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श्रीसूत्रकृताङ्गसूत्र - प्रथम श्रुतस्कंध की प्रस्तावना निक्षेप बताया जाता है । निक्षेप तीन प्रकार का है। जैसे कि- ओघनिष्पन्न, नामनिष्पन्न, सूत्रालापकनिष्पन्न । ओघनिष्पन्ननिक्षेप में यह समस्त अंग है । नामनिष्पन्न निक्षेप में इस शास्त्र का सूत्रकृत यह नाम है ॥१॥नि०।।
तत्र तत्त्वभेदपर्यायैर्व्याख्येत्यतः पर्यायप्रदर्शनार्थं नियुक्तिकृदाहसूयगडं अंगाणं बितियं तस्स य इमाणि नामाणि । सूतगडं सुतकडं सुयगडं चेव गोण्णाइं
॥२॥ निक सूत्रकृतमित्येतदङ्गानां द्वितीयं तस्य चामून्येकार्थिकानि-तद्यथा-सूतम् उत्पन्नमर्थरूपतया तीर्थकृद्भ्यस्ततः कृतं ग्रन्थरचनया गणधरैरिति । तथा सूत्रकृतमिति सूत्रानुसारेण तत्त्वावबोधः क्रियतेऽस्मिन्निति, तथा सूचाकृतमिति, स्वपरसमयार्थसूचनं सूचा साऽस्मिन् कृतेति, एतानि चास्य गुणनिष्पन्नानि नामानीति ॥२॥नि०॥
स्वरूप, भेद और पर्याय के द्वारा वस्तु की व्याख्या की जाती है । अतः नियुक्तिकार सूत्रकृत के पर्यायों को बताने के लिए कहते हैं कि “सूयगडं" इत्यादि ।
'सुत्रकृताङ्ग' सूत्र अङ्गों में दूसरा है । इसके एकार्थक नाम ये हैं । जैसे कि- जो, तीर्थंकरों के द्वारा अर्थ रूप में उत्पन्न होकर गणधरों के द्वारा ग्रन्थ रूप में रचा गया है, उसे 'सूतकृत' कहते हैं । (यह इसका पहला नाम है)। सूत्र के अनुसार जिसमें तत्त्व अर्थ का बोध किया जाता है । उसे 'सूत्रकृत कहते हैं । (यह इसका दूसरा नाम है ।) अपने तथा दूसरों के सिद्धान्तों को सूचित करना 'सूचा' कहलाता है । वह इस शास्त्र में किया गया है, इसलिए इसका नाम सूचाकृत' है । ये तीन इसके गुणनिष्पन्न नाम हैं ॥२॥नि०।।
साम्प्रतं सूत्रकृतपदयोनिक्षेपार्थमाहदव्यं तु पोण्डयादी भावे सूतमिह सूयगं नाणं । सण्णासंगहविते जातिणिबद्धे य कत्थादी ॥३॥ नि०
नामस्थापनेऽनादृत्य द्रव्यसूत्रं दर्शयति 'पोण्डयाइ'त्ति । पोण्डगं च वनीफलादुत्पन्नं कार्पासिकम् । आदि ग्रहणादण्डजवालजादेर्ग्रहणम् । भावसूत्रं तु, इह' अस्मिन्नधिकारे सूचकं ज्ञानं श्रुतज्ञानमित्यर्थः । तस्यैव स्वपरार्थसूचकत्वादिति। तच्च श्रतज्ञानसत्रं चतर्भा भवति. तद्यथा संज्ञासत्रं. संग्रहसनं. वत्तनिबद्धं जातिनिबद्धं च । तत्र संज्ञासत्रं यत स्वसंकेतपूर्वकं निबद्धं, तद्यथा "7जे छए सागारियं न सेवे, सव्वामगंधं परिण्णाय णिरामगंधो परिव्वए" इत्यादि । तथा लोकेऽपि पुद्गलाः संस्कारः क्षेत्रज्ञा इत्यादि । संग्रहसूत्रं तु यत्प्रभूतार्थसंग्राहकं, तद्यथा द्रव्यमित्याकारिते समस्तधर्माधर्मादिद्रव्यसंग्रह इति । यदि वा उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति । वृत्तनिबद्धसूत्रं पुनर्यदनेकप्रकारया वृत्तजात्या निबद्धं तद्यथा "बुज्झिज्जत्ति तिउट्टिज्जे", त्यादि10 । जातिनिबद्धं तु चतुर्धा । तद्यथा- कथनीयं कथ्यमुत्तराध्ययनज्ञाताधर्मकथादि । पूर्वर्षिचरितकथानकप्रायत्वात्तस्य । तथा गद्यं ब्रह्मचर्याध्ययनादि, तथा पद्यं छन्दोनिबद्धम्, तथा गेयं यत् स्वरसंचारेण गीतिकाप्रायनिबद्धं, तद्यथा-कापिलीयमध्ययनम् । "अधुवे असासयंमि संसारंमि दुक्खपउराए" 11इत्यादि ॥३॥नि०॥
1. नाम आदि के द्वारा शास्त्र की व्याख्या करना 'निक्षेप' कहलाता है । 2. सामान्य को 'ओघ' कहते हैं । वह अध्ययन आदि है । उस अध्ययन आदि से जो निष्पन्न है, उसे ओघनिष्पन्न कहते हैं । यह समस्त अंग, ओघनिष्पन्न
है, क्योंकि अनेक अध्ययनों के द्वारा इसकी उत्पत्ति हुई है । 3. गुणानुसारी नाम के द्वारा जिसकी उत्पत्ति हुई है, उसे नामनिष्पन्न कहते हैं । जैसे इस शास्त्र का गुणानुसारी नाम 'सूत्रकृत है। 4. सूत्रों के उच्चारणविधि को सूत्रालापक कहते हैं, उससे जो निष्पन्न है, उसे सूत्रालापकनिष्पन्न कहते हैं । 5. सूयागडमिति वाच्ये दीर्घहस्वाविति बन्धानुलोमेन ह्रस्वता, तथा च न पर्यायैक्यं । 6. भावसूत्रेण सूत्रानुसारेण निर्वाणपथो गम्यते चूर्णि । 7. यश्छेकः स सागारिक
(मैथुनं) न सेवेत, सर्वमामगन्धं परिज्ञाय निरामगन्धः परिव्रजेत् (आमं विशोधि गन्धमविशोधि) । 8. उभए जं ससमए परसमए य चू. । 9. बुध्येतेति त्रोटयेत । 10. वित्तबद्धं सिलोगादिबद्धं वा चू. । 11. अध्रुवेऽशाचते दुःखप्रचुरतायाम् (दुःख प्रचुरे) ।