________________
:: 208 ::
आचार्य दण्डी ने रत्यादि से रमणीय आख्यान को रसवत् कहा है ।' शिला मेघसेन कृत परिभाषा दण्डी अनुकृत है ।2 आचार्य उद्भट ने भामह की ही शब्दावली का प्रयोग किया है । आचार्य कुन्तक को रसवत् की अलकारता अभीष्ट नहीं है ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जिसमे श्रृगारादि रस की विशेष पुष्टि का वर्णन हो उसे रसवत् अलकार कहा गया है । इनकी परिभाषा पर भामह का स्पष्ट प्रभाव है । रुय्यक की परिभाषा भामह से प्रभावित है । शोभाकर मित्र, जयदेव, अप्पय दीक्षित, भट्टदेव शकर पुरोहित ने रसों का रसादि के प्रति अगता मे रसवत् अलकार स्वीकार किया है।
ऊर्जस्वी.
आचार्य भामह ने इसका उदाहरण मात्र ही प्रस्तुत किया है किन्तु उदाहरण के अवलोकन से विदित होता है कि इन्हे गर्वोक्ति मे ऊर्जस्वी अलकार अभीष्ट है 18 आचार्य दण्डी तथा अमृतानन्दयोगी शिलामेसेन ने रूढाहकार को ऊर्जस्वी अलकार के रूप मे स्वीकार किया है । आचार्य उद्भट के अनुसार जहाँ काम क्रोधादि के कारण भायो" तथा रसों का अनुचित प्रयोग हो वहाँ
रसवदसेपशलम् । का0द0, 2/275 बौद्धा0 भाग 2, 272 काव्या0सा0स0, -4/3 अलकारों न रसवत् परस्याप्रतिभासनात् । व0जी0, 3/।। शृगारादिरसोत्पुष्टिर्यत्र तद्रसवद् यथा । अचि0, 4/306 अ0स0, 83 एक अ0र0, 109 ख चन्द्रा0, 5/117 ग कुव0, 170 gol अ0म0, पृ0 - 226-27 ऊर्जस्वि कर्णेन यथापार्थाय पुनरागत । द्वि सन्दधाति कि करण शल्यत्यहि अपाकृत ।। काव्याo, 3/7
क) का0द0, 2/275 खि अ0स0, 37 उत्तरार्ध
गः बौद्धा0 भाग-2, 272 काव्या० सा0स0, 4/5