________________
साधना की पूर्व भूमिका | शाश्वत विचारसूत्रों को युग की भाषा और युगीनशैली में जनता को समझाया। इसलिये उन्हें जैनधर्म का आदि प्रवक्ता अर्थात् धर्म का मुख माना गया है।
कालचक्र संक्षेप में जैनधर्म की ऐतिहासिक मान्यता यह है कि-कालचक्र के दो भाग होते हैं-एक क्रमशः विकासशील (उत्सर्पिणी) काल और दूसरा क्रमशः ह्रासशील (अवसर्पिणी) काल । हम अभी अवसर्पिणी काल में चल रहे हैं। इस अर्धकालचक्र की धुरी के छह आरे होते हैं । जिसका वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है -
१ सुषम-सुषमा-अत्यन्त सुखमय काल २ सुषमा-सुख रूप काल ३ सुषमा-दुषमा-पहले सुख एवं पश्चात् दुःखमय काल ४ दुषम-सुषमा-पहले दुःख एवं पश्चात् सुखमय काल ५ दुषमा-दुखमय काल ६ दुषम-दुषमा- अत्यन्त दुखःमय काल
कालचक्र गाड़ी के चक्के-(आरे) की भांति नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे अर्थात् अवनति से उन्नति एवं उन्नति से अवनति की ओर घूमता रहता। ये छह आरे अवसर्पिणी में होते हैं और छह ही उत्सपिणी में, यों बारह आरे का एक पूर्ण कालचक्र होता है।
चौबीस तीर्थकर प्रत्येक अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी काल में २४-२४ तीर्थकर होते हैं। हमारे इस अवसर्पिणीकाल में भी २४ तीर्थकर हो गये हैं, जिन्होंने स्वयं सत्य का, आत्मा का
१ धम्माणं कासवो मुहं-काश्यप (ऋषभदेव) धर्मों का मुख है। २ तीर्थकर-जैन परिभाषा का मुख्य शब्द है। इसका अर्थ बहुत व्यापक है।
साधारण भाषा में तीर्थ कहते हैं पवित्रस्थान को, किन्तु उसका मूल अर्थ है घाट । जहां से नदी आदि को पार करने के साधन प्राप्त होते हैं, उस स्थान (घाट) को तीर्थ कहते हैं । उस घाट का कर्ता, अर्थात् घाट से यात्रियों को पार उतारने का साधन बताने वाला ही वास्तव में उस घाट-तीर्थ का अधिकारी या स्वामी या कर्ता होता है।
रूपक की भाषा में संसार एक नदी है, धर्म या सत्य उसका घाट है। तीर्थंकर वह नाविक है जो इस नदी से पार होने के लिये इन घाटों के माध्यम से हमें