्वीकार की है । 2 आचार्य वामन ने सामान्य या असामान्य अर्थों द्वारा अर्थों के परिवर्तन को परिवृत्ति कहा है । 3 आचार्य ने केवल दान - आदान मे परिवृत्ति को स्वीकार किया है । 4
रुय्यक तथा शोभाकर मित्र कृत परिभाषा उद्भट से
प्रभावित है। 5
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ समान वस्तु से असमान वस्तु का विनिमय हो वहाँ परिवृत्ति नामक अलकार होता है । इन्होंने । सम परिवृत्ति, (2) न्यून परिवृत्ति तथा 30 अधिक परिवृत्ति का भी उल्लेख किया है ।
परवती काल मे विद्यानाथ, विश्वनाथ, जयदेव तथा अजितसेन कृत भेदों को सादर स्वीकार कर लिया 17
।
2
3
4
आचार्य मम्मट,
5
6
7
भा० काव्या०, 3/41
काव्या०सा०स०, 5 / 16
समविसदृशाभ्या परिवर्तन परिवृत्ति ।
अप्पय दीक्षित ने
काव्या०सू०, 4/3/16
रु०, काव्या०, 7/77
(क) परिवृत्तिर्विनियमो योऽर्थाना स्यात्समासम 11 का0प्र0, 10/13 (ख) अ०स०, सू0 62
(ग) अ०र०, सू० 90
भवेद्विनिमयोयत्र समेनासमत सह ।
-
569
समन्यूनाधिकानास्यात् परिवृत्तिस्त्रिधा यथा ।। अ०चि0 4/321 क) प्रताप०, प० (ख) परिवृत्तिर्विनिमय समन्यूनाधिकैर्भवेत् । सा0द0, 10/80 (ग) परिवृत्तिर्विनिमयो न्यूनाभ्यधिकयोर्मिंथ ।। चन्द्रा0, 5/94 घ) परिवृत्तिर्विनिमयो न्यूनाभ्यधिक योर्मिथ । कुव0, 112
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10
श्रृंखलान्यायमूलक अलंकार -
कारपमाला.
आचार्य भामह, वामन तथा उद्भट ने इसका उल्लेख नहीं किया । प्रथमत रुद्रट ने इसका निर्वचन वास्तव वर्ग के अलकारों मे किया है । प्रथम-प्रथम पदार्थ से उत्तर-उत्तर पदार्थ उत्पन्न होते है । अत परवर्ती पदार्थों के प्रति पूर्व- पूर्ववती पदार्थ कारण होने के कारण इस अलकार को कारणमाला की अभिधा प्रदान की गयी है ।।
आचार्य मम्मट ने भी रुद्रट का अनुसरण किया है ।2 आचार्य शोभाकर मित्र उत्तर-उत्तर पदार्थ को भी पूर्व-पूर्व पदार्थ के प्रति कारण बताया है तथा इसे शृखला अलकार के रूप में निरूपित किया है । रुद्रट मम्मट तथा सर्वस्वकार ने इसकी
ओर ध्यान नहीं दिया । अप्यय दीक्षित ने रत्नाकरकार के विचारों का अनुमोदन किया है 4
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ पूर्व-पूर्व वर्षित पदार्थ उत्तरोत्तर वर्णित पदार्थों के कारण रूप में वर्णित हो वहाँ कारण माला अलकार होता है । इनकी परिभाषा पर रुद्रट, मम्मट तथा स्य्यक का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है ।
विद्यानाथ कृत परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है ।
एकाक्ली:
आचार्य रुद्रट ने अर्थों की परम्परा को उत्तरोत्तर उत्कृष्ट किए जाने
कारपमाला सेय यत्र यथापूर्वमेतिकारपम् । अर्थानां पूर्वार्थाद्भवतीद सर्वमेवेति ।। यथोत्तरं चेत्पूर्वस्य पूर्वस्यार्थस्य हेतुता । तदा कारपामालास्यात् ।
काव्या0, 7/84
का0प्र0, 10/120 अ0र0, सूत्र 96
कुव0, 104
उत्तरोत्तरस्य पूर्वपूर्वानुबन्धित्व विपर्ययोवा श्रृंखला । गुम्फ कारणमाला स्याद्यथाप्राकमान्तकारणे । प्रत्युत्तरोत्तर हेतु पूर्व पूर्व यथा क्रमात् । असौ कारपमालाख्यालकारों भपितो यथा । प्रताप० पृ0 - 570
अ०चि0, 4/325
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मे एकावली अलकार को माना है ।।
आचार्य भोज इसे परिकर से अभिन्न स्वीकार करते है और इसकी स्थिति शब्दगत्, अर्थगत तथा उभयगत मानते है । 2
आचार्य मम्मट कृत परिभाषा पर रुद्रट का प्रभाव है । इनके अनुसार जब पूर्व - पूर्व वस्तु के प्रतिउत्तरोत्तर वस्तु विशेषण रूप से स्थापित की जाए या हटायी जाए तो वहाँ एकावली अलकार होता है । 3
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ पूर्व- पूर्व वर्णित वस्तु के लिए उत्तरोत्तर वर्णित वस्तु का विशेषण रूप से क्रमश विधान किया जाए वहाँ एकावली अलकार होता है 14 इन्होंने स्थापन तथा अपोहन पद का उल्लेख नहीं किया है । शेष अंशों में इनकी परिभाषा मम्मट के समान है ।
आचार्य रूय्यक और विद्यानाथ तथा जगन्नाथ कृत परिभाषा अजितसेन के समान है 5 जबकि जयदेव और दीक्षित क्रमिक रूप से ग्रहण किए गए और मुक्त किये गये पदार्थों मे एकावली स्वीकार करते हैं 16
मालादीपक -
माला दीपक का सर्वप्रथम उल्लेख काव्यादर्श मे प्राप्त होता है 1 जहाँ पूर्व-पूर्व वाक्य की अपेक्षा करने वाली वाक्यमाला का प्रयोग हो वहाँ मालादीपक
1
2
3
4
5
6
काव्या0, 7/109
स०क०भ०, 4/76
1090, 10/131
यत्रोत्तरोत्तर पूर्वं पूर्वं प्रति विशेषणम् । क्रमेण कथ्यते त्वेकावल्यलंकार इष्यते ।।
(क) यथापूर्वं परस्य विशेषणतया स्थापनापोहने एकावली ।
(ख) प्रताप
571
०ग०, पृ० - 624
(क) गृहीतमुक्तरीत्यर्थश्रेणिरेकावलीमता ।। (ख) गृहीतमुक्तरीत्यर्थश्रेणिरेकावलिर्मता ।।
31040, 4/327 अ०स०सू० 55
चन्द्रा0 5/88 कुव0, 105
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नामक अलकार का प्रयोग होता है यह मालादीपक सभी वाक्यों में अन्वित होने वाला पद सापेक्ष व्यवस्थित हो तभी होता है ।' आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ अनेक पदार्थों का सम्बन्ध एक ही गुण से बताया जाए वहाँ मालादीपक नामक अलकार होता है इसमें पूर्व में आए हुए पदार्थ का उत्तरोत्तर कथित पदार्थ के विशेषण के रूप में कथन किया जाता है । मम्मट ने पूर्व-पूर्व में कथित वस्तु का उत्तरोत्तर कथित वस्तु के उपकारक रूप मे वर्णन को मालादीपक कहा है । आचार्य रूय्यक इसे दीपक अलकार के प्रस्ताव के अन्तर्गत स्वीकार करने की चर्चा की है और इनके लक्षण पर मम्मट का प्रभाव है ।
___ आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ उत्तरोत्तर वस्तु के प्रति पूर्व-पूर्व वर्णित वस्तु की अपेक्षा उत्कृष्टता हो वहाँ मालादीपक अलकार होता है 14 आचार्य अजितसेन कृत परभाषा पर मम्मट का प्रभाव परिलक्षित होता है । जहाँ मम्मट ने 'चेद्ययोत्तरगुणावहम्' पद का उल्लेख किया है वहीं आचार्य अजितसेन ने यत्रोत्तरोत्तर प्रत्युत्कृष्टत्वावहताभवेत्' का उल्लेख किया है । आचार्य विद्यानाथ कृत परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है । आचार्य विश्वनाथ अनेक धर्मियों का एक धर्म के साथ उत्तरोत्तर सम्बन्ध स्थापित होने पर मालादीपक अलंकार स्वीकार करते हैं । आचार्य जयदेव, दीक्षित तथा जगन्नाथ दीपक तथा एकावली के योग से इसकी निष्पत्ति स्वीकार करते है ।'
सार.
__ आचार्य रुद्रट के अनुसार जहाँ किसी समुदाय में से एक देश स्थान) को क्रम से पृथक् करके गुण सम्पन्न होने से उसकी उत्कृष्टता की चरम सीमा
•-
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काव्यादर्श - 278
वही, प्रकाश टीका
अ0चि0, 4/330
का0प्र0, 10/104 अ0स0, सू० - 56 यत्रोत्तरोत्तर प्रत्युत्कृष्टत्वावहता भवेत् । पूर्वपूर्वस्य वै चैतन्मालादीपकमिष्यते ।। प्रताप० पृ0 - 572 सा0द0, 10/76
का दीपकैकावलीयोगान् मालादीपकमुच्यते ।। खि दीपकैकावलीयोगान्मालादीपकमिष्यते । गि रग, पृ० - 625
चन्द्रा0, 5/89 कुव0, 107
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अलकार मे विभिन्न
।
जयरथ और जगन्नाथ
निश्चित की जाती है उसे सार कहते है । आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ चरमसीमा तक किसी पदार्थ के उत्तरोत्तर उत्कृर्ष का वर्णन किया जाए वहाँ सार अलकार होता है । 2 आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा भी मम्मट के समान है । इन्हे भी उत्तरोत्तर उत्कर्षा वर्णन मे सार अलकार अभीष्ट है । 3 आचार्य रूय्यक जयदेव, अप्पय दीक्षित तथा पण्डितराज जगन्नाथ कृत परिभाषा प्राय अजितसेन के समान है । "किन्तु कारणमाला, एकावली मालादीपक और सार वर्ण्य पदार्थों का पारस्परिक सम्बन्ध श्रृंखलामूलक होता है ने इसपर विचार किया है कि ये चारों अलकार श्रृंखला अथवा इनकी सत्ता स्वतन्त्र अलकारों के रूप में मानी जाय ? विचार विमर्श के अनन्तर दोनों विद्वान् इस निष्कर्ष पर पहुँते हैं कि इन्हे स्वतंत्र रूप मे अलकार स्वीकारना चाहिए क्योंकि प्रत्येक का अपना अपना सौन्दर्य है अन्यथा औपम्य और विरोध दो अलकार मानकर समग्र औपम्यमूलक एवम् विरोध मूलक अलकारों को उन्हीं में समाविष्ट करना पडेगा । "5 आचार्य शोभाकर मित्र ने सार अलकार का निरूपण नहीं किया है क्योंकि वे सार के स्थान पर वर्धमान नामक अलकार स्वीकार करते है 16
अलकार के भेद है
[100 मिश्र अलंकार -
संसृष्टि -
ससृष्टि का विवेचन सर्वप्रथम आचार्य भामह ने किया । इनके अनुसार रत्नमाला की भाँति जहाँ अनेक अलकारों का सम्मिश्रण हो वहाँ ससृष्टि अलकार
1
2
3
4
5
6
-
410, 7/96
उत्तरोत्तरमुत्कर्षो भवेत्सार परावधि ।
यत्रोत्तरोत्तरोत्कर्ष सा सारालकृतिर्यथा ।।
(क) उत्तरोत्तरमुत्कर्ष सार ।। (ख) सारोनाम पदोत्कर्ष सारतायायथोत्तरम् ।। (ग) उत्तरोत्तरमुत्कर्ष सार इत्यभिधीयते ।। (घ) सेक्ससर्गस्योत्कृष्टापकृष्टभावरूपत्वे सार 11
चन्द्रालोक - सुधा हिन्दी टीका, ले0 सिद्धसेन दिवाकर रूपधर्माभ्यामाधिक्य वर्धमानकम् ।
का0प्र0, 10/123
अ०चि०, 4/332
अ०स०, सू0 56 चन्द्रा0, 5/90
कुव0, 108
626
र०ग०, पृ०
अ०र० सू०
-
-
93
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होता है ।
आचार्य दण्डी ने गोष प्रधान भाव से अलकारों के सम्मिश्रण को संसृष्टि कहा है 12
आचार्य वामन ने कार्यकारण भाव में ससृष्टि की सत्ता स्वीकार की है।
आचार्य उद्भट ने दो अथवा बहुत से अलकारों का निरपेक्षभाव से स्थिति को ससृष्टि कहा है ।
आचार्य मम्मट की परिभाषा पूर्ववर्ती आचार्यों से भिन्न है । मम्मट के अनुसार जहाँ परस्पर निरपेक्ष अनेक अलकारों की एकत्र स्थिति हो वहाँ ससृष्टि अलकार होता है । तथा इसके निम्नलिखित भेद भी किए है - शब्दगत ससृष्टि, अर्थगत स्सृष्टि तथा उभयगत ससृष्टि ।
आचार्य बलदेव विद्याभूषण कृत परिभाषा मम्मट से अनुकृत है । आचार्य अजितसेन तिल तण्डुल न्याय से रूपकादि अलकारों की श्लिष्ट प्रतीति को ससृष्टि के रूप में स्वीकार करते है ।
इनकी भेद व्यवस्था मम्मट के ही समान है । इन्हें अलकारों की शब्दनिष्ठता, अर्थनष्ठता तथ शब्दार्थनष्ठता मे स्सृष्टि अलकार स्वीकार है । सृष्टि के
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भा०, काव्याo, 3/49, 47
वराविभूषा ससृष्टिवस्वलंकारयोगत । रचितारत्नमालेव सा चैवमुदिता यथा ।। श्लिप्टस्यार्थेन सयुक्त किञ्चिदुत्प्रेक्षयान्वित । रूपकार्थेन च पुनरुत्प्रेक्षावयवो यथा ।। का0द0 2/359, 60 काव्या० सू०, 4/3/30, 31, 32 अलकृतीना बबीना द्वयोपि समाश्रय । एकत्र निरपेक्षापा मिथ ससृष्टिरूच्यते ।। सेष्टा ससृष्टिरेतेषा भेदेन यदिह स्थिति । सा०कौ0, 10/54 तिलतण्डुलवच्छ्लेषा रूपकाद्या अलंक्रिया । अत्रान्योन्य च ससृष्टि शब्दार्थोभयतस्त्रिधा ।।
काव्या0सा0स0, 6/5 का0प्र0 10/139 दृष्टव्य वृत्ति
अ०चि0, 4/333
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लक्षण मे तिलतण्डुलन्याय का उल्लेख करके ससृष्टि के लक्षण को अधिक स्पष्ट बना देना अजितसेन की विशेषता है । जिस प्रकार तण्डुल तथा तिल दोनों का स्पष्ट अन्तर परिलक्षित होता रहता है ठीक उसी प्रकार से जहाँ अनेक अलकारों की स्थिति परस्परनिरपेक्ष भाव से हो वहाँ ससृष्टि अलकार होता है ।
परवर्ती काल मे स्य्यक तथा विद्यानाथ कृत परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है ।' आचार्य शोभाकर मित्र चारुत्व के अभाव मे ससृष्टि अलकार स्वीकार नहीं करते, किन्तु अनुसधात्री के विचार से निरपेक्षभाव से स्थित अलकारों मे मणिकाचन से उत्पन्न सौन्दर्य की भाँति सौन्दर्याधिक्य की सृष्टि होती है जो वस्तुत अलकार का सामान्य लक्षण है ।
सकर
प्राचीन आलंकारिको मे सर्वप्रथम उद्भट ने संकर अलंकार की कल्पना की । इनके अनुसार जहाँ किसी एक अलकार को मानने मे साधक तथा बाधक प्रमाणों का अभाव हो और शब्दालकार तथा अर्थालंकार आदि अनेक अलकारों का सम्मिश्रण हो वहाँ सकर अलकार होता है । 2
1
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आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ भिन्न भिन्न अलकारों की अगागिभाव से स्थिति हो, वहाँ सकर अलकार होता है । 3 इन्होंने इसके तीन भेदों का उल्लेख किया है
1
:: 220 ::
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2
3
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अंगांगिभाव सकर
संदेह सकर
एक वाचकानुप्रवेश
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ क्षीर- नीर न्याय से अनेक अलकार
(क) एषा तिलतण्डुलन्यायेन मिश्रत्व ससृष्टि । (ख) तिलतण्डुलसंश्लेषन्यायाद्यत्र परस्परम् । संश्लिष्येयुरलकारा सा संसृष्टिर्निगद्यते ।।
काव्या० सा० स०, 5 / 11, 12, 13
अविश्रान्तिजुषामात्मन्यगांगित्व तु सकर ।
अ०स० सू० 85
प्रताप0, 575
का0प्र0, 10/1400 वृत्ति |
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परस्पर मिले हों वहाँ सकर अलकार होता है । इन्होंने इसके तीन भेदों का
उल्लेख किया है ।
1
2
3
आचार्य रुय्यक एव अप्पय दीक्षित एव विद्यानाथ की परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है 12
1
स्वजातीयाविजातीयअगागिभाव सकर
एकशब्दप्रवेश सकर
सन्देह सकर
2
क्षीरनीरवदन्योन्यसंबन्धा यत्रभाषित । उक्तालकृतय सोऽय सकर कथितो यथा ।।
(क) नीरक्षीरन्यायेन तु सकर ।
(ख) नीरक्षीरन्यायेनास्फुटभेदालकारमेलने सकर I
(ग) नीरक्षीरनयाद्यत्र सबन्ध स्यात् परस्परम् । अलकृतीनामेतासां सकर स उदाहृत ।।
अ०चि०, 4/337
अ०स०, सू0 - 86 कुव0 285
प्रताप०, पृ0 - 576
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रस का महत्त्व अनादि काल से प्रतिपादित है । अलकारशास्त्र में रस को सर्वोपरि स्वीकार किया गया है तथा इसे आत्मा के समकक्ष माना गया है ।' भरतमुनि ने रस पर विवेचन करते हुए लिखा है कि रस के बिना काव्य मे किसी अर्थ का प्रवर्तन नहीं होता । 2
अग्निपुराण के अनुसार वाग्वैदग्ध्य की प्रधानता होने पर भी काव्य के जीवातु के रूप मे रस को ही स्वीकार किया गया है 1 3 किसी अज्ञात कवि ने रस की प्रशसा में कहा है कि यदि काव्य में रस्सम्पत्ति है तो अलकार व्यर्थ है । यदि रस सम्पत्ति नहीं है तो भी अलकारों का कोई महत्त्व नहीं है । 4 आचार्य आनन्दवर्धन ने बताया कि महर्षि वाल्मीकि के हृदय में विद्यमान शोक ही श्लोक के रूप में परिणत हुआ । जिससे यह सिद्ध होता है कि मानव के हृदय में स्थित शोक ही श्लोक की उत्पत्ति का कारण है । 5 महाकवि भवभूति इसी मत के पोषक प्रतीत होते है । अत यह रस क्या है इस सन्दर्भ में चर्चा करना नितान्त अपेक्षित है ।
1.
