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________________ 251 दर्पणबन्ध', 251 पट्टकबन्ध, 26 तालवृन्त, 27 नि सालबन्धी, 1281 ब्रह्मदीपिका, 290 परशुक्न्ध, 300 यानबन्ध', 310 चक्रवृत्त, 320 भृगार बन्ध', 133 निगूढपादक'9, 340 छत्रबन्ध'', 35 हारबन्ध 2 ।। आचार्य अजितसेन ने उपर्युक्त सभी प्रहेलिकाओं के लक्षणों का उल्लेख नहीं किया है तथा विविध प्रकार के चित्रबन्धों को भी इसी प्रहेलिका के अन्तर्गत ही निरूपित कर दिया है किन्तु वैज्ञानिक रीति से विचार करने पर बिन्दुच्युतक मात्राच्युतकादि को प्रहेलिकाओं के अन्तर्गत रखा जा सकता है जैसा कि इनके पूर्ववर्ती आचार्य भामह, दण्डी तथा भोज स्वीकार करते रहे ।' आचार्य अजितसेन ने मुरजबन्ध दर्पणबन्ध, पट्टबन्ध, तालबन्ध, नि साल क्न्ध, ब्रह्मदीपिका, परशुक्न्ध, यानबन्ध, चक्रबन्ध तथा श्रृगार बन्ध और निगूढपाद के लेखनविधि के विषय में भी चर्चा की है जो इस प्रकार है - मुरजवन्ध की प्रक्रिया. आचार्य अजितसेन के अनुसार ऊपर की पंक्ति में पूर्वाद्ध पद्य को लिखकर नीचे उत्तरार्द्ध लिखे । एक-एक अक्षर से व्यवहित ऊपर और नीचे लिखने से मुरजवन्ध की रचना होती है ।14 पूर्वाद्ध के विषम संख्याक वर्णों को उत्तरार्द्ध के समसंख्यांक वर्णों के साथ मिलकर लिखने से श्लोक का पूर्वाद्ध और उत्तरार्द्ध के विषम संख्याक वर्णों को पूर्वाद्ध के समसख्याक वर्णों के साथ क्रमश मिलाकर लिखने से उत्तरार्द्ध बन जाता है । इसका स्पष्टीकरण यह है कि प्रथम पक्ति के प्रथमाक्षर को द्वितीय पक्ति के द्वितीयाधर के साथ द्वितीय पंक्ति के प्रथमाक्षर को प्रथम पंक्ति के प्रथमाक्षर के साथ दोनों पक्तियों के वर्गों की समाप्तिपर्यन्त लिखना चाहिए । - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - वही - 2/168 1/2, 2 2/169 1/2, 3 2/17। 1/2, 4 2/173 1/2 5 2/175 1/2, 6 2/177 1/2, 7 2/169 1/2, 8 2/182 1/2, 9 2/183 1/2, 10 2/185 1/2, ।। 2/188 1/2, 12. 2/189 1/2 सभी अ०चि० - द्वि0 परिच्छेद । का भा-काव्यालकार - 5/24 ख) दण्डी - काव्यादर्श - 3/106 ग स0क0म0 - 2/134 पूर्वार्धमूर्ध्व पड्क्तो तु लिखित्वाऽर्द्ध परं त्वत । 13
SR No.010838
Book TitleAlankar Chintamani ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArchana Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1918
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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