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सरचना से काव्य प्रबन्धों की शोभा मे वृद्धि होती है ।' अत काव्य मे कोमलकान्त, पदावलियों का प्रयोग होना नितान्त आवश्यक है । उचित सन्धि-सन्धान आदि से व्यवस्थित काव्य रस-स्रोतों को पूर्णरूप से प्रवाहित करने में समर्थ हो पाता
मृदुललितपदाढय गूढशब्दार्थहीन,
___ जनपदसुखबोध्य युक्तिमन्नृत्ययोग्यम् । बहुकृतरसमार्ग सन्धिसन्धानयुक्त,
स भवति शुभकाव्य नाटकप्रेक्षकाणाम् ।।
नाट्यशास्त्र (16/1181
भरतकृत काव्य लक्षण मे निम्नलिखित तत्वों का आधान हुआ है
काव्य मे उदार तथा मधुर तत्वों की योजना । भाषा का सुबोध तथा नृत्य मे प्रयोग के योग्य होना । सन्धि सन्धान से युक्त तथा गूढार्थ से रहित होना ।
भरत के अनन्तर आचार्य भामह ने काव्य के स्वरूप का निर्धारण करते समय शब्द व अर्थ पर विशेष बल दिया है । वस्तुत शब्द तथा अर्थ ही काव्य निर्माण के प्रमुख साधन है । अत भामह ने शब्दार्थ साहित्य को ही काव्य के रूप मे स्वीकार किया है 12 उनके अनुसार साहित्य पद का तात्पर्य 'उक्ति वैचित्र्य' से है । जिसके अभाव मे काव्य शोभित नहीं होता ।
उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि भरतमुनि को उदार तथा माधुर्यादि गुण सम्पन्न शब्द ही काव्य के रूप मे अभीष्ट थे किन्तु भामह केवल शब्द को काव्यत्व के रूप में प्रतिष्ठापित करने के पक्ष में नहीं है, उन्हे शब्दार्थ युगल
शब्दानुदारमधुरान्प्रमदाभिनेयान् । नाट्यश्रयान्कृतिसु प्रयतेत कर्तुम् तैर्भूषिता बहुविभान्तिहि काव्यबन्धा । पद्माकरविकसिता इव राजहसे ।।
नाशा0 16-122-24
शब्दार्थी सहि तो काव्य गद्यं पद्य च तद्विधा । काव्यालड् कार 1/16 सैषा सर्वव वक्रोक्तिरनयार्थो विभाष्यते । यत्नोऽस्या कविना कार्य कोऽलड् कारोऽनयाऽविना ।। वही 2/85