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आरोप्यापह्नव मे आरोप पूर्वक निषेध होता है । अपह्नवारोप में निषेध पूर्वक अपह्नव होता है । छलादि उक्ति की अपह्नुति मे अति सादृश्य के कारण सत्य होने पर भी असत्य कह कर उपमान को सत्य सिद्ध किया जाता है ।
परवर्ती आचार्य विद्यानाथ कृत परिभाषा अजितसेन से अनुकृत है । ' जयदेव, दीक्षित, पण्डितराजादि ने भी किञ्चित् शाब्दिक परिवर्तन के साथ अजितसेन कृत परिभाषा को स्वीकार कर लिया है । तात्विक दृष्टि से विचार करने पर इन आचार्यों की परिभाषाओं मे किसी प्रकार की नव्यता दृष्टिगोचर नहीं होती | 2
उल्लेख
इस अलकार की उद्भावना का श्रेय आचार्य रुय्यक को है इनके अनुसार जहाँ एक वस्तु का निमित्तवश अनेक प्रकार से ग्रहण किया जाए वहाँ उल्लेख अलकार होता है 3
आचार्य शोभाकर मित्र कृत परिभाषा रुय्यक से किञ्चित् भिन्न है इन्होंने एक वस्तु की अनेकधा कल्पना मे उल्लेख अलकार को स्वीकार किया, साथ साथ 'तत्धर्मयोगात्' के माध्यम से यह भी स्पष्ट किया है कि वस्तु का अनेकधा उल्लेख धर्म के सम्बन्ध से ही किया जाए तो उसमे प्राय विशेष औचित्य की सृष्टि होती है । 4
आचार्य अजितसेन के अवशिष्ट रुच्यर्थ के सम्बन्ध से उल्लेख अलकार होता है 1 किसी भी प्रकार की चर्चा नहीं की कर दिया कि ग्रहणकर्ता किसी वस्तु
अनुसार जहाँ ग्रहीता के भेद से एक वस्तु का अनेक प्रकार का उल्लेख किया जाए वहाँ इनके पूर्ववर्ती आचार्यों ने रुच्यर्थ के सम्बन्ध में इन्होंने रुचि का उल्लेख कर के यह स्पष्ट की जब अनेक प्रकार से कल्पना करता है तो उसकी यह कल्पना उसके रूचि के अनुकूल ही हुआ करती है । इनके अनुसार
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(ख)
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प्रतापरूद्रीयम्
पृ० 457
(क) अतथ्यमारोपयितु तथ्यापास्त
चि०मी० पृ०
82
성명 366
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अ०म० (सजीवनी टीका ( पृ०
अलकार रत्नाकर
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70
पृ० - 54
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चन्द्रा० 5/24