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आचार्य अजितसेन कृत परभाषा पूववर्ती आचार्यों से भिन्न है । इनके अनुसार अतिरोहित रूप वाले आरोप विषय का जहाँ आरोग्य या उपमान के द्वारा उपरञ्जन हो वहाँ रूपक अलकार होता है । आरोप वस्तुत दो प्रकार से सभव है 10 अभेद रूपक 20 तद् रूपक ।।
'मुख चन्द्र ' इत्यादि उदाहरण मे आरोप का विषय मुख है आरोप्य चन्द्रमा है । कारिका मे आए हुए 'अतिरोहितरूपस्य व्यारोप विषयस्य यत्' के द्वारा यह बताया गया है कि तिरोहित रूप वाले संदेहालकार, भ्रान्तिमान अलकार और अपलुति अलकार मे रूपक अलकार की स्थिति सभव नहीं है । यद्यपि उक्त तीनों के ही स्थलों पर विषय का आरोप होता है किन्तु वह तिरोहित रूप वाला रहता है । किन्तु रूपक मे विषय उपमेय, सर्वथा अतिरोहित रूप वाला रहता है और आरोप्यमाण उपमान के द्वारा उसका उपरञ्जन कर दिया जाता है।
'व्यारोपविषयस्य' इस पद के सन्निधान से अध्यवसाय, गर्भाउत्प्रेक्षा तथा अनारोप हेतुक उपमादि अलकारों की व्यावृत्ति हो जाती है ।
उपरञ्जक पद के उल्लेख से परिणाम अलकार की व्यावृत्ति हो जाती है कयोंकि परिणाम मे आरोप्यमाण प्रकृतोपयोगी हो जाता है न कि उपरजक। अत सादृश्य हेतुक अन्य सभी अलंकारों से रूपक अलकार की भिन्नता सिद्ध हो जाती है ।
भेद -
आचार्य अजितसेन ने इसके तीन भेदों का उल्लेख किया है -
010 सावयव रूपक, 2 निखयव रूपक, 131 परम्परित रूपक
पुन सावयव रूपक के समस्त वस्तु विषयक तथा एक देश विवृती रूप से दो भेद हो जाते हैं । निखयव रूपक को भी 'केवल' और 'माला' रूप से दो भागों में विभाजित किया है । इसी प्रकार से परम्परित रूपक के भी श्लिष्ट हेतुक तथा 'अश्लिष्ट हेतुक' दो भेदों का उल्लेख किया है । इन दोनों के भी "केवल' और 'माला' रूप से दो भेद बताए गए है । अत रूपक के प्रत्येक भेदों का परिगणन करने से रूपक के आठ भेद हो जाते है।
प्रत्येक के वाक्यगत तथा समासगत दो अन्य भेदों का भी उल्लेख किया है इस प्रकार 8x2 = 16 भेद रूपक के हो जाते है' - -------------------------------------- । अ०चि0 पृ0 - 143 पर0 4