आचार्य भरत के अनुसार विभाव, अनुभाव तथा सचारी भाव के योग से रस निष्पत्ति की चर्चा की गयी है । 7 यद्यपि भरत कृत रस सूत्र अत्यन्त सरल प्रतीत होता है तथापि विभिन्न व्याख्याओं के कारण यह बहुत ही क्लिष्ट हो गया है । इस रस सूत्र के विभाव अनुभाव और व्यभिचारी भाव शब्दों की
2
3
4
अध्याय
6
काव्य रस, दोष तथा गुणादि निरूपण
сл
5
रस तथा रसावयव
6 7
सो वै स रस हयेवायं लब्ध्वा नन्दीभवति ।
तैत्ति० उप०, ब्रह्मानन्द वल्ली, अनु0-6
नहि रसादृते कश्चिदर्थ प्रवर्तते । ना०शा० अ० -6 वाग्वैदग्ध्यप्रधानेऽपि रस एवात्र जीवितम् ।
संस्कृत साहित्य का इतिहास, भाग - 2, कन्हैयालाल पोद्दार, पृ0-53
ध्वन्यालोक, 1/5
एकोरस करुण एव निमित्तभेदात् । उ०रा० अंक 3
विभावानुभावव्यभिचारिसयोगाद्रसनिष्पत्ति । ना०टा० अ० 46
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व्याख्या में कोई मतभेद नहीं है तथापि "सयोगात्" व 'निष्पति' पर्दों की व्याख्या करने में विभिन्न आचार्यों ने विभिन्न रूप से अपने-अपने विचारों को व्यक्त किया है। इस सम्बन्ध मे अन्तिम प्रमाणिक व्याख्या अभिनव गुप्त की स्वीकार की जाती है। उन्होंने स्योगात् पद का अर्थ व्यग्य व्यज्यक भावार्थ और निष्पत्ति का अर्थ अभिव्यक्ति करके रस को व्यग्य माना है । इन्होंने अपनी व्याख्या को प्रस्तुत करने के पूर्व भट्ट लोल्लट, श्री शकुक तथा भट्टनायक के मत को प्रस्तुत किया ।
भरत सूत्र के प्रथम व्याख्याकार भीमासक भट्ट लोल्लट है इनके अनुसार स्योगात् पद का अर्थ उत्पाद्य उत्पादक भाव सम्बन्धात् है तथा निष्पत्ति का
उत्पत्ति है ।
आचार्य भट्ट शकुक के अनुसार सयोगात् पद का अर्थ अनुमाप्य अनुमापक भाव सम्बन्धात् और निष्पत्ति का अर्थ अनुमिति है 12
आचार्य भट्ट नायक के अनुसार स्योगात् पद का अर्थ भोज्य भोजक भाव सम्बन्ध है तथा निष्पत्ति का अर्थ भुक्ति है । 3
भट्ट नायक ने भावकत्व तथा भोजकत्व रूप नवीन व्यापार की कल्पना की । जो परवर्ती आचार्यों को मान्य नहीं हुई क्योंकि भावना और भोग का समावेश व्यज्यक भाव मे हो जाता है । 4
व्यग्य
।
2
3
-
4.
-
5.
त्रयंशायामपि भावनायाकार पीशे ध्वननमेव निपतति ।
भोगोपि
---
आचार्य मम्मट के अनुसार विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव से अभिव्यक्त स्थायी भाव ही रस है 15 परवर्ती काल में विद्यानाथ, विश्वनाथ आदि
लोकोत्तरोध्वननव्यापार एव मूर्धाभिषिक्त ।
का०प्र०, दा० सत्यव्रत सिह, पृ0 लिए
मूल संस्कृत व्याख्या का०प्र०, पृ0 71
वही, पृ०
71
सO, सा०इति०, पृ०
का०प्र०, सूत्र 43
ध्वन्यालोक, पृ०
65
-
70
66 ) मूल संस्कृत व्याख्या के
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आचार्यों ने मम्मट विषयक रस सिद्धान्त को सादर स्वीकार कर लिया है ।
रस की अभिव्यक्ति मे भरतमुनि ने स्थायी भाव का उल्लेख नहीं किया जब कि मम्मट ने विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भाव से अभिव्यक्त स्थायी भाव को रस कहा है अत रस के उद्बोधक उपयुक्त परिभाषिक पदों के विषय मे ज्ञान प्राप्त कर लेना आवश्यक है ।
स्थायी भाव -
मनुष्य अपने जीवन मे जो कुछ भी देखता है, सुनता है, अनुभव करता है उसका सस्कार उसके हृदय मे वासना के रूप मे अवस्थित रहता है । वासना रूप में स्थित यह स्थायी भाव किसी प्रतिकूल या अनुकूल भावों से तिरोहित नहीं हो सकता 12 विभाव अनुभाव और संचारी भावों की अपेक्षा इनकी स्थिति चिरकालिक होती है । इन्हीं विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव से अभिव्यक्त हुआ स्थायी भाव रस कहा जाता है ।
आचर्य अजितसेन स्थायी भाव को रस न कहकर रस का अभि व्यञ्जक क्तया है इनके अनुसार इन्द्रिय ज्ञान से संवेद्यमान मोहनीय कर्म से उत्पन्न रस की अभिव्यक्ति कराने वाली चित्त वृत्ति रूप पर्याय ही स्थायी भाव है।
स्थायी भाव चित्त की वह अवस्था है जो परिवर्तन होने वाली अवस्थाओं में एक से रहती हुई उन अवस्थाओं से आच्छादित नहीं हो जाती, बल्कि उनसे पुष्ट होती रहती है । मुख्य भाव स्थायी भाव कहा जाता है अन्य भाव स्थायी भाव के सहायक एवं वर्धक होते हैं । इन्होंने रसाभिव्यञ्जक चित्तवृत्ति को स्थायी भाव के रूप में स्वीकार करके एक नवीन विचार प्रस्तुत किया है ।
विभाव का स्वरूप -
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ नाटक इत्यादि देखने वालों तथा
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एक प्रताप0 पृ0 - 258 खि सा0द0, 3/1 सा0द0, 3/174 का0प्र0, 4/27-28 तेनविद्यमानो यो मोहनीयसमुद्भव । रसाभिव्यञ्जक स्थायिभावश्चिद्वृत्तिपर्यय ।। अ०चि0, 5/2 रतिहासशुच क्रोधोत्साहौ भयजुगुप्सने विस्मय शम इत्युक्ता. स्थायिभावा नव क्रमात् ।। वही, 5/3
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काव्यादि को सुनने वालों के चित्त में रति आदि को जो आस्वाद्योत्पत्ति के योग्य बनाते हैं उन्हें विभाव कहा गया है । आलम्बन तथा उद्दीपन इसके दो भेद कहे गए हैं।
आलम्बन भाव -
जिन्हे आलम्बन बनाकर रस अभिव्यक्त होता है उसे आलम्बन विभाव कहते है2 तथा रस के उत्पादक को उद्दीपन विभाव कहते है । इनकी परिभाषा के अनुसार ही परवर्ती काल मे आचार्य विश्वनाथ ने भी विभाव के स्वरूप को अभिव्यक्त
किया 13
अनुभाव.
अनुभाव एक प्रकार का मनोविकार है जो हृदय में विद्यमान भावों को सूचित करत है । नायक तथा नायिकाओं की चेष्टाएँ कटाक्ष, भुजाक्षेप आदि का वर्णन जब काव्य मे किया जाता है तो उसे अनुभाव कहते हैं ।
साहित्यदर्पणकार कृत परिभाषा पर अजितसेन का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है 16
सात्विक भाव -
आचर्य अजितसेन ने चित्तवृत्ति में होने वाले भावों को सात्त्विक भाव के रूप में स्वीकार किया है तथा इनकी संख्या आठ मानी है । जो इस प्रकार है
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नाटकादिषु काव्यादौपश्यतां शृण्वता रसान् । विभावयेद् विभावश्चालम्बनोद्दीपनाद् द्विधा ।। वहीं, 5/5 कर यानालम्ब्य रसोव्यक्तिो भावा आलम्बनाश्च ते । वही, 5/6 का पूर्वाद्ध ख उद्दीप्यते रसो चैस्तेभावा उद्दीपनामता. । वही, 5/8 पूर्वाद्ध सा0द0, 3/29-31
द0रू0, 4/3
सा0द0, 3/135 रसोऽनुभूयते भावैर्यरूत्पन्नोऽनुभावकै । तेऽनुभावा निगद्यन्ते काटाक्षादिस्तनूभव । अ०चि0, 5/14 वही, 5/16
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रोमाच, वैस्वर्य, स्वेद, स्तम्भ, लय, अश्रु, कम्प और वैवर्ण्य । इन सभी के स्वरूप का भी विवेचन किया है ।
परवर्तीकाल में विद्यानाथ तथा विश्वनाथ ने भी उपर्युक्त आठ सात्त्विक भावों को स्वीकार किया है 12
व्यभिचारी भाव -
व्यभिचारी भाव स्थित न रहने वाली चित्रवृत्तियाँ हैं ये रस के प्रति उन्मुख होकर विशेष रूप से विचरण करती है तथा स्थायी भावों मे इस प्रकार डूबती उतराती रहती है जैसे समुद्र में तरगे । 3
अजितसेन कृत परिभाषा दशरूपककार के समान ही है । इन्होंने व्यभिचारी भाव के 33 भेदों का उल्लेख किया है । तथा प्रत्येक के स्वरूप का भी उल्लेख किया है 15 व्यभिचारी भावों के निरूपण के पश्चात् नर्तक को रसों तथा भावों का अधिकारी बताया है 16 अधिकारी के उल्लेख के पश्चात् रति और उल्लास से समुद्भूत होने वाले काम की दश अवस्थाओं का भी उल्लेख किया है जो निम्नलिखित है - 7 110 दृष्टि का अभीष्ट मे लगना, (2) मन का अभीष्ट मे लगना, ( 30 अभीष्ट की प्राप्ति के लिए मन मे राकल्प का होना, ( 4 ) जागरण, (5) कृशता, of विषयमात्र के प्रति द्वेष का होना, ( 7 ) मोह, 191 मूर्च्छा ( 100 मृति इस प्रकार अजितसेन ने वर्णन किया है जो भरत अनुकृत
लज्जा का नाश, (8) कामजन्य अवस्थाओं का
8
है
I
2
3
4
5
6
7
8
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अ०चि०, 5/17-25
(क) प्रताप०, पृ० - 263
(ख) सा0द0, 3/135
द0रू0, 4/8
अ०चि०, 5/26, 27
अ०चि०, पृ0 232 से 242 तक
वही, 5/63
अचि05/64
वही 5 / 65-79
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रस तथा उनके स्थायीभाव
रस नाम
रस भेद -----------
स्थायी भाव
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श्रृगार
सभोग व विप्रलम्भ
रति
हास्य
हास
करूप
शोक
रौद्र
क्रोध
वीर
दान, दया, युद्ध
उत्साह
भयानक
भय
वीभत्स
जुगुप्सा विस्मय
अद्भुत
शान्त
निर्वद
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इन्होंने प्रत्येक रस के आलम्ब तथा उददीन विभावों का भी उल्लेख किया है 12 इसके साथ ही रसों के परस्पर विरोध की भी चर्चा की है । जो इस प्रकार है
श्रृंगार और वीभत्स वीर और भयानक रौद्र और अद्भुत हास्य और करूण
रसों के वर्ण और देवता का भी उल्लेख किया है । 4
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वही, 5/83-85 अचि0, 5/106 से 129 तक अचि0, 5/130 वही, 5/132-133
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वर्ण
देवता
शृगार हास्य
श्याम चन्द्रमा के समान
विष्णु गणपति
शुभ्र
कपोत
यमराज
करुप रौद्र
रक्त
रुद्र
वीर
गौरकान्ति
इन्द्र
भयानक
महाकाल
वीभत्स
काल
नील पीत
अद्भुत शान्त
ब्रह्मा शान्तमूर्ति परादि ब्रह्म
श्वत
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के
क्षेत्र में
भी आचार्य अजितसेन का
रस तथा रसावयव के वर्णन महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।
रीति -
काव्यशास्त्र में रीति शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य वामन ने किया है और उसे काव्य की आत्मा के रूप में स्वीकार किया है । उन्होंने विशिष्ट पद, रचना अर्थात् शब्दों की विशिष्ट व्यवस्था अथवा नियोजन को रीति कहा है। यह वैशिष्ट्य गुणों में होता है उन्होंने वैदी, गौडी, और पाचाली तीन रीतियों का उल्लेख किया है तथा यह भी बताया है कि वैदभी रीति में सभी दस गुण होते हैं गौडी में कन्ति गुण तथा पांचाली में माधुर्य और सौकुमार्य गुण आते हैं । इसके अतिरिक्त इन्होंने रीतियों का सम्बन्ध देशविशेष से भी बताया है । किन्तु काव्य को किसी देश से सम्बन्धित करना असमीचीन प्रतीत होता है ।
पूर्ववर्ती आचार्य भामह एव दण्डी ने भी रीतियों को स्वीकार किया है किन्तु उन्होंने कहीं पर रीति शब्द का उल्लेख नहीं किया तथापि उनके द्वारा स्वीकृत वैदर्भ एव गौड मार्ग जो गुणों पर ही आधारित है एव वामन की रीतियों
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रीतिरात्मा काव्यस्य । विशिष्ट पद रचना रीति । विशेषो नुपात्मा । काव्या0 सू0, 1/1/6 से ।।,12,130 वही, सूo 1/2
2
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को जो गुणों से अभिन्न है । यदि गुणों एव रीतियों की स्थिति को अविनाभाव सम्बन्ध से स्वीकार कर लिया जाए तो यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि भामह एव दण्डी के पूर्ववर्ती आचार्य भरत भी रीतियों को स्वीकार करते है क्योंकि भरत ने भी दस गुणों को स्वीकार किया है जो कालान्तर में दण्डी के चिन्तन का मार्ग, रीति विषयक आदिम स्रोत क्ना ।' रुद्रट द्वारा निरूपित रीतियों के नाम पाचाली, लाटीया, गौडीया तथा वैदी । वामन की रीतियों से अभिधान साम्य होने पर भी दोनों मे मौलिक अन्तर है । वामन की रीतियाँ गुपाश्रित है किन्तु रुद्रट की रीतियाँ गुणों पर आधारित न होकर सामाजिक योजनाओं पर अवलम्बित है।
आचार्य अजितसेन ने भी सामाजिक सरचना पर आधारित रीतियों का विवेचन किया है । इन्होंने गुप सहित सुगठित शब्दावली से युक्त सन्दर्भ को रीति की अभिधा प्रदान की है 13 सस्कृत के अन्य आचार्यों ने विशिष्ट पद रचना को रीति कहा है । इन्होंने भी वामन के समान वैदभी, गौडी तथा पाचाली रीति का उल्लेख किया है।
वैदर्भी
काठिन्य से रहित अल्प स्मास वाली रचना को वैदर्भी रीति कहा
गया है 14
120
गौडी.
