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आचार्य अजितसेन ने उपमेयोपमा के निरूपण मे यह भी बताया है कि इस अलकार को कतिपय आचार्य अन्योन्योपमा भी कहते है' किन्तु अन्योन्योपमा को स्वीकार करने वाले आचार्यों का नामोल्लेख नहीं किया । इससे विदित होता है कि आचार्य दण्डी द्वारा निरूपित अन्योन्योपमा आचार्य अजितसेन कृत उपमेयोपमा से अभिन्न है।
आचार्य विद्याधर कृत परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है ।2
स्मरण -
आचार्य भामह दण्डी उभट और वामन ने इस अलकार का उल्लेख नहीं किया है । इसकी उद्भावना का श्रेय सर्वप्रथम आचार्य रुद्रट को है उनके अनुसार जहाँ वस्तु विशेष को देख करके पुन तत्सदृशवस्तु को देखने पर व्यक्ति को पूर्वानुभूत वस्तु का स्मरण हो जाए वहाँ स्मरणालकार होता है ।
आचार्य रुद्रट की परिभाषा मे निखपित स्मरण अलंकार का स्रोत उद्भट कृत काव्यलिग अलकार में निहित है ।
परवर्ती आचार्यों की परिभाषाएँ प्राय रुद्रट से प्रभावित है ।
आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा पर भी रूद्रट का प्रभाव परिलक्षित होता है इनके अनुसार जहाँ सदृश पदार्थ के दर्शन से जहाँ वस्त्वन्तर की स्मृति हो वहाँ स्मरपालकार होता है । इस अलंकार मे किसी सुन्दर या असुन्दर वस्तु को देखने से पूर्वानुभूत किसी सुन्दर या असुन्दर वस्तु का स्मरण हो जाए तो वहाँ स्मरपालकार होता है ।
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एषा केषांचिदन्योऽन्योपमैव । अचि0 चतुर्थ परिच्छेद पृ0 - 142 पयिण द्वयोस्तस्मिन्नुपमेयोपमा मता ।
प्रतापरुद्रीयम् पृ0 - 441 वस्तुविशेष दृष्ट्वा पतिपत्रास्मरति यत्र तत्सदृशम् । कालान्तरानुभूत वस्त्क्न्त रमित्यद स्मरणम् ।। रुद्रट काव्या0 8/109 श्रुतमेक यदन्यत्र स्मृतेरनुभवस्यवा । हेतुता प्रतिपद्येत काव्यलग तदुच्यते ।।
काव्यासा0स0 6/7 क का0प्र0, सू0 198 10/132, ख प्रताप0 पृ0 - 441, ग चि०मी०, पृ0 - 50, घ र0ग0, पृ0 - 286-91 सदृशस्य पदार्थस्य सदृग्वस्त्वन्तरस्मृति । यत्रानुभवत प्रोक्ता स्मरणालकृतियथा ।।
अचि0 4/102