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__ इन्होंने मृदु स्मास वाली स्था स्वल्प घोष अक्षर वाली रचना को लाटी कहा है ।
आचार्य विद्यानाथ तथा विश्वनाथ द्वारा निरुपित रीतियाँ अजितसेन से प्रभावित हैं 12
रीतियों के भेद के पश्चात् पदों के अनुगुण रूप वाली मैत्री को शय्या तथा पाक रूप से दो भागों में विभाजित किया है । पाक को भी द्राक्षापाक और नारिकेल पाक रूप से दो भागों में विभाजित किया है । वाहर और भीतर दृश्यमान रहने वाले पाक को द्राक्षापाक और केवल भीतर छिपे हुए रस वाले को नारिकेल पाक के रूप में स्वीकार किया है ।
रीतियों के विवेचन के पश्चात् इन्होंने काव्य सामग्री की भी चर्चा की है । जिसमें रस, गुण, अलकार, पक रीति आदि के कथन को काव्य सामग्री के रूप में स्वीकार किया है तथा अर्थ निरूपण के पूर्व शब्द पद, वाक्य, खण्ड वाक्य और महावाक्य को वचन कहा है । शब्द के रूढ, यौगिक और योगरूढ भेदों का उल्लेख भी किया है । इसी प्रसग में पद, वाक्य, खण्ड वाक्य तथा महावाक्य के लक्षण तथा उदाहरण भी दिए हैं ।
पद, वाक्य तथा महावाक्य का निरूपण अजितसेन के समान ही आचार्य विश्वनाथ ने भी किया है 18
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मृदुस्मासा बहुयुक्ताक्षररहिता स्वल्पोषाक्षरा लाटी, वही, पृ0-260 क प्रमाप०, काव्यप्रकरण, पृ0 - 82-85 खि सा0द0, परि० १, पृ0 598-602
का अथशय्यापाको कथ्यते । अ०चि0, पृ0 - 26। खि प्रताप0, काव्यप्रकाश, पृ0 - 86-87 अचि0, 5/144
शब्द पद च वाक्य च खण्डवाक्य तथा पुन । महावाक्यमिति प्रोक्त वचन काव्यकोविद ।। वही, 5/145
रूढयोगिकमिश्रेभ्यो भेदभ्य स त्रिधा पुन ।
अचि0 5/146 का उत्तरार्थ, द्र0पृ0 163-66 सा0द0, परि० 2, पृ0 27-30, लक्ष्मी सस्कृत टीका ।