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श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र - प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना अङ्ग तथा उपाङ्गो की उत्पत्ति उत्तरकरण है । कार्मण और तैजस शरीर के स्वरूप की उत्पत्ति ही मूलकरण है। इन शरीरों के अङ्गोपाङ्ग नहीं होते हैं । अतः इनमें उत्तरकरण नहीं होता है । अथवा औदारिक शरीर का उत्तरकरण कर्णवेध आदि हैं और वैक्रिय शरीर का उत्तरवैक्रिय करना उत्तरकरण है । अथवा दाँत या केश आदि को उत्पन्न करना वैक्रिय शरीर का उत्तरकरण है । आहारक शरीर का जाना-आना आदि उत्तरकरण है । अथवा औदारिक शरीर के मूल और उत्तरकरण को इस गाथा के उत्तरार्ध द्वारा दूसरे तरीके से बताते हैं । कलंबुका का फूल आदि के समान आकारवाली द्रव्य इन्द्रियाँ मूलकरण हैं । तथा परिणाम को प्राप्त होनेवाली उन इन्द्रियों की विष और औषध के प्रयोग से शक्ति बढ़ाना उत्तरकरण है ॥६॥नि०॥
साम्प्रतमजीवाश्रितं करणमभिधातुकाम आह । संघायणे य परिसाडणा य मीसे तहेव पडिसेहो । पडसंखसगडथूणाउड्डतिरिच्छादिकरणं च ॥॥ नि०
संघातकरणम् आतानवितानीभूततन्तुसंघातेन पटस्य, परिसाटकरणं-करपत्रादिना शङ्खस्य निष्पादनम्, संघातपरिशाटकरणं-शकटादेः, तदुभयनिषेधकरणं-स्थूणादेरूतिरश्चीनाद्यापादनमिति ॥७॥नि०।।
अब नियुक्तिकार अजीव सम्बन्धी करण को बताने के लिए कहते हैं
ताना और वाना रूप में स्थित तंतुसमूह से वस्त्र बनाना संघातकरण कहलाता है । आरा वगैरह से चीरकर शंख आदि बनाना 'परिशाटकरण' कहलाता है । कुछ द्रव्यों को मिलाकर और कुछ को हटाकर गाड़ी आदि बनाना संघातपरिसाटकरण कहलाता है। तथा इन दोनों क्रियाओं का निषेध करके लकड़ी आदि को ऊपर या तिरिच्छा करना उभयनिषेधकरण कहलाता है ॥७॥नि०।।
प्रयोगकरणमभिधाय विस्रसाकरणाभिधित्सया आहखंधेसु दुप्पएसादिएसु अब्भेसु विज्जुमाईसु । णिप्फण्णगाणि दव्याणि, जाण तं वीससाकरणं ॥८॥ नि०
विस्रसाकरणं साद्यनादिभेदाद् द्विधा । तत्रानादिकं धर्माधर्माऽऽकाशानामन्योऽन्यानुवेधेनाऽवस्थानम्, अन्योऽन्यसमाधानाश्रयणाच्च सत्यप्यनादित्वे करणत्वाविरोधः, रूपिद्रव्याणां च द्वयणुकादिप्रक्रमेण भेदसंघाताभ्यां स्कन्धत्वापत्तिः सादिकं करणम्, पुद्गलद्रव्याणां च दशविधः परिणामः तद्यथा- बन्धनगतिसंस्थानभेदवर्णगन्धरसस्पर्शागुरुलघुशब्दरूप इति । तत्र बन्धः स्निग्धरूक्षत्वात्, गतिपरिणामो देशान्तरप्राप्तिलक्षणः, संस्थानपरिणामः परिमण्डलादिकः पञ्चधा । भेदपरिणामः खण्डप्रतरचूर्णकानुतटिकोत्करिकाभेदेन पञ्चधैव, खण्डादिस्वरूपप्रतिपादकं चेदं गाथाद्वयं तद्यथाखंडेहि खंडभेयं पयरब्भेयं जहन्भपडलस्स । चुण्णं चुण्णियभेयं अणुतडियं वंसवक्कलियं
॥१॥ दुंदुभिसमारोहे भेए उक्केरिया य उक्रं । वीससपओगमीसगसंघायविओगविविहगमो
રા ___ वर्णपरिणामः पञ्चानां श्वेतादीनां वर्णानां परिणतिस्तद्वयादिसंयोगपरिणतिश्च, एतत्स्वरूपं च गाथाभ्योऽवसेयं ताश्चेमाः
1. (कार्मण शरीर) कर्म के द्वारा बने हुए शरीर को कार्मण शरीर कहते हैं । बैर फल से भरे हुए घड़े के समान यह शरीर कर्मों से भरा हुआ होता
है और जैसे अंकुर उत्पन्न करने में बीज समर्थ होता है, उसी तरह समस्त कर्मों को उत्पन्न करने में यह समर्थ होता है । 2. (तैजस शरीर) जो तेज गुणवाली द्रव्यवर्गणा से उत्पन्न किया जाता है, वह तैजस शरीर है । तेजोलब्धिधारी पुरुष, क्रोधित होकर किसी को जलाने के लिए ___ यह शरीर प्रकट करता है । जैसे गोशालक ने तैजस शरीर प्रकट किया था । अथवा खाये हुए अन्न को पचानेवाला शरीर तैजस शरीर है । 3. विधिविपर्ययेऽन्यथाभावः विविधा गतिर्वा चू. । 4. अचित्ता काचिद्विद्युदिति लक्ष्यतेऽनेन । 5. खण्डानां खण्डभेदः प्रतरभेदो यथाऽभ्रपटलस्य ।
चौर्णधूर्णितभेदोऽनुतटिका वंशवल्कलिका ।।१।। शुष्कतडागे समारोहे भेदे उत्करिका चोत्कीर्णः । विश्रसाप्रयोगमिश्रसंघातवियोगतोविविधो गमः ।।२।। 6. बुंदंसीति काष्ठ घटनो बुन्द इति वि. प. ।