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के सदिग्ध दोष को सश्य की भिधा प्रदान की है । 4 मम्मट द्वारा निरूपित श्रुतिकटु दोष को परुष दोष के रूप में निरूपित किया है । 5 गूढपद पूर्वाद्ध तथा अयोजक दोष अजितसेन की नवीन कल्पना है ।
अजितसेन के अनुसार पददोष तथा उनका स्वरूपः
नेयार्थः - अपने सकेत से युत निर्मित अर्थ को नेयार्थ कहते है । अपुष्टार्थ:- प्रकृत मे अनुपयेगी अर्थ को अपुष्टार्थ कहते हैं । निरर्थक:- केवल पद की पूर्ति के लिए ही जिसका प्रयोग हुआ हो उसे निरर्थक कहते हैं । अन्याः - स्पष्ट वढि से प्रच्युत अर्थ को अन्यार्थ कहा गया है । मूढार्थः - जो अप्रसिद्ध अर्थ में कहा गया हो, उसे गूढार्थ कहते हैं । विरुद्धाशय.- जो विपरीत अर्थ का बोध कराता है, वह विरूद्धाशय है । ग्राम्य.- जो शब्द तुच्छ व्यक्तियों के प्रयोग मे प्रसिद्ध है उसे ग्राम्य- दोष कहते हैं।
क्लिष्टा - जिस पद मे अर्थ का निश्चय दूर तक कल्पना करने पर होता हो उसे क्लिष्ट दोष कहते हैं । अयुक्तदोष.- जहाँ जो शब्द अप्रयुक्त हो वहाँ अयुक्त दोष होता है । 'प्रमाणा ' ऐसा प्रयोग कवि लोग नहीं करते, यहाँ यह शब्द अप्रयुक्त है अतएव अयुक्त दोष है। सैदग्धत्व दोषः- जो अर्थ में सन्देहजनक हो, उसे सन्दिग्धत्व दोष कहते हैं। अश्लीलत्व दोष:- जुगुत्सा, अमंगल और व्रीडा उत्पादक शब्द जब श्लोक या पद्य में आते हैं तो वहाँ अश्लील दोष माना जाता है - इसके तीन भेद हैं - 010 जुगुप्सा उत्पादक, 20 अमंगल सूचक, 3 व्रीडा उत्पादक । अप्रतीतित्व दोषः- जो केवल शास्त्र में ही प्रसिद्ध हो उसे अप्रतीतत्व दोष कहते हैं । च्युत संस्कारः- जो व्याकरण के अनुसार अशुद्ध हो उसे च्युत् सस्कार दोष कहते हैं ।
जो पद्य कर्कश अक्षरों के योग से निर्मित हो उसे परुषत्व दोष
परुषत्वदोष:- कहते हैं ।
अविमृष्टविधेयांश दोषः- दोष होता है।
जहाँ विधेय गौण हो जाए वहाँ अविमृष्ट विधेयांश