ओज और कन्तिमुप से सम्पन्न समास बहुला संरचना को गौडी रीति के रूप में मान्यता दी गयी है 15
पांचाली:
वैदर्भी और गैड़ी के समन्वयात्मक वर्णन को पाचाली रीति कहा
गया है ।
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एक भा0, काव्या0, 1/32 खि का0द0, 1/40 रू0, काव्या0, 259 गुणसश्लिष्टशब्दौरसद रीतिरिष्यते । त्रिविधा सेति वैदर्भी गोडी पाञ्चालिका तथा ।। अ०चि0, 5/134 अचि0, 5/135 ओज कान्तिगुफा पूर्णयासा गोडी मता यथा ।। अ०चि0, 5/137 का पूर्वाद्ध उत्तरीत्युभयात्मा तु पाञ्चालीति मता यथा । वही पृ0-260
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__ इन्होंने मृदु स्मास वाली स्था स्वल्प घोष अक्षर वाली रचना को लाटी कहा है ।
आचार्य विद्यानाथ तथा विश्वनाथ द्वारा निरुपित रीतियाँ अजितसेन से प्रभावित हैं 12
रीतियों के भेद के पश्चात् पदों के अनुगुण रूप वाली मैत्री को शय्या तथा पाक रूप से दो भागों में विभाजित किया है । पाक को भी द्राक्षापाक और नारिकेल पाक रूप से दो भागों में विभाजित किया है । वाहर और भीतर दृश्यमान रहने वाले पाक को द्राक्षापाक और केवल भीतर छिपे हुए रस वाले को नारिकेल पाक के रूप में स्वीकार किया है ।
रीतियों के विवेचन के पश्चात् इन्होंने काव्य सामग्री की भी चर्चा की है । जिसमें रस, गुण, अलकार, पक रीति आदि के कथन को काव्य सामग्री के रूप में स्वीकार किया है तथा अर्थ निरूपण के पूर्व शब्द पद, वाक्य, खण्ड वाक्य और महावाक्य को वचन कहा है । शब्द के रूढ, यौगिक और योगरूढ भेदों का उल्लेख भी किया है । इसी प्रसग में पद, वाक्य, खण्ड वाक्य तथा महावाक्य के लक्षण तथा उदाहरण भी दिए हैं ।
पद, वाक्य तथा महावाक्य का निरूपण अजितसेन के समान ही आचार्य विश्वनाथ ने भी किया है 18
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मृदुस्मासा बहुयुक्ताक्षररहिता स्वल्पोषाक्षरा लाटी, वही, पृ0-260 क प्रमाप०, काव्यप्रकरण, पृ0 - 82-85 खि सा0द0, परि० १, पृ0 598-602
का अथशय्यापाको कथ्यते । अ०चि0, पृ0 - 26। खि प्रताप0, काव्यप्रकाश, पृ0 - 86-87 अचि0, 5/144
शब्द पद च वाक्य च खण्डवाक्य तथा पुन । महावाक्यमिति प्रोक्त वचन काव्यकोविद ।। वही, 5/145
रूढयोगिकमिश्रेभ्यो भेदभ्य स त्रिधा पुन ।
अचि0 5/146 का उत्तरार्थ, द्र0पृ0 163-66 सा0द0, परि० 2, पृ0 27-30, लक्ष्मी सस्कृत टीका ।
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आचार्य मम्मट ने शब्द, अर्थ तथा शक्ति के तीन भेदों का उल्लेख किया है जो इस प्रकार है । '
व्यजक
इसके अतिरिक्त का भी निरूपण किया है 12
1.
शब्द
वाचक
लक्षक
2
आचार्य अजितसेन कृत विवेचन पर मम्मट का प्रभाव है किन्तु इन्होंने तात्पर्यार्थ को व्यग्यार्थ के रूप में स्वीकार किया है । इन्होंने गौणी वृत्ति को लक्षणा 'गंगाया घोष' में गंगा शब्द
विशेष के रूप मे ही स्वीकार किया है । उदाहरणार्थ मुख्यार्थं है क्ट लक्ष्यार्थ है तथा शीतलादि व्यग्य है । 3
3
शब्द अर्थ तथा शब्द शक्तियों
4
कतिपय आचार्य सिहो माणवक मे सादृश्य सम्बन्ध के कारण गौणी लक्षणा स्वीकार करते हैं । इसका उल्लेख आचार्य मम्मट ने भी किया है 1 अजितसेन के अनुसार वाच्यार्थ के अन्वित न होने से वाच्यार्थ सम्बन्धों में अच्छी तरह से आरोपित शब्द व्यापार को लक्षणा कहा गया है यह दो प्रकार का होता है सादृश्य हेतु का और सम्बन्धान्तर हेतु का । सादृश्य हेतु लक्षणा के भी जहवाच्या तथा अजहद्द्वाच्या दो भेद होते हैं । अपने वाली लक्षणा को जहदवाच्या तथा अपने अर्थ को त्यागे करने वाली लक्षणा को अजहवाच्या कहा गया है ।
वाच्यार्थ को त्याग देने
बिना अन्यार्थ को ग्रहण
4
शब्दशक्ति
अभिधा
लक्षणा
व्यञ्जना
मीमांसकों के मत में होने वाली तात्पर्याख्या शक्ति
अर्थ
वाच्यार्थ
लक्ष्यार्थ
व्ययार्थ
/
का०प्र०, द्वितीय उल्लास ।
का०प्र०, प्रथम उल्लास ।
वाच्यलक्ष्यव्यग्यभेदेन त्रिविधोऽर्थः । त्रैविध्यात् । व्यंग्यार्थ एव तात्पर्यार्थ । न पुनश्चतुर्थ ।
का०प्र०, द्वितीय उल्लास ।
वाचकलक्षक व्यंजकत्वेन शब्दानां
अचि०,०
- 266
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सादृश्य हेतु का लक्षणा के भी - सारोपा तथा साध्यवसाना दो भेद होते हैं । जहाँ विषय और विषयी दोन के अभेद का निरूपण हो वहाँ सारोपा लक्षणा होती है तथा जहाँ विषयी के द्वारा विषय का निगरण कर लिया जाए वहाँ साध्यवसान लक्षण होती है । आचार्य अजितसेन कृत लक्षणा स्वरूप तथा भेद मम्मट से प्रभावित है2 किन्तु इन्होंने गोणी लक्षणा का पृथक् निरूपण नहीं किया अत गोडीसारोपा तथा साध्यक्साना - दो भेद छूट जाते हैं । इस प्रकार अजितसेन के अनुसार लक्षणा के चार भेद निश्चित हए ।
अभिधा शक्ति.
आचार्य अजितसेन के अनुसार सकेतित अर्थ को बोध कराने वाली शब्द व्यापृति को अभिधा कहा गया है ।
आचार्य मम्मट ने भी सकेतितार्थ में अभिधा शक्ति को स्वीकार किया है। किन्तु मम्मट कृत विवेचन अत्यन्त प्रौढ तथा गम्भीर है । आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ रूढार्थ, योगार्थ तथा रूढयोगार्थ की प्रतीति हो वहाँ अभिधा शक्ति होती है क्योंकि इन्होंने रूढ , यौगिक और योग रूढ रूप से तीन प्रकार के शब्दों का उल्लेख किया है । रूढ शब्द को निर्योग, अस्फुट योग और योगाभास के भेद से तीन प्रकार का स्वीकार किया गया है । जिसमे यौगिक अर्थ की प्रतीति न हो वह निर्योन रूढ है, जैसे भू इत्यादि तथा जिसमें यौगिक अर्थ की अस्पष्ट प्रतीति न हो वह अस्फुट योग है, जैसे वृक्ष इत्यादि और जिसमें वस्तुत यौगिक शब्द की प्रतीति न होने पर भी यौगिक शब्द के समान प्रतीति हो, उसे योगाभास के अन्तर्गत स्वीकार किया गया है जैसे मण्डप इत्यादि ।
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वाच्यार्थघटनेन तत्संबन्धिनि समारोपितशब्दव्यापारो लक्षणा । सा द्विधा सादृश्यहेतुका संवन्धान्तहे तुका चेति । सम्बन्धान्तहेतकापि द्विधा जहद्वाच्या अजहद्वाच्या चेति सादृश्यहेतुका द्विधा । सारोपा साध्यक्साना चेति । एवं लक्षणा चतुर्धा । का0प्र0, द्वितीय उल्लास । संकेतितार्थविषया शब्दण्यापृतिरभिधा । का0प्र0, द्वितीय उल्लास, सू० - 5 रूढयौगिकमिश्रेभ्यो भेदभ्यं सत्रिधा पुन । अ०चि0 1/46, उत्तरार्ध का अचि०, पृ0 - 263-64 ख वही, 5/147
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और सभिन्न भेद से तीन प्रकार
का
यौगिक शब्द भी शुद्ध मूलक स्वीकार किया गया है ।'
शुद्ध यौगिक.
प्रत्यय शब्द स्थिति है क्योकि स्थान स्थिति
शब्द स्थिति है क्योंकि स्थान स्थिति मे 'स्त्रियाँ क्तिन्' से क्तिन् प्रत्यय होकर निष्पन्न है । अत प्रकृति प्रत्यय का योग स्पष्ट प्रतीत हो रहा
शुद्ध मूलक यौगिक लसद् तथा दीप्ति शब्द.
यहाँ लसद् तथा दीप्ति शब्दों से बने हुए के कारण विशेषता है ।
सैभिन्न यौगिक शब्द:
जैसे- मार्कण्डेय । यहाँ मृकण्डु के अपत्य को मार्कण्डेय कहा गया
है।
रूढयौगिक शब्द.
रूढ और योग से नि सृत होते हैं जैसे- जलधि, जलज, दुग्ध, वारिद स्वर्गभूरूह इत्यादि । इसमें रूढ और यौगिक दोनों का मिश्रण है 12
उपर्युक्त त्रिविध प्रकार के शब्दों के अर्थ की प्रतीति अभिधा व्यापार से ही होती है । पण्डतराज जगन्नाथ ने भी अभिधा शक्ति के द्वारा जिन वाचक शब्दों का बोध होता है उनके तीन भेद किए हैं - खढि यौमिक और योगरूढ़ि इनको रसगगाधरकार ने केवल समुदायशक्ति, केवलावयव शक्ति तथा समुदायावयव शक्ति सकर कहा है ।
'सेयमभिधा विधा केवलसमुदायशक्ति , केवलावयवशक्ति सकरश्चेति ।
समुदायावयवशक्ति
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अ०चि0, 5/148 तन्मिश्रोऽन्योऽन्यसामान्यविशेषपरि वृत्तत । जलधिर्जलज दुग्धवारिधि स्वर्गभूरूह ।।
अचि0, 5/149
0ग0, द्वितीय आनन, पृ0 - 126
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व्यञ्जनास्वरूप:- आचार्य अजितसेन के अनुसार अनुगत पदार्थों मे वाक्यार्थ को आस्वादनीय बनाने के लिए अन्याय के प्रत्यायक शब्द व्यापार को व्यञ्जना वृत्ति के रूप मे स्वीकार किया गया है । इन्होंने शब्दशक्ति मूल, अर्थशक्ति मूल और उभयशक्ति मूल रूप से इसके तीन भेद किए हैं तथा प्रत्येक के उदाहरण भी है ।
गहिन्योव्याप्तमेदिन्यश्चक्रिण कृतसंभ्रमा । कबन्धापूर्णमातेनु प्रत्यर्थिबलवारिधिम् ।।
उक्त श्लोक में कबन्ध शब्द शत्रु सेना मे कटे हुए, मस्तक रहित शरीर का वाचक है किन्तु अनेकार्थक होने से नदी जल की भी प्रतीति होती है इसलिए यहाँ शब्दशक्तिमूला व्यञ्जना है ।
अर्थशक्तिमूलक व्यञ्जना मे अनुमान की शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि व्यंजक भाव में अविनाभाव सर्वथा असंभव है ।
उदाहरण- श्रीमत्समन्तभद्रारण्ये महावादिनि चागते । कुवादिनोऽलिखन् भूमिमड् गुब्ठेरानतानना ।।
44
अतिरिक्त विषाद के कारण भूमि खोदने वाले व्यक्ति की भी प्रतीति कराता है अतः यह
उपर्युक्त श्लोक मे कुबादी शब्द के द्वारा कुत्सित शास्त्रार्थी
अर्थशक्तिमूला व्यञ्जना है ।
जहाँ शब्दशक्ति तथा अर्थशक्ति दोनों की प्रतीति हो वहाँ उभयशक्ति मूला व्यञ्जना होती है यथा
2.
3.
4.
