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है । आशय यह है कि जहाँ साम्य के कारण चित्तवृत्ति दोलायित रहती है, किसी एक विषय का निश्चय नहीं हो पाता है वहाँ सन्देहालकार होता है । इसमे किं, कथमादि पदों के द्वारा दो पदार्थों मे सन्देह की स्थापना की जाती है। इन्होंने इसके तीन भेदों का उल्लेख भी किया है ।
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शुद्ध सन्देह
की कोटि मे रखा गया है । 2
निश्चय गर्भ
परवर्ती आचार्य विद्यानाथ, विश्वनाथ, पण्डितराज आदि की परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है ।
भ्रान्तिमान
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इस अलकार का उल्लेख भामह, दण्डी, उद्भट तथा वामन ने नहीं किया इसकी उद्भावना का श्रेय आचार्य रुद्रट को है 1 रुद्रट के अनुसार जहाँ किसी अर्थ विशेष को देखकर तत्सदृश अन्य वस्तु को बिना सन्देह ही मान ले वहाँ भ्रान्तिमान् अलकार होता है । इस अलकार का स्रोत आचार्य दण्डी की 'मोहोपमा' मे निहित है 15 इसमे उपमेय मे, उपमान के निश्चय को भ्रान्तिमान अलकार कहा गया है 16
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जिसमे अन्त तक सन्देह बना रहता है उसे शुद्ध सन्देह
निश्चयान्त. - आरम्भ मे जो सन्देह उत्पन्न होता है, यदि अन्त मे उसका निराकरण हो जाए तो वहाँ निश्चयान्त सन्देह होता
है ।
इसमे दो पदार्थों के मध्य सशय बना रहता है | 3
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अ०चि० 4/128-29
अ०चि०
4/130
वही
4/131
वही - 4 / 132
काव्यादर्श - 2/25
रू० काव्या०
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8/87