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अजितसेन कृत उक्त काव्य लक्षण मे भामह,
तथा आनन्दवर्धन के
दण्डी, रुद्रट आदि अलकारवादी आचार्यो के अलकार तत्व का व्यगयार्थ व महिम भट्ट के द्वारा प्रतिष्ठापित रस तत्व तथा वामन द्वारा विवेचित रीति व गुण तत्व का समावेश हुआ है । इसके अतिरिक्त इन्होंने भोज तथा मम्मट की भाँति काव्य मे दोष राहित्य का भी उल्लेख किया है । 'नेतृसवर्णनाढ्यम्' तथा 'लोकोद्वन्द्वोपकारि' का उल्लेख कर एक नवीन विचार व्यक्त किया है । किसी कवि ने काव्य - लक्ष्ण मे उत्तम नायक के चरित्र की है और न ही उसे लोक हितकारी बताया है ।
अजित सेन के पूर्ववर्ती
वर्णन की चर्चा नहीं
परवर्ती काल मे जयदेव कृत परिभाषा पर अजित सेन का सर्वाधिक प्रभाव लक्षित होता है । जयदेव कृत काव्य लक्षण मे दोष राहित्य, गुण, अलकार, रीति, वृत्ति आदि उन सभी तत्वों की चर्चा की गयी है ।। जिसका उल्लेख आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा मे नहीं था ।
जयदेव के पश्चात् आचार्य विश्वनाथ रसात्मक वाक्य को काव्य के रूप मे स्वीकार किया है 12 पण्डितराज जगन्नाथ ने रमणीयार्थ प्रतिपादक शब्द को इनके अनुसार अलौकिक आनन्द की अनुभूति कराने वाली रचना ही वस्तुत काव्य है ।
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उपर्युक्त काव्य स्वरूप के विवेचन से यह ज्ञात होता है कि श्रेष्ठ काव्य के लिए दोषाभाव, अलकार, रस, रीति, व्यग्यार्थ और गुणों का सद्भाव नितान्त अपेक्षित है ।
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निर्दोषा लक्षणवती सरीति गुणभूषिता
सालड् कार रसानेक वृतिर्वाक्काव्यनाम भाक् ।
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वाक्य रसात्मक काव्यम् ।
रमणीयार्थप्रतिपादक शब्द काव्यम् ।
चन्द्रलोक 1 /70
(सा0द0 1 / 3 पृ0-200
(रसगगाधर । / । पृ0 - 90