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रूपक -
भरतमुनि से लेकर प0 राज जगन्नाथ तक प्राय सभी आचार्यों ने इसका उल्लेख किया है । भरतमुनि के अनुसार गुण के आश्रय से किञ्चिद् सादृश्य को स्वविकल्प रूप प्रदान करना रूपक अलकार है ।
भामह के अनुसार जहाँ गुणों की समता को देखकर उपमान के साथ उपमेय के तादात्म्य का आरोप हो वहाँ रूपक अलकार होता है । इसमे उपमेय तथा उपमान का अभेद कथन प्राय गुण साम्य पर आधारित रहता है ।
आचार्य दण्डी के अनुसार भेद रहित उपमा ही वस्तुत रूपक है । इनका आशय यह है कि यदि उपमा से वाचक पद और साधारण धर्म को निकाल दिया जाए तो वह रूपक अलकार का रूप धारण कर लेती है । आचार्य उद्भट के अनुसार गुणवृत्ति की प्रधानता के कारण एक पद का अन्य पद के साथ योग होना ही रूपक है । इनकी रूपक की परिभाषा गौणी लक्षणा पर आधारित है। आचार्यवामन ने भामह एव दण्डी के विचारों का सार ग्रहण करते हुए रूपक के लक्षण का निर्माण किया है । आचार्य रुद्रट के अनुसार उपमानोपमेय में गुणों की समानता के कारण अभेद की कल्पना तथा सामान्य धर्म का निर्देश न होना ही रूपक है ।
आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ उपमान एव उपमेय मे भेद प्रदर्शित होने पर भी दोनों साम्य के कारण अभेद का आरोप हो वहाँ रूपक अलकार होता है ।
नाOशा0 16/57-58 उपमानेन यत्तत्वमुपमेयस्य रूप्यते । गुणाना समता दृष्ट्वा रूपकं नामतद्विदु ।
भा० काव्या0 2/2 उपमेव तिरोभूतभेदा रूपकमुच्यते - काव्यादर्श 2/36 उपमानोपमेयस्यगुपसाम्यात् तत्वारोपोरूपकम् । काव्या० सू० 4, 3,6 रूद्रट काव्या0 8/38 तद्रूपकभेदोपमानोपमेययो अतिसाम्यादनपहनुतभेदयोरभेद ।
का0प्र0 10/93