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प्रत्यक्षवत् प्रतिपादन करना भाविक अलकार है । जिस प्रकार से योगीजन भूत तथा भविष्यकालीन सम्पूर्ण विषयों का साक्षात्कार कर लेते है ठीक वैसे ही कवि भी भूत तथा भविष्य की बातों को वर्तमान समझते है । '
उद्भट ने सर्वप्रथम भाविक को काव्यालकार की सज्ञा दी । उद्भट के पूर्ववर्ती आचार्यों ने इसे प्रबन्ध, नाटक अथवा आख्यायिका का अलकार माना है । उद्भट ने भामह द्वारा स्वीकृत भाविक के निष्पादक तत्त्वों मे से केवल 'अद्भुतता' एव 'वाचामनाकुल्य' को ही स्वीकार किया । इनके अनुसार भूत या भावी आश्चर्यजनक वस्तुएँ जहाँ सुबोध शब्दों मे प्रत्यक्ष की भाँति वर्णित हो वहाँ भाविक अलकार होता है । 2
परवर्ती आचार्यों की परिभाषाएँ भामह से प्रभावित है । 3
अजितसेन की परिभाषा भी उद्भट से भिन्न नहीं कही जा सकती क्योंकि इन्होंने भी अतीत व अनागत वस्तुओं के प्रत्यक्षवत् वर्णन को भाविक अलकार के रूप से स्वीकार किया है । मानव चित्त को भावित करने के कारण ही इस अलकार को भाविक के रूप मे स्वीकार किया गया है ।
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प्रेयस् :
आचार्य भामह ने प्रेय अलंकार का लक्षण न देकर केवल उदाहरण ही प्रस्तुत किया है 15 आचार्य दण्डीने प्रियतर आख्यान को प्रेय की अभिधा प्रदान की है 16 उद्भट की परिभाषा भामह व दण्डी से भिन्न है । इनके
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बा०ब० टीका पृ० 767
प्रत्यक्षा इव यत्रार्था दृश्यन्ते भूतभाविन । अत्यद्भुता स्यात्तद्वाचामनाकुल्येन भाविकम् ।।
(क) का०प्र०, 10 / 114
(ख) चन्द्रा0, 5/113
(ग) सा0द0, 10/93, कुव0, 161 (घ) अ०र०, सू0 107 यत्रात्यद्भुतचारित्रवर्णनाद् भूतभावन । प्रत्यक्षायितता प्रोक्ता वस्तुनोभाविकं यथा ।। भा०, काव्या०, 3/5 प्रेयोप्रियतराख्यानम् ।
काव्या0सा0स0, 6/6
अ०चि०, 4/303 एवं वृत्ति
का0द0, 2/275