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धर्मी रस का ज्ञान अनुमानत या आक्षेप से करना अनुपयुक्त न होगा ।'
आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा भरतमुनि भामह, दण्डी, वामन, रुद्रट, भोज तथा मम्मट से भिन्न है । इन्होंने स्वकृत काव्य परिभाषा मे पूर्ववर्ती आचार्यो की परिभाषाओं का समन्वित रूप प्रस्तुत किया है । इनके अनुसार शब्दालकार तथा अर्थालकार से युक्त, श्रृगारादि नौ रसों से समन्वित, समुचित वाक्य विन्यास से युक्त, रीतियों के प्रयोग से सुन्दर, व्यग्यादि अर्थो से समन्वित, दोषों से रहित गुणों से युक्त, उत्तम नायक के चरित्र वर्णन से सम्पृक्त, उभय लोक, हितकारी, सद्रचना ही काव्य की कोटि मे स्वीकार की गयी है । उक्त विशेषताओं से संवलित काव्य ही उत्तम काव्य की कोटि मे स्वीकार किया जाता है -
शब्दार्थालड् कृतीद्ध नवरसकलित रीतिभावाभिरामम् व्यग्याद्यर्थं विदोष गुणगणकलित नेतृसद्वर्णनाढ्यम् । लोको द्वन्द्वोपकारि स्फुटमिह तनुतात् काव्यमय सुखार्थी नानाशास्त्रप्रवीण कविरतुलमति पुण्यधर्मोरुहेतुम् ।।
अलकार चिन्तामणि - 1/71
अजित सेन कृत परिभाषा मे निम्नलिखित तत्वों का आधान हुआ
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शब्दालकार का सन्निवेश अर्थालकार का सन्निवेश नौ रसों की योजना रीति योजना भावों को अभिरामता व्यग्यार्थ का सद्भाव दोष-राहित्य गुणों का सद्भाव उत्तम कोटि के नायक का चरित्र-चित्रण उभयलोक हितकारित्व का होना पूण्य तथा धर्म का साधक होना
ये रसस्यागिनोधर्मा शौर्यादयइवात्मन । उत्कर्षहतक्स्ते स्पुरचल स्थितयो गुणा ।।
का0प्र0 8/66