Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 01
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 23
________________ श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र - प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना साम्प्रतं करणव्याचिख्यासया नामस्थापने मुक्त्वा 'द्रव्यादिकरणनिक्षेपार्थं नियुक्तिकृदाहदव्यं पओगयीसस, पओगसा मूल उत्तरे चेय । उत्तरकरणं यंजण अत्थो उ उयक्खरो सब्यो ॥५॥ नि० ___ 'द्रव्ये' द्रव्यविषये करणं चिन्त्यते, तद्यथा- द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्यनिमित्तं वा करणम्-अनुष्ठानं द्रव्यकरणं, तत्पुनर्द्विधा-प्रयोगकरणं विस्रसाकरणं च, तत्र प्रयोगकरणं, पुरुषादिव्यापारनिष्पाद्यं, तदपि द्विविधम्-मूलकरणमुत्तरकरणं च, तत्रोत्तरकरणं गाथापश्चार्द्धन दर्शयति- उत्तरत्र करणमुत्तरकरणं कर्णवेधादि, यदि वा तन्मूलकरणं घटादिकं येनोपस्करेण दण्डचक्रादिनाऽभिव्यज्यते स्वरूपतः प्रकाश्यते तदुत्तरकरणं, कर्तुरुपकारकः सर्वोऽप्युपस्कारार्थ इत्यर्थः।।५।।नि०॥ अब नियुक्तिकार, करण की व्याख्या करने के लिए नाम और स्थापना को छोड़कर द्रव्य आदि करण के निक्षेपार्थ कहते हैं कि अब द्रव्य के विषय में करण का विचार किया जाता है । द्रव्य का अथवा द्रव्य के द्वारा अथवा द्रव्य के निमित्त जो अनुष्ठान किया जाता है, उसे 'द्रव्यकरण' कहते हैं । वह दो प्रकार का है (१) प्रयोगकरण और आदि के व्यापार से जो उत्पन्न किया जाता है, उसे 'प्रयोगकरण' कहते हैं । वह भी दो प्रकार का है (१) मूलकरण और (२) उत्तरकरण । इनमें उत्तरकरण गाथा के उत्तरार्ध द्वारा बताया जाता है। जो उत्तरकाल में किया जाता है, उसे 'उत्तरकरण' कहते हैं । जैसे कर्णवेध आदि । अथवा मूलकरण घट आदि दण्डचक्र आदि, जिस सामग्री के द्वारा अपने स्वरूप में प्रकट किया जाता है उसे 'उत्तरकरण' कहते हैं । कर्ता के उपकारक सभी साधन 'उत्तरकरण' कहलाते हैं ।।५।।नि०।। पुनरपि प्रपञ्चतो मूलोत्तरकरणे प्रतिपादयितुमाहमूलकरणं सरीराणि पंच तिसु कण्णांधमादीयं । दव्यिंदियाणि परिणामियाणि विसओसहादीहिं ॥६॥ नि० मूलकरणमौदारिकादीनि शरीराणि पञ्च, तत्र चौदारिकवैक्रियाहारकेषु त्रिषूत्तरकरणं कर्णस्कन्धादिकं विद्यते, तथाहि "5सीसमुरोयरपिट्ठी दो बाहू उरुया य अटुंग" त्ति । त्रयाणामप्येतन्निष्पत्तिर्मूलकरणम्, कर्णस्कन्धाद्यङ्गोपाङ्गनिष्पत्तिस्तूत्तरकरणं, कार्मणतैजसयोस्तु स्वरूपनिष्पत्तिरेव मूलकरणम्, अंगोपाङ्गाभावान्नोत्तरकरणम्। यदि वा औदारिकस्य कर्णवेधादिकमुत्तरकरणं, वैक्रियस्य तूत्तरकरणमुत्तरवैक्रियं, दन्तकेशादिनिष्पादनरूपं वा, आहारकस्य तु गमनाद्युत्तरकरणम्, यदि वौदारिकस्य मूलोत्तरकरणे गाथापश्चार्धेन प्रकारान्तरेण दर्शयति-द्रव्येन्द्रियाणि, कलम्बुकापुष्पाद्याकृतीनि मूलकरणं, तेषामेव परिणामिनां विषौषधादिभिः पाटवाद्यापादनमुत्तरकरणमिति ॥६॥नि०॥ फिर भी नियुक्तिकार मूलकरण और उत्तरकरण को विस्तार के साथ बताने के लिए कहते हैं औदारिक आदि पांच शरीर मूलकरण कहलाते हैं । इनमें औदारिक, वैक्रिय', आहारक, इन तीन शरीरों में कान और स्कन्ध आदि 'उत्तरकरण' हैं, क्योंकि शिर, छाती, पेट, पीठ, दो भुजायें और दो जंघायें ये आठ अङ्ग हैं। औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीन शरीरों की उत्पत्ति मूलकरण कहलाता है। कान और स्कन्ध आदि 1. सण्णाकरणं नोसण्णाकरणं च कडकरणं अद्धाकरणं पेलुकरणादि चू. । 2. उपकारसमर्थो भवति संस्करणादीत्यर्थः चू. । 3. कण्णवेहमाईयमिति टीकाकृद्हार्दम् । 4. कालेन संघातनादिचिन्ता विस्तरेण चूर्णो उ.बृ.वत् । 5. शीर्षमुरउदरं पृष्ठिः द्वौ बाहू उरू चाष्टौ अङ्गानि। 6. (औदारिक शरीर) जो सब शरीरों में प्रधान है, वह औदारिक शरीर है । तीर्थंकर, की अपेक्षा से यह शरीर प्रधान माना जाता है । अथवा साररहित स्थूल द्रव्यों से बना हुआ अर्थात् जो मांस, हड्डी और चर्बी आदि से बना हुआ है, वह शरीर औदारिक शरीर कहलाता है । 7. (वैक्रिय शरीर) विकार को विक्रिया कहते हैं, उसके द्वारा बने हुए शरीर को वैक्रिय शरीर कहते हैं । यहाँ नाना प्रकार का बहुत शरीर बनाना विक्रिया है, उसके द्वारा जो अनेक आश्चर्यजनक, विविध गुण और ऋद्धि से युक्त शरीर उत्पन्न होता है, उसे वैक्रिय शरीर कहते है । 8. (आहारक शरीर) जो शरीर, अत्यंत शुभ, शुक्ल और विशुद्ध द्रव्यवर्गणा के द्वारा किसी विशेष प्रयोजन के लिए अन्तर्मुहूर्त काल तक रहनेवाला बनाया जाता है, उसे आहारक शरीर कहते हैं ।

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