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अलकार मे विभिन्न
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जयरथ और जगन्नाथ
निश्चित की जाती है उसे सार कहते है । आचार्य मम्मट के अनुसार जहाँ चरमसीमा तक किसी पदार्थ के उत्तरोत्तर उत्कृर्ष का वर्णन किया जाए वहाँ सार अलकार होता है । 2 आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा भी मम्मट के समान है । इन्हे भी उत्तरोत्तर उत्कर्षा वर्णन मे सार अलकार अभीष्ट है । 3 आचार्य रूय्यक जयदेव, अप्पय दीक्षित तथा पण्डितराज जगन्नाथ कृत परिभाषा प्राय अजितसेन के समान है । "किन्तु कारणमाला, एकावली मालादीपक और सार वर्ण्य पदार्थों का पारस्परिक सम्बन्ध श्रृंखलामूलक होता है ने इसपर विचार किया है कि ये चारों अलकार श्रृंखला अथवा इनकी सत्ता स्वतन्त्र अलकारों के रूप में मानी जाय ? विचार विमर्श के अनन्तर दोनों विद्वान् इस निष्कर्ष पर पहुँते हैं कि इन्हे स्वतंत्र रूप मे अलकार स्वीकारना चाहिए क्योंकि प्रत्येक का अपना अपना सौन्दर्य है अन्यथा औपम्य और विरोध दो अलकार मानकर समग्र औपम्यमूलक एवम् विरोध मूलक अलकारों को उन्हीं में समाविष्ट करना पडेगा । "5 आचार्य शोभाकर मित्र ने सार अलकार का निरूपण नहीं किया है क्योंकि वे सार के स्थान पर वर्धमान नामक अलकार स्वीकार करते है 16
अलकार के भेद है
[100 मिश्र अलंकार -
संसृष्टि -
ससृष्टि का विवेचन सर्वप्रथम आचार्य भामह ने किया । इनके अनुसार रत्नमाला की भाँति जहाँ अनेक अलकारों का सम्मिश्रण हो वहाँ ससृष्टि अलकार
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410, 7/96
उत्तरोत्तरमुत्कर्षो भवेत्सार परावधि ।
यत्रोत्तरोत्तरोत्कर्ष सा सारालकृतिर्यथा ।।
(क) उत्तरोत्तरमुत्कर्ष सार ।। (ख) सारोनाम पदोत्कर्ष सारतायायथोत्तरम् ।। (ग) उत्तरोत्तरमुत्कर्ष सार इत्यभिधीयते ।। (घ) सेक्ससर्गस्योत्कृष्टापकृष्टभावरूपत्वे सार 11
चन्द्रालोक - सुधा हिन्दी टीका, ले0 सिद्धसेन दिवाकर रूपधर्माभ्यामाधिक्य वर्धमानकम् ।
का0प्र0, 10/123
अ०चि०, 4/332
अ०स०, सू0 56 चन्द्रा0, 5/90
कुव0, 108
626
र०ग०, पृ०
अ०र० सू०
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