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आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा पूर्ववर्ती आचार्यों की अपेक्षा सरल तथा स्पष्ट है । विरोध के सम्बन्ध मे इनका कथन है कि आरम्भ में जहाँ विरोध का आभास प्रतीत हो और तत्पश्चात् उसका परिहार सभव हो सके वहाँ विरोधाभास अलकार होता है । इन्होंने भी मम्मट की भाँति दस भेदों का उल्लेख किया
परवर्ती आचार्यों की परिभाषाएँ प्राय अजितसेन के समान है ।
विशेषक -
आचार्य रुद्रट के अनुसार जहाँ बिना आधार के आधेय की स्थिति का प्रतिपादन किया जाए अथवा एक ही वस्तु की एक साथ, एक ही रूप मे अनेक स्थानों मे स्थिति बताई जाए या एक कार्य करते हुए उसी प्रयत्न से अशक्य कार्य की सिद्धि हो जाए तो वहाँ विशेषक अलकार होता है ।
परवर्तीकाल में आचार्य मम्मट, अजितसेन, रुय्यक, शोभाकरमित्र, विद्यानाथ, विश्वनाथ, अप्यय दीक्षित एवं पण्डितराज जगन्नाथ ने रुद्रट द्वारा निरूपित उक्त त्रिविध भेदों को सादर स्वीकार किया है । शाब्दिक अन्तर के साथ उक्त लक्षण को स्वीकार कर लिया 14
अधिक -
इस अलंकार की उद्भावना का श्रेय आचार्य रुद्रट को है । इनके अनुसार जहाँ एक ही कारण से परस्पर स्वभाव वाले दो पदार्थों के उत्पन्न होने मे अथवा एक ही कारण से परस्पर विरुद्ध परिणाम वाली क्रियाओं के उत्पन्न
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अचि0 4/186-187
का आभासत्वेविरोधस्य विरोधालकृतिर्मता । प्रताप0, पृ0-500 ख चन्द्रालोक - 5/74
मा कुवलयानन्द - 76 (घ) र0म0, पृ0 - 571 रु0 काव्या0, 9/5, 7, 9 का का0प्र0, 10/135-136 ख) अचि0, पृ0 - 176, चतुर्थ पर० ।