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आचार्य अमृतानन्दयोगी भी स्वर वर्णों के प्रयोग पर अपना विचार व्यक्त किया है जो प्राय अजितसेन के विचार से अभिन्न है ।'
काव्यादि मे व्यञ्जन वर्गों के प्रयोग का फल
काव्य के प्रारम्भ मे क, ख, ग, घ के रहने से लक्ष्मी, चकार के रहने से अयश, छकार रहने से प्रीति और सुख दोनों की प्राप्ति तथा जकार के रहने से मित्रलाभ होता है । काव्यादि मे झ के रहने से भय तथा त के रहने से कष्ट, ठ के रहने से दुख, ड के रहने से शुभ फल, ढ के रहने से शोभाहीनता, द के रहने से भ्रान्ति, ण के रहने से सुख, त और थ के रहने से युद्ध एव द और ध के रहने से सुख की प्राप्ति होती है ।
काव्य के प्रारम्भ मे 'न' के रहने से प्रताप की वृद्धि, पवर्ग के रहने से भय, सुख की समाप्ति, कष्ट और जलन, य के होने से लक्ष्मी की प्राप्ति, रेफ के रहने से जलन एव ल और व के रहने से अनेक प्रकार की आपत्तियों की उपलब्धि होती है ।
काव्यारम्भ मे श के रहने से सुख, ष से कष्ट, स के रहने से सुख, ह से जलन, ल से नाना प्रकार के क्लेश और क्ष के रहने से सभी प्रकार की वृद्धि होती है ।
इस प्रकार सत्य फल के प्रदान करने वाले सभी वर्षों का विवेचन किया गया है । तैल और कपूर के सम्मिश्रण के समान अशुभाक्षरों का सयोग काव्यादि मे सर्वथा त्याज्य है ।।
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आभ्याभवति सप्रीतिर्मुदीभ्या धनमूद्वयात् । ऋभ्या लुभ्यामपख्यातिरेच सुखकरामता ।।
अलकारसग्रह -1/25 कादिवर्णचतुष्काच्छोरपकीर्तिश्चकारत । छकारात्प्रीतिसौरव्ये द्वे मित्रलाभो जकारत ।। झाभीमृत्यू तत खेदष्ठाद्दु ख शोभन तु डात्। ढोऽशोभादो भ्रमोणात्तु सुख तात्थाद्रणदधो।। सुखदौ नात्प्रतापो भी सुखान्तक्लेशदाहद । पवर्गो याद्रमा रेफाद्दाहो व्यसनदो लवो।। शषाभ्या सुखखेदो च सहो च सुखदाहदो। लस्तु व्यसनद क्षस्तु सर्ववृद्धिप्रदो भवेत् ।। एव प्रत्येकमुक्तास्ते वर्णास्सत्यफलप्रदा । त्याज्य स्याद्वर्णसयोगस्तैलकर्पूरयोगवत्।।
अचि0-1/89-93