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आचार्य दण्डी पहले तो प्रतिभा, व्युत्पत्ति व अभ्यास के समुदाय को काव्य हेतु मानते है किन्तु उसके समानान्तर ही कि प्रतिभा न रहने पर भी व्युत्पत्ति (श्रुत) और अभ्यास ( यत्न ) से काव्य निर्माण मे सफलता मिलती है ।
काव्य का हेतु मुख्यत प्रतिभा है । व्युत्पत्ति व सस्कारक है ।
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इस मत के पोषक राजशेखर तथा आचार्य अजितसेन है ।
आचार्य भामह, दण्डी तथा रुद्रट ने महाकाव्य के वर्ण्य विषय की चर्चा नहीं की है केवल गद्यकाव्य के स्वरूप का निर्धारण ही किया है । जिसमे प्रसगत महाकाव्य के वर्ण्य विषयों का भी उल्लेख किया गया है । भामह के अनुसार महाकाव्य मे सर्गबन्धता अपेक्षित है, मन्त्रणा, दूतप्रेषण, अभियान, युद्ध, नायक के अभ्युदय एव पञ्चसन्धियो से समन्वित अनति व्याख्येय तथा ऋद्धि - पूर्णता की चर्चा की हैं । चतुर्वर्ग की प्रधानता होने पर भी उसमे अर्थ निरूपण का प्राधान्य तथा सभी रसों को के वर्णन का भी उल्लेख किया है । आचार्य दण्डी भी भामह की भाँति महाकाव्य को सर्गात्मक होना स्वीकार किया है तथा इसमे नगर, समुद्र, पर्वत, ऋतुओं के वर्णन, सूर्योदय, चन्द्रोदय, चन्द्रास्त, सूर्यास्त, उद्यान विहार, जलक्रीडा मधु सेवन तथा सयोगादि के वर्णन की भी चर्चा की है । भामह की भाँति इन्होंने रससन्निवेश का उललेख किया है । इन्होंने विप्रलम्भ श्रृंगार, विवाह तथा कुमारोदय के वर्णन की चर्चा भी की है । शेष विषयों का वर्णन भामह के ही समान है ।
महाकाव्य के वर्ण्य विषय
महाकाव्य के
वर्ण्य विषय के निरूपण का श्रेय आचार्य अजितसेन को है । इनके अनुसार महाकाव्य मे निम्नलिखित विषयों के वर्णन का उल्लेख किया गया है। राजा, राजपत्नी - महिषी, पुरोहित, कुल, श्रेष्ठ पुत्र या ज्येष्ठपुत्र,
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(क) भामह - काव्यालकार (ख) दण्डी काव्यादर्श
ग
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अभ्यास उसके
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