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की प्रतिलेखना में प्रवृत्त होने का समय है उसको अप्रतिक्रम-काल कहते हैं। इसलिए दो घटिका प्रमाण स्वाध्याय काल में पात्रों की प्रतिलेखना में लग जाए। अब प्रतिलेखना में प्रकार का वर्णन करते हैं, यथा
महपोत्ति पडिलेहित्ता, पडिलेहिज्ज गोच्छगं । गोच्छगलइयंगुलिओ, वत्थाई पडिलेहए ॥ २३ ॥
मुखपत्रिका प्रतिलेख्य, प्रतिलेखयेद् गोच्छकम् ।
अगुलिलातगोच्छकः, वस्त्राणि प्रतिलेखयेत् ॥ २३ ॥ पदार्थान्वयः-मुहपोत्तिं-मुखवस्त्रिका की, पडिलेहित्ता-प्रतिलेखना करके, गोच्छगं-गोच्छक की, पडिलेहिज्ज-प्रतिलेखना करे, गोच्छगलइयंगुलिओ-गोच्छक को अंगुलियों से ग्रहण करके फिर, वत्थाई-वस्त्रों की, पडिलेहए-प्रतिलेखना करे।
मूलार्थ-मुख-वस्त्रिका की प्रतिलेखना करके फिर- गोच्छक की प्रतिलेखना करे, फिर अंगुलियों से गोच्छक को ग्रहण करके वस्त्रों की प्रतिलेखना करे।
टीका-इस गाथा में अनुक्रम से प्रतिलेखना और प्रमार्जना की विधि का दिग्दर्शन कराया गया है। जैसे कि-पादोन पौरुषी में जब प्रतिलेखना करने लगे तो प्रथम तो पात्रों की प्रतिलेखना करे, फिर मुख-वस्त्रिका (मुंहपत्ती) की प्रतिलेखना करके गोच्छक की प्रतिलेखना करे, और फिर गोच्छक को अंगुलियों से ग्रहण करके वस्त्रों की प्रतिलेखना करे। यहां पर 'गुच्छग-गोच्छक' का अर्थ 'रजोहरण' समझना चाहिए। यद्यपि वृत्तिकार ने गोच्छक का अर्थ पात्रों के ऊपर का 'उपकरण' ऐसा किया है, परन्तु विचार करने पर यह अर्थ प्रकरण-संगत प्रतीत नहीं होता। यदि पात्रों के ऊपर के वस्त्र का ही यहां पर गोच्छक शब्द से ग्रहण करें, तो फिर उक्त गाथा के तीसरे पाद की वृत्ति में जो यह लिखा है-“प्राकृतत्वादंगुलिभिव्तो गृहीतो गोच्छको येन सोयमंगुलिलातगोच्छकः' अर्थात् 'अंगुलियों से ग्रहण किया है गोच्छक जिसने, तो फिर उसकी उपपत्ति नहीं हो सकेगी। इसलिए गोच्छक शब्द का पारिभाषिक अर्थ यहां पर 'रजोहरण' ही शास्त्रकार को अभिप्रेत है।
तात्पर्य यह है कि "पात्रों पर देने वाले वस्त्र को अंगुलियों में ग्रहण करके वस्त्रों की प्रतिलेखना करे" इसका कुछ भी अभिप्राय स्पष्ट नहीं होता। इसके अतिरिक्त यदि गोच्छक शब्द से 'रजोहरण' का ग्रहण यहां पर न किया जाए, तो फिर उक्त सूत्र में रजोहरण की प्रतिलेखना का विधान करने वाली और कौन सी गाथा है? अतः 'अंगुलियों से ग्रहण किया है गोच्छक जिसने' इस अर्थ की सार्थकता रजोहरण के साथ ही सम्बन्ध रखती है, क्योंकि रजोहरण में जो फलियां होती हैं, उनकी प्रतिलेखना अंगुलियों से ही की जा सकती है। इसलिए गोच्छक शब्द का गुरु-परम्परा से प्राप्त जो 'रजोहरण' अर्थ है, वही युक्ति-संगत प्रतीत होता है।
१. मुहपोत्तिं-मुखपत्तिकाम्-इत्यपि पाठः।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३६] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं ।