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लक्षण मे भामह, है । कोई भी
दण्डी तथा मम्मट आदि की परिभाषा का समन्वित रूप विद्यमान अलकार 'कोविदानन्दकृत्' तभी हो सकेगा जब उसमे चारुत्व की सृष्टि करने की क्षमता हो और रसाद्यनुगत प्रकृष्ट वर्ण विन्यास हो । अजितसेन कृत परिभाषा मे 'अतिदूरपरित्यागात्तुल्या वृत्याक्षर श्रुति से आशय यही है कि समान अक्षर वाले वर्णों की श्रुति यदि निकट होगी, उसमे दूर का वर्ण-व्यवधान न होगा तो उससे निश्चित ही सहृदयहृदयावर्जकता उत्पन्न करने का सामर्थ्य होगा और तभी वह अलकार की कोटि मे स्वीकार किया जा सकेगा ।।
अजितसेन कृत परिभाषा का वैशिष्ट्य.
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परवती आचार्य जयदेव विश्वनाथ आदि की परिभाषाओं मे किसी नव्यता का आधान नहीं हो सका I इनकी परिभाषाएँ किञ्चिद् शाब्दिक परिवर्तन के साथ अजितसेन से प्रभावित है 12
अप्पयदीक्षित, पण्डितराज, जगन्नाथ तथा विश्वेश्वर पण्डित ने इस अलकार का उल्लेख नहीं किया ।
लाटानुप्रास
समान अक्षरों की आवृत्ति का श्रवण होना । अक्षरों मे निकट का सम्बन्ध होना ।
समान अक्षरावृत्ति का सहृदयहृदयामादक होना ।
लाटानुप्रास का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य भामह ने किया । किन्तु इन्होंने लाटानुप्रास को परिभाषित नहीं किया है । इनके द्वारा प्रदत्त उदाहरण से ज्ञात होता है कि तात्पर्य भेद से शब्द और अर्थ की आवृत्ति ही लाटानुप्रास है । 3
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अतिदूरपरित्यागात् तुल्यावृत्याश्रु ।
या, सोऽनुप्रास इत्युक्त कोविदानन्दकृद्यथा ।।
जयदेव चन्द्रालोक
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लाटीयमप्यनुप्रासमिहेच्छन्त्यपरे यथा ।
दृष्टि दृष्टिसुखा धेहि चन्द्र चन्द्रमुखोदित ।।
अ०चि० - 313
सा०द० - 10/8
भा०, का०या० 2/8