5'
-
अनन्तद्योतनसर्वलोकभासकविग्रह. ।
आदिब्रह्मजिन सर्वश्लाध्यमानमहागुणः ।।
अनुगतेषु वस्तुषु वाक्यार्थोपस्काराय भिन्नार्थगोचर शब्दव्यापारो व्यञ्जना वृत्ति । सात्रिधा ।
(क) शब्दशक्तिमूला, अर्थशक्तिमूला, उभयशक्तिमूलेति । क्रमेण यथा - - ।
अचि०, पृ०
(ख) का०प्र०, 2/19 तथा 4/37
अ.चि., 5/155
वही 5/156
वही 5/157
-
268
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________________
उपयुक्त श्लोक मे अनन्त = देव मार्ग आकाश । द्योतन : प्रकाशक सूर्य, पुरु पक्ष मे असीम बोध । व्याख्यान से अनन्त द्योतन मे शब्द शक्ति मूलता है । 'सर्वलोक भासक विग्रह' तथा 'सर्वश्लाध्यमानमहागुण' मे अर्थशक्ति मूलकता है । अतएव उभयशक्तिमूलक का उदाहरण है । यहाँ पुरु और रवि मे उपमा अलकार की ध्वनि है ।
नाट्य वृत्तयाँ:- वृत्तयों का सर्वप्रथम विक्चन नाट्यशास्त्र में प्राप्त होता है । जिसमें भारती, सात्वती, कैशिकी एव आरभटी आदि वृत्तियों की चर्चा की गयी है।' भारती वृत्ति का ग्रहण ऋग्वेद से सात्वती का यजुर्वेद से और कैशिकी का सामवेद से तथा शेष का अर्थववेद से ग्रहण हुआ है । इन वृत्तियों का उल्लेख धनञ्जय के दशरूपक में भी प्राप्त होता है । इन्होंने नायकदि के व्यापार को वृत्त कहा है तथा कैशिकी सात्वती आरभटी तथा भारती चार भेद किए है ।
आचार्य अजितसेन ने भी रसों की स्थिति को बोध करने वाली रचनाओंमे विद्यमान वृत्तयों की संख्या चार ही स्वीकार की है ।
कौशिकी वृत्त का स्वरूप.
आचार्य भरतमुनि के अनुसार विशेष वेशभूषा से चिन्हित स्त्रीपात्रों की बहुलता से युक्त, नृत्य गीत की प्रचुरता से युक्त, श्रृंगार प्रधान, चारु -विलासों को कैशिकीवृत्ति के रूप में स्वीकार किया है और नर्म, स्फूर्ज, नर्मस्फोट, नर्मगर्भ के भेद से इसके चार भेदों का उल्लेख किया है । आचार्य धनञ्जय ने भी उक्त भेदों को स्वीकार किया है । आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ सुकोमल सन्दी से श्रृंगार और करुण रस का वर्णन हो वहाँ कैशिकी वृत्ति होती है । इन्होंने इसके भेद-प्रभेद का उल्लेख नहीं किया । इनके पूर्ववती आचार्यों ने करुण रस मे कैशिकी वृत्त का उल्लेख नहीं किया ।
सात्वती वृत्ति का स्वरूप.
आचार्य भरतमुनि के अनुसार जहाँ वचिक तथा अंगिक रूप से इस
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। -
No
ऋग्वेदाद् भारती वृत्तियुजुर्वेदात्तु सात्वती । केशिकी सामवेदाच्च शेषा चाथर्वणात्तथा ।।
ना०शा0, 22/24 द0रू0, 2/47 4 रसावस्थानसूचिन्यो कृत्तयोरचनाश्रया. । कैशिकी चारभट्यन्यासात्वती भारतीपरा ।।
अचि0 5/158 नाOशा0, 22/47, 48 द0रू0, 2/48 पूर्वाद्ध अत्यन्तमृदुसंदर्भ शृंगारकरूणौरसौ । वयेतेयत्रधीमद्भि. कैशिकी वृत्तिरिष्यते।।
अ०चि0, 5/160
0
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प्रकार का वर्णन किया जाए जिसमे सत्व गुण का प्राधान्य हो तो वहाँ सात्वती वृत्ति होती है । इसमे शोक का अभाव तथा हर्ष का आधिक्य निहित रहता है । धनञ्जय ने भी भरत के लक्षण का ही अनुगमन किया है । 2
आचार्य अजितसेन की परिभाषा किंचित् भिन्न है इनके अनुसार जिस रचना में वीर और भयानक रस को साधारण प्रौढ सन्दर्भ से वर्णित किया जाए वहाँ सात्वती वृत्ति होती है । 3 इनके पूर्ववर्ती आचार्यों ने भयानक रस मे सात्वती वृत्ति का उल्लेख नहीं किया ।
आरभटी वृत्ति का स्वरूप -
आचार्य भरतमुनि भयानक, बीभत्स तथा रौद्र रस में आरभटी वृत्ति को स्वीकार करते है 14 आचार्य धनञ्जय के अनुसार माया, इन्द्रजाल, सग्राम, क्रोध, उद्भ्रान्ति आदि चेष्टाओं में आरभटी को स्वीकार किया गया है । धनञ्जय ने रौद्र तथा बीभत्स रस में आरभटी स्वीकार किया है 15
अजितसेन अत्यन्त प्रौढ़ सन्दर्भों से युक्त रौद्र और बीभत्सरस मे आरभटी वृत्ति को स्वीकार किया है 10
भारती वृत्ति का स्वरूपः -
आचार्य भरत ने करूण तथा अद्भुत रस में भारती वृत्ति को स्वीकार किया है ।7 संस्कृत भाषा में नट द्वारा किया गया वाचिक व्यापार भारती वृत्ति के रूप में स्वीकार किया गया है । 8 अनुसार जिस सुकुमार सन्दर्भ में हास, शान्त और अद्भुत रस भारती वृत्ति होती है ।
आचार्य अजितसेन के का वर्णन हो वहाँ
1
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3.
4
5.
6
7
8.
9
ना०शा०, 22 / 38, 39
द0रू0, 2/53
ईषत्प्रौढौ निरूप्येते यत्र वीरभयानको । अनतिप्रौढसदर्भात्सात्वतीवृत्तिरुच्यते ।।
अचि0, 5/164
नाशा0, 23/66 का पूर्वाद्ध
द0रू0 2/56 तथा 62
वर्ण्यते रौद्रबीभत्स रसौयत्रकवीश्वरै ।
अतिप्रौढैस्तु संदर्भर्भवदारभटी यथा ।।
300, 5/162
ना०शा0, 23/66
FOTO, 3/5
हास्य शान्ताद्भुता ईषत्सुकुमारनिरूपिता । यत्रेषत्सकमारेण संदर्भेण हि भाग्नी । ।
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इन्होंने आरभटी और कैशिकी की मध्यमा नामक वृत्ति को सभी रसों में स्वीकार किया है ।।
भरतमुनि, धनञ्जय ने इस वृत्तियों के वर्णन में यह स्पष्ट निर्देश दिया है कि श्रृंगार रस मे कैशिकी, वीर मे सास्वती, रौद्र व वीभत्स मे आरभटी तथा अन्यशेष रसों में भारती वृत्ति होती है ।2
व्यंग्यार्थ के स्फुटता तथा अस्फुटता के आधार पर काव्य भेद निरूपण -
आचार्य अजितसेन ने व्यंग्यार्थ के अप्रधान ओर अस्पष्ट रहने के कारण काव्य के क्रमश मध्यम उत्तम और जघन्य इन तीन भेदों का उल्लेख किया । इन्होंने व्यंग्यार्थ के मुख्य न होने पर मध्यम या गुणीभूत व्यंग्य काव्य, तथा व्यग्यार्थ के मुख्य रहने पर उत्तम या ध्वनि काव्य और व्यग्यार्थ के अस्पष्ट रहने पर अधम या चित्रकाव्य का निरूपण किया है । इनके विवेचन पर पूर्ववर्ती आचार्यों आनन्दवर्धन तथा मम्मट का स्पष्ट प्रभाव है किन्तु इन्होंने मध्यम, उत्तम तथा जघन्य क्रम से काव्य भेदों का उल्लेख किया है जबकि आनन्दवर्धन तथा मम्मट ने उत्तम मध्यम तथा अधम य अवर के क्रम से उल्लेख किया है । आचार्य अजितसेन ने चित्रकाव्य को तीन भागों में विभाजित किया है - शब्द चित्र, अर्थचित्र तथा शब्दार्थोभय चित्र । आचार्य मम्मट ने शब्दार्थोंभय चित्र का उल्लेख नहीं किया।
चित्रकाव्य के निरूपण के पश्चात् इन्होंने अभिधामूला व्यञ्जना के स्वरूप का उल्लेख किया है । इनके अनुसार जहाँ संयोगादि के कारण अनेकार्थक वाचक भिषामूलक शब्द अवाच्यार्थ को व्यक्त करता है वहाँ व्यञ्जना वृत्ति
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वही 5/168
क) नाOशा0 23/65-66 खो द0रू0, 162 गौणागौणास्फुटत्वेभ्यो वयग्यार्थस्य निगद्यते । काव्यस्य तु विशेषोऽयं त्रेधामध्योवरोऽघर ।। वही, वृत्ति पृ0 - 274 क ध्वन्याo, 3/42, 43 की वृत्त । ख का0प्र0 प्रथम उल्लास । चित्र शब्दार्थोभयभेदेन त्रिधा ।
अचि0 5/172
अचि०, पृ0 - 275
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होती है ।' इन्होंने निम्नलिखित कारणों से होने वाली अर्थ प्रतति में व्यञ्जनावृत्ति को स्वीकार किया है2 .
सयोग, अर्थविरोधिता, प्रकरण, विप्रयोग, औचित्य, सामर्थ्य, स्वर, साहचर्य, अन्य शब्दसान्निध्य, व्यक्ति, देश, लिंग, काल और कवियों की चेष्टा इत्यादि अर्थविशेष के कारण होते हैं । इनके उदाहरण इस प्रकार है -
'वज्रयुक्त हरि' - इस वाक्य मे वज्र के सयोग से हरि शब्द इन्द्र का वाचक है । स्याद्वाद मे वह जिनसेव्य है, यहाँ जिनका अर्थ अर्हन् है ।
'पद्मविरोधी हरि -' इस वाक्य में पद्मविरोधी होने के कारण हरि का अर्थ चन्द्रमा है । 'दव मां वैत' - इस वाक्य में प्रकरणवश 'माँ' से सत्यवादिता का बोध होता है । 'अपवि हरि' - इस वाक्य में अस्त्रयोग न रहने से कृष्ण की प्रतीति होती है । 'स जिन व अव्यात' - इस वाक्य मे औचित्य के कारण सम्मुखता का बोध होता है । 'कोकिलो मधौ ति' - इस वाक्य मे मधु अर्थ का सामर्थ्य के कारण बसन्त माना जाता है । वेद में जिस प्रकार स्वर के कारण अर्थ बदल जाता है उस प्रकार काव्य में अर्थ परेवर्तन नहीं होता ऐसा कतिपय कुविचारवों का मत है । 'सीरिमाधवयो.' - इस वाक्य मे सीरि के साहचर्य से माधव कृष्ण का द्योतक हुआ ।
'सज्योत्स्न राजा' - इस वाक्य में 'सज्योत्स्न.' के सान्निध्य से राजा शब्द चन्द्रमा का बोध कराता है । 'अभान् मित्रम्' - इस वाक्य में व्यक्ति के कारण 'मित्रम्' का सुहृद् अर्थ है तथा 'अभान् मित्र' ऐसा कहने पर मित्र का अर्था सूर्यमण्डल होता है । 'अत्र देवो भाति' - इस वाक्य के कहने पर देश के कारण देव शब्द राजा का बोधक है । 'अंगज. मीनकेतु. स्यात्' इस वाक्य में पुल्लिंग निर्देश के कारण अंगज शब्द कामदेव का बोधक है ।
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सयोगादिभिरनेकार्थवाचक शब्दोऽभिधामल अवाच्यं व्यनक्तीति व्यञ्जना विशेष उच्यते । अचि0, पृ0 - 276 . संयोगार्थविरोधिते प्रकरणंस्यात् विप्रयोगौचिती सामर्थ्य स्वरसाहचर्यपरशब्दाभ्यर्णताव्यक्तय. । देशो लिंगमतोऽपि कालइह चेष्टाद्या. कवीनांमता शब्दार्थेवनवच्छिद्रे स्फुटविशेषस्य स्मृतेर्हतव ।। अ०चि0, 5/179 अ०चि0 5/80 से 88 तक, पृ0 - 277-78
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'विभाति सविता' - इस वाक्य के कहने पर रात्रि मे सविता का अर्थ जनक लिया जाएगा और दिन मे सूर्य अर्थ विद्वान् लोग काल से अर्थ निर्णय करते है । 'एतन्मात्राकुचा' इस वाक्य के कहने पर चेष्ठा से अर्थ का निश्चय होता है। साथ रहने के कारण वस्तु भी अर्थ का व्यजक मानी गयी है ।
दोष निरूपण:
काव्य की उपादेयता तथा हृदयवर्जकता के लिए कवि को निर्दुष्ट होना आवश्यक है । कवि न होने से कोई भी व्यक्ति अधर्मी, व्याधित व दण्डनीय नहीं हो जाता, पर कवि होकर दुष्ट काव्य की सरचना करना उसके लिए अधर्म, व्यधि और दण्ड से भी अधिक दोषपूर्ण बताया गया है । यहाँ तक कि उसके लिए वह मृत्यु के समान है ।' दुष्ट काव्य के निर्माण से कवि उसी प्रकार से निन्दित होता है, जैसे दुष्ट पुत्र का पिता 12 अत कवि को दोषाभाव के प्रति सदा सावधान रहना चाहिए ।
आचार्य दण्डी के अनुसार दोष का लेशमात्र भी काव्य मे होना गर्हित बताया गया है, जिस प्रकार से मानव शरीर कुष्ठ के एक दाग से अशोभनीय तथा निन्दनीय हो जाता है, ठीक उसी प्रकार से दोषों की योजना से काव्य भी निन्दनीय हो जाता है । अग्निपुराण मे दोष को काव्य - स्वाद में उद्वेगजनक तत्व के रूप में स्वीकार किया गया है । भामह, दण्डी तथा अग्निपुराण के पश्चात् आचार्य मम्मट ने दोषों का वैज्ञानिक विवेचन किया है । इनके, अनुसार मुख्यार्थ का अपकर्ष ही दोष है । मुख्यार्थ से तात्पर्य है - 'रस' से । कयोंकि काव्य में रस ही आत्म के रूप में प्रतिष्ठित रहता है । अत. जहाँ रसास्वाद मे बाधा उपस्थित हो, वहाँ दोष की स्थिति अवश्यंभावी हो जाती है । आचार्य अजितसेन ने काव्यापकर्षक हेतु को दोष के रूप में स्वीकार किया है । इस प्रकार अजितसेन
भाकाव्याo, I/12 वही, ।/।। काव्यादर्श - 1/7 उद्देगजनको दोष सभ्यानां स च सप्तधा । अग्नि पु0, 1/347 क) मुख्यार्थी हतिर्दोषो रसश्च मुख्यस्तदाश्रयाद्वाच्य ।
उभयोपयेगिन. स्यु शब्दाद्यास्तेन तेष्वपि स ।। का0प्र0 7/46 ख) काव्यहीनत्वहेतुर्यो दोष शब्दार्थमोचर. ।
अचि0, 5/190 का पूर्वाद्ध
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पर मम्मट का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है । आचार्य विश्वनाथ ने भी मम्मट के ही मत का अनुसरण किया है ।'
आचार्य सघरक्षित के अनुसार गुण और अलकार से युक्त सदोष कन्या की भाँति कविता भी आदरणीय नहीं होती 12 अतएव प्रयत्नपूर्वक दोषों से बचने के लिए यत्न करना चाहिए । दोषों के अभाव मे कविता स्वय गुणवती हो जाती है ।
भेद-प्रभेद.
काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों मे दोषों की सर्वप्रथम चर्चा
भरत के नाट्यशास्त्र में की गयी है । उन्होंने निम्नलिखित दस काव्य दोषों का निरूपण किया है . गूठार्थ अर्थान्तर, अर्थहीन, भिन्नार्थ, एकार्थ अभिप्लुतार्थ, न्यायादपेत, विषम, विसन्धि तथा शब्दच्युत । इन दोषों में से परवर्ती आचार्य भामह ने एकार्थ दोष, अर्थहीन दोष और विसन्धि दोष को ग्रहण किया तथा अपार्थ दोष को अर्थहीन दोष के रूप में स्वीकार किय । शेष दोषों की उदभावना इन्होंने स्वय की जो इस प्रकार है -
1. अपार्थ, 2 व्यर्थ, 3 एकार्थ, 4 सशय, 5 अपक्रम, 6 शब्दहीन, 7. यतिभ्रष्ट, 8 मिन्नवृत्त, १ सिन्धि, 10. देशविरोधी, ।।. कालविरोधी, 12. कलाविरोधी, 13 लोक विरोधी, 14 न्याय विरोधी, 15. आगम विरोधी, 16. प्रतिज्ञाहीन, 17 हेतुहीन, 18. दृष्टान्तहीन ।
इसके अतिरिक्त नेय , क्लिष्ट तथा अन्यार्थ, अवाचक, अयुक्तिमत, गूढशब्दाभिधान, श्रुतिदुष्ट अर्थदुष्ट, कल्पनादुष्ट, श्रुतिकष्ट दोषों का भी उल्लेख किया है 16
रसापकर्षका दोषा । सा0द0, 7/1 सुबोधालकार, 1/14 वही, 1/15 नाOशा0, 17/88 काव्या0 4/1, 2 वही, प्रथम परिच्छेद ।
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परवी आचार्य दण्डी ने भामह कृत दोषों को अपने काव्य दोषों के रूप में स्वीकार किया है ।' आचार्य मम्मट ने पद, पदाश, वाक्य, अर्थ तथा रस मे दोषों की स्थिति स्वीकार की है । पद दोषों की संख्या सोलह है । जिनमें क्लिष्ट, अविभृष्ट विधेयाश तथा विरुद्धमति कृत दोष केवल समास मे ही होते है । च्युत संस्कार, असमर्थ और निरर्थक को छोड़कर शेष दोष वाक्य और पदांश मे भी होते है । इन्होंने 23 अर्थ दोषों का उल्लेख किया है2 तथा 2। अन्य वाक्यदोषों को माना है - रस दोषों की सख्या इन्होंने तेरह स्वीकार की है ।
आचार्य अजितसेन शब्द तथा अर्थ की दृष्टि से दोषों को दो भागों में विभाजित किया है - शब्ददोषों को पदगत व वाक्यगत भी स्वीकार किया है। पदगत दोषों की संख्या सत्रह तथा वाक्यगत दोषों की संख्या 24 है । इन्होंने 18 प्रकार के अर्थ दोषों को स्वीकार किया है । इस प्रकार यदि समस्त दोषों का आंकलन किया जाए तो दोषों की संख्या 17 + 24 + 18 = 59 हो जाती है 14
पद दोष.- नेयार्थ, अपुष्टार्थ, निरर्थ, अन्यार्थ, गूढपदपूर्वार्थ, विरुद्धाशय, ग्राम्य, क्लिष्ट, अयुक्त, संशय, अश्लील अप्रतीत, च्युत सस्कार, परुष, अविमृष्टकरणीयांश, अयोजक और असमर्था - इस प्रकार सत्रह पद-दोष हैं ।
जितसेन कृत उपयुक्त दोष पूर्ववर्ती आचार्यों से प्रभावित है - अपुष्टार्थ दोष को आचार्य मम्मट ने अर्थदोष के अन्तर्गत रखा है किन्तु अजितसेन ने इसे पद दोष के अन्तर्गत निरूपित किया है । [2आचार्य मम्मट के विरुद्धमति कृत नामक दोष को विरुद्धाशय के नाम से अभिहित किया है । 3 मम्मट
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ल
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काव्यादर्श, 3/125-126 को का0प्र0, 7/50, 51 ख काOR0, 7/55, 56 57 अर्थदोष का का0प्र0, 7/53, 54 वाक्यदोषः । खि काव्य , 7/60, 62 रसदोषएँ क सशब्दार्थमतत्वेन द्वेधा सक्षेपतो मत. । __ पदवाक्यगतत्वेन शब्दगतोऽपि द्विधा। अचि0, 5/190 का उत्तरार्ध ख) वही, 5/209, 210 नेयापुष्टिनिरन्यमूढपदपूर्वार्था विरूद्धाशयं । ग्राम्यं क्लिष्टमयुक्तसशयमताश्लीलाप्रतीतच्युत ।। सस्कारं परुषाविमृष्टकरणीययंश तथा योजक । । मन्यच्चास्ति तथा समर्थमिति ते सप्तोत्तरा स्युर्दश ।। अचि0 5/191
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के सदिग्ध दोष को सश्य की भिधा प्रदान की है । 4 मम्मट द्वारा निरूपित श्रुतिकटु दोष को परुष दोष के रूप में निरूपित किया है । 5 गूढपद पूर्वाद्ध तथा अयोजक दोष अजितसेन की नवीन कल्पना है ।
अजितसेन के अनुसार पददोष तथा उनका स्वरूपः
नेयार्थः - अपने सकेत से युत निर्मित अर्थ को नेयार्थ कहते है । अपुष्टार्थ:- प्रकृत मे अनुपयेगी अर्थ को अपुष्टार्थ कहते हैं । निरर्थक:- केवल पद की पूर्ति के लिए ही जिसका प्रयोग हुआ हो उसे निरर्थक कहते हैं । अन्याः - स्पष्ट वढि से प्रच्युत अर्थ को अन्यार्थ कहा गया है । मूढार्थः - जो अप्रसिद्ध अर्थ में कहा गया हो, उसे गूढार्थ कहते हैं । विरुद्धाशय.- जो विपरीत अर्थ का बोध कराता है, वह विरूद्धाशय है । ग्राम्य.- जो शब्द तुच्छ व्यक्तियों के प्रयोग मे प्रसिद्ध है उसे ग्राम्य- दोष कहते हैं।
क्लिष्टा - जिस पद मे अर्थ का निश्चय दूर तक कल्पना करने पर होता हो उसे क्लिष्ट दोष कहते हैं । अयुक्तदोष.- जहाँ जो शब्द अप्रयुक्त हो वहाँ अयुक्त दोष होता है । 'प्रमाणा ' ऐसा प्रयोग कवि लोग नहीं करते, यहाँ यह शब्द अप्रयुक्त है अतएव अयुक्त दोष है। सैदग्धत्व दोषः- जो अर्थ में सन्देहजनक हो, उसे सन्दिग्धत्व दोष कहते हैं। अश्लीलत्व दोष:- जुगुत्सा, अमंगल और व्रीडा उत्पादक शब्द जब श्लोक या पद्य में आते हैं तो वहाँ अश्लील दोष माना जाता है - इसके तीन भेद हैं - 010 जुगुप्सा उत्पादक, 20 अमंगल सूचक, 3 व्रीडा उत्पादक । अप्रतीतित्व दोषः- जो केवल शास्त्र में ही प्रसिद्ध हो उसे अप्रतीतत्व दोष कहते हैं । च्युत संस्कारः- जो व्याकरण के अनुसार अशुद्ध हो उसे च्युत् सस्कार दोष कहते हैं ।
जो पद्य कर्कश अक्षरों के योग से निर्मित हो उसे परुषत्व दोष
परुषत्वदोष:- कहते हैं ।
अविमृष्टविधेयांश दोषः- दोष होता है।
जहाँ विधेय गौण हो जाए वहाँ अविमृष्ट विधेयांश
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अप्रयोजक दोष दोष होता है ।
असमर्थ दोष. - दोष होता है ।
वाक्य दोष:
(1) छन्दश्च्युत, ( 20 रीतिच्युत, 30 यतिच्युत, 40 क्रमच्युत, (5) अगच्युत, (6) शब्दच्युत, 70 सम्बन्धच्युत, 80 अर्थच्युत, 190 सन्धिच्युत, [10] व्याकीर्ण, 7110 पुनरुक्त, 0120 अस्थितिसमास, 0130 विसर्ग लुप्त, 0 140 वाक्याकीर्ण, 0150 सुवाक्यगर्भित, 0 160 पतत्प्रोक्तकृष्टता, 0170 प्रक्रमभग, 0 18 0 न्यूनपद, 19 उपमाधिक, 200 अधिकपद, 210 भिन्नोक्ति, ( 222 भिन्नलिंग, [23] समाप्त, पुनरात्त और 240 अपूर्ण ।
आचार्य भामह ने अजितसेन के यतिच्युत को यतिभ्रष्ट क्रमच्युत को अपक्रम, शब्दच्युत को शब्दहीन तथा सन्धिच्युत को विसन्धि दोष के रूप में स्वीकार किया है । आचार्य अजितसेन ने उपमाधिक तथा भिन्नोक्ति दो नवीन वाक्य दोषों का उल्लेख किया है शेष दोष पूर्ववर्ती आचार्यों से प्रभावित है उनके नामकरण मे ही भेद हो सकता है पर सैद्धान्तिक भेद नहीं है ।12
वाक्य दोषों का स्वरूप -
Q 10
(2)
जहाँ केवल यौगिक से ही प्रयुक्त शब्द हो वहाँ असमर्थत्व नामक
।
2
जहाँ विशेषण से विशेष कुछ न कहा गया हो वहाँ अप्रयोजक
अजितसेन के अनुसार वाक्यदोषों का स्वरूप इस प्रकार है
छन्दश्च्युतः
रीतिच्युतः
·
जिस पद्य में छन्द का भंग हो उसे छन्दोभ्रष्ट या छन्दश्च्युत दोष कहते हैं ।
जिस पद्य में रस के अनुरूप रीति - पदगठन हो वहाँ रीतिच्युत नामक दोष होता है ।
वाक्याकीर्णसुवाक्यगर्भितपतत्प्रोत्कृष्टताप्रक्रम
भगन्यूनपरोपमाधिकपदं भिन्नोक्तिलिंगे तथा ।। समाप्तपुनरात्तं चापूर्णमित्येवमीरिता ।
चतुर्विंशतिधा वाक्यदोषा ज्ञेया. कवीश्वरै ।। अ०चि०, 5/209, 10
का०प्र०, 7/53-54 एवं 55 का पूर्वाद्ध
न
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यतिच्युत.
क्रमच्युतः
जिस पद्य मे यति का भग हो उसे यतिभ्रष्ट या यतिच्युत दोष कहते हैं। जिस पद्य मे शब्द या अर्थ क्रम से न हों उसमे क्रमच्युत दोष होता है । जो पद्य क्रिया पद से रहित हो उसमें अगच्युत दोष होता है ।
अंगच्युत -
शब्दच्युतः
हो
उसे शब्दच्युत
जो अबद्ध शब्दवाला वाक्य दोष कहते हैं ।
सम्बन्धच्युतः
पद्य में समासगत पदों का परस्पर अन्वय जहाँ नहीं कहा गया हो वहाँ सम्बन्ध च्युत नामक दोष होता है।
अर्थच्युतः
सन्धिच्युतः
dio
व्याकीर्ण:
पुनरूक्त दोष:
जिस पद्य में आवश्यक वक्तव्य न कहा गया हो उसे वाच्यच्युत या अर्थच्युत कहते हैं । सन्धि का अभाव या विरूप सन्धि को सन्धिच्युत दोष कहते हैं । विभक्तियों के आपस में अन्वय व्याप्त रहने पर व्याकीर्ण दोष होता है । शब्द और अर्थ की पुनरुक्ति होने पर पुनरूक्तत्व दोष होता है। जिस पद्य में समास उचित नहीं है वहाँ अपदस्थ समास नामक दोष होता है । जहाँ विसर्ग लुप्त को प्राप्त हो वहाँ लुप्तविसर्ग दोष होता है । दूसरे वाक्य के पद दूसरे वाक्य में व्याप्त हो ते वहाँ वाक्याकीप नामक दोष होता है । जिस वाक्य में दूसरा वाक्य आ पड़े वह सुवाक्यगर्भित दोष है।
अस्थितिसमास:
13
विसर्ग लुप्तः
1140
क्क्याकीर्ण
015
सुक्क्य पर्मित:
116
पतत्प्रकर्फता -
पद्य में क्रमश प्रकर्ष शिथिल सा दीख पड़ने वाला दोष है।
प्रक्रमभंर.
पद्य में प्रारम्भ किए हुए किसी नियम का त्याग करने पर होत है ।
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018
न्यूनोपमदोषः-
6190
उपमाधिक दोष:-
20f
अधिकपद दोष -
उपमेय की मेक्षा उपमान की न्यूनता जान पडे तो वहाँ न्यूनोपम दोष होता है । उपमेय की अपेक्षा उपमान की अधिकता मे होता है । किसी वाक्य में अधिक पद होने पर यह दोष होता है । उपमा की भिन्नता में भिन्नोक्ति व भिन्न लिगोक्ति नामक दोष होता है । समाप्त वाक्य को पुन दूसरे विशेषण से जहाँ कहा जए वहाँ समाप्तपुनरात्त दोष होता है। सम्पूर्ण क्रिया का अन्वय न होने पर होता है।
621, 220 भिन्नोक्ति और
भिन्नलिंग0236 समाप्तपुनरात्तः
[24
अपूर्णदोष -
अर्थ दोप:
शब्दार्थ की दृष्टि से दोष विवेचन का श्रेय सर्वप्रथम आचार्य मम्मट को है । इन्होंने 23 प्रकार के अर्थ दोर्षे का उल्लेख किया है जो इस प्रकार हैं-'अपुष्ट, 24 कष्ट, 13 व्याहत, 140 पुनस्क्त, 15 दुष्क्रम, 6 ग्राम्य, 17 सन्दग्ध 181 निर्हेतु 19 प्रसिद्धिविरुद्ध, 100 विद्याविरुद्ध, अनवीकृत, 812 नियम से अनियम, 13 अनियम से नियम, 14 विशेष में अविशेष, 115 अविशेष में विशेष, 16 सकाडक्षता, 17 अपयुक्तता, 18 सह चर भिन्नता, 119 प्रकशितविरुद्धता, 20 विध्ययुक्तत्व, 211 अनुवादायुक्तत्त्व, 22 व्यक्त पुन स्वीकृत और, 23 अश्लील ।
___ आचार्य अजितसेन केवल 18 अर्थ दोषों का ही विक्चन किया है ।2 अजितसेन ने मम्मट द्वारा निरूपित निर्हेतु को हेतुशून्य, सन्दिग्ध को संशयाढ्य तथा दुष्क्रम को अक्रम के रूप में स्वीकार किया है । अजित्सेन ने अतिमात्र, सामान्य या साम्य क्षमतहीन तथा विसदृश नामक नवीन अर्थ दोषों का वर्णन किया है जिसका उल्लेख मम्मट ने नहीं किया । आचार्य अजितसेन द्वारा निरूपित अर्थी दोष निम्नलिखित हैं -
का0प्र0, 7/55, 56, 57
अचि0, 5/235
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010 एकार्थ, 21 अपार्थ, 13 व्यर्थ, 14 भिन्न, 5 अक्रम, 60 परूष, 17 अलकार हीनता, 18 अप्रसिद्ध, 90 हेतुशून्य, jiof विरस, 110 सहचर भ्रष्ट, 12 सशयाख्य, 13 अश्लील, 140 अतिमात्र, 15 विसदृश, 116 समताहीन, 817 समान्य साम्य, 118 विरुद्ध ।
अर्थदोषों का स्वरूप:
एकार्थी -
कहे हुए अर्क से जो भिन्न न हो, उसे एकार्थ दोष कहते हैं ।
अपार्थ:
जे पद्य वाक्यार्थ से रहित हो. उसे अपार्थ कहते
व्यर्थ -
भिन्नार्थ
अक्रमार्थ
परुषार्थ दोष:
जे प्रयोजन से रहित वाक्यार्थवाला हो, उसे व्यर्थ दोष कहते हैं । जे परस्पर सम्बन्ध से रहित वाक्या वाला हो. वह भिन्नार्थ है । जिस वाक्यार्थ में पूर्वापरका क्रम ठीक न हो उसे अपक्रमार्थ दोष कहते हैं । जो अत्यन्त क्रूरता से युक्त हो, वह परूषार्थ दोष है। अलंकार से परिव्यक्त अर्थ को निरलंकार्थ दोष कहते हैं । जिस वाक्य में उपमान अप्रतीत अर्थात् अप्रसिद्ध हो उसे अप्रसिद्धोपम दोष कहते हैं । जहाँ अर्थ का कथन कारण बिना हो, वहाँ हेतुशून्य दोष होता है ।
अलंकारहीना:
अप्रसिद्धोपमार्थ:
हेतुशून्य दोष:
ရှိ၊
विरस दोष:
जहाँ अप्रस्तुत रस का कथन हो उसे विरस दोष कहते हैं ।
सहचरभ्रष्टः
संशयाख्यः
जिस वाक्यार्थ में सदृश पदार्थ का उल्लेख न हुआ हो वहाँ सहचर भ्रष्ट नामक दोष होता है । वाक्य के अर्थ में सन्देह होने पर संशयाढ्य दोष होता है। जिसमें प्रधानतया दूसरा अर्थ लज्जाजनक हो उसे अश्लील दोष कहते हैं ।
अश्लील.
