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आचार्य भामह ने काव्य हेतु का उल्लेख मात्र किया है । काव्य हेतु का लक्षण नही दिया किन्तु काव्य रचना के लिए उपादेय तत्त्वों की चर्चा अवश्य की है । जिसके विश्लेषण व विवेचन के आधार पर उत्तरवर्ती आलकारिक आचार्यो ने 'काव्य हेतु' का निरूपण किया है ।
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आचार्य दण्डी के अनुसार 'पूर्वजन्मसस्कारासादित प्रतिभा', 'नानाशास्त्र परिशीलन' और 'काव्यसरचना का सतत अभ्यास' ये तीनों मिलकर साधु काव्य के निर्माण के हेतु कहे गए है । 2 इनके पूर्ववर्ती आचार्य भामह ने प्रतिभा को सर्वाधिक महत्त्व दिया और काव्यों की शिक्षा तथा अभ्यास को सहायक के रूप मे स्वीकार किया था परन्तु दण्डी ने तीनों को समान भाव से कारण रूप मे मान्यता प्रदान की । किन्तु भामह की भाँति इन्होंने भी अभ्यास के महत्त्व को स्वीकार किया तथा केवल अभ्यास व शास्त्रज्ञान से ही काव्य निर्माण की चर्चा की । दण्डी के पश्चात्
। दण्डी के पश्चात् आचार्य वामन ने लोकविद्या
और प्रकीर्ण
इन तीनों को काव्याग के रूप मे स्वीकार किया है । जिसमे लोक व्यवहार को 'लोकवृत्त' शब्द से अभिहित किया है तथा शब्द स्मृति अभिधान कोश छन्दोविचिति कला मे स्वीकार किया ।
कामशास्त्र
दण्डनीति आदि का विद्या के रूप
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काव्य हेतु
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गुरूपदेशादध्येतु शास्त्र जडधियोऽप्यलम् ।
काव्य तु जायते जातु कस्यचित् प्रतिभावत 11 1 / 5 शब्दश्छन्दोऽभिधानार्था इतिहासाश्रया कथा
लोको युक्ति कलाश्चेति मन्तव्या काव्यगैर्ह्यमी 111/9 शब्दभिधेये विज्ञाय कृत्वा तद्विदुपासनम् । विलोक्यान्यनिबन्धाश्च कार्य काव्यक्रियाहर || 1/10
( भामह - काव्या 0 0
नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतच बहु निर्मलम् ।
अमन्दश्चाभियोगोऽस्या कारण काव्यसम्पद ।।
न विद्यते यद्यपि पूर्ववासनागुणानुबन्धि प्रतिमानमद्भुतम् ( काव्यादर्श - 1 / 103 0 श्रुतेन यत्नेन च वागुपासिताध्रुव करोत्येव कमप्यनुग्रहम् ।।
( वही - 1040