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कारिका में निबद्ध 'साम्यमन्येन वर्णस्य'
वाक्य के द्वारा प्रतीप अलंकार की व्यावृत्ति हो जाती है क्योंकि प्रतीप अलंकार मे उपमान काल्पनिक रहता है और वहाँ उपमेय का अप्रकृत के साथ साधर्म्य स्थापित किया जाता है । जो निम्नलिखित पक्ति मे स्पष्ट है
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साम्य के उल्लेख से उपमेयोपमा अलकार का निराकरण हो जाता है क्योंकि उपमा मे एक बार सादृश्य का प्रतिपादन किया जाता है और उपमेयोपमा मे अनेकबार सादृश्य प्रतिपादित रहता है ।
'प्रतीपे उपमानत्वकतपनादुपमेयस्य प्रकृतेन सहाप्रकृतस्य साधर्म्यवर्णनात् । ' अ०चि० पृ० - 121
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अ०चि० पृ०
इसके अतिरिक्त 'सूर्यभीष्टेन' पद का भी उल्लेख किया है जिससे विदित होता है कि इन्हे विद्वज्जनाभिमत स्थल पर ही उपमा अभीष्ट है । यदि उक्त पद का उल्लेख न किया गया होता तो हीनोपमा मे भी लक्षण की प्रसक्ति हो जाती । अत हीनोपमा में लक्षण प्रसक्ति के निवारण के लिए ही सूर्यभीष्टेन पद का उल्लेख किया गया है । कारिका में प्रयुक्त 'वाच्यम्' पद भी महत्त्वपूर्ण है । इस पद के उल्लेख यह विदित होता है कि जहाँ उपमा वाचक इव, यथा, वा आदि का प्रयोग हो उसी स्थल पर इन्हें उपमा अभीष्ट है । प्रतीयमानोपमा तथा रूपक के निराकरण के लिए ही 'वाच्य' पद का उल्लेख किया गया है । " भरत से अजितसेन तक उपमा अलकार के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अजितसेन कृत परिभाषा में जिन अभिनव तत्त्वों का उन्मीलन हुआ है उन तत्वों का उन्मीलन पूर्ववती आचार्यों की परिभाषाओं मेनही हो सकता है ।
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'साम्यमित्यनेनोपमेयोपमानिराकरणम् । तस्यामुपमानोपमेययोरनेकदा सादृश्यवचनात्' ।
आचार्य विद्यानाथकृत परिभाषा आचार्य अजितसेन से पूर्णत प्रभावित है । जहाँ अजितसेन ने सूर्यभीष्टेन पद का उल्लेख किया है वहाँ विद्यानाथ ने 'संमत्तेन' पद का । शेष अंशों मे प्राय पूर्ण साम्य दृष्टिगोचर होता है । 2
'वाच्यमित्यनेन केषांचिद्रूपकादिप्रतीयमानौपम्याना निरास ।'
स्वत सिद्धेन भिन्नेन संमतेन च धर्मत ।
साम्यमन्येन वर्ण्यस्य वाच्य चेदेकदोपमा ।।
अ०चि० पृ०
प्रतापरूद्रीयम् - पृ०
122
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