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अध्याय - 4
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शब्दालकारों का विवेचन
शब्दालकारों के विवेचन के पूर्व अलकार की शब्दार्थ निष्ठता पर विचार कर लेना अनुपयुक्त न होगा ।
किसी भी अलकार की शब्दार्थ निष्ठता को सुनिश्चित करने के लिए अन्वय-व्यतिरेक के सिद्धान्त को स्वीकार करना पडता है अत अन्वय व्यतिरेक सिद्धान्त के विषय मे भी परिचय प्राप्त कर लेना नितान्त आवश्यक है ।
जिसके रहने पर जिस वस्तु या पदार्थ की स्थिति रहे, उसे अन्वय सिद्धान्त कहते हैं और जिसके अभाव मे जिस वस्तु या पदार्थ की स्थिति सभव न हो उसे व्यतिरेक कहते है ।
जिस अलकार का जिसके साथ अन्वय-व्यतिरेक सभव हो सकेगा वह तदाश्रित अलकार ही कहा जा सकेगा । यदि कोई भी अलकार किसी पद के स्थान पर उसके पर्यायवाची शब्द के रख देने पर यदि नष्ट हो जाता है तो वहाँ उसे शब्दगत अलकार के रूप मे ही स्वीकार किया जायेगा और यदि शब्दपरिवर्तन करने पर भी अलकार की अलकारता विनष्ट नहीं होती तो वहाँ उसे अर्थालकार के रूप में स्वीकार किया जाता है ।
आचार्य रुय्यक तथा उनके टीकाकार विद्याचक्रवती 'आश्रयाश्रयी' भाव सम्बन्ध को ही शब्दालकार तथा अर्थालकार के निर्णायक तत्व के रूप मे स्वीकार करते है । उनका कथन है कि यदि अलकार शब्दाश्रित है तो उसे शब्दालकार तथा अर्थाश्रित होने पर अर्थालकार स्वीकार करना चाहिए ।3 "लोक मे भी कटक हाथ का अलकार कहलाता है क्योंकि वह हाथ पर आश्रित रहता है और कुण्डल
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यत्सत्त्वे यत्सत्त्वमन्य, यद्भावे यदभावो व्यतिरेक, यथा दण्डचक्रादिसत्त्वे घटोत्पत्तिसत्त्वमन्वय , दण्डचक्राद्यभावे घटोत्पत्त्यभावो व्यतिरेक . ताभ्यामेवेत्यर्थ ।
का0प्र0 - बालबोधिनी टीका, नवम
उल्लास, पृष्ठ - 518 का०प्र०, नवम उल्लास-बालबोधिनी टीका । क लोकवदाश्रयायिभावश्च तत्तदलकारत्वनिबन्धनम् ।
अ0स0-पृ0-378 ख/ सजीवनी टीका - पृष्ठ - 378