Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
View full book text
________________
उपमिति-भव-प्रपंच कथा
कुछ लिखने से अच्छा होगा, इसके प्रयोग को समझा जाये, बल्कि, ठीक से समझा जाये । क्योंकि इसका एक-एक अक्षर जीवन्त है, शब्द-शब्द की पोर-पोर में इक्षरस जैसी मिठास भरी है । आवश्यकता है समझ की, अनुभूति की, और आनन्द लेने की चाह की।
वीरता और कर्मप्रवणता भरे इन आख्यानों का प्रस्थान, जब स्नेहिल धरातल का स्पर्श करता है, तब, एक वपुष्मान् (नर) और वपुषी (नारी) का गठबन्धन, मनु के नौ बन्धन पर होते देर नहीं लगती। इसी गठबन्धन से उभरती हैं वे श्रेष्ठ शालीनताएं, जिनमें उषा, हस्रा (हसनशील वनिता) बन कर, अपने सम्पूर्ण संवृत प्रणय को अनावृत कर देती है । उषा के इसी अनावृत प्रणय-द्वार की देहलीज पर बैठकर, वैदिक जरन्त ऋषि/मुनि-गरण ने, प्रत्यङमनस् से की गई तपस्याओं के बल पर, शाश्वत सत्य का साक्षात्कार किया है। वेदों ने इसे 'ऋत्' नाम से पुकारा है।
___इसी 'ऋत्' के आनन्द की मस्ती में झूमकर वह गा उठता है-'सृष्टि के पहिले क्या था ? न सत् था, न असत्, न धरती थी, न आकाश था ! ..."मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? ..."इत्यादि । ऋग्वेद का यह ऐसा गान है, जिससे आगे, मानव का मस्तिष्क अब तक नहीं जा पाया। और, इन ऋग्वेदीय प्रश्नों के जो समाधान अब तक दिये गये हैं, उन्हें सोम पानोचा की रङ्गमयी भाव-भङ्गिमा में, उसने स्वयं ही तलाश लिया था । और, तब, वह कह उठा था-'मैं ही मनु था । सूर्य भी मैं ही था। कक्षीवान् ऋषि मैं ही था। प्रार्जु नेय कुत्स को मैंने ही दबाया था । उशना कवि मैं ही हूँ। आर्य को पृथ्वी मैंने ही दी थी। मर्त्य के लिए वर्षा मैंने ही बनाई । कलकलायमान जलधाराओं को मैं ही बहाता हूँ। देवता तक, मेरे इशारे पर चलते आये हैं।'
यह सूक्त, पुरुष/आत्मा के परमात्मत्व को जिन संकेतो/प्रतीकों के माध्यम से सर्वशक्तिमान घोषित कर रहा है, ठीक, वैसे ही, शक्ति-स्वरूपा नारी के महिमामय गौरव का गुणगान करने में भी वैदिक ऋषि से चक नहीं हुई । ऋग्वेद की ऋचा स्वयं बोल उठती है-'सूर्य उदय हो गया है, साथ ही, मेरा भाग्य भी उदय हुआ है।
१. नासदासीनो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् । किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम् ।।
इत्यादि, -वही १०-१२६-
१७ २. अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहं कक्षीवाँ ऋषिरस्मि विप्रः ।
अहं कुत्स्नमाणु नेयं न्यूजेऽहं कविरुशना पश्यता मा ।। अहं भूमिमदादमार्यायाहं वृष्टिं दाथुषे माय । अहमपो अनयं वावशाना मम देवासो अनु केत मायन् ।। -वही ४-२६-१-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org