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आचार्य अजित सेन के अनुसार जहाँ एक-दो और तीन व्यञ्जन वर्णों की पुनरुक्ति हो वहाँ वृत्यनुप्रास अलकार होता है । इनकी परिभाषा पूर्ववर्ती आचार्यों की अपेक्षा भिन्न है । इन्होंने वृत्ति मे उद्भट, रुद्रट तथा व्यास प्रणीत अग्निपुराण की भाँति किसी भी प्रकार की वृत्तियों का उल्लेख नहीं किया तथा आचार्य मम्मट की भाँति नियतवर्णगत रसव्यापार की भी चर्चा नहीं की । केवल व्यञ्जनों की पुनरुक्ति मे ही इसकी सत्ता स्वीकार कर एक नवीन विचार व्यक्त किया । इनके अनुसार एक व्यञ्जन की पुनरुक्ति, दो व्यञ्जन की पुनरुक्ति तथा तीन व्यञ्जन की पुनरुक्ति या तीन से अधिक व्यञ्जनों की पुनरुक्ति मे भी वृत्यनुप्रास स्वीकार है ।± इसके अतिरिक्त इन्होंने वृत्यनुप्रास तथा यमक मे विद्यमान पुनरुक्त तत्व की मीमासा करने के लिए यमक से अनुप्रास का भेद भी प्रदर्शित किया है जो इस प्रकार है -
अनुप्रास और यमक अलंकार में भेद:
अनुप्रास मे व्यञ्जन वर्णों की आवृत्ति नियमत और स्वर वर्णों की आवृत्ति अनियमत होती है जबकि यमक अलंकार में स्वर और व्यञ्जनों की नियमत आवृत्ति होती है । यमक मे अर्थभेद का नियम भी निहित रहता है। जबकि अनुप्रास मे ऐसा कोई नियम नहीं है । 3
अजित सेन के पूर्ववर्ती उद्भट् रुद्रट मम्मट आदि किसी भी आचार्य ने अनुप्रास तथा यमक का अन्तर स्पष्ट नहीं किया । निश्चित ही अनुप्रास को पृथक् करने की उपर्युक्त दिशा सर्वथा नवीन है ।
यमक अलकारः -
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यमक अलंकार के निरूपण का सर्वप्रथम श्रेय आचार्य भरत को है ।
उपमा रूपक चैव दीपक यमक तथा ।
अलकारास्तु विज्ञेयाश्चत्वारो नाटकाश्रया ||
Too सूत्र 105 की वृत्ति ।
व्यञ्जनानाभवेदेकद्वित्र्यादीना तु यत्र च । पुनरुक्तिरयं वृत्यनुप्रासो भणितो यथा ।।
अ०चि0 3 / 11 की वृत्ति ।
ना०शा० 17/43
अ०चि03/10