SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उदाहरण - यदि नास्ति स्वत शोभा भूषणै कि प्रयोजनम् । यद्यस्त्यरता शोभाभूषणै कि प्रयोजनम् ।। अ०चि0 - 3/6 उक्त श्लोक मे यह बताया गया है कि यदि स्वत शोभा नहीं है तो भूषण विन्यास सर्वथा व्यर्थ है, और यदि स्वत शोभा है तो भी भूषण विन्यास व्यर्थ ही है। उपर्युक्त उदाहरण से ज्ञात होता है कि आचार्य अजितसेन को भी शब्द और अर्थ मे अभेद होने पर भी तात्पर्य मात्र से भेद प्रतीति मे लाटानुप्रास अभीष्ट है, क्योंकि श्लोक के पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध वाक्यों की योजना एक जैसी ही है तथापि तात्पर्य मात्र से भेद परिलक्षित हो रहा है । अत यहाँ लाटानुप्रास लाटानुप्रास तथा यमक का अन्तरः लाटानुप्रास मे शब्द तथा अर्थ मे अभेद होने पर तात्पर्य भेद के कारण अर्थ मे भिन्नता हो जाती है जबकि यमक मे सार्थक किन्तु भिन्नार्थक पदों की आवृत्ति के कारण अर्थ भेद की प्रतीति होती है । लाटानुप्रास तथा अनन्वय का अन्तर - "लाटानुप्रास' के समान अनन्वय मे भी शब्द की पुनरावृत्ति होती है तथापि अनन्वय शाब्दिक पुनरूक्ति गौण होती है और लाटानुप्रास मे वह अलकारत्व की सृष्टि करती है ।"2 शोभाकर मित्र के अलकार रत्नाकर का आलोचनात्मक अध्ययन - डॉ० सोम प्रकाश पाण्डेय, पृ0 - 32 अ0र0, सू०-5 की वृत्ति अ0स0, पृ० - 37
SR No.010838
Book TitleAlankar Chintamani ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArchana Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1918
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy