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आचार्य दण्डी के यथावत स्वरूप का प्रतिपादन
है ।
आचार्य उद्भट के अनुसार पशुओं तथा बच्चों की चेष्टाओं के यथावत् वर्णन मे स्वभावोक्ति अलकार होता है । इनके अनुसार क्रिया मे प्रवृत्त मृग एव बालकों की स्वाभाविक चेष्टाओं का निबन्धन ही स्वभावोक्ति अलकार है । '
आचार्य मम्मट कृत परिभाषा उद्भट से प्रभावित है 12
आचार्य अजितसेन के अनुसार स्वाभाविक वर्णन से परिलसित पदावली ही स्वभावोक्ति अलकार है । इसी स्वभावोक्ति को जाति नाम से भी अभिहित किया गया है । जाति, क्रिया, गुण तथा द्रव्य से इसके अनेक भेद संभव है । किन्तु इन्होंने इसके प्रत्येक भेदों को उदाहृत नहीं किया है । 3
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इनके पूर्ववर्ती आचार्यों ने जाति द्रव्य गुण तथा क्रियादि का उल्लेख नहीं किया था, किन्तु अजितसेन ने इसका स्थल निर्देश करके इसके वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट कर दिया है । क्योंकि आचार्य पतञ्जलि ने 'चतुष्टयी शब्दाना प्रवृत्ति महाभाष्य प्रथम आह्निक ) का उल्लेख करके उक्त जात्यादि चार स्थलों पर शब्दों की प्रवृत्ति को स्वीकार किया है । इससे विदित होता है कि यह स्वाभाविक वर्णन जाति, गुण, क्रिया सभी का हो सकता है संभवत इसीलिए महाकवि बाणभट्ट ने अग्राम्यत्व जाति की प्रशंसा की है । 5
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अनुसार जहाँ नाना अवस्थाओं मे स्थित पदार्थों के किया जाए वहाँ स्वभावोक्ति नामक अलकार होता
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काव्या०स० स०, 3/5
स्वभावोक्तिस्तु डिम्भादे स्वक्रियारूप वर्णनम् ।
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स्वभावामात्रार्थपदप्रक्लृपित साया स्वभावोक्तिरिय हि जाति जातिक्रियाद्रव्यगुणप्रभेदा नीचागनात्रस्तसुंताधिरम्या ।।
(क) रू०, काव्या0, 6/10, 30, 31 (ख) अग्निपुराण का काव्यशास्त्रीय भाग, पृ० (ग) अ०स०, सूत्र 79, पृ0 - 664
नवोऽर्थो जातिग्राम्या श्लेषोक्लिष्टस्फुटोरस । विकटाक्षरबन्धश्च कृत्स्नमेकत्र दुर्लभम् ।
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का0प्र0, 10/।।।
अ०चि० 4 / 172
हर्षचरित अ0-8