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010 एकार्थ, 21 अपार्थ, 13 व्यर्थ, 14 भिन्न, 5 अक्रम, 60 परूष, 17 अलकार हीनता, 18 अप्रसिद्ध, 90 हेतुशून्य, jiof विरस, 110 सहचर भ्रष्ट, 12 सशयाख्य, 13 अश्लील, 140 अतिमात्र, 15 विसदृश, 116 समताहीन, 817 समान्य साम्य, 118 विरुद्ध ।
अर्थदोषों का स्वरूप:
एकार्थी -
कहे हुए अर्क से जो भिन्न न हो, उसे एकार्थ दोष कहते हैं ।
अपार्थ:
जे पद्य वाक्यार्थ से रहित हो. उसे अपार्थ कहते
व्यर्थ -
भिन्नार्थ
अक्रमार्थ
परुषार्थ दोष:
जे प्रयोजन से रहित वाक्यार्थवाला हो, उसे व्यर्थ दोष कहते हैं । जे परस्पर सम्बन्ध से रहित वाक्या वाला हो. वह भिन्नार्थ है । जिस वाक्यार्थ में पूर्वापरका क्रम ठीक न हो उसे अपक्रमार्थ दोष कहते हैं । जो अत्यन्त क्रूरता से युक्त हो, वह परूषार्थ दोष है। अलंकार से परिव्यक्त अर्थ को निरलंकार्थ दोष कहते हैं । जिस वाक्य में उपमान अप्रतीत अर्थात् अप्रसिद्ध हो उसे अप्रसिद्धोपम दोष कहते हैं । जहाँ अर्थ का कथन कारण बिना हो, वहाँ हेतुशून्य दोष होता है ।
अलंकारहीना:
अप्रसिद्धोपमार्थ:
हेतुशून्य दोष:
ရှိ၊
विरस दोष:
जहाँ अप्रस्तुत रस का कथन हो उसे विरस दोष कहते हैं ।
सहचरभ्रष्टः
संशयाख्यः
जिस वाक्यार्थ में सदृश पदार्थ का उल्लेख न हुआ हो वहाँ सहचर भ्रष्ट नामक दोष होता है । वाक्य के अर्थ में सन्देह होने पर संशयाढ्य दोष होता है। जिसमें प्रधानतया दूसरा अर्थ लज्जाजनक हो उसे अश्लील दोष कहते हैं ।
अश्लील.