Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र
रावण यह सुन कर क्रोधित हुआ। उसने सेना भेज कर युद्ध प्रारंभ करवाया, घमासान युद्ध हुआ। जब सहस्रांशु की सेना दबने लगी, तो वह स्वयं युद्ध में आ कर अपना पराक्रम दिखाने लगा । सहस्रांशु की मार सहन नहीं कर सकने के कारण रावण की सेना क्षति उठा कर भाग गई । अपनी सेना की पराजय देख कर रावण स्वयं समरभूमि में आया । अब दोनों महावीरों का साक्षात् युद्ध था। दोनों चिरकाल तक लड़ते रहे । रावण अपना पूरा बल लगा कर भी जब सहस्रांशु को नहीं हरा सका, तो उसने विद्या से मोहित कर के उसे पकड़ लिया और बन्दी बना कर अपनी छावनी में लाया, फिर भी वह सहस्रांशु के बल एवं साहस की प्रशंसा करता रहा। रावण अपनी विजय का हर्ष मना ही रहा था कि आकाश-मार्ग से शतबाहु नामके चारण-मुनि आ कर वहां उपस्थित हुए । रावण ने मुनिवर को वन्दना-नमस्कार किया और विनयपूर्वक पदार्पण का कारण पूछा । मुनिराजश्री ने कहा;
" मेरा नाम शतबाहु है । मैं माहिष्मती का राजा था । वैराग्य प्राप्त होने पर मैने पुत्र को राज्य दे कर प्रव्रज्या स्वीकार की........
___मुनिराज इतना ही कह पाए कि रावण समझ गया और तत्काल बीच ही में बोल पड़ा--'क्या महाबाहु सहस्रांशु आपके पुत्र हैं ?' मुनिश्री के स्वीकार करने पर रावण ने तत्काल सहस्रांशु को बुलाया। उसने आते ही लज्जायुक्त नीचा मुँह किये मुनिवर को नमस्कार किया। रावण ने उसे सम्बोध कर कहा;--
___"सहस्रांशु ! तुम मुक्त हो, इतना ही नहीं, आज से तुम मेरे भाई हुए। तुम प्रसन्नतापूर्वक रहो और विशेष में भूमि का कुछ हिस्सा मुझ से भी लेकर सुखपूर्व राज करो।"
सहस्रांशु मुक्त हो गया, किन्तु उसने राज्य ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया और अपने पिता मुनिराज के पास प्रवजित होने की इच्छा बतलाई । उसने अपने पुत्र को राज्य का भार दिया और दीक्षा-महोत्सव होने लगा। मित्रता के कारण दीक्षोत्सव के समाचार अयोध्या नरेश 'अनरण्यजी' को पहुँचाये । समाचार सुन कर अयोध्यापति ने भी प्रबजित होने का संकल्प किया। उनके और सहस्रांशु के पहले ऐसा वचन हो गया था कि-'अपन दोनों साथ ही व्रत ग्रहण करेंगे।' तदनुसार अनरण्यजी ने अपने पुत्र दशरथ को राज्यभार दे कर प्रव्रज्या स्वीकार कर ली । रावण ने मुनियों को नमस्कार कर प्रस्थान किया ।
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