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६ | तीर्थंकर महावीर 'निग्रंन्य' शब्द था। 'निर्गन्थधर्म' या 'निग्रंथप्रवचन"-महावीरकालीन शब्द है । कहीं-कहीं आर्यधर्म भी कहा गया है। भगवान महावीर से पूर्व भगवान पार्श्वनाथ के समय में इसे 'श्रमणधर्म' भी कहा जाता था। भगवान पार्श्वनाथ से पहले भगवान अरिष्टनेमि के समय में इसे 'अहंतधर्म' भी समझा जाता था। अरिष्टनेमि को अनेक स्थानों पर 'अहंत् अरिष्टनेमि' के नाम से पुकारा गया है । इतिहास के पर्दे पर नामपट और भी बदलते रहे होंगे । मध्यकालीन तीर्थंकरों के समय में किस नाम से इस परम्परा और धर्म को पुकारा गया और भगवान आदिनाथ के युग में इस परम्परा का अभिभाषक क्या नाम प्रचलित था, यह विश्वस्तरूप से हम नहीं कह सकते । किन्तु यह कह सकते हैं कि इस धर्म के, इस परम्परा और संस्कृति के मूल सिद्धान्त बीज रूप में वे ही रहे हैं जो आज हैं, और वह है आत्मवाद, आत्मकर्तृत्ववाद । इसी आत्मवाद की उर्वरभूमि पर इस धर्म-परम्परा का कल्पवृक्ष फलताफूलता रहा है। कालगणना से परे और इतिहास की आंखों से आगे-सुदूर अतीत, अनन्त अतीत, अनादि प्राक्काल में भी इन विचारों की स्फुरणा, इन विश्वासों की प्रतिध्वनि मानव मन में गूंजती रही है, मानव की आस्था इस मार्ग पर दृढ़ चरण रखती हुई अपने ध्येय को पानी रही है। इन विचारों को वायुमंडल में फैलाने वाले तीर्थकर, धर्मप्रवक्ता समय-समय पर होते रहे हैं । जैनधर्म का प्रवर्तक कौन ?
जैनधर्म की यह परम्परा जब अपने सिद्धान्त को, अपने दर्शन को, अपने विश्वास को अनादि मानती है, तो यह प्रश्न भी निरर्थक हो जाता है कि इसके आदि प्रवर्तक कौन थे ? जिस धर्म की आदि नहीं है, उसका आदि प्रवर्तक कौन हो सकता है ? कुछ लोग भगवान महावीर को जैनधर्म का संस्थापक बताते हैं, कुछ लोग आदिनाथ को । दर्शन की भाषा में दोनों ही बातें भूलभरी हैं। जैनधर्म की आदि न भगवान महावीर ने की और न भगवान ऋषभदेव ने। भगवान महावीर धर्म के प्रवक्ता थे, सत्य के संपूर्ण दृष्टा थे, इसलिये वे धर्म के सर्वोत्कृष्ट प्रवक्ता, उपदेष्टा थे। यही बात भगवान ऋषभदेव के विषय में समझनी चाहिये । हां, एक प्राचीन विचार, धर्म की धारणा, जो कालप्रवाह से विच्छिन्न हो गई थी, लुप्तप्रायः हो चुकी थी, भगवान ऋषभदेव ने अपने दिव्य ज्ञानबल से उसे पुनः उद्घाटित किया। धर्म के
१निगन्ये धम्मे, निग्गठे पावयणे । २ अरियधम्म। ३ समणधम्मे।