Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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प्रस्तावना
२५
इस तथ्य से मैं अवगत हूँ। तभी तो, अपने पति पर प्रभावी बन गई हूँ । मैं स्वयं केतु हूँ, मूर्धा हूँ, और प्रभावुक हूँ । मेरा पति मेरी बुद्धि के अनुरूप ग्राचरण करेगा, मेरे पुत्र शत्रुघ्न हैं, मेरी पुत्री भ्राजमान् है, मैं स्वयं विजयिनी हूँ, पतिदेव पर, मेरे श्लोक प्रभावुक हैं जिस हवि को देकर, इन्द्र सर्वोत्तम तेजस्वी बने थे, वह (सब) भी मैं कर चुकी हूँ । अब, मेरी कोई सौत नहीं रही, कोई शत्रु नहीं रहा । ' 1
यह है वैदिक नारी का सबल - स्वरूप । वह जीवन के हर केन्द्र पर, वह केन्द्र चाहे भोग का हो या योग का, युद्ध का हो या याग का; हर जगह वह अपने पति जैसी ही बलवती है, आत्मा की प्रज्ञा जैसी ।
ये हैं ॠग्वेद के कुछ अंश, जिनमें भारतीय साहित्य और संस्कृति की शाश्वत - निधियाँ समाई हुई हैं । आज की भारतीयता का यही है आदि स्रोत, जिसमें, अनगिनत कथाओं के द्वारा मानव चेतना को ऊर्ध्वरेतस् बनाने के न जाने कितने रहस्य, आज भी अनुन्मीलित हुये पड़े हैं ।
ऐतरेय ब्राह्मण का शुनःशेप प्राख्यान, शतपथ ब्राह्मण में दुष्यन्त पुत्र भरत और शकुन्तला से सम्बन्धित प्राख्यान, महाप्रलय की कथा में मनु का विवरण भी प्रसिद्ध प्राख्यानों में से है । बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य के दार्शनिक वाद-विवाद, महाप्रलय में मनु का वर्णन भी प्रसिद्ध प्राख्यानों में से है । बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य और जनक के संवाद तथा याज्ञवल्क्य और उनकी पत्नी मैत्रेयी के बीच हुई दार्शनिक चर्चाएं भारतीय संस्कृति के ऊर्जस्विल प्राख्यानों में माने / गिने जाते हैं ।
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इसी सन्दर्भ में, जब उत्तर वैदिक आख्यान साहित्य पर दृष्टिपात किया जाता है, तो रामायण और महाभारत, ये दोनों ही प्रार्ष काव्य, अपनी प्रोर ध्यान आकृष्ट कर लेते हैं ।
महाभारत का मुख्य प्रतिपाद्य, कौरवों और पाण्डवों के पारिवारिक कलह की राष्ट्रीय व्यापकता को विश्लेषित करना रहा है । यह युद्ध यद्यपि अठारह दिनों तक ही चला, किन्तु इसकी वर्णना में अठारह हजार श्लोकों का एक विशाल ग्रन्थ तैयार हो गया । सर्पदंश से, जब महाराज परीक्षित स्वर्गवासी हो जाते हैं, तब उनका पुत्र जनमेजय, सम्पूर्ण सर्पों के विनाश के लिए नागयज्ञ का अनुष्ठान करता है ।
१. उदसौ सूर्यो अगादुदयं मामको भगः । श्रहं तद् विद्वला पतिमभ्यसाक्षि विषासहिः ।। अहं केतुरहं मूर्धाहमुग्रा विवाचनी । ममेदनु ऋतु पतिः सेहानाया उपार्चरत् ॥ मम पुत्रा शत्रुहरणोऽथो मे दुहिता विराट् । उताहमस्मि संजया पत्यौ मे श्लोक उत्तमः ॥ येन्द्रो हविषा कृत्व्यभवद् द्य ुम्न्युत्तमः । इदं तदत्रि देवा श्रसपत्ना किलाभुवम् ॥
इत्यादि ।
-वही १०-१०६-१-४
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