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होती है ।' आचार्य मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, जयदेव व अप्पय दीक्षित कृत वक्रोक्ति की परिभाषा रुद्रट से प्रभावित है 12 आचार्य अजितसेन केवल काकु वक्रोक्ति को ही स्वीकार करते है इन्होंने श्लेष वक्रोक्ति की चर्चा नहीं की । इससे विदित होता है कि श्लेष वक्रोक्ति को इन्होंने श्लेष अलकार मे ही अन्तभवित कर लिया है । अन्यथा मम्मट आदि की भाँति इन्हे श्लेष तथा काकु दोनों ही स्थलों पर वक्रोक्ति स्वीकार करना चाहिए था किन्तु इन्होंने केवल यह बताया कि जहाँ अन्य के द्वारा कथित वाक्य का काकु के द्वारा अन्य प्रकार से योजना की जाए वहाँ वक्रोक्ति नामक अलकार होता है ।
स्वाभावोक्ति -
सस्कृत साहित्य मे जाति तथा स्वाभावोक्ति दो नामों से इस अलकार का निरूपण किया गया है ।
आचार्य दण्डी ने इसे जाति तथा स्वभावोक्ति दोनों ही नामों से अभिहित किया है तथा भोज ने केवल जाति का ही उल्लेख किया है । डॉ0 वी0 राघवन ने जाति के दो अर्थों की कल्पना की है - "जाति शब्द को जन् धातु से व्युत्पन्न मानकर उन्होंने इसका अर्थ किसी पदार्थ के वास्तविक रूप का वर्णन किया है। जाति से इनका अभिप्राय किसी पदार्थ के सहजात रूप वर्णन से है । इन्होंने दूसरे अर्था मे वर्ग के आधार पर किसी वस्तु की जातिगत विशेषताओं के वर्णन को जाति कहा है । कालान्तर मे दोनों ही अर्थ अलकार रूप मे गृहीत हुए ।"5
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रू0 काव्या0, 2/14, 16
वक्त्रातदन्यथोक्तं व्याचष्टे चान्यथा तदुत्तरद । वचन यत्पदभंया सा श्लेष वक्रोक्ति ।। विस्पष्ट कियमापादक्लिष्टा स्वर विशेषोभवति । अर्थान्तरप्रतीतिर्यत्रासौ काकुवक्रोक्ति ।।
का का0प्र0, 9/78 खि अ0स0, सू0 78
सा0द0, 10/9 of चन्द्रा0, 5/1।। ड) कुव0, 159 अन्यथोदितवाक्यस्य काक्वा वाच्यावलम्बनात् । अन्यथा योजन यत्सा वक्रोक्तिरिति कथ्यते ।। क) काव्यार्था - 2/8 ख स0क0म0 - 3/4-8 अलकारों का ऐतिहासिक विकास ।
· अ०चि0, 4/171