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इनके अनुसार लिंग, वचन, अधिकत्व तथा हीनता के होने पर भी यदि सहृदयजनों को उद्वेग न हो तो ये दोषोत्पादक नहीं होते । अत क्रिया साम्य गुण साम्य तथा प्रभाव साम्य का औचित्य उपमा निबन्धन मे परमावश्यक बताया गया है ।'
उपमा और अर्थान्तरन्यास का अन्तर -
उपमा अलकार मे सामान्य धर्म का ही विन्यास होता है जबकि अर्थान्तरन्यास मे प्रस्तुतार्थ के साधन मे समा सदृश अथवा असदृश वाक्य का विन्यास किया जाता है ।
अस्या समानधर्म पैव न्यसनम् अर्थान्तरन्या साल कारे तु प्रस्तुतार्थसाधनक्षमस्य सदशस्य वा असदशस्य वा न्यसनमिति सा भिन्ना तस्मात ।
अचि0 पृ0 - 138
अनन्वय -
आचार्य भामह के अनुसार जहाँ एक ही वस्तु परस्पर उपमान और उपमेय बन जाए और उसमे असादृश्य की विवक्षा रहे तो वहाँ अनन्वय अलकार होता है ।2 आचार्य दण्डी की असाधारणोपमा मे अनन्वय का स्वरूप देखा जा सकता है ।
परवर्ती आचार्य उद्भट वामन, मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, पं० राज जगन्नाथ आदि की परिभाषाएँ भामह से प्रभावित है ।
आचार्य अजितसेन कृत परिभाषा पूर्ववर्ती आचार्यों की अपेक्षा सरल सुबोध तथा स्पष्ट है । इनके अनुसार जहाँ द्वितीय अर्थ की निवृत्त के लिए एक ही वस्तु या पदार्थ मे उपमानोपमेय भाव का प्रयोग किया जाए वहाँ अनन्वयालकार
न लिग न वचो भिन्नं नाधिकत्व न हीनता । दूषयत्युपमा यत्र नोवेगो यदि धीमताम् ।।
अ0च0 4/90 ___ तुलनीय - काव्यादर्श न लिंगवचने भिन्ने न हीनाधिकतापि वा । उपमादषणायालं यत्रोद्वगो न धीमताम ।
2/51 भा० काव्या0 3/45 का0द0 2/55
का का०लंसा0स0 - 6/4 खि एकस्योपमेयोपमानत्वेऽनन्वय । का०लं0सू० - 4/3/14 ग उपमानोपमेयत्वे एकस्यैवक वाक्यगे अनन्वय । का0प्र0 - 10/9 घ) अ०सुसू० 3