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2140
अतिमात्र -
15
विसदृश -
116, 17
समताहीन और सामान्य साम्य -
जो सभी लोकों में असभव हो वह अतिमात्र दोष है। जहाँ उपमान असदृश हो वहाँ विसदृशोपम दोष होता है । जहाँ उपमान उपमेय की अपेक्षा बहुत अपकृष्ट या उत्कृष्ट हो वहाँ हीनाधिक्योपमान या समताहीन दोष होता है । दिशा इत्यादि से प्राय जो विरुद्ध प्रतीत हो उसे विरुद्ध दोष कहते हैं ।
118
विरुद्ध -
परवर्ती काल मे आचार्य विद्यानाथ ने अजितसेन द्वारा निरूपित उक्त अर्थदोषों को सादर स्वीकार कर लिया ।'
इसके अतिरिक्त आचार्य अजितसेन ने देश विरूद्ध लोक विरुद्ध, आगम विरुद्ध, स्ववचन विरुद्ध, प्रत्यक्ष विरूद्ध, अवस्था विरुद्ध, दोषों का भी उल्लेख किया है 12 उपर्युक्त दोषों का निरूपण करने के अनन्तर इन्होंने नाम दोष का उल्लेख किया है जहाँ इन्होंने स्व शब्द से वाच्य रसों और भावों के कथन को दोष बताया है ।
दोषों की गुणताः
आचार्य अजितसेन ने दोषों की गुणता पर भी विचार करते हुए बताया कि काव्य में रहने वाले दोष कभी - कभी गुण हो जाते है । जैसे चित्रकाव्य में परूष वर्णों का नियोजन ।4 यमक, श्लेष और चित्रकाव्य तथा दो अक्षरों से निबन्ध रचना में क्लिष्ट, असमर्थ और नेयार्थ दोष नहीं माने जाते । कामशास्त्र मे लज्जोत्पादक अश्लील वर्णन होने पर भी दोष नहीं होता । वैराग्य में जुगुप्सा
प्रताप0, पृ0 362 अचि0, 5/254 से 256 तक दोषस्तु रसभावानां स्वस्वशब्दग्रहाद् यथा । श्रृंगारमधुरा तन्वीमालिलिंग धनस्तनीम् ।। अ०चि0 5/57 वहीं 5/62 वहीं, 5/63 वहीं, 5/64
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रूप अश्लीलता की अदोषता स्वीकार की गयी है ।' विस्मय के अर्थ में पुनस्क्तता दोष नहीं होता 12
गुण-विवेचन -
आचार्य भरत ने दोपों का निरूपण करते हुए कहा है कि दोषों के विपरीत जो कुछ वस्तु है, वह गुण है । अग्निपुराणकार का कथन है कि काव्य मे अत्यधिक शोभा को जन्म देने वाली वस्तु शब्द गुण है । शब्द प्रतिपाद्य जिस किसी वस्तु को उत्कृष्ट बनाने वाली चीज अर्थगुण है और शब्द तथा अर्थ दोनों का जो उपकारक हो, वह शब्दार्थाभय गुप कहा जाता है । आचार्य दण्डी के अनुसार 'गुण वैदर्भ मार्ग के प्राण हैं' ।' आचार्य वामन ने गुण का लक्षण प्रस्तुत करते हुए कहा है कि 'काव्यशोभाकारक धर्म गुप है' 18
आचर्य वामन ने कहा है कि काव्य - शोभ के जन्मदायक धर्म गुण है और उस शोभा को अतिशयित करने वाला धर्म अलकार है।
आचार्य मम्मट के अनुसार आत्मा के शौर्याद के समान काव्य मे अगीभूत रस के उत्कर्षाधायक धर्म गुप हैं । काव्य में इनकी अचल स्थिति स्वीकार की
गयी है ।10
आचार्य अजितसेन ने कुपों के स्वरूप का उल्लेख नहीं किया है अपितु इन्के भेदों का ही उल्लेख किया है अत गुणों के भेद के विषय में विचार कर लेना अनुपयुक्त न होगा।
वही, 5/65 वही, 5/66 पृ0 297 से 298 तक । एत एव विपर्यस्ता गुणा. काव्येषु कीर्तिता. । नाOशा0, 17/95 का उत्तरार्ध य. काव्ये महतीं छायामनुगृह णाति असौ उप । अ0पु0, अ0-346/3 अ0पु0, 346/11 वही, 346/18 इति वैदर्भमार्गस्य प्राणादश गुणा स्मृता । का0द0, 1/42 काव्यशोभाया कर्तारो गुणा. । अ०सू०, 3/1/1 काव्यशोभाया कर्तारोगुणा. तदतिशयेहतस्त्वलंकारा. । अ०सू0, 3/1/1 व 2 ये रस्स्यागिंनो धर्मा शौर्यादय इवात्मन । उत्कर्षहतवस्तेस्युरचलस्थितयोः गुणा. ।। का0प्र0, 8/66
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आचार्य भरत ने श्लेष, प्रसाद, समता, समाधि, माधुर्य, ओज, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता और कान्ति ये दश गुण माने हैं । '
अग्निपुराणकार ने श्लेष, लालित्य, गाम्भीर्य, सौकुमार्य, उदारता, सती और यौगिकी ये सात शब्दगुण माधुर्य संविधान, कोमलता, उदारता, प्रौढि और सामयिकत्व ये छ अर्थनुप, एव प्रसाद, सौभाग्य, यथासख्य, उदारता, पाक और राग ये छ उभयगुणअर्थात् शब्द और अर्थ दोनों के गुप मिलकर उन्नीरा गुप क्वालाए हैं । 2
वामन ने प्राचीन मत के अनुसार गुणों का विशद विवेचन किया है इनके गत मे गुर्षो की राख्या कीरा हैं जिसमें दश शब्द गुण तथा दश अर्थगुण है । जो नाम शब्द गुण के हैं वही अर्थगुणों के भी रखे गए हैं किन्तु लक्षणों में भेद है । वे दश गुण है श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता, ओज, कान्ति और समाधि 13
भोजराज ने वामन के दश शब्दनुपों को स्वीकार कर, उदात्वता, अर्जितता, प्रेयान् सुशब्द सूक्ष्मता, गम्भीरता, विस्तर, संक्षेप, संमितत्व, भाविक, गति, रीति, उक्ति और प्रौढि इन चौदह अन्य गुणों को मानकर इनकी संख्या 24 कर दी ।
4
1
2
3
-
4
आचार्य अजितसेन ने भोज द्वारा निरूपित उक्त 24 गुणों को स्वीकार
00 17/96
श्लेषोलालित्यगाम्भीर्ये सैौकुमार्यमुदारता । सत्येव यौगिकी चेतिगुपा शब्दस्य सप्तधा ।। माधुर्य संविधानं चकोमलत्वमुदारता ।
प्रौढि सामयिकत्व च तद्भेदा षट् चकासति ।।
तस्य प्रसाद सौभाग्य यथास्थ्यमुदारता ।
पाको राज इति प्राज्ञै षट् प्रपञ्चा प्रपञ्चिता
11
अ०पु०, उद्धृत रसगगाधर प्रस्तावना, व्याख्याकार- प० मदन मोहन झा
श्लेष प्रसाद समता माधुर्यं सुकुमारता ।
अर्थव्यक्तिरुदारत्वमोज कान्ति समाधय ।।
अ०सू०, उद्धृत रसगाधर प्रस्तावना, व्या० मदन मोहन झा ०क०भ० 1/63, 64, 65
-
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कर लिया है। इनके निरूपण. क्रम में किंचित् अन्तर अवश्य है इन्होंने प्रत्येक गुण के लक्षण तथा उदाहरण भी प्रस्तत किए है ।।
अजितसेन के अनुसार गुणों का स्वरूप.
11 श्लेष, 2 भाविक, 30 सम्मितत्व, 4 समता, 5 गाम्भीर्य, 06 रीति, 7 उक्ति, 18 माधुर्य, 90 सुकुमारता, 10 गति, 110 समाधि, 112% कान्ति, 13 अर्जित्य 14 अर्थव्यक्ति, 15 उदारता, 16 प्रसदन, 1170 सौक्ष्म्य, 18| ओजस्, 119 विस्तर, 20f सूक्ति, 210 प्रौढि, 0220 उदात्तता, 1230 संक्षेपक और 240 प्रयान् ।
810
श्लेष -
भाविक और सम्मितत्व:
जहाँ अनेक पदों की एक पद के समान स्पष्ट प्रतीति हो वहाँ श्लेप नुप होता है । जहाँ वाक्य भाव से रहे उसे भाविक कहते हैं । जितने पद उतने ही अर्थ जिसमें समाहित हो उसे सम्मितत्व कहते हैं।
समठा.
रचना में विषमताहीन कथन को समता कहते हैं । गम्भीर्य और रीति:- ध्वनिमत्व को गम्भीर्य कहते हैं और प्रारब्ध की
पूर्तिमात्र को रीति कहते हैं। उक्तिः
जो काव्यकुशल कवियों की भणिति है उसे
उक्ति कहते हैं। माधुर्यः- पढने के समय और वाक्य में भी जो पृथक् -
पृथक् पद से प्रतीत होते है विद्वानों ने उन्हें
माधुर्य उप कहा है। सुकुमारताः
अनुस्वार सहित अक्षरों की कोमलत को सुकुमारता
कहते हैं । यतिः
जहाँ स्वर के आरोह-अवरोह दोनों ही सुन्दर
हो वहाँ गति नामके गुण होता है । समधिःसमाधिः
जहाँ दूसरे धर्म का दूसरी जगह आरोप किया जाये वहाँ स्माधि गुण होता है ।
Jio
1110
अचि0, 5/269 वही, पृ0 299 से 308 तक |
2.
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(120
0130
(140
0 1 5 0
(16)
0190
(200
(21)
(220)
(23)
कान्तिः
(240
और्जित्य. -
अर्थव्यक्ति:
औदार्य -
प्रसाद-
017, 180 सौक्ष्म्य और ओजः - शब्दों के गुण, रीति के कथन को सौक्ष्म्य कहते हैं तथा जिसमें समास की बहुत अधिकता हो
उसे स्पष्टतया ओजनुष कहते हैं ।
विस्तर:
सूक्ति. -
प्रौढ़ि :
उदात्तताः
प्रेयान्:
काव्य में रचना की अत्यन्त उज्ज्वलता को कान्तिगुप कहते हैं ।
दृढबन्धता को और्जित्य कहते हैं ।
संक्षेपक
जहाँ दूसरे वाक्य की अपेक्षा न रखने पर वाक्य पूर्ण हो जाये उसे अर्थव्यक्ति कहते हैं ।
विकट अक्षरों की बन्धता को औदार्य कहते है ।
अर्थ
शब्द
और अर्थ की प्रसिद्धि तथा झटिति को समझा देने की क्षमता को प्रसाद गुण कहते हैं ।
किसी विषय के समर्थन के लिए कथित अर्थ
के विस्तार को विस्तर कहते हैं ।
ति और सुप के उत्तमज्ञान को मैशब्ध कहते हैं ।
अपने कथन के सम्यक् परिपाक को प्रौढि कहते हैं ।
जहाँ प्रशंसनीय विशेषणों से पद युक्त होते वहाँ उद्यत्वता नामक गुप होता है ।
अत्यन्त अनुनयमय वचनों से जहाँ कोई प्रिय पदार्थ प्रतिपादित हुआ हो वहाँ प्रेयान् गुण होता है ।
जहाँ किसी अभिप्राय को बहुत सक्षेप से कहा जाये वहाँ संक्षेप नामक गुण होता है ।
कतिपय गुणों का दोष परिहारार्थ परिगणनः
आचार्य अजितसेन ने उपर्युक्त भुषों में से कतिपय गुणों को दोषों के अभाव के रूप में स्वीकार किया है जो निम्नलिखित है- 1
3100, 5/272, 75, 77, 84, 91, 92, 97, 303, 307, 308,
309
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गुप
दोष के अभाव के रूप में
सम्मितत्व समता
रीति
सुकुमारता औपित्य अर्थव्यक्ति प्रसाद औदार्य
न्यूनाधिक दोष के परिहारार्थ प्रकरान्ति दोष के अभाव के रूप में परप्रकर्फ दोष के परिहारार्थ श्रुक्किटुत्वदोष के अभाव रूप विसन्धि दोष की निवृत्ति के लिए अपुष्ट दोष को दूर करने के लिए क्तिष्ट दोष की निवृत्ति के लिए आचर्य वाग्भट के अनुसार अर्थचारूता के नियोजन के लिए इसका प्रयोग होता है । इति वाग्भटोक्तिरपीष्टा अचि0 पृ0 305 च्युत संस्कार दोष की निवृत्ति के लिए अनुचतार्थत्व दोष निवृत्ति के लिए वाग्भट इसका अन्तर्भाव औदार्य में मानते हैं । उदात्तत्वमौदार्यऽन्तर्भवति वाग्भटाद्यपेक्षया । अ०चि०
पृ0 308 पारुष्य दोष की निवृत्ति के लिए ।
सूक्ति उदात्तता
प्रयान्
उपर्युक्त गुपों के अतिरिक्त शेष गुण काव्य के उत्कर्षाधायक के रूप में स्वीकार किए गए हैं ।
आचार्य भामह, मम्मट तथा पण्डितराज, जगन्नाथ, माधुर्य, ओज तथा प्रसाद रूप से गुणें की संख्या तीन ही स्वीकार करते हैं ।' उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि मम्मट से पूर्व गुण निरूपण सम्बन्धी विचारधाराएँ प्राय. असमान थी । किन्तु मम्मट के पश्चात् यह विचारधारा स्थिर सी हो गयी यही कारण है कि मम्मट से पण्डितराज जगन्नाथ तक प्राय सभी आचार्यों ने माधुर्य, ओज एवं प्रसाद इन तीन गुणे को ही स्वीकार किया है ।
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का भा0, काव्या, 2/1, 2 ख) माधुर्याज प्रसादाख्यास्त्रयस्ते न पुनर्वश । का0प्र0, 8/68 का पूर्वाद्ध ग अतस्त्रय एव गुण इति मम्मटभट्टादय. ।
र००, प्रथम आनन, पृ0 255
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आचार्य अजितसेन ने कवि, गमक, भी उल्लेख किया है ।
वादी और वाग्मी के स्वरूप का
अभिनव रचना करने वाले को कवि, कृति के समालोचक को गमक, विजय वाणी से जीविका करने वाले को वादी तथा व्याख्यान कला से जनता को मुग्ध करने वाले को वाग्मी कहा है ।।
1
कविनूतनसदर्भों नमक कृतिभेदकः ।
वादी विजयवाग्वृत्तिर्वाग्मी तु जनरञ्जन ।। अचि०, 5/305
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अध्याय - 7
नायक - नायकादि विमर्श
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नायक के सामान्य गुण
समाज में सम्माननीय तथा सर्वश्रेष्ठ चरित्रवान, विद्वान, सत्यवादी और सौन्दर्यवान व्यक्ति का ही विशेष समादर होता है अत काव्य में उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न व्यक्ति को ही नायक की कोट में रखा जाता है । रामायण तथा महाभारत के पात्रों मे प्राय उपर्युक्त गुण सम्पन्न व्यक्ति देखे जा सकते हैं । उन्हीं के आधार पर लक्षण प्रन्यों का निर्माप हुआ। अत इन्ही लक्षण ग्रन्थों में निरूपित नायक नायिकदि के स्वरूप पर दृष्टिपात् किया जा रहा है ।'
नाट्यशास्त्र में रूपकों का भेद नायक के आधार पर विहित है । अत सर्वप्रथम नायक के गुणें पर विचार कर लेना अनुपयुक्त न होगा । आचार्य अजित सेन के अनुसार माधुर्य, शैच, स्मृति, धृति-कैर्य, विनय, वाग्मिता, उत्साह, मान, तेज, धर्म, दृढता, मधुरभाषण, प्राज्ञता-विद्वता, दक्षता, त्यागशीलता, लोकप्रीति, मति-बुद्धिमत्ता, कुलीनता, सत्कलाविजेता, शास्त्रार्थ की क्षमता, सुभाषिज्ञता, तारूण्य आदि गुण नायक में होते हैं । इनके द्वारा निरूपित नायक गुणों का उल्लेख किचित् अन्तर के साथ पूर्ववर्ती आचार्य धनञ्जय तथा परवर्ती विद्यानाथ, अमृतानन्द योग आदि ने भी किया है ।
आचर्य अजितसेन ने धीरोदात्त, धीरललित, धीरशान्त, तथा धीरोद्धत्त रूप से नायक के चर भेदों का उल्लेख किया है । उपर्युक्त प्रत्येक नायक को पूर्व पक्तियों में वर्पत नायक के गुपों से प्राय युक्त होना चाहिए । इन नायकों में भेद व्यवस्था रस की दृष्टि से भिन्नता होने के कारण की गयी है -
धीरोदात्त नायक.
