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कान्तिः
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और्जित्य. -
अर्थव्यक्ति:
औदार्य -
प्रसाद-
017, 180 सौक्ष्म्य और ओजः - शब्दों के गुण, रीति के कथन को सौक्ष्म्य कहते हैं तथा जिसमें समास की बहुत अधिकता हो
उसे स्पष्टतया ओजनुष कहते हैं ।
विस्तर:
सूक्ति. -
प्रौढ़ि :
उदात्तताः
प्रेयान्:
काव्य में रचना की अत्यन्त उज्ज्वलता को कान्तिगुप कहते हैं ।
दृढबन्धता को और्जित्य कहते हैं ।
संक्षेपक
जहाँ दूसरे वाक्य की अपेक्षा न रखने पर वाक्य पूर्ण हो जाये उसे अर्थव्यक्ति कहते हैं ।
विकट अक्षरों की बन्धता को औदार्य कहते है ।
अर्थ
शब्द
और अर्थ की प्रसिद्धि तथा झटिति को समझा देने की क्षमता को प्रसाद गुण कहते हैं ।
किसी विषय के समर्थन के लिए कथित अर्थ
के विस्तार को विस्तर कहते हैं ।
ति और सुप के उत्तमज्ञान को मैशब्ध कहते हैं ।
अपने कथन के सम्यक् परिपाक को प्रौढि कहते हैं ।
जहाँ प्रशंसनीय विशेषणों से पद युक्त होते वहाँ उद्यत्वता नामक गुप होता है ।
अत्यन्त अनुनयमय वचनों से जहाँ कोई प्रिय पदार्थ प्रतिपादित हुआ हो वहाँ प्रेयान् गुण होता है ।
जहाँ किसी अभिप्राय को बहुत सक्षेप से कहा जाये वहाँ संक्षेप नामक गुण होता है ।
कतिपय गुणों का दोष परिहारार्थ परिगणनः
आचार्य अजितसेन ने उपर्युक्त भुषों में से कतिपय गुणों को दोषों के अभाव के रूप में स्वीकार किया है जो निम्नलिखित है- 1
3100, 5/272, 75, 77, 84, 91, 92, 97, 303, 307, 308,
309