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लक्षण मे तिलतण्डुलन्याय का उल्लेख करके ससृष्टि के लक्षण को अधिक स्पष्ट बना देना अजितसेन की विशेषता है । जिस प्रकार तण्डुल तथा तिल दोनों का स्पष्ट अन्तर परिलक्षित होता रहता है ठीक उसी प्रकार से जहाँ अनेक अलकारों की स्थिति परस्परनिरपेक्ष भाव से हो वहाँ ससृष्टि अलकार होता है ।
परवर्ती काल मे स्य्यक तथा विद्यानाथ कृत परिभाषा अजितसेन से प्रभावित है ।' आचार्य शोभाकर मित्र चारुत्व के अभाव मे ससृष्टि अलकार स्वीकार नहीं करते, किन्तु अनुसधात्री के विचार से निरपेक्षभाव से स्थित अलकारों मे मणिकाचन से उत्पन्न सौन्दर्य की भाँति सौन्दर्याधिक्य की सृष्टि होती है जो वस्तुत अलकार का सामान्य लक्षण है ।
सकर
प्राचीन आलंकारिको मे सर्वप्रथम उद्भट ने संकर अलंकार की कल्पना की । इनके अनुसार जहाँ किसी एक अलकार को मानने मे साधक तथा बाधक प्रमाणों का अभाव हो और शब्दालकार तथा अर्थालंकार आदि अनेक अलकारों का सम्मिश्रण हो वहाँ सकर अलकार होता है । 2
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आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ भिन्न भिन्न अलकारों की अगागिभाव से स्थिति हो, वहाँ सकर अलकार होता है । 3 इन्होंने इसके तीन भेदों का उल्लेख किया है
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अंगांगिभाव सकर
संदेह सकर
एक वाचकानुप्रवेश
आचार्य अजितसेन के अनुसार जहाँ क्षीर- नीर न्याय से अनेक अलकार
(क) एषा तिलतण्डुलन्यायेन मिश्रत्व ससृष्टि । (ख) तिलतण्डुलसंश्लेषन्यायाद्यत्र परस्परम् । संश्लिष्येयुरलकारा सा संसृष्टिर्निगद्यते ।।
काव्या० सा० स०, 5 / 11, 12, 13
अविश्रान्तिजुषामात्मन्यगांगित्व तु सकर ।
अ०स० सू० 85
प्रताप0, 575
का0प्र0, 10/1400 वृत्ति |