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काव्यलिंग :
संस्कृत काव्यशास्त्र मे 'काव्य हेतु' तथा काव्यलिंग नाम से इस अलकार का निरूपण प्राप्त होता है । आचार्य उद्भट के अनुसार जब एक वस्तु का श्रवणकर वस्त्वन्तर का स्मरण या अनुभव किया जाए तो वहाँ काव्यलिग अलकार होता है ।। इसमें किसी पदार्थ का श्रवण किसी वस्तु के स्मरण अथवा अनुभव का कारण बन जाता है ।
आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ वाक्य या पदार्थ का कथन हेतु के रूप मे किया जाए वहाँ काव्यलिग अलकार होता है । 2 आचार्य रूय्यक, विद्यानाथ, जयदेव, अप्वय दीक्षित तथा पं0 राज जगन्नाथ कृत परिभाषा मम्मट के समान है । 3
आचार्य अजितसेन कृत भी जहाँ वर्णनीय वस्तु के हेतु के किया जाए तो वहाँ काव्यलिग अलंकार होता है । 4
अर्थान्तरन्यासः -
आचार्य भामह के अनुसार जहाँ अर्थान्तर को प्रथम अर्थ से अनुगत मानते हुए दोनों के बीच सादृश्य सम्बन्ध की योजना की जाए वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है । हि' शब्द के प्रयोग से अर्थान्तरन्यास अधिक स्पष्ट हो जाता है 15 प्रस्तुत आचार्य दण्डी के अनुसार जहाँ किसी वस्तु को प्रस्तुत करके उसके
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परिभाषा मम्मट से प्रभावित है इनके अनुसार विषय मे किसी वाक्यार्थ या पदार्थ का उत्पादन
काव्या०, सा०स०, 6/7
काव्यलिंग हेतोर्वाक्य पदार्थता ||
(क) हेतोर्वाक्यपदार्थता काव्यलिगं ।।
(ख) प्रताप, पृ०
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ग) स्यात काव्यलिंग वागर्थोनूतनार्थसमपर्क ।। (घ) समर्थनीयस्यार्थस्य काव्यलिग समर्थनम् ।। डरनं० पृ०
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अचि०, 4/270
काव्या0, 2 / 71, 73
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काप्र0, 10/114 अ०स० सू०
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चन्द्रा0, 5/38
कुo, - 121