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विभावना:
यह प्राचीनतम अलकार है । भामह से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ तक प्राय सभी आचार्यों ने इसका निरूपण किया है । इसमें कारण के अभाव मे कार्य की उत्पत्ति का वर्णन किया जाता है । सस्कृत काव्यशास्त्र मे कारण के लिए क्रिया' तथा 'हेतु' का और कार्य के लिए 'फल' पद का भी प्रयोग किया गया है।
आचार्य भामह, वामन, मम्मट क्रिया के प्रतिषेध अभाव मे फल का व्यक्ति को विभावना के रूप मे स्वीकार किया है ।' आचार्य रुय्यक, जयदेव, विद्यानाथ तथा विश्वनाथ ने कारण के अभाव मे कार्य की उत्पत्ति के वर्णन मे विभावना अलकार को स्वीकार किया है ।
आचार्य दण्डी प्रसिद्ध हेतु के अभाव में कार्य की उत्पत्ति को विभावना स्वीकार किया है ।
आचार्य भामह ने क्रिया के प्रतिषेध मे फलाभिव्यक्ति को विभावना के रूप मे स्वीकार किया है । किन्तु इन्होंने 'समाधी सुलभे सति' का भी उल्लेख किया है जिससे विदित होता है कि फल की उत्पत्ति तभी संभव है जब समाधान सुलभ हो । अर्थात् लोक प्रसिद्ध कारण के अतिरिक्त अन्य कारण विद्यमान है आचार्य दण्डी भी प्रसिद्ध हेतु के अभाव मे कारणान्तर की कल्पना की है । वामन की परिभाषा भामह - अनुकृत है ।
काव्या० सू०, 4/3/13
का0प्र0, 10/107
का भा०, काव्या0, 2/77 खि क्रियाप्रतिषेधे प्रसिद्धतत्फलव्यक्तिर्विभावना । ग क्रियाया प्रतिषेधेऽपि फलव्यक्तिर्विभावना ।
रणाभाव कार्यस्योत्पत्तिविभावना । ख विभावना विनापिस्यात् कारणं कार्यजन्य चेत् ।। ग कारणेन बिना कार्यस्योत्पत्ति स्याद्विभावना ।। (घ) विभावना बिना हेतु कार्यात्पत्तिर्यदुच्यते ।। का0द0, 2/199 काव्या0 सू0, 4/3/13
अ0स0, पृ0 - 157
चन्द्रा0, 5/77 प्रताप0, पृ0 - 509
सा0द0, 10/66