________________
आचार्य भोज ने विपर्य ज्ञान को भ्रान्ति कहा है और उसके दो भेदों का उल्लेख किया है - अतत् मे तत् तथा तत् मे अतत् के ज्ञान को भ्रान्ति कहा है।
आचार्य मम्मट कृत परभाषा रुद्रट पर आधारित है । इन्होंने सदृश वस्तु के दर्शन से अन्य वस्तु के ज्ञान को भ्रान्तिमान कहा है ।
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ आच्छादित आरोप विषय मे सादृश्य के कारण आरोग्य का ज्ञान हो वहाँ भ्रानिमान् अलकार होता है । तात्पर्य यह है कि प्रस्तुत के देखने से सादृश्य के कारण अप्रस्तुत का भ्रम हो जाये, वहाँ पर भ्रान्तिमान् अलकार होता है । दो वस्तुओं मे उत्कट साम्य के आधार पर वस्तु की स्मृति जागती है एवं इसके पश्चात् भ्रम उत्पन्न होता है । निश्चित मिथ्याज्ञान ही भ्रम है इसमे ज्ञान तो होता है मिथ्या ही, पर मिथ्या होने पर भी ज्ञाता के लिए मिथ्याज्ञान निश्चय कोटि का होता है । इसमे भ्रम स्थिति तो वाच्य होती है, पर सादृश्य की कल्पना व्यग्य ।
आचार्य शोभाकार मित्र सादृश्येतर सम्बन्ध मे भी भ्रान्तिमान अलकार स्वीकार करते है ।
आचार्य जयदेव विश्वनाथ विद्यानाथ अप्पय दीक्षित तथा पण्डितराज जगन्नाथ कृत परिभाषाएँ अजितसेन से प्रभावित है ।
का0प्र0, 10/46 एव वृत्ति
स0क0म0, 3/35 भ्रान्तिमानन्यसंवित्तुल्यदर्शने । पिहितात्मनि चारोपविषये सदृशत्वत । आरोप्यानुभवो यत्र भ्रान्तिमान् स मतो यथा ।।
अ०चि0 4/133
अ0र0, पृ0 - 52-53
का चन्द्रा0 पृ0 - 32 खि सा0द0 - 10/36 गई प्रताप0 - पृ0 - 456 घl कुवलयानद - 24 ड र0ग0 - पृ0 - 353-55