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परवर्ती आचार्य विद्यानाथ ने भी किचित् शाब्दिक परिवर्तन के साथ अजितसेन कृत परिभाषा को ही उद्धृत कर दिया है ।'
परिणाम - इस अलकार का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य रुय्यक ने किया है । इनके अनुसार जहाँ आरोप्यमाण अर्थात् उपमान, आरोप विषय प्रकृत के लिए उपयोगी हो वहाँ परिणाम अलकार होता है ।2
प्रकृत की उपयोगिता मे उपमान का परिणत हो जाना ही इसका मुख्य कार्य है । साथ ही साथ उपमान को प्रकृतोपयोगी होना भी आवश्यक है। जैसे 'स करकमलेन लिखति' यहाँ पर 'कर' मे 'कमल' का आरोप है । साथ ही साथ कमल मे जो लेखन की सामर्थ्य नहीं है, वह भी समाहित हो गयी है । यहाँ उपमान उपमेय के साथ परिणत होकर कार्य कर रहा है । ऐसे ही स्थलों पर परिणाम अलकार होता है ।
आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा किञ्चित् रुय्यक से प्रभावित है इन्हें भी रुय्यक की ही भाँति उपमा की प्रकृत उपयोगिता अभीष्ट है । उपमान के प्रकृतापयोगी हो जाने पर यह परिणाम अलंकार प्राय सभी अलकारों से भिन्न हो जाता है ।
आचार्य अजितसेन ने एकार्थ व अनेकार्य रूप से इसके दो भेदों का उल्लेख भी किया है । आरोप्य की प्रकृतोपयोगिता दो प्रकार से सभव है - सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से और वैयधिकरण्य सम्बन्ध से । उपमान और उपमेय के अभेद मे रूपक की सत्ता होती है और इसमे अभेद होने के साथ-साथ उपमान का क्रिया के साथ सम्बन्ध भी बताया जाता है ।
आचार्य रुय्यक ने एकार्थ तथा अनेकार्थादि भेदों का उल्लेख नहीं किया है और सामान्याधिकरण्य तथा वैयधिकरण्य का भी उल्लेख नहीं किया । आचार्य अजितसेन ने उक्त भेदों की कल्पना करके अलकार शृखला मे वृद्धि की है ।
प्रतापरूद्रीय - पृ0 - 442 आरोपमाणस्य प्रकृतोपयोगित्वे परिणाम । अ0स0 पृ0 28 व वृत्ति। आरोपविषयत्वेनारोप्य यत्रोपयोगि च । प्रकृते परिणामोऽसो द्विधेकार्थतरत्व ।। आरोग्य प्रकृतोपयोगीत्यनेन सर्वोऽलकारेभ्यो वैलक्षण्यमस्य । स द्विधा सामानाधिकरण्यवयधिकरण्याभ्यां क्रमेण द्वय यथा --
अचि0 - 4/125 एव वृत्ति