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रोमाच, वैस्वर्य, स्वेद, स्तम्भ, लय, अश्रु, कम्प और वैवर्ण्य । इन सभी के स्वरूप का भी विवेचन किया है ।
परवर्तीकाल में विद्यानाथ तथा विश्वनाथ ने भी उपर्युक्त आठ सात्त्विक भावों को स्वीकार किया है 12
व्यभिचारी भाव -
व्यभिचारी भाव स्थित न रहने वाली चित्रवृत्तियाँ हैं ये रस के प्रति उन्मुख होकर विशेष रूप से विचरण करती है तथा स्थायी भावों मे इस प्रकार डूबती उतराती रहती है जैसे समुद्र में तरगे । 3
अजितसेन कृत परिभाषा दशरूपककार के समान ही है । इन्होंने व्यभिचारी भाव के 33 भेदों का उल्लेख किया है । तथा प्रत्येक के स्वरूप का भी उल्लेख किया है 15 व्यभिचारी भावों के निरूपण के पश्चात् नर्तक को रसों तथा भावों का अधिकारी बताया है 16 अधिकारी के उल्लेख के पश्चात् रति और उल्लास से समुद्भूत होने वाले काम की दश अवस्थाओं का भी उल्लेख किया है जो निम्नलिखित है - 7 110 दृष्टि का अभीष्ट मे लगना, (2) मन का अभीष्ट मे लगना, ( 30 अभीष्ट की प्राप्ति के लिए मन मे राकल्प का होना, ( 4 ) जागरण, (5) कृशता, of विषयमात्र के प्रति द्वेष का होना, ( 7 ) मोह, 191 मूर्च्छा ( 100 मृति इस प्रकार अजितसेन ने वर्णन किया है जो भरत अनुकृत
लज्जा का नाश, (8) कामजन्य अवस्थाओं का
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है
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अ०चि०, 5/17-25
(क) प्रताप०, पृ० - 263
(ख) सा0द0, 3/135
द0रू0, 4/8
अ०चि०, 5/26, 27
अ०चि०, पृ0 232 से 242 तक
वही, 5/63
अचि05/64
वही 5 / 65-79