अजितसेन के अनुसार - दयालु घमण्ड रहित, क्षमाशील, अविकत्थन
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कवितनसंदर्भो गमक कृतिभेदक । वादी विजयवाग्वृत्तर्वाग्मी तु जनरञ्जन ।। अ०चि0, 5/305 अचि0, 5/312 का द0रू0, 2/1, 2 ख प्रताप0, नायक प्रकरण, श्लोक - ।। ग अ0स0, 4/1, 2 अचि0, 5/313
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अपने मुँह से अपनी प्रशंसा न करने वाला, अतिबलशाली, अत्यन्त गम्भीर धीरोदात्त नायक होता है ।।
पूर्ववर्ती आचार्य धनञ्जय तथा परवर्ती आचार्य विद्यानाथ, अमृता नन्दयोगी तथा विश्वनाथ की परिभाषाएँ प्राय समान हैं 12
धीरललित नायक -
प्राय चिन्तारहित रहता है । विविध कलाओं के प्रति उसकी अभिरुचि रहती है । मानो इसीलिए वह सुखी भी रहता है । आचार्य अजितसेन ने यह भी बताया है कि उसके कार्य की देखभाल निपुण मन्त्री अमात्यादि करते है । इसलिए वह निश्चिन्त रहकर ललित कलाओं के प्रति आसक्त रहकर सुखमय जीवन व्यतीत करता है
धीरशान्त नायक:
___"धीरप्रशान्त या धीरशान्त नायक पूर्वोल्लिखित विनीतिता आदि गुणों से युक्त ब्राह्मण वणिक् तथा सचिव आदि होते है ।" दशरूपककार की भी यही मान्यता है । आचार्य अजितसेन के अनुसार कला, मृदुता, सौभाग्य, विलास, शुचिता से सम्पन्न, रस्कि तथा सुप्रसन्न और सुखी नायक को धीरशान्त के रूप में स्वीकार किया गया है । इन्होंने जातिगत तथा कर्मगत भेदों के आधार पर इसका विभाजन नही किया । जैसा कि इनके पूर्ववर्ती आचार्य दशरूपककार ने किया है अनुसन्धात्री के अनुसार किसी भी जाति का व्यक्ति यदि उक्त गुणों से सम्पन्न है तो उसे धीरशान्त
दयालुरनहंकार क्षमावानविकत्थन. । महासत्वोऽतिगम्भीरो धरोदात्त स्मृतोयथा ।। अ०चि0, 5/314
का द0रू0, 2/4, ख प्रताप0 श्लोक 28, ग अ0सं0, 4/4, (0 सा0द0, 3/32
का ना0द0, 1/9, ख द0रू0, 2/3 , कलासक्त. सुखी मन्त्रिसमर्पित निजक्रिय । भोगी मृदुरचिन्तोय स धीरललितो यथा ।।
अचि0, 5/316 संस्कृतरूपको के नायक, नाट्यशास्त्रीय विमर्श ले० डॉ० राजदेव मिश्र, पृ0 77
का द0रू0, 2/4, विप्रवपिक्सचिवादीना प्रकरणनेतृपामुपलक्षणम् । धनिक-वृत्ति। कलामार्दवसौभाग्यविलासी च शुचि सुखी । रसिक. सुप्रसन्नो यो धीरशान्तो मतो यथा ।।
अचि0, 5/318
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नायक की कोटि मे स्वीकार करने में किसी भी प्रकार की विप्रतिपत्ति नही होनी चाहिए।
धीरोद्धत्त नायक -
धीरोद्धत नायक छल-कपट द्वारा कार्य सिद्धि का प्रयत्न करता है आत्म प्रशसा में लीन मायादि के प्रयोग से मिथ्या वस्तु के उत्पत्ति करने वाला, प्रचण्ड, चपल तथा अहंकारी होता है ।
अजितसेन कृत परभाषा भी धनञ्जय के समान ही है। किन्तु साहित्यसार के रचयिता उद्धत को नायक के रूप मे स्वीकार नहीं करते हैं ।
'उपर्युक्त सभी नायकों में धीर शब्द के उल्लेख से यह विदित होता है कि कोई भी नायक भले ही लालित्य औदात्य प्रशान्तता तथा औद्धत्यादि शील सम्पदाओं में से किसी एक से विभूषित हो सकता है पर प्रत्येक नायक का धीर होन आवश्यक है । यह धीरता ही पात्र को नायक पद की मर्यादा से विभूषित
करती है ।
आचार्य अजितसेन ने पुन श्रृगार रसानुसार प्रत्येक नायक के दक्षिण, शठ, धृष्ट और अनुकूल इन चर भेदों का उल्लेख किया है । इस प्रकार नायक के 4x4 = 16 सेलह भेद हो जाते हैं । इन नायकों का स्वरूप इस प्रकार
दक्षिण
अत्यन्त सौम्य अप्रिय प्रति कारक अपराधी होने पर भी भयरहित स्वप्रियतमा के आधीन
अनुकूल
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का द0रू0, 2/5, ख सा0द0, 3/33 चपले कञ्चको दृप्तश्चण्डो मायमण्डित' । विकत्थनो यौ नेता मतो धीरोद्धतो यथा ।। अचि0, 5/320 सामा0, II/2 - वेधा नेता प्रकीर्तिता । उद्धृत - संस्कृत रूपकों के नायक, ना०शा0 विमर्श ले0, डॉ0 राजदेव मिश्र, पृ0 - 78 वही, पृ0 - 79 अचि0, 5/322-23
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इन भेदों के सम्बन्ध में प्राय सभी आचार्यों के विचार समान हैं । प्रत्येक नायक के उत्तम, मध्यम तथा अधम - तीन कोटियाँ होती हैं । अत 016x3 = 48 नायक के कुल 48 भेद हो जाते हैं 12 इसके अतिरिक्त इन्होंने नायक के सहायकों का भी उल्लेख किया है जो इस प्रकार है -
विदूषक - नायक को प्रसन्न रखने वाला तथा हसाने वाला होता है ।
विट.-
नायक के भीतरी प्रेम व अनुकूलता को जानने में सक्षम होता है ।
पीठमर्द - नायक से कुछ कम मुप वाला तथा कार्य मे कुशल होता है ।
प्रतिनायक:- लेभी, धीर, उद्दण्ड, अस्तब्ध तथा महापापी ।
इसके अतिरिक्त इन्होंने नायक के सात्विक कुपों का भी उल्लेख किया है जो निम्नलिखित हैं -4
गम्भीरता, स्थिरता, मधुरता, तेज, शोभा, विलास, औदार्य और लालित्य।
गम्भीरता -
धुब्धावस्था में भी प्रभाव के कारण जो विकृति का अभाव है उसे सम्भीरत कहते हैं ।
स्थैर्य माधुर्य और तेज -
महान विघ्न के उपस्थित हो जाने पर भी कार्य से विचलित न होने को स्थैर्य कहते हैं । सूक्ष्म कलाओं के संचय, प्रत्यक्ष और तर्कज्ञान को माधुर्य कहते हैं । प्रापनाश के समय भी धिक्कार को नहीं सह सकने को तेज कहते हैं ।
का द0रू0, 2/6, 7 ख प्रताप0 नायक प्रकरण, श्लोक 34 का अचि0, 5/328 तथा 5/329 का पूर्वाद्ध
ख) द0रू0 द्वितीय प्रकाश सा0द0, 3/38 विदूषकोविट पीठमर्दो नेतृसहायका ।। अचि0 5/329 का उत्तरार्थ, द्र0 5/330, 31 अचि0, 5/332 द्र05/333 से 36 तक ।
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शोभा, विलासः
दक्षता, शूरता तथा नीच कमो से घृपा को शोभा कहा गया है । हास्यपूर्वक कथन, धैर्य तथा प्रसन्न दृष्टिपात विलास के गुण हैं ।
औदार्यः
दान या अदान के
आधिक्य को औदार्य की अभिधा
प्रदान
की
गयी है ।
लालित्य -
मदु तथा श्रृंगारिक चेष्टाओं को ललित के रूप में स्वीकार किया गया है ।
उपर्युक्त गुण दशरूपक से प्रभावित हैं ।'
नायिकाओं के भेद तथा स्वरूपादि का निरूपण:
नायक के स्वरूप तथा भेद निरूपण के पश्चात् पूर्वोक्त नायक के गुणों से युक्त नायिकओं के भेद तथा स्वरूप का निरूपण किया जाना आवश्यक हो जाता है । आचार्य अजितसेन ने स्वकीया, परकीया और सामान्या रूप से नयिकओं को तीन भागें में विभजित किया है 12
परकीया को अन्योढा और कन्या - दो भागों में विभाजित किया है।' वेश्या को सामान्यतया साधारण स्त्री के रूप में वर्णित किया है । स्वकीया नायिका के मुग्धा, मध्या तथा प्रगल्भा इन तीन भेदों का उल्लेख भी किया है । मध्या नायिका के धीरा अधीरा और धीरा धीरा तीन अन्य भेद भी किए हैं । प्रगल्भा नायिका के भी मध्या नायिका के समान भेद किए गए हैं । पुन मध्या व प्रगल्भा के ज्येष्ठा तथा कनिष्ठा भेद भी किए गए हैं । अत नायिकओं के कुल 13 भेद हो जाते हैं । जो इस प्रकार हैं -
दशरूपक, 2/10 अचि0, 5/337 अचि०, 5/339 वही, 5/42
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मुग्धा केवल एक प्रकार) मध्या धीरा, अधीरा, धीराधीरा x ज्येष्ठा, कनिष्ठा प्रगल्भा धीर अधीरा, धीराधीरा x ज्येष्ठा कनिष्ठा
स्वकीयाः- शीलवती लज्जायुक्त तथा पतिव्रता होती है ।
परकीयाःक
अन्योढा.- अन्य परपीता श्रृंगार से अधिक सुसज्जित रहती है ।
ख कन्याः - शृगार में अधिक प्रेम नहीं रखती ।
साधारण स्त्री -
धन देने वाले नायक के प्रति प्रीति रखती है ये सभी की स्त्री हो स्कती है, जननुरजन ही इसका प्रधान कार्य है ।
मुग्धा .
नूतन काम वासना वाली नायिका जो रति आदि में असहमति व्यक्त करती है।
मध्याः
मनोभावों को छिपाने वाली तथा रतिकाल में मोहित होने वाली ।
प्रगल्भा.- अत्यन्त प्रस्फुटित काम वाली को प्रगल्भा कहते हैं ।
घरामध्या:- यातयात के परिश्रम से श्रान्त शरीर वाली धूल से रगी हुई आंखों वाली
रति के प्रति उदासीन ।
मध्या अधीरा - गिरते हुए आसुओं से और क्रुद्ध वचनों से नायक को कष्ट पहुँचाने
वाली होती है ।
मध्या धीराधीराः
नायक के चित्र को बार-बार जलाने वाली तथा बाद में कोपशान्ति पर रोने वाली होती है ।
प्रगल्भा धीरा
अपराधी नायक को सुरत सुख से वैचत कर देती है ।
प्रगल्भा अधीरा -
प्रियतम को कष्ट पहुँचाती है क्रोध को सफल करती है ।
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प्रगल्भा धीराधीरा
रहस्यपूर्ण कुटिल शब्द का प्रयोग करती है ।
नायिकाओं के उपर्युक्त भेद का प्रतिपादन अलकार चिन्तामणि में श्लोक 5/337 से 5/360 तक किया गया है । इन भेदों पर दशरूपककार का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है । '
उपर्युक्त नायक-नायिकाओं के भेद निरूपण के पश्चात् आचार्य अि सेन ने नायिकाओं के अन्य आठ भेदों का उल्लेख किया है जो प्राय सभी नायिकाओं में साधारण रूप से प्राप्त होते हैं । इनके नाम इस प्रकार है 2 -
स्वाधीनपतिका वासकसज्जिका कलहान्तरा, खण्डता, विप्रलब्धा, प्रोषितभर्तृका, विरहोत्कण्ठिता तथा अभिसारिका ।
उपर्युक्त आठ प्रकार की नायिकाओं का उल्लेख नाट्य शास्त्र में भी प्राप्त होता है 13
स्वाधीनपतिका
कहते 1
-
कलहान्तरिता
वाकसज्जिका. -
प्रियतम के आगमन को सुनकर स्वयं को सजाने सवारने वाली नायिका को वासकसज्जिका कहते हैं ।
1.
2
सदा पति के समीप और अधीन रहने वाली नायिका को स्वाधीनपतिका
अपने प्रियतम को पास से हटाकर पश्चात् जो अफसोस करती है, उसे कलहान्तरिता नायिका कहते हैं ।
3
-
द0रू0, 2/14 उत्तरार्द्ध से 2/22 तक
अ० चि०, 5/361, 62
द्रo 5/363 से 375 तक
ना०शा०, 24 / 203, 204
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खण्डिता.
प्रियतम को परनायिका के साथ उपभोग करने से लगे हुए चिन्ह को देखकर नायक के ईर्ष्या करने वाली नायिका को खण्डता कहते हैं ।
विप्रलब्धा -
प्रिय के द्वारा किये गए स्केत या आगमन से ठगी हुई नायिका को विप्रलब्धा नायिका कहते हैं ।
प्रोषितभर्तृका -
जिसका प्रिय परदेश गया हो, उसे प्रोषितभर्तृका कहते हैं ।
विरहोत्कण्ठिता.
वस्तुत किसी कारणवश पत के परदेश में विलम्ब करने पर विरह से उत्कण्ठित नायिका विरहोत्कण्ठिता नायिका कहलाती है ।
अभिसारिका.
प्रियतम के पास में जाने या उसे बुलाने की इच्छावाली नायिका को अभिसारिका कहते हैं ।
अजितसेन द्वारा निरूपित उक्त आठ नायिका भेद आचार्य धनञ्जय एवं आचार्य विश्वनाथ से प्रभावित है।'
परवर्ती काल में आचार्य विद्यानाथ ने अजितसेन द्वारा निरूपित उक्त नायिका भेदों को स्वीकार कर लिया ।2
नायिकाओं की दृतियाँ -
सन्यासिनी, शिल्पनी, दासी, धात्री, पडोसिन, धोबिन, नाइन, तम्बोलिन इत्यादि सखियाँ इन नायिकाओं के दौत्य कार्य को सम्पादित करती हैं । इनके
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का द0रू0, 2/23 से 27 तक खि सा0द0, 3/75 से 86 तक प्रताप0, नायक प्रकरण, श्लोक - 41, 42
2
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अभाव में नायिका स्वय दूती का कार्य करती है ।' अमृतानन्दयोगी भी अजित सेन के विचारों से सहमत हैं । दशरूपककार का भी यही विचार है ।
स्त्रियों के 20 अलकार स्वीकार किए गए हैं जो युवावस्था मे सात्विक भाव से उत्पन्न होते हैं । इनमें भाव- हाव- हेला, तीन को आंगिक अलकार के रूप मे स्वीकार किया गया है ।
शोभा, कन्ति दीप्ति, प्रगल्भता, माधुर्य , धैर्य और औदार्य, लीला, विलास ललित, किलकिचत, विभ्रम कुट्टमित मोट्टायित विब्बोक विहृत तथा सत्वज, भावहाव, हेला ये 20 अलकार हैं ।
उपर्युक्त गुणों में से भाव, हाव तथा हेला को आंगिक अलंकार के रूप में स्वीकार किया गया है ।
शोभा, कन्ति, दीप्ति माधुर्य, प्रगल्भता, औदार्य तथा धैर्य ये सात अयत्न समुद्भूत हैं ।
शेष दश स्वाभाविक अलंकार के रूप में स्वीकार किए गए हैं ।
इनका स्वरूप इस प्रकार है
भाव.
मन की वृत्ति को सत्व और विशेष को विकृतिच्युति तथा भविष्य में शोभा बढाने वाली प्रभृति विकृति को भाव कहते हैं ।
हाव.
मन से उत्पन्न स्त्रियों के विविध श्रृंगार को भाव और काम से उत्पन्न आंख या भैहों के विकार को हाव कहते हैं ।
हेला -
श्रृगार के प्रकाशक व्यक्त हाव ही हेला है ।
लिगिनी शिल्पिनी दासी धात्रेयी प्रतिवशिनी । कारू सख्यो सुदूत्य स्युस्तदभावे स्वयमता ।। अ०चि0, 5/376 का अ0स0, 4/40 ख) द0रू0, 2/29, प्रताप0 नायक प्रकरण, श्लोक - 55 अचि0, 5/377, 378, 379 अचि0, 5/380 से 5/402 तक ।
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शोभा
कान्ति. -
दीप्ति
रूप और तरुपाई से अर्गों के अलंकरण को शोभा कहते हैं ।
अत्यन्त राग और रस से परिपूर्ण शोभा ही कान्ति है ।
अत्यन्त विस्तृत हुई कान्ति 'दीप्ति' है ।
प्रागल्भ्यः - लज्जा से उत्पन्न भय के त्याग को प्रगल्भता कहते हैं ।
·
-
माधुर्य -
धैर्य. -
औदार्य:
लीला. -
विलास. -
प्रशसनीय वस्तुओं के योग न रहने पर भी रम्यता को माधुर्य कहते हैं ।
अचचल मनोवृत्ति को धैर्य कहते हैं ।
बहुत परिश्रम करने पर भी सदा विनय भाव रखने को औदार्य कहते हैं ।
मधुर चेष्टाओं तथा वेषादि से प्रियतम के अनुकरण को लीला कहते हैं ।
प्रियतम के दर्शन से स्थान, आसन, मुख और नेत्रादि क्रियाओं की विशेषताओं को विलास कहते हैं ।
ललित. - अगों की सुकुमारता, स्निग्धता, चाचल्य इत्यादि को ललित कहते हैं। किलकिंचित :- शोक, रोदन और क्रोध आदि के साकर्य को किलकिचित कहते हैं ।
विभ्रमः - प्रियतम के आगमनादि के कारण हर्षवश नायिका द्वारा श्रृंगार करना मूलवस्त्रादि को विपरीत क्रम से धारण करने को विभ्रम कहते हैं ।
कुट्टमित :- केवल दिखावट के लिए जो नायिका के द्वारा निषेध किया जाता है, वह कुट्टमित है ।
मोट्टायित: - प्रियतम को चित्रादि में देखने पर उसे वस्तुत अग आदि तोडना, अंगड़ाई लेना, पसीना आना, अथवा प्रियतम के स्मरण करने पर उक्त चेष्टाओं के होने को मोट्टायित कहते हैं ।
व्याहृत..
बिब्बोक :- गर्व के आवेश या प्रेम की जाँच के लिए या दीप्ति के लिए नायिका के द्वारा किए गए नायक के अपमान को बिब्बोक कहते हैं ।
विच्छित्तिः:- आवश्यकता पडने पर थोडे ही आभूषणों से सन्तोषजनक कार्य हो जाए, तो उसे विच्छित्ति कहते हैं ।
अत्यन्त आवश्यक और कहने के कारण नहीं कही जाए तो उसे
योग्य बात भी जब लज्जा की अधिकता व्याहृत कहते हैं ।
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अजितसेन द्वारा वर्पत उक्त 20 अलकारों को आचार्य धनञ्जय, विश्वनाथ तथा अमृतानन्दयोगी ने भी सादर स्वीकार किया है ।'
का द0रू0, 2/30, 31, 32 ख सा0द0, 3/89, 90, 91 ग अ0सं0, 4/41, 42 43
पी0 कष्णभाचार्य और प0 के0 रामचन्द्र शर्मा
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उपसंहार
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में अलकार चिन्तामपि में निखपित सर्वांगीण विषयों के समीक्षात्मक अध्ययन से विदित होता है कि आचार्य अजित्सेन नाट्यशास्त्रीय विषयों को छोडकर काव्यशास्त्र के समस्त विषयों का प्राय निरूपण किया है । इनकी निरूपप शैली अत्यन्त सरल सुबोध मार्मिक तथा संक्षिप्त होते हुए भी काव्य शास्त्र के विषयों को पूर्ण रूप से प्रतिपादन करने में समर्थ है । इस ग्रन्थ में काव्य स्वरूप, काव्य हेतु तथ काव्य प्रयोजन के अतिरिक्त रस, अलकार, गुण, दोष, रीति, वृत्ति तथा नायक और नायिकाओं के स्वरूप को भी प्रतिपादन किया गया है । यहाँ तक कि कवि समय तथा समस्या पूर्त जैसे विषयों पर भी अजितसेन ने विचार किया है । प्रत्येक विषयों के लक्षण इनके द्वारा स्वय निर्मित हैं किन्तु लक्ष्य रूप मे निबद्ध उदाहरणों को प्राचीन पुराण ग्रन्थों, सुभाषित ग्रन्थों तथा स्तोत्रों से उद्धृत किया है -
अत्रोदाहरणं पूर्वपुराणादिसुभाषितम् । पुण्यपूरुषसस्तोत्रपर स्तोत्रमिद तत. ।।
अचि0, I/5
इनके ग्रन्थ पर भामह, दण्डी, भोज, मम्मट तथा वाग्भट का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होत है । कतिपय दोषों पर भामह का स्पष्ट प्रभाव है । उपमा के भेद निरूपण के सन्दर्भ में दण्ड द्वारा निरूपित उपमा क्रम से भेदों का निरूपण किया है । इन्होंने भोज द्वारा निरूपित 24 गुणों का भी उल्लेख किया है जिनपर भोज का स्पष्ट प्रभाव है । दोष निरूपण के सन्दर्भ में आचार्य मम्मट का स्पष्ट प्रभव है । काव्य के भाषागत भेदों को आचार्य वाग्भट से अक्षरस सत्रहीत भी कर लिया ।'
नायिका के भेदादि के विक्चन पर नाट्यशास्त्र तथा दशरूपक का प्रभाव है । किन्तु इन्होंने वाग्भट के कतिपय पद्यों के अतिरिक्त अन्य किसी
संस्कृत प्राकृत तस्यापभ्रशों भूत भषितम् । , इति भाषाश्चतस्रोऽपि यान्ति काव्यस्य कायताम् ।। संस्कृत स्वर्गिणा भाषा शब्दशात्रेषु निश्चिता । प्राकृतं तज्जतत्तुल्यदेश्यादिकमनेकधा ।। अपभ्रशस्तु यच्छुद्ध तत्तद्धेशेषु भषितम् । यदभूतैरूच्यते किंचित्तभौतिकमिति स्मृतम् ।।
अचि0, 2/119, 20, 21 तुलनीय - वाग्भटालकार 2/1-4
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आचार्य के लक्षण को पूर्णतया उद्धृत नहीं किया । इनके लक्षणों में नवीनता का आधान भी हुआ है ।
अजितसेन द्वारा निरूपित अलंकारों में भी वैदुष्य का परिचय प्राप्त होता है । परवती काल में आचार्य विद्यानाथ कृत अलकार निरूपण पर अजितसेन का स्पष्ट प्रभाव है । आचार्य अजितसेन द्वारा निरूपित उपमालकार को तो विद्यानाथ ने अक्षरश उद्धृत कर दिया है । जिसका खण्डन अप्पयदीक्षित ने चित्रमीमासा में किया है । किसी आचार्य के लक्षण को विविध ग्रन्थों में उद्धृत कर उसकी विवेचना प्रस्तुत करना कवि के वैदुष्य और गौरव का ही परचायक होता है ।
आचार्य अजितसेन ने वक्रोक्ति का निरूपण दो कार किया है। प्रथम शब्दालकारों के अन्तर्गत तथा द्वितीय बार अर्थालकारों के अन्तर्गत जबकि इनके पूर्व किसी भी आचार्य ने ऐसा नहीं किया । इन्होंने चित्रालकार का सर्वाधिक विवेचन किया है अलकार चिन्तामणि में लगभग 48 भेदों के लक्षण व उदाहरण दिए गए हैं । यद्यपि चित्र काव्य का निरूपण आचार्य रुद्रट ने भी किया था लेकिन इनका विवेचन विशिष्ट है ।
दोष निरूपण के सन्दर्भ में जिस प्रकार से इन्होंने कतिपय दोषों की अदोषत का उल्लेख किया है उसी प्रकार से गुण निरूपण के सन्दर्भ में कतिपय गुपों के दोषाभाव पर भी अपने विचार व्यक्त किए हैं ।
शेष प्रबन्ध का विवेचन प्राय ऐतिहासिक अनुक्रम से आदान-प्रदान की दृष्टि से किया गया है । अनुसन्धान के समय यह ध्यान दिया गया है कि प्राय अनुसन्धात्री की अनुसन्धात्मक प्रवृत्ति का ही प्राधान्य रहे । मेरा विश्वास है कि अलकार चिन्तामणि का यह समीक्षात्मक विवेचन अलंकार शास्त्र के क्षेत्र मे उपादेय हो सकेगा।
वर्ण्यस्य साम्यमन्येन स्वत सिद्धन धर्मत । भिन्नेन सूर्यभीष्टेन वाच्यं यत्रोपमकदा ।। अ०चि0, 4/18
तुलनीय स्वत सिद्धन भिन्नेन समतेन च धर्मत. । साम्यमन्येन वर्ण्यस्य वाच्यं चेदेकदोपमा ।। प्रताप0, अर्थालंकार प्रकरण पृ0-414 चित्रमीमासा, पृ0 42, व्याख्याकार - श्री जगदीशचन्द्र मिश्र अ०चिo, 3/1 तथा 4/170
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I
2
3
on
5
4 अलकारो का ऐतिहासिक विकास
6
7
8
9
10
=
12
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अलड कारसर्वस्व
17
अलकार चिन्तामणि
18
अलकार संग्रह
काव्यालकारसूत्रवृत्ति
डा० राजवश सहाय
अलकार सम्प्रदाय के विकास मे आचार्य वाग्भट का योगदान
अग्निपुराण
अलकार मीमासा
अलकार शेखर
काव्यालकार
सञ्जीवनी टीका, डा0 रामचन्द्र द्विवेदी
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काव्यालकार
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काव्यालकारकारिका
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अप्पयदीक्षित, डा० भोलाशकर व्यास, चौखम्भा विद्याभवन
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27 वाग्भटालकार
28 साहित्य दर्पण
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32
33
चन्द्रालोक
चित्रमीमासा
नाट्यशास्त्र
नलचम्पू
प्रतापरूद्रीयम
35
पातञ्जलयोगसूत्रम्
36
37
रसगगाधर
वक्रोक्ति जीवितम्
सरस्वती काण्ठाभरण
संस्कृत साहित्य का इतिहास
संस्कृत रूपकोंके नायक
संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास
34. दशरूपक
बौद्धालकार शास्त्रम
महाकवि भारवि एव माघ
ध्वन्यालोक
अलकार मञ्जूषा
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:: 267 ::
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ओरियन्टल मैन्युस्क्रिप्ट्सलाईब्रेरी
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________________ अ0 मं0 अ0 स0 अ0 चि० सकेत ग्रन्थ सूची - अलंकार मंजूषा अलकार सर्वस्व अलकार चिन्तामणि अ0 स० अलकार सग्रह अग्नि पुराण अ0 पु० अ0 मी० अलकार मीमासा অ0 अलकार शखर का0 प्र0 काव्य प्रकाश का० ल0सू० काव्यालकार सूत्रम् का0 मी0 - काव्य मीमासा का०ल0सा०स० काव्यालकार सारसग्रह का० ल0 - काव्यालकार कुवलयानन्द कुव० चन्द्रा - चन्द्रालोक चि० मी० - चित्रमीमासा ध्वन्या. - ध्वन्यालोक ना० शा० नाट्यशास्त्र म० च० - नलचम्पू प्रताप० ভলিহাO - प्रतापरुद्रीयम् बौद्धालकारशास्त्रम् पातञ्जलयोगसूत्रम् पा०योगसू० र) ग0 रसगगाधर वाग्भ० वाग्भटालकार बा० बो० बालबोधिनी - वक्रोक्ति जीवितम् - साहित्य दर्पण सरस्वतीकण्ठाभरण व० जी० सा0 द0 स0 क०भ० स0 साइति० स0का0शा०इति० द0 रू0 - सस्कृत साहित्य का इतिहास सस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास दशरूपक