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यतिच्युत.
क्रमच्युतः
जिस पद्य मे यति का भग हो उसे यतिभ्रष्ट या यतिच्युत दोष कहते हैं। जिस पद्य मे शब्द या अर्थ क्रम से न हों उसमे क्रमच्युत दोष होता है । जो पद्य क्रिया पद से रहित हो उसमें अगच्युत दोष होता है ।
अंगच्युत -
शब्दच्युतः
हो
उसे शब्दच्युत
जो अबद्ध शब्दवाला वाक्य दोष कहते हैं ।
सम्बन्धच्युतः
पद्य में समासगत पदों का परस्पर अन्वय जहाँ नहीं कहा गया हो वहाँ सम्बन्ध च्युत नामक दोष होता है।
अर्थच्युतः
सन्धिच्युतः
dio
व्याकीर्ण:
पुनरूक्त दोष:
जिस पद्य में आवश्यक वक्तव्य न कहा गया हो उसे वाच्यच्युत या अर्थच्युत कहते हैं । सन्धि का अभाव या विरूप सन्धि को सन्धिच्युत दोष कहते हैं । विभक्तियों के आपस में अन्वय व्याप्त रहने पर व्याकीर्ण दोष होता है । शब्द और अर्थ की पुनरुक्ति होने पर पुनरूक्तत्व दोष होता है। जिस पद्य में समास उचित नहीं है वहाँ अपदस्थ समास नामक दोष होता है । जहाँ विसर्ग लुप्त को प्राप्त हो वहाँ लुप्तविसर्ग दोष होता है । दूसरे वाक्य के पद दूसरे वाक्य में व्याप्त हो ते वहाँ वाक्याकीप नामक दोष होता है । जिस वाक्य में दूसरा वाक्य आ पड़े वह सुवाक्यगर्भित दोष है।
अस्थितिसमास:
13
विसर्ग लुप्तः
1140
क्क्याकीर्ण
015
सुक्क्य पर्मित:
116
पतत्प्रकर्फता -
पद्य में क्रमश प्रकर्ष शिथिल सा दीख पड़ने वाला दोष है।
प्रक्रमभंर.
पद्य में प्रारम्भ किए हुए किसी नियम का त्याग करने पर होत है ।