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होता है ।
आचार्य दण्डी ने गोष प्रधान भाव से अलकारों के सम्मिश्रण को संसृष्टि कहा है 12
आचार्य वामन ने कार्यकारण भाव में ससृष्टि की सत्ता स्वीकार की है।
आचार्य उद्भट ने दो अथवा बहुत से अलकारों का निरपेक्षभाव से स्थिति को ससृष्टि कहा है ।
आचार्य मम्मट की परिभाषा पूर्ववर्ती आचार्यों से भिन्न है । मम्मट के अनुसार जहाँ परस्पर निरपेक्ष अनेक अलकारों की एकत्र स्थिति हो वहाँ ससृष्टि अलकार होता है । तथा इसके निम्नलिखित भेद भी किए है - शब्दगत ससृष्टि, अर्थगत स्सृष्टि तथा उभयगत ससृष्टि ।
आचार्य बलदेव विद्याभूषण कृत परिभाषा मम्मट से अनुकृत है । आचार्य अजितसेन तिल तण्डुल न्याय से रूपकादि अलकारों की श्लिष्ट प्रतीति को ससृष्टि के रूप में स्वीकार करते है ।
इनकी भेद व्यवस्था मम्मट के ही समान है । इन्हें अलकारों की शब्दनिष्ठता, अर्थनष्ठता तथ शब्दार्थनष्ठता मे स्सृष्टि अलकार स्वीकार है । सृष्टि के
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भा०, काव्याo, 3/49, 47
वराविभूषा ससृष्टिवस्वलंकारयोगत । रचितारत्नमालेव सा चैवमुदिता यथा ।। श्लिप्टस्यार्थेन सयुक्त किञ्चिदुत्प्रेक्षयान्वित । रूपकार्थेन च पुनरुत्प्रेक्षावयवो यथा ।। का0द0 2/359, 60 काव्या० सू०, 4/3/30, 31, 32 अलकृतीना बबीना द्वयोपि समाश्रय । एकत्र निरपेक्षापा मिथ ससृष्टिरूच्यते ।। सेष्टा ससृष्टिरेतेषा भेदेन यदिह स्थिति । सा०कौ0, 10/54 तिलतण्डुलवच्छ्लेषा रूपकाद्या अलंक्रिया । अत्रान्योन्य च ससृष्टि शब्दार्थोभयतस्त्रिधा ।।
काव्या0सा0स0, 6/5 का0प्र0 10/139 दृष्टव्य वृत्ति
अ०चि0, 4/333