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न्यूनोपमदोषः-
6190
उपमाधिक दोष:-
20f
अधिकपद दोष -
उपमेय की मेक्षा उपमान की न्यूनता जान पडे तो वहाँ न्यूनोपम दोष होता है । उपमेय की अपेक्षा उपमान की अधिकता मे होता है । किसी वाक्य में अधिक पद होने पर यह दोष होता है । उपमा की भिन्नता में भिन्नोक्ति व भिन्न लिगोक्ति नामक दोष होता है । समाप्त वाक्य को पुन दूसरे विशेषण से जहाँ कहा जए वहाँ समाप्तपुनरात्त दोष होता है। सम्पूर्ण क्रिया का अन्वय न होने पर होता है।
621, 220 भिन्नोक्ति और
भिन्नलिंग0236 समाप्तपुनरात्तः
[24
अपूर्णदोष -
अर्थ दोप:
शब्दार्थ की दृष्टि से दोष विवेचन का श्रेय सर्वप्रथम आचार्य मम्मट को है । इन्होंने 23 प्रकार के अर्थ दोर्षे का उल्लेख किया है जो इस प्रकार हैं-'अपुष्ट, 24 कष्ट, 13 व्याहत, 140 पुनस्क्त, 15 दुष्क्रम, 6 ग्राम्य, 17 सन्दग्ध 181 निर्हेतु 19 प्रसिद्धिविरुद्ध, 100 विद्याविरुद्ध, अनवीकृत, 812 नियम से अनियम, 13 अनियम से नियम, 14 विशेष में अविशेष, 115 अविशेष में विशेष, 16 सकाडक्षता, 17 अपयुक्तता, 18 सह चर भिन्नता, 119 प्रकशितविरुद्धता, 20 विध्ययुक्तत्व, 211 अनुवादायुक्तत्त्व, 22 व्यक्त पुन स्वीकृत और, 23 अश्लील ।
___ आचार्य अजितसेन केवल 18 अर्थ दोषों का ही विक्चन किया है ।2 अजितसेन ने मम्मट द्वारा निरूपित निर्हेतु को हेतुशून्य, सन्दिग्ध को संशयाढ्य तथा दुष्क्रम को अक्रम के रूप में स्वीकार किया है । अजित्सेन ने अतिमात्र, सामान्य या साम्य क्षमतहीन तथा विसदृश नामक नवीन अर्थ दोषों का वर्णन किया है जिसका उल्लेख मम्मट ने नहीं किया । आचार्य अजितसेन द्वारा निरूपित अर्थी दोष निम्नलिखित हैं -
का0प्र0, 7/55, 56, 57
अचि0, 5/235