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अजित्सेन के अनुसार - जहाँ किसी विवपितार्थअर्थ के वाचक शब्द को इस प्रकार से व्यवहित रखा जाय कि उसे अभीष्ट अर्थ का प्रत्यायन विलम्ब से हो तो वहाँ शब्द प्रहेलिका होती है ।'
उदाहरण - भो केतकादिवर्णन सध्यादिस्जुषाऽमुना । शरीरमध्यवर्णेन त्वं सिहमुपलक्षय ।।
अ०चि0 - 2/127 "उक्त श्लोक मे कोई व्यक्ति किसी से कह रहा है केतकी आदि पुष्पों के वर्ण से सन्ध्यादि के ' वर्ण से एव शरीर के मध्यवर्ती वर्ष से अपने पुत्र को सिह समझो ।" उक्त श्लोक में केतकी का आदि वर्ण 'के' है तथा सन्ध्या का आदि वर्ण 'स' है और शरीर का मध्य वर्ण 'री' है - नीनों को मिला देने पर रिह वाचक 'केसरी' शब्द बन जाता है यहाँ शब्दजन्य चमत्कार होने के कारण शब्द प्रहेलिका है 12
इसके अतिरिक्त आचार्य अजितसेन ने निम्नलिखित प्रहेलिकाओं का भी निरूपण किया है जो इस प्रकार है - स्पष्टान्ध, 2% अन्तरालापक', 13बहिरालापक अन्तविषम', 4% मात्राच्युतक प्रश्नोत्तर, 5 व्यञ्जनच्युत', 160 अक्षरच्युत प्रश्नोत्तर, 17 निनुतेकालापक', 8 मुरजबन्धं, 19 अनन्तर पादमुरजवन्ध', Jio इष्टपादमुरजक्न्ध'2, गूढतृतीयचतुर्थानन्तराक्षरद्वयविरचित - यमकानन्तरपादमुरजबन्ध'3, 12 मुरज और गोमूत्रका षोडशदलपद्म'4, 130 गुप्तक्रियामुरज'5, 140 अर्द्धभ्रमपूढपश्चार्द्ध चित्र'6 1150 अर्द्धभ्रमगूढ - द्वितीयपद7, 016 एकाक्षरविरचित चित्रालकार', 17 एकाक्षरविरचितैक पाद चित्र'", द्वचक्षर चित्र29, 119 गतप्रत्यारतार्द्ध चित्र21, 20f रतप्रत्यारतेक चित्र21, 21 नतप्रत्यारतपादयमक22, 220 बहुक्रियापद --- स्वरगूढ -- - सर्वतोभद्र23, 23 गूढस्वेष्टपादचक्र24,
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विवक्षितार्थ सुविगोपितोऽसौ प्रहेलिका मा द्विविधाऽर्थशब्दात् ।
अचि0 - 2/125 उत्तरार्ध वही - 2/127 1/2 वृत्ति वही - 2/129 1/2, 4 2/130 1/2, 5 2/131 1/5, 6 2/137 1/2 7 2/138 1/2, 8 2/139 1/2, 9 2/147 1/2, 10 2/149 1/2, ।। 2/150 1/2, 12_2/151 1/2, 13 152 1/2, 14 2/153 1/2, 15 2/154 1/2, 16. 2/155 1/2 - 156 1/2, 17 2/157 1/2, 18 2/159 1/2, 19 2/160, 20 2/161 1/2, 21 2/162 1/2, 22. 2/163 1/2, 23 2/164 1/2, 24 2/165 1/2, 25 2/166 1/2
अचि0 द्वितीय परच्छेद ।