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काव्यादि को सुनने वालों के चित्त में रति आदि को जो आस्वाद्योत्पत्ति के योग्य बनाते हैं उन्हें विभाव कहा गया है । आलम्बन तथा उद्दीपन इसके दो भेद कहे गए हैं।
आलम्बन भाव -
जिन्हे आलम्बन बनाकर रस अभिव्यक्त होता है उसे आलम्बन विभाव कहते है2 तथा रस के उत्पादक को उद्दीपन विभाव कहते है । इनकी परिभाषा के अनुसार ही परवर्ती काल मे आचार्य विश्वनाथ ने भी विभाव के स्वरूप को अभिव्यक्त
किया 13
अनुभाव.
अनुभाव एक प्रकार का मनोविकार है जो हृदय में विद्यमान भावों को सूचित करत है । नायक तथा नायिकाओं की चेष्टाएँ कटाक्ष, भुजाक्षेप आदि का वर्णन जब काव्य मे किया जाता है तो उसे अनुभाव कहते हैं ।
साहित्यदर्पणकार कृत परिभाषा पर अजितसेन का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है 16
सात्विक भाव -
आचर्य अजितसेन ने चित्तवृत्ति में होने वाले भावों को सात्त्विक भाव के रूप में स्वीकार किया है तथा इनकी संख्या आठ मानी है । जो इस प्रकार है
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नाटकादिषु काव्यादौपश्यतां शृण्वता रसान् । विभावयेद् विभावश्चालम्बनोद्दीपनाद् द्विधा ।। वहीं, 5/5 कर यानालम्ब्य रसोव्यक्तिो भावा आलम्बनाश्च ते । वही, 5/6 का पूर्वाद्ध ख उद्दीप्यते रसो चैस्तेभावा उद्दीपनामता. । वही, 5/8 पूर्वाद्ध सा0द0, 3/29-31
द0रू0, 4/3
सा0द0, 3/135 रसोऽनुभूयते भावैर्यरूत्पन्नोऽनुभावकै । तेऽनुभावा निगद्यन्ते काटाक्षादिस्तनूभव । अ०चि0, 5/14 वही, 5/16