________________
इस अलकार को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है - 10 ज्ञातृ भेद से किसी एक विषय वस्त या पदार्थ का अनेक रूप में वर्णन करना । 02 विषय भेद से किसी एक विषयवस्तु या पदार्थ का अनेक रूप मे वर्णन करना ।
इस अलकार मे अपनी-अपनी भावनावश बहत रूपों का उल्लेख किया जाता है । इन्होंने श्लेष के योग मे भी इस अलकार की सत्ता स्वीकार की है जो इनके पूर्ववर्ती आचार्यों की परिभाषाओं मे अप्राप्त है ।'
आचार्य विद्यानाथ कृत परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है ।2 परवर्ती जयदेव दीक्षित तथा पण्डित राजादि की परिभाषाओं में भी किसी विशेष प्रकार का अन्तर नहीं है । इनकी परिभाषाएँ अजितसेन तथा रुय्यक से प्रभावित
है ।
उत्प्रेधाः
आचार्य भामह के अनुसार जहाँ सादृश्य की प्रतीति करता अभीष्ट न हो किन्तु उपमा की आंशिक सामग्री विद्यमान हो, साथ ही अतिशय द्वारा झिन वस्तु के गुप और क्रिया रूप धर्म का सम्बन्ध भिन्न वस्तु मे बताया जाए, उसे उत्प्रेक्षा कहते है ।
आचार्य वामन के अनुसार गुण, क्रियादि रूप वस्तु के स्वभाव को छिपाकर जिसमे जैसा नहीं है उसमे वैसे स्वभाव का ज्ञान कराना उत्प्रेक्षा अलकार है इसमें आरोप या लक्षणा नहीं रहती, न ही भ्रान्तिमान् । यह सादृश्य मूलक होती है।
----------------------------------------
अचि0 - 4/140 अचि0 पृ0-155
एकस्य शेषरूच्यर्थयोमेरुल्लेखः बहु । ग्रहीतृभेदादुल्लेखालकारः स मतोयथा ।। अत्र रूच्यर्थयोगाभ्यामुल्लेख । श्लेषेण यथा -- । प्रतापरुद्रीयम् - पृ0 - 459 रत्नापण टीका (क) बहुभिर्बहुधोल्लेखादेकस्योल्लेखिता मत । ख चि०मी० पृ0 - 77 गः रसगगाधर - पृ0 - 360-61 का०ल0 - 2/91 काव्या० सू०, 4/3/9
चन्द्रा